लेकिन जाएगा कहाँ - उसकी वधू
तो है? वह जानेगी उसका पति कहाँ है, उसे जानना होगा - जयमती
अहोम राज्य की अद्वितीय सुन्दरी -- जनता की लाडली -- होने दो -
चूलिक-फा राजा है, वह शत्रुविहीन निष्कण्टक राज्य करना चाहता
है - जयमती को पति का पता देना होगा -- उसे पकड़वाना होगा --
चूलिक-फा उसका प्राण नहीं चाहता, केवल एक कान चाहता है, या एक
छिगुनी -- चाहें बायें हाथ की भी छिगुनी - क्यों नहीं बतायेगी
जयमती? वह प्रजा है; प्रजा की हड्डी-बोटी पर भी राजा का अधिकार
है -
बहुत ही छोटे एक क्षण के लिए
चाँद झलक गया। सागर ने देखा, सामने खुला, आकारहीन, दिशाहीन,
मानातीत निरा विस्तार; जिसमें नरसलों की सायँ-सायँ, हवा का
असंख्य कराहटों के साथ रोना, उसे घेरे हुए मेहराबों की क्रुद्ध
साँपों की-सी फुँफकार चाँद फिर छिप गया और पानी की नयी बौछार
के साथ सागर ने आँखें बन्द कर लीं असंख्य सहमी हुई कराहें और
पानी की मार ऐसे जैसे नंगे चूतड़ों पर स-दिया प्रान्त के लचीले
बेतों की सड़ाक-सड़ाक। स-दिया अर्थात शव-दिया? कब किसका शव
वहाँ मिलता था याद नहीं आता, पर था शव जरूर -- किसका शव नहीं,
जयमती का नहीं। वह तो -- वह तो उन पाँच लाख बेबस देखने वालों
के सामने एक लकड़ी के मंचपर खड़ी है, अपनी ही अस्पृश्य लज्जा
में, अभेद्य मौन में, अटूट संकल्प और दुर्दमनीय स्पर्द्धा में
लिपटी हुई; सात दिन की भूखी-प्यासी, घाम और रक्त की कीच से
लथपथ, लेकिन शेषनाग के माथे में ठुकी हुई कोली की भाँति अडिग,
आकाश को छूने वाली प्रात:शिखा-सी निष्कम्प लेकिन यह क्या? सागर
तिलमिला कर उठ बैठा। मानों अँधेरे में भुतही-सी दीख पड़नेवाली
वह लाखों की भीड़ भी काँप कर फिर जड़ हो गई -- जयमती के गले से
एक बड़ी तीखी करूण चीख निकल कर भारी वायु-मण्डल को भेद गई --
जैसे किसी थुलथुल कछुए के पेट को मछेरे की बर्छी सागर ने बड़े
जोर से मुठि्ठयाँ भींच ली क्या जयमती टूट गई? नहीं, यह नहीं हो
सकता, नरसलों की तरह बिना रीढ़ के गिरती-पड़ती इस लाख जनता के
बीच वही तो देवदारू-सी तनी खड़ी है, मानवता की ज्योति:शलाका
सहसा उसके पीछे से एक दृप्त, रूखी, अवज्ञा-भरी हँसी से पीतल की
तरह झनझनाते स्वर ने कहा, ''मैं राजा हूँ -''
सागर ने चौक कर मुड़ कर देखा
--सुनहला, रेशमी वस्त्र, रेशमी उत्तरीय, सोने की कंठी और
बड़े-बड़े अनगढ़ पन्नों की माला पहने भी अधनंगा एक व्यक्ति
उसकी और ऐसी दया-भरी अवज्ञा से देख रहा था, जैसे कोई राह
किनारे के कृमि-कीट को देखे। उसका सुगठित शरीर, छेनी से तराशी
हुई चिकनी मांस-पेशियाँ, दर्प-स्फीत नासाएँ, तेल से चमक रही
थीं, आँखों की कोर में लाली थी जो अपनी अलग अलग बात कहती थी --
मैं मद भी हो सकती हूँ, गर्व भी, विलास-लोलुपता भी और निरी
नृशंस नर-रक्त-पिपासा भी सागर टुकुर-टुकुत देखता रह गया। न उड़
सका, न हिल सका। वह व्यक्ति फिर बोला, ''जयमती? हुँ: , जयमती -
अँगूठे और तर्जनी की चुटकी बना कर उसने झटक दी, मानो हाथ का
मैल कोई मसल कर फेंक दे। बिना क्रिया के भी वाक्य सार्थक होता
है, कम-से-कम राजा का वाक्य सागर ने कहना चाहा, ''नृशंस-
राक्षस- '' लेकिन उसकी आँखों की लाली में एक बाध्य करनेवाली
प्रेरणा थी, सागर ने उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए देखा,
जयमती सचमुच लड़खड़ा गई थी। चीखने के बाद उसका शरीर ढीला होकर
लटक गया था, कोड़ों की मार रुक गई थी, जनता साँस रोके सुन रही
थी सागर ने भी साँस रोक ली। तब मानो स्तब्धता में उसे अधिक
स्पष्ट दीखने लगा, जयमती के सामने एक नगा बाँका खड़ा था, सिर
पर कलगी, गले में लकड़ी के मुँड़ों की माला, मुँह पर रंग की
व्याघ्रोपम रेखाएँ, कमर के घास की चटाई की कौपीन, हाथ में
बर्छी। और वह जयमती से कुछ कह रहा था।
सागर के पीछे एक दर्प-स्फीत
स्वर फिर बोला, ''चूलिक-फा के विधान में हस्तक्षेप करनेवाला यह
ढीठ नगा कौन है? पर सहसा उस नंगे व्यक्ति का स्वर सुनाई पड़ने
लगा और सब चुप हो गए।
''जयमती, तुम्हारा साहस धन्य है। जनता तुम्हें देवी मानती है।
पर और अपमान क्यों सहो? राजा का बल अपार है -- कुमार का पता
बता दो और मुक्ति पाओ -''
अब की बार रानी चीखी नहीं। शिथिल-शरीर, फिर एक बार कराह कर रह
गई।
नगा वीर फिर बोला, ''चुलिक-फा
केवल अपनी रक्षा चाहता है, कुमार के प्राण नहीं। एक कान दे
देने में क्या है? या छिगुनी? उतना तो भी खेल में या
मल्ल-युद्ध में भी जा सकता है।''
रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''चूलिक-फा डरपोक है, डर नृशंस होता है। पर तुम कुमार का पता
बता कर अपनी मान-रक्षा और पति की प्राण-रक्षा कर सकती हो।''
सागर ने पीछे सुना, ''हुँ:,'' और मुड़ कर देखा, उस व्यक्ति के
चेहरे पर एक क्रूर कुटिल मुसकान खेल रही है।
सागर ने उद्धत होकर कहा, ''हुँ: क्या?''
वह व्यक्ति तन कर खड़ा हो गया, थोड़ी देर सागर की ओर देखता
रहा, मानो सोच रहा हो, इसे क्या वह उत्तर दे? फिर और भी कुटिल
ओठों के बीच से बोला, ''मैं चूलिक-फा, डरपोक! अभी जानेगा। पर
अभी तो मेरे काम की कह रहा है --''
नगा वीर जयमती के और निकट जाकर धीरे-धीरे कुछ कहने लगा।
चूलिक फा ने भौं सिकोड़ कर कहा क्या फुसफुसा रहा है?
सागर ने आगे झुक कर सुन लिया।
''जयमती, कुमार तो अपने मित्र नगा सरदार के पास सुरक्षित है।
चूलिक तो उसे तो उसे पकड़ ही नहीं सकता, तुम पता बता कर अपनी
रक्षा क्यों न करो? देखो, तुम्हारी कोमल देह --''
आवेश में सागर खड़ा हो गया,
क्योंकि उस कोमल देह में एक बिजली-सी दौड़ गई और उसने तन कर,
सहसा नगा वीर की ओर उन्मुख होकर कहा, ''कायर, नपुंसक तुम नगा
कैसे हुए? कुमार तो अमर है, कीड़ा चूलिक-फा उन्हें कैसे छुएगा?
मगर क्या लोग कहेंगे, कुमार की रानी जयमती ने देह की यन्त्रणा
से घबड़ा कर उसका पता बता दिया? हट जाओ, अपना कलंकी मुँह मेरे
सामने से दूर करो - ''
जनता में तीव्र सिहरन दौड़
गई। नरसल बड़ी जोर से काँप गए; गँदले पानी में एक हलचल उठी
जिसके लहराते गोल वृत्त फैले कि फैलते ही गए; हवा फँुककार उठी,
बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। मेघ और काले हो गए -- यह निरी रात
है कि महानिशा, कि यन्त्रणा की रात -- सातवीं रात, कि नवीं
रात? और जयमती क्या अब बोल भी सकती है, क्या यह उसके दृढ़
संकल्प का मौन है, कि अशक्तता का? और यह वही भीड़ है कि नयी
भीड़, वही नगा वीर, कि दूसरा कोई, कि भीड़ में कई नगे बिखरे है
चूलिक-फा ने कटु स्वर में
कहा, ''फिर आया वह नंगा?''
नगा वीर ने पुकार कर कहा, ''जयमती - रानी जयमती - ''
रानी हिली-डुली नहीं।
वीर फिर बोला, ''रानी - मैं उसी नगा सरदार का दूत हूँ, जिसके
यहाँ कुमार ने शरण ली है। मेरी बात सुनो।''
रानी का शरीर काँप गया। वह एक टक आँखों से उसे देखने लगी, कुछ
बोली नहीं। सकी नहीं।
''तुम कुमार का पता दे दो। सरदार उसकी रक्षा करेंगे। वह
सुरक्षित है।''
रानी की आँखों में कुछ घना हो आया। बड़े कष्ट से उसने कहा,
''नीच - ''एक बार उसने ओठों पर जीभ फेरी, कुछ और बोलना चाहा,
पर सकी नहीं।
चूलिक-फा ने वहीं से आदेश दिया, ''पानी दो इसे -- बोलने दो -
''
किसी ने रानी के ओठों की ओर
पानी बढ़ाया। वह थोड़ी देर मिट्टी के कसोरे की ओर वितृष्ण
दृष्टि से देखती रही, फिर उसने आँख भर कर नगा युवक की ओर देखा,
फिर एक घूँट पी लिया। तभी चूलिक-फा ने कहा, ''बस, एक-एक घूँट,
अधिक नहीं - ''
रानी ने एक बार दृष्टि चारों ओर लाख-लाख जनता की ओर दौड़ाई।
फिर आँखें नगा युवक पर गड़ा कर बोली, ''कुमार सुरक्षित है। और
कुमार की यह लाख-लाख प्रजा -- जो उनके लिए आँखें बिछाये है --
एक नेता के लिए, जिसके पीछे चल कर आततायी का राज्य उलट दे --
जो एक आदर्श माँगती है -- मैं उसकी आशा तोड़ दूँ -- उसे हरा
दूँ -- कुमार को हरा दूँ?''
वह लक्षण भर चुप हुई। चूलिक-फा ने एक बार आँख दौड़ा कर सारी
भीड़ को देख लिया। उसकी आँख कहीं टिकी नहीं मानो उस भीड़ में
उसे टिकने लायक कुछ नहीं मिला, जैसे रेंगते कीड़ों पर दीठ नहीं
जमती।
नगा ने कहा, ''प्रजा तो राजा
चूलिक-फा की है न?''
रानी ने फिर उसे स्थिर दृष्टि से देखा। फिर धीरे-धीरे कहा,
''चूलिक-'' और फिर कुछ ऐसे भाव से अधूरा छोड़ दिया कि उसके
उच्चारण से मुँह दूषित हो जाएगा। फिर कहा, ''यह प्रजा कुमार की
है -- जा कर नगा सरदार से कहना कि कुमार -- वह फिर रुक गई। पर
तू -- तू नगा नहीं, तू तो उस -- उस गिद्ध की प्रजा है -- जा
उसके गन्दे पंजे को चाट -
रानी की आँखें चूलिक-फा की ओर
मुड़ी पर उसकी दीठ ने उसे छुआ नहीं, जैसे किसी गिलगिली चीज की
और आँखें चढ़ाने में भी घिन आती है नगा ने मुसकरा कर कहा,
''कहाँ है मेरा राजा - '' चूलिक-फा ने वहीं से पुकार कर कहा,
''मैं यह हूँ -- अहोम राज्य का एकछत्र शासक - '' नगा युवक सहसा
उसके पास चला आया।
सागर ने देखा, भीड़ का रंग
बदल गया है। वैसा ही अन्धकार, वैसा ही अथाह प्रसार, पर उसमें
जैसे कहीं व्यवस्था, भीड़ में जगह-जगह नगा दर्शक बिखरे, पर
बिखरेपन में भी एक माप नगा ने पास से कहा, ''मेरे राजा - ''
एकाएक बड़े जोर की गड़गड़ाहट
हुई। सागर खड़ा हो गया उसने आँखें फाड़ कर देखा, नगा युवक सहसा
बर्छी के सहारे कई-एक सीढ़ियाँ फाँद कर चूलिक-फा के पास पहुँच
गया है, बर्छी सीढ़ी की इँटों की दरार में फँसी रह गई है, पर
नगा चूलिक-फा को धक्के से गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ गया है;
उधर जनता में एक बिजली कड़क गई है, ''कुमार की जय - ''किसीने
फाँद कर मंच पर चढ़ कर कोड़ा लिए जल्लादों को गिरा दिया है,
किसीने अपना-अंग-वस्त्र जयमती पर डाला है और कोई उसके बन्धन की
रस्सी टटोल रहा है।
पर चूलिक-फा और नगा सागर
मन्त्र-मुग्ध-सा खड़ा था; उसकी दीठ चूलिक-फा पर जमी थी सहसा
उसने देखा, नगा तो निहत्था है, पर नीचे पड़े चूलिक-फा के हाथ
में एक चन्द्रकार डाओ है जो वह नगा के कान के पीछे साध रहा है
-- नगा को ध्यान नहीं है; मगर चूलिक-फा की आँखों में पहचान है
कि नगा और कोई नहीं, स्वयं कुमार है; और वह डाओ साध रहा है
कुमार छाती पर है, पर मर जाएगा या क्षत भी हो गया तो चूलिक-फा
ही मर गया तो भी अगर कुमार क्षत हो गया तो -- सागर उछला। वह
चूलिक-फा का हाथ पकड़ लेगा -- डाओ छीन लेगा।
पर वह असावधानी से उछला था,
उसका कीचड़-सना बूट सीढ़ी पर फिसल गया और वह लुढ़कता-पुढ़कता
नीचे जा गिरा।
अब? चूलिक-फा का हाथ सध गया है, डाओ पर उसकी पकड़ कड़ी हो गई
है, अब --
लेफ्टिनेन्ट सागर ने वहीं
पड़े-पड़े कमर से रिवाल्वर खींचा और शिस्त लेकर दाग दिया धाँय
-
धुआँ हो गया। हटेगा तो दीखेगा - पर धुआँ हटता क्यों नहीं? आग
लग गई -- रंग-महल जल रहा है, लपटें इधर-उधर दौड़ रही है। क्या
चूलिक-फा जल गया? -- और कुमार -- क्या यह कुमार की जयध्वनि है?
कि जयमती की यह अद्भुत, रोमांचकारी गँूज, जिसमें मानो वह डूबा
जा रहा है, डूबा जा रहा है -- नहीं, उसे सँभलना होगा।
लेफ्टिनेन्ट सागर सहसा जाग कर
उठ बैठा। एक बार हक्का-बक्का होकर चारों ओर देखा, फिर उसकी
बिखरी चेतना केन्द्रित हो गई। दूर से दो ट्रकों की दो जोड़ी
बत्तियाँ पूरे प्रकाश से जगमगा रही थीं, और एक से सर्च-लाइट
इधर-उधर भटकती हुई रंग-महल की सीढ़ियों को क्षण-क्षण ऐसे चमका
देती थी मानो बादलों से पृथ्वी तक किसी वज्रदेवता के उतारने का
मार्ग खुल जाता है। दोनों ट्रकों के हार्न पूरे जोर से बजाये
जा रहे थे।
बौछार से भीगा हुआ बदन झाड़
कर लेफ्टिनेन्ट सागर उठ खड़ा हुआ। क्या वह रंग-महल की सीढ़ियों
पर सो गया था? एक बार आँखें दौड़ा कर उसने मेहराब को देखा,
चाँद निकल आया था, मेहराब की इँटें दीख रही थीं। फिर धीरे-धीरे
उतरने लगा।
नीचे से आवाज आई, ''सा'ब, दूसरा गाड़ी आ गया, टो कर के ले
जाएगा - ''
सागर ने मुँह उठा कर सामने
देखा, और देखता रह गया। दूर चौरस ताल चमक रहा था, जिसके किनारे
पर मन्दिर भागते बादलों के बीच में काँपता हुआ, मानो शुभ्र
चाँदनी से ढका हुआ हिंडोला -- क्या एक रानी के अभिमान का
प्रतीक, जिसने राजा को बचाया, या एक नारी के साहस का, जिसने
पुरूष का पथ-प्रदर्शन किया; या कि मानव मात्र की अदम्य
स्वातंत्र प्रेरणा का अभीत, अज्ञेय, जय-दोल?
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