शिव-दोल, रूद्र-दोल, जय-दोल
-- सागर-तट के मन्दिर को दोल कहना कैसी सुन्दर कवि - कल्पना
है। सचमुच जब ताल के जल में, मन्द-मन्द हवा से सिहरती चाँदनी
में, मन्दिर की कुहासे-सी परछाई डोलती होगी, तब मन्दिर सचमुच
सुन्दर हिंडोले-सा दीखता होगा इसी उत्साह को लिए वह बढ़ता जा
रहा था -- तीस-पैंतीस मील का क्या है -- घण्टेभर की बात है।
लेकिन सात-एक मील बाकी थे कि
गाड़ी कच्ची सड़क के कीचड़ में फँस गई। पहले तो स्टीयरिंग ऐसा
मक्खन-सा नरम चला मानो गाड़ी नहीं, नाव की पतवार हो और नाव
बड़े से भँवर में हचकोले खाती झूम रही हो; फिर लेफ्टिनेंट के
सँभालते-सँभालते गाड़ी धीमी हो कर रूक गई, यद्यपि पहियों के
घूमते रह कर कीचड़ उछालने की आवाज आती रही।
इसके लिए साधारणत: तैयार होकर
ही ट्रक चलते थे। तुरन्त बेलचा निकाला गया, कीचड़ साफ करने की
कोशिश हुई लेकिन कीचड़ गहरा और पतला था, बेलचे का नहीं, पम्प
का काम था। फिर टायरों पर लोहे की जंजीरें चढ़ाई गईं। पहिये
घूमने पर कहीं पकड़ने को कुछ मिले तो गाड़ी आगे ठिले -- मगर
चलने की कोशिश पर लीक गहरी कटती गई और ट्रक धँसता गया, यहाँ तक
कि नीचे का गीयर-बक्स भी कीचड़ में डूबने को हो गया मानों इतना
काफी न हो; तभी इंजन ने दो-चार बार फट्-फट्-फट् का शब्द किया
और चुप हो गया -- फिर स्टार्ट ही न हुआ।
अँधेरे में गुरूंग का मुँह
दीखता था और लेफ्टिनेंट ने मन-ही-मन सन्तोष किया कि गुरूंग को
उसका मुँह भी नहीं दीखता होगा गुरूंग गोरखा था और फौजी गोरखों
की भाषा कम-से-कम भावना की दृष्टि से गूँगी होती है मगर आँखें
या चेहरे की झुर्रियाँ सब समय गूँगी नहीं होतीं और इस समय अगर
उनमें लेफ्टिनेंट सा'ब की भावुक उतावली पर विनोद का आभास भी
दीख गया, तो दोनों में मूक वैमनस्य की एक दीवार खड़ी हो जाएगी।
तभी सागर ने दस्तानें फेंक कर
कहा, ''हम कुछ बन्दोबस्त करेगा'' और फिच्च-फिच्च कीचड़ में
जमा-जमा कर बूट रखता हुआ आगे चढ़ चला।''
कहने को तो उसने कह दिया, पर बन्दोबस्त वह क्या करेगा रात में?
बादल फिर घिरने लगे; शिवसागर सात मील है तो दूसरे सागर भी
तीन-चार मील तो होंगे और क्या जाने कोई बस्ती भी होगी कि नहीं;
और जयसागर तो बड़े बीहड़ मैदान के बीच में हैं उसने पढ़ा था कि
उस मैदान के बीच में ही रानी जयमती को यन्त्रणा दी गई थी कि वह
अपने पति का पता बता दे। पाँच लाख आदमी उसे देखने इकठ्ठे हुए
थे और कई दिनों तक रानी को सारी जनता के सामने सताया तथा
अपमानित किया गया था।
एक बात हो सकती है कि पैदाल
ही शिवसागर चला जाए। पर उस कीचड़ में फिच्च-फिच्च सात मील -
उसी में भोर हो जायेगा, फिर तुरंत गाड़ी के लिए वापस जाना
पड़ेगा फिर नहीं, वह बेकार है। दूसरी सूरत रात गाड़ी में ही
सोया जा सकता है। पर गुरूंग? वह भूखा ही होगा कच्ची रसद तो
होगी पर बनाएगा कैसे? सागर ने तो गहरा नाश्ता किया था, उसके
पास बिस्कुट वगैरह भी है पर अफसरी का बड़ा कायदा है कि अपने
मातहत को कम-से-कम खाना तो ठीक खिलाये शायद आस-पास कोई गाँव हो
--
कीचड़ में कुछ पता न लगता था
कि सड़क कितनी है और अगल-बगल का मैदान कितना। पहले तो दो-चार
पेड़ भी किनारे-किनारे थे, पर अब वह भी नहीं, दोनों ओर सपाट
सूना मैदान था और दूर के पेड़ भी ऐसे धुँधले हो गए थे कि भ्रम
हो, कहीं चश्मे पर नमी की ही करामात तो नहीं है अब रास्ता
जानने का एक ही तरीका था, जहाँ कीचड़ कम गहरा हो वही सड़क;
इधर-उधर हटते ही पिंडलियाँ तक पानी में डूब जाती थीं और तब वह
फिर धीरे-धीरे पैर से टटोल कर मध्य में आ जाता था।
यह क्या है? हाँ, पुल-सा है
-- यह रेलिंग हैं। मगर दो पुल है समकोण बनाते हुए क़्या दो
रास्ते है? कौन-सा पकड़ें?
एक कुछ ऊँची जमीन की ओर जाता
जान पड़ता था। ऊँचे पर कीचड़ कम होगा, इस बात का ही आकर्षण
काफी था; फिर ऊँचाई पर से शायद कुछ दीख भी जाए। सागर उधर ही को
चल पड़ा। पुल के पार ही सड़क एक ऊँची उठी हुई पटरी-सी बन गई,
तनिक आगे इसमें कई मोड़ से आये, फिर जैसे धन-खेत में कहीं-कहीं
कई-एक छोटे-छोटे खेत एक-साथ पड़ने पर उनकी मेड़ मानो एक-साथ ही
कई ओर जाती जान पड़ती है, इसी तरह वह पटरी भी कई ओर को जाती-सी
जान पड़ी। सागर मानो एक बिन्दु पर खड़ा है, जहाँ से कई रास्ते
हैं, प्रत्येक के दोनों ओर जल मानो अथाह समुद्र में पटरियाँ
बिछा दी गईं हों।
सागर ने एक बार चारों ओर नजर
दौड़ाई। शून्य। उसने फिर आँखों की कोरें कस कर झाँक कर देखा,
बादलों की रेखा में एक कुछ अधिक घनी-सी रेखा उसे दीखी बादल ऐसा
समकोण नहीं हो सकता। नहीं, यह इमारत है सागर उसी ओर को बढ़ने
लगा। रोशनी नहीं दीखती, पर शायद भीतर कोई हो --
पर ज्यों-ज्यों वह निकट आता
गया उसकी आशा धुँधली पड़ती गई। वह असमिया घर नहीं हो सकता --
इतने बड़े घर अब कहाँ हैं -- फिर यहाँ, जहाँ बाँस और फूस के
बासे ही हो सकते हैं, इंट के घर नहीं-- अरे, यह तो कोई बड़ी
इमारत है -- क्या हो सकती है?
मानो उसके प्रश्न के उत्तर
में ही सहसा आकाश में बादल कुछ फीका पड़ा और सहसा धुँधला-सा
चाँद भी झलक गया। उसके अधूरे प्रकाश में सागर ने देखा -- एक
बड़ी-सी, ऊपर से चपटी-सी इमारत -- मानो दुमंजिली बारादरी
बरामदे से, जिसमें कई-एक महराबें; एक के बीच से मानो आकाश झाँक
दिया...
सागर ठिठक कर क्षण-भर उसे
देखता रहा। सहसा उसके भीतर कुछ जागा जिसने इमारत को पहचान लिया
-- यह तो अहोम राजाओं का क्रीड़ा भवन है -- क्या नाम है? --
रंग-महल, नहीं, हवा-महल -- नहीं, ठीक याद नहीं आता, पर यह उस
बड़े पठार के किनारे पर है जिसमें जयमती --
एकाएक हवा सनसना उठी। आस-पास
के पानी में जहाँ-तहाँ नरसल के झोंप थे, झुक कर फुसफुसा उठे
जैसे राजा के आने पर भृत्योंसेवकों में एक सिहरन दौड़ जाए
एकाएक यह लक्ष्य कर के कि चाँद फिर छिपा जा रहा है, सागर ने
घूमकर चीन्ह लेना चाहा कि ट्रक किधर कितनी दूर है, पर वह अभी
यह भी तय नहीं कर सका था कि कहाँ क्षितिज है जिसके नीचे पठार
है और ऊपर आकाश या मेघाली कि चाँद छिप गया और अगर उसने खूब
अच्छी तरह आकार पहचान न रखा होता तो रंग-महल या हवा-महल भी खो
जाता।
महल में छत होगी। वहाँ सूखा
होगा। वहाँ आग भी जल सकती है। शायद बिस्तर लाकर सोया भी जा
सकता है। ट्रक से तो यही अच्छा रहेगा -- गाड़ी को तो कोई खतरा
नहीं --
सागर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा।
रंग-महल बहुत बड़ा हो गया था। उसकी कुरसी ही इतनी ऊँची थी कि
असमिया घर उसकी ओट छिप जाए। पक्के फर्श पर पैर पड़ते ही सागर
ने अनुमान किया, तीस-पैंतीस सीढ़ियाँ होंगी सीढ़ियाँ चढ़ कर वह
असली ड्योढ़ी तक पहुँचेगा।
ऊपर चढ़ते-चढ़ते हवा चीख उठी।
कई मेहराबों से मानो उसने गुर्रा कर कहा, ''कौन हो तुम, इतनी
रात गए मेरा एकान्त भंग करनेवाले?'' विरोध के फूत्कार का यह
थपेड़ा इतना सच्चा था कि सागर मानो फुसफुसा ही उठा, ''मैं --
सागर, आसरा ढूँढ़ता हूँ -- रैनबसेरा --''
पोपले मुँह का बूढ़ा जैसे खिसिया कर हँसे; वैसे ही हवा हँस
उठी।
''ही --ही -- ही -- खी -- खी --खी: - यह हवा-महल है, हवा-महल
-- अहोम राजा का लीलागार -- अहोम राजा का -- व्यसनी, विलासी,
छहों इन्द्रियों से जीवन की लिसड़ी बोटी से छहों रसों को चूस
कर उसे झँझोड़ कर फेंक देने वाले नृशंस लीलापिशाचों का -- यहाँ
आसरा -- यहाँ बसेरा ही --ही -- ही -- खी -- खी --खी:।''
सीढ़ियों की चोटी से मेहराबों
के तले खड़े सागर ने नीचे और बाहर की ओर देखा। शून्य,
महाशून्य; बादलों में बसी नमी और ज्वाला से प्लवन, वज्र और
बिजली से भरा हुआ शून्य। क्या उसी की गुर्राहट हवा में हैं, या
कि नीचे फैले नंगे पठार की, जिसके चूतड़ों पर दिन-भर सड़ पानी
के कोड़ों की बौछार पड़ती रही है? उसी पठार का आक्रोश, सिसकन,
रिरियाहट?
इसी जगह, इसी मेहराब के नीचे
खड़े कभी अधनंगे अहोम राज ने अपने गठीले शरीर को दर्प से अकड़ा
कर, सितार की खूँटी की तरह उमेठ कर, बाँयें हाथ के अँगूठे को
कमरबन्द में अटका कर, सीढ़ियों पर खड़े क्षत-शरीर राजकुमारों
को देखा होगा, जैसे कोई साँड़ खसिया बैलों के झुण्ड को देखे,
फिर दाहिने हाथ की तर्जनी को उठा कर दाहिने भ्रू को तनिक-सा
कुंचित करके, संकेत से आदेश किया होगा कि यन्त्रणा को और कड़ी
होने दो।
लेफ्टिनेण्ट सागर की टाँगें
मानो शिथिल हो गयीं। वह सीढ़ी पर बैठ गया, पैर उसने नीचे को
लटका दिये, पीठ मेहराब के निचले हिस्से से टेक दी। उसका शरीर
थक गया था दिन-भर स्टीयरिंग पर बैठे-बैठे और पौने दो सौ मील तक
कीचड़ की सड़क में बनी लीकों पर आँखें जमाये रहने से आँखें भी
ऐसे चुनचुना रही थीं मानो उनमें बहुत बारीक पिसी हुई रेत डाल
दी गई हो -- आँखें बन्द भी वह करना चाहे और बन्द करने में
क्लेश भी हो -- वह आँख खुली रखकर ही किसी तरह दीठ को समेट ले,
या बन्द करके देखता रह सके, तो
अहोम राजा चूलिक-फा राजा में ईश्वर का अंश होता है, ऐसे
अन्धविश्वास पालनेवाली अहोम जाति के लिए यह मानना स्वाभाविक ही
था कि राजकुल का अक्षत-शरीर व्यक्ति ही राजा हो सकता है, जिसके
शरीर में कोई क्षत है, उसमें देवत्व का अंश कैसे रह सकता है?
देवत्व -- और क्षुण्ण? नहीं।
ईश्वरत्व अक्षुण्ण ही होता है और राजा शरीर अक्षत
अहोम परम्परा के अनुसार
कुल-घात के सेतु से पार होकर चूलिक-फा भी राजसिंहासन पर
पहुँचा। लेकिन वह सेतु सदा के लिए खुला रहे, इसके लिए उसने एक
अत्यन्त नृशंस उपाय सोचा। अक्षत-शरीर राजकुमार ही राजा हो सकते
हैं, अत: सारे अक्षत-शरीर राजकुमार उसके प्रतिस्पर्धी और
सम्भाव्य घातक हो सकते हैं। उनके निराकरण का उपाय यह है कि सब
का एक-एक कान या छिगुनी कटवा ली जाए -- हत्या भी न करनी पड़े,
मार्ग के रोड़े भी हट जायें। लाठी न टूटे, साँप भी मरे नहीं पर
उसके विषदन्त उखड़ जाएँ। क्षत-शरीर, कनकटे या छिगुनी-कटे
राजकुमार राजा हो ही नहीं सकेंगे, तब उन्हें राज-घात का लोभ भी
न सताएगा -
चूलिक-फा ने सेनापति को बुला
कर गुप्त आज्ञा दी कि रात में चुपचाप राज-कुल के प्रत्येक
व्यक्ति के कान (या छिगुनी) काट कर प्रात:काल दरबार में
राज-चरणों में अर्पित किए जाएँ।
और प्रात:काल वहीं रंगमहल की
सीढ़ियों पर, उसके चरणों में यह वीभत्स उपहार चढ़ाया गया होगा
-- और उसने उसी दर्प-भरी अवज्ञा में, होठों की तार-सी तनी पतली
रेखा को तनिक मोड़-सी देकर, शब्द किया होगा, 'हूँ' और रक्त-सने
थाल को पैर से तनिक-सा ठुकरा दिया होगा -
चूलिक-फा -- निष्कंटक राजा - लेकिन नहीं यह तीर-सा कैसा साल
गया? एक राजकुमार भाग गया --अक्षत -
लेफ्टिनेंट सागर मानो चूलिका-फा के चीत्कार को स्पष्ट सुन सका।
अक्षत - भाग गया?
वहाँ सामने -- लेफ्टिनेंट ने
फिर आँखों को कस कर बादलों की दरार को भेदने की कोशिश की --
वहाँ सामने कहीं नगा पर्वत श्रेणी है। वनवासी वीर नगा जातियों
से अहोम राजाओं की कभी नहीं बनी --वे अपने पर्वतों के नंगे
राजा थे, ये अपनी समतल भूमि के कौशेय पहन कर भी अधनंगे रहने
वाले महाराजा, पीढ़ियों के युद्ध के बाद दोनों ने अपनी-अपनी
सीमाएँ बाँध ली थीं और कोई किसी से छेड़-छाड़ नहीं करता था --
केवल सीमा-प्रदेश पर पड़ने वाली नमक की झीलों के लिए युद्ध
होता था क्योंकि नमक दोनों को चाहिए था। पर अहोम राजद्रोही नगा
जातियों के सरदार के पास आश्रय पाए -- असह्य है - असह्य -
हवा ने साँय-साँय कर के दाद
दी असह्य। मानो चूलिक-फा के विवश क्रोध की लम्बी साँस सागर की
देह को छू गई- यहीं खड़े होकर उसने वह सांस खींची होगी -- उस
मेहराब ही की इँट-इँट में तो उसके सुलगते वायु-कण बसे होंगे?
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