तब
तक उसे याद आया, ठहरो, मैं सूटकेस खोलता हूँ। और उसने विदेशी
लेबलों से लैस शर्ट, साड़ियाँ, घड़ी, पैंट जैसी तमाम चीजों के
पैकेट निकाल लिये। फिर उन्हें दो हिस्सों में कर, उन दोनों के
सामने बढ़ा दिया"ये पापा आपके लिए और ये तुम्हारे लिए मम्मी"
फिर थोड़ी-सी बची चीजें उनकी ओर बढ़ाता बोला"ये सब जिसे-जिसे
ठीक समझना दे देना"
अब? जैसे एक और रास्ता बंद! फिर से बात खत्म!
इतने दिनों से जो कुछ एक तेज बहाव के साथ बह जाना चाहता था,
वह सब वहीं का वहीं दीवालों में चिन गया हो जैसे।
उफ! क्यों नहीं पूछतीं, क्यों नहीं कहती वह सब जिसके लिए
पूरे सात सालों से तरस रही थीं समेट लें उसका माथ अपनी गोदी
में, दुलार लें जी भर कर य़ा फिर रो ही लें हिलककर कि कैसे
आधी-आधी रातों, अचानक बढ़ी धड़कनों के बीच नींद खुल जाती एकदम
से हौंस उठती कि तू क्या कर रहा होगा। रात का दिन, दिन की रात
होता है न वहाँ, तो जागा कि सोया कैसा लगता होगा और फिर एकदम
से उसे देखने की बेकली तलफला उठती त़किया भीग जाता। पिता भी न
जान पाते
लेकिन कहा सिर्फ इतना --
"नहायेगा तू?"
"ऊँ? नहा लूँ?"
"न मन हो तो रहने दे"
"हाँ, थोड़ी सुस्ती-सी लग रही है नींद भी" ओह कितनी स्वार्थी
हैं वे भी -- उसके जैट-लैग वाली बात तो एकदम भूल गई थीं। डेढ़
दिनों के रात-दिन का उलटफेर उ़से बुरी तरह थकान और नींद से
बोझिल कर रहा होगा।
हड़बड़ी मच गयी उनके अंदर-बाहर। जल्दी से जल्दी खाना गर्म कर
लगाने की उतावली।
(या फिर उस सनाके से उबरकर अति व्यस्त हो जाने की तृप्ति!)
डोंगे पोंछे, सजाए। रसे का नमक दुबारा आँखें बचाकर चखा।
हड़बड़ी में दो बार जलीं। दो बार जलते-जलते बचीं। तीन बार ऐनक
रख-रखकर भूली। बिना ऐनक काम करने की कोशिश में एकाध चीजें
डोंगे से छलकीं भी।
सात साल पहले भी तो ये ही सारी चीजें बनायी थीं पर कुछ भी
जला, छलका नहीं था। रूआँसी-सी हो आयीं। पति को बुलाया। वह भी
दौड़ा आया। क्या? क्या हुआ? लाओ, मैं ले चलता हूँ। लेकिन तुमने
इतना सब क्यों बनाया सब कुछ एक साथ ही उसके कहे में प्यार
ज्यादा था या परेशानी और खीझ पर तुरंत के तुरंत वह सब छुपा,
बुजुर्गियत से भरी एक समझदार सहानुभूति झलकी उसके चेहरे पर।
सँभाल-सँभालकर वह मेज पर माँ को परसने में मदद करता रहा।
ज्यादातर चीज तो उनके भरपूर परसने के पहले ही लपककर"लाओ मैं
खुद ले लेता हूँ
न!" यानी अपनी जरूरत मुताबिक, बहुत जरा-सा।
"अच्छा, बहुत अच्छा बना है सब कुछ। खीर रख देना, शाम को भी
खाऊँगा लेकिन अभी बस दो चम्मच"
उन्होंने लक्ष्य किया, वह मुश्किल से खा पा रहा था, थकान,
नींद से बोझिल।"जा, सो रह" तीन रातों का उलटफेर सो गया वह। पति
भी।
वे टेबिल, किचन सलटाती रहीं। पोंछना-पाछना, बचा-खुचा समेटना।
बीच-बीच में जाकर हौले से कमरे में झाँक आना। कहीं उठा तो नहीं
वह! कहीं जागा तो नहीं! उसे कुछ चाहिए तो नहीं! शरीर थकान से
लस्त लेकिन मन बौड़ियाया पाखी। घूमफिर वही।
खीझकर खुद को ही फटकारा। अब जब मुहलत मिली है तो क्यों नहीं
दो घड़ी हाथ-पैर सीधे कर लेतीं? पहर बीतते न बीतते फिर शाम के
चरखे शुरू हो जायेंगे। सोचकर पड़ रहती हैं चटाई डाल वही उसके
कमरे के आसपास। कहीं उसे कुछ चाहिए हुआ तो? संकोच के मारे
उन्हें जगायेगा नहीं, जानती हैं।
पर पड़े-पड़े भी आँखें कहाँ झपीं। दृष्टि पंखे से बल्ब, बल्ब
से रोशनदान और रोशनदान से धूप के फूल टटकोरती रही। बचपन में दो
के पहाड़े से भी पहले अद्धे, पौने के पहाड़े रटाये गये थे। समय
बिल्कुल उन्हीं अद्धे-पौने के बीच से गुजर रहा था। एक-एक घड़ी
जरूरत से ज्यादा टिकती हुई। समय जैसे एक गुफा हो और वे घुट रही
हों उसमें। शापित हो, रोशनदान, घड़ी, पंखे और छनकर आते धूप के
फूल टटकोरने के लिए। अचानक रोशनदान पर नज़र पड़ते ही
चिहुँक-सी गई। कहीं धूप की चौंध तो नहीं आ रही उसके बिस्तर
पर! बिस्तर पर, तो आँखों पर भी। उसे पर्दे खींचने को कह देना
था।
चलो खिड़की या पर्दा बंद कर दूँ बहुत आहिस्ते से और जग गया
वह। कुनकुनाकर उठा। अपराधिनी-सी पकड़ी गई वे। कोसने लगीं खुद
को ही जाने मुझे क्या सूझी पर्दा खिसकाने की लेकिन वह संयत भाव
से उठ जाता है"कोई बात नहीं, फिर सो लूँगा"
"चाय लाऊँ?"
"हाँ लाओ"
उनके जाने पर वह नींद से बोझिल आँखों पर पानी डालता रहा।
वे उमगती हुई, चाय के साथ वापस ढेर सारी चीजें सजा लाती है।
"ओह मम्मी" वह परेशान-सा हँसता रहता है,"अभी इतना तो खाया न
बस चाय"
उनके चेहरे की अकुलाहट लक्ष्य करता वह खुद ही चुप्पियों के
बीच बड़े यत्न से पूछता है,"और मम्मी कैसे हैं सब लोग?"
बवंडर, तूफान, आँधी कैसी हलकोर-सी मचाता है यह सवाल! यहीं एक
वाक्य जब वह महीने पंद्रह दिनों पर फोन पर पूछता था तो उनका
रोम-रोम तृप्त हो जाता था सवाल अपने आप में एक खुशखबरी हुआ
करता था। उतनी दूर से वह सबकी कुशल-क्षेम के लिए अधीर है आधे
मिनट में, वे जल्दी से सभी के कुशल-क्षेम, आशीष पहुँचाती
विभोर, गद्गद यह भी, कि वह चिंता न करे, अच्छे से रहे 'ओ. के.
मम्मी"
लाइन कट जाती थी। उसकी आवाज का छोर हाथ से छूट जाता था। तब
भरपूर तृप्ति के बीच भी अंदर एक बेबसी निचुड़ती थी। वह कितना
कुछ पूछना चाहती हैँ! वे कितना कुछ बताना चाहती हैं लेकिन!
लेकिन आज जब वह एकदम उनके पास आ गया और पूरे इत्मीनान से चाय
की चुस्कियों के साथ पूरा समय देता, उनसे पूछ रहा है"और मम्मी
कैसे हैं सब लोग!" तो वे एकदम चुप-सी हो रही हैं। उन्हें लगने
लगता है जैसे इस सवाल के साथ जुड़े सारे सरोकार खत्म हो चुके
हैं।
नहीं छि:! यह बात नहीं। असल में उनकी समझ में नहीं आ रहा कि
इस सवाल के जवाब के सिलसिले को कहाँ से शुरू करें। फोन पर
अच्छा रहता था, एकदम हड़बड़ी में जल्दी से काटकर थमाया, समय का
एक छोटा टुकड़ा भर ही लेकिन अब? समय तो इफरात है फिर भी फिर
क्यों नहीं निश्चय कर पा रहीं कि कितना बड़ा या कितना छोटा
जवाब उसे चाहिए
हठात उन्हें लगता है, सारे अंतहीन सिलसिले एकदम से खत्म होने
को आ गए।
समझ रहा है। शायद वह भी। इसलिए मन-मन कुछ ठीक-ठाक, ज्यादा
विश्वसनीय सवालों के जुगाड़ कर रहा है आत्मीयता और सरोकार भरे।
"बिजनौर वाली मामी कैसी है मम्मी? और रचना की शादी"
"बात तो चल रही थी कई जगहों पर। जो भी लड़के अच्छे मिलते
हैं, उनकी उम्र रचना से कम ही ठहरती है दद्दा
के गुजरने के बाद खुद भी इधर बीमार ही चल रही हैं"
"ओह एक दिन जाकर आऊँगा और अविनाश चाचा? रतलाम वाले फूफा जी?
उनके भाई उनकी लड़की उनके देवर?"
गढ़ी हुई जिज्ञासाओं का एक समूचा सिलसिला। सवाल ऐसे चल रहे
हैं जैसे रूक-रूककर किसी तरह मरम्मत करके चलाने के लायक बनाए
गए कलपुर्जे नहीं साहब ठीक-ठाक तो हैं बढ़िया से काम ले दे रहे
हें कलपुर्जे।
एक अजीब-सी घबराहट पसर रही है। अब इसके बाद? क्या सचमुच सारे
सिलसिले खत्म! क्या इन्हें वापस उस छोर से नहीं बाँधा जा सकता,
जहाँ ऊदे स्वेटर पर सफेद ऊन से उसके नाम का पहला अक्षर बुन
दिये जाने पर उसके आँखों की खुशी छुपाये नही छुपती थी डर भी तो
नहीं छुपता था, जब 'अगिया-बैताल' का डरावना सपना देखकर उनकी
बाहों में दुबक जाता था। या फिर दवात सहित पूरी स्याही उलट
जाने पर, पापा तक बात न पहुँच पाने का वायदा इन जैसे या इसके
अलावा भी, कही भी जाने, कुछ भी पाने की आश्वस्ति। सीधा हठ,
सीधा आक्रोश और सीधा प्यार पाना या जताना भी इतना कठिन-सा
क्यों हो उठा है?
कहीं ये सिलसिले एकतरफा तो नहीं हो गए हैं? मात्र उनकी
भावनात्मक तृप्ति के लिए जुटायी जाने वाली समिधा! अन्यथा जो
कुछ है, जितना भी, वह खुलकर सामने क्यों नहीं आता!
अचानक उन्हें लगा, इतना आसान नहीं है किसी रिश्ते को एकदम
पोटली की तरह खोल देना खोलकर भर हाथों चारों ओर छितरा देना खुद
वे ही क्या कर पा रही हैं! शायद कुछ रिश्ते जिंदगी की नींव का
काम देते हैं। फिर नींव चिनती चली जाती है और ऊपर पुख्ता
दीवारें उठती चली जाती हैं। एक नई इमारत, एक नई दुनिया आपसे
आप। एक विकास यात्रा, उम्र के पड़ावों पर ठहर-ठहरकर चलती हुई।
एक तरफ केंचुल-सी छूटती जाती उम्र और दूसरी तरफ अतीत की गली
में भटकते माँ-बाप।
सात वर्ष का लंबा समय उसे भी बहुत आगे ले जा चुका है। अब उसे
बहुत झुककर बहुत पीछे मुड़कर छूनी पड़ती है, एक-एक छूटी चीज,
रिश्ते, प्राथमिकताएँ और वह किस कदर बेइंतहा कोशिश कर रहा है
हठात दया-सी हो आई उस पर। एक अन्याय-सा होता लगा।
टटोला
"तू थ़क गया होगा न!"
"न ऩहीं तो ब़ल्कि तुम ज्यादा थकी लग रही हो म़ैं तो अभी
कितनी भी देर बातें कर सकता हूँ तुमसे"
उफ! कितनी ज ोजहद के बीच से की गई एक ईमानदार कोशिश।"तुझे सब
कुछ बदला-सा लग रहा होगा न!" वह झिझका, सहमा"अँ? हँ...आँ
थ़ोड़ा-थोड़ा। बहुत दिनों बाद लौटा हूँ न"
उन्हें लगा, पूछ पाता तो शायद यह भी पूछता और कितने पीछे
लौटा ले जाना चाहती हो तुम मुझे आगे-पीछे एक साथ चलने में
मुश्किल भी तो पड़ती है तुम्हारे लिए आसान हैं माँ, निरंतर
पीछे की अतीतगामी यात्राएँ क्योंकि वर्तमान और सामने आते
भविष्य का अकेलापन और सन्नाटा तुम्हें आतंकित करता है इसलिए
तुम निरंतर चहल-पहल भरे अतीत में ही पनाह ढूँढ़ती हो। ल़ेकिन
मैं म़ैं तो सिर्फ अतीत या वर्तमान में नहीं रूक सकता न! मेरे
लिए तो समय और उम्र चढ़ते हुए सूरज की सीढ़ियाँ हैं।
बेल बजी -- सिर्फ पिता रह गए पति लौट आये थे। एक छुटकारे की
सी साँस, हल्की हो आई। लेकिन तत्क्षण अपने आप से कोई चोरी-सी
करते पकड़ जाने का अहसास!
हल्कापन यानी छुटकारा? --
अपने बहुत अच्छे बेटे के पास से हट आने पर!
वह साढ़े तीन दिन रहा।
वे चिमटे, कलछी से हाथ जलाती, पुए तलती रहीं। बादाम की
कतलियाँ बुरकती रहीं। उससे कपड़े बाथरूम में छोड़ देने की जिद
करती रहीं। उसे, सात साल से छूटी कपड़े की आलमारी में कपड़े
टाँगते, शीशे में कंघी करते देखती रही द़ेख-देखकर निहाल होती
रहीं। जगते में ही नहीं सोते में भी ब़ीच-बीच में कमरे में
झाँक, देख जाती रहीं।
लेकिन अंतिम दिन, आधी रात जब उद्विग्न पिता ने डूबी-सी आवाज
में उनके कंधे पर हाथ धर कर कहा --" कैसा लगता है न कल चला
जाएगा वह", तो उनकी आँखों में जो दो भरपूर आँसू डबडबा
आये, उन्हें पिता ने शायद नहीं समझा। पिता ने समझा, यह तो होना
ही था। बेटा जाता है सुबह, फिर न जाने कितने सालों के लिए!
इसलिए दिलासे की थपकी दी घ़बराओ नहीं, फिर से कुछ ही सालों
में लौटकर आयेगा न, जैसे इस छाती पर जैसे कोई समंदर हरहरा उठा।
पछाड़ खा-खाके लहरें चकनाचूर होती रहीं बोल पातीं तो कहतीं
नहीं और कितनी बार लौटायेंगे हम उसे और कहाँ तक? |