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                         शाम हो गई 
                      थी। मौनी बाहर बैठा था। गदल ने गरम-गरम रोटी और आम की चटनी 
                      ले जाकर खाने को धर दी।''बहुत अच्छी बनी है।'' मौनी ने खाते हुए कहा, ''बहुत अच्छी 
                      है।''
 गदल बैठ गई। कहा, ''तुम एक ब्याह और क्यों नहीं कर लेते अपनी 
                      उमिर लायक?''
 मौनी चौंका। कहा, ''एक की रोटी भी नहीं बनती?''
 ''नहीं'', गदल ने कहा, ''सोचते होंगे सौत बुलाती हूँ , पर 
                      मरद का क्या? मेरी भी तो ढलती उमिर है। जीते जी देख जाऊँगी 
                      तो ठीक है। न हो ते हुकूमत करने को तो एक मिल जाएगी।''
 मौना हँसा। बोला, ''यों कह। हौंस है तुझे, लड़ने को चाहिए।''
 खाना खाकर उठा, तो गदल हुक्का भरकर दे गई और आप दीवार की ओट 
                      में बैठकर खाने लगी। इतने में सुनाई दिया, ''अरे, इस बखत 
                      कहाँ चला?''
 ''जरूरी काम है, मौनी!'' उत्तर मिला, ''पेसकार साब ने 
                      बुलवाया है।''
 गदल ने पहचाना। उसी के गाँव का तो था, घोट्या मैना का चंदा 
                      गिर्राज ग्वारिया। जरूर पेसकार की गाय की चराने की बात होगी।
 ''अरे तो रात को जा रहा है?'' मौनी ने कहा, ''ले चिलम तो 
                      पीता जा।''
 आकर्षण ने रोका। गिर्राज बैठ गया। गदल ने दूसरी रोटी उठाई। 
                      कौर मुँह में रखा।
 ''तुमने सुना?'' गिर्राज ने कहा और दम खींचा।
 ''क्या?'' मौनी ने पूछा।
 ''गदल का देवर डोडी मर गया।''
 गदल का मुँह रुक गया। जल्दी से लोटे के पानी के संग कौर 
                      निगला और सुनने लगी। कलेजा मुँह को आने लगा।
 ''कैसे मर गया?'' मौनी ने कहा, ''वह तो भला-चंगा था!''
 ''ठंड लग गई, रात उघाड़ा रह गया।''
 गदल द्वार पर दिखाई दी। कहा, ''गिर्राज!''
 ''काकी!'', गिर्राज ने कहा, ''सच। मरते बखत उसके मुँह से 
                      तुम्हारा नाम कढ़ा था, काकी। बिचारा बड़ा भला मानस था।''
 गदल स्तब्ध खड़ी रही।
 गिर्राज चला गया।
 गदल ने कहा, ''सुनते हो!''
 ''क्या है री?''
 ''मैं जरा जाऊँगी।''
 ''कहाँ?'' वह आतंकित हुआ।
 ''वहीं।''
 ''क्यों?''
 ''देवर मर गया है न?''
 ''देवर! अब तो वह तेरा देवर नहीं।''
 गदल झनझनाती हुई हँसी हँसी, ''देवर तो मेरा अगले जनम में भी 
                      रहेगा। वही न मुझे रूखाई दिखाता, तो क्या यह पाँव कटे बिना 
                      उस देहरी से बाहर निकल सकते थे? उसने मुझसे मन फेरा, मैने 
                      उससे। मैंने ऐसा बदला लिया उससे!''
 कहते-कहते वह कठोर हो गई।
 ''तू नहीं जा सकती।'' मौनी ने कहा।
 ''क्यों?'' गदल ने कहा, ''तू रोकेगा? अरे, मेरे खास पेट के 
                      जाए मुझे रोक न पाए। अब क्या है? जिसे नीचा दिखाना चाहती थी, 
                      वही न रहा और तू मुझे रोकनेवाला है कौन? अपने मन से आई थी, 
                      रहूँगी, नहीं रहूँगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है। इतना बोल 
                      तो भी लिया, तू जो होता मेरे उस घर में तो, तो जीभ कढ़वा 
                      लेती तेरी।''
 ''अरी चल-चल।''
 मौनी ने हाथ पकडकर उसे भीतर धकेल दिया और द्वार पर खाट डालकर 
                      लेटकर हुक्का पीने लगा।
 गदल भीतर रोने लगी, परंतु इतने धीरे कि उसकी सिसकी तक मौनी 
                      नहीं सुन सका। आज गदल का मन बहा जा रहा था। रात का तीसरा पहर 
                      बीत रहा था। मौनी की नाक बज रही थी। गदल ने पूरी शक्ति लगाकर 
                      छप्पर का कोना उठाया और साँपिन की तरह उसके नीचे से रेंगकर 
                      दूसरी ओर कूद गई।
 मौनी 
                      रह-रहकर तड़पता था। हिम्मत नहीं होती थी कि जाकर सीधे गाँव 
                      में हल्ला करे और लट्ठ के बल पर गदल को उठा लाए। मन करता 
                      सुसरी की टाँगे तोड़ दे। दुल्लो ने व्यंग्य भी किया कि उसकी 
                      लुगाई भागकर नाक कटा गई है, खून का-सा घूँट पीकर रह गया। 
                      गूजरों ने जब सुना, तो कहा, ''अरे बुढ़िया के लिए खून-खराबा 
                      कराएगा! और अभी तेरा उसने खरच ही क्या कराया है? दो जून रोटी 
                      खा गई है, तुझे भी तो टिक्कड़ खिलाकर ही गई!''मौनी का क्रोध भड़क गया।
 घोट्या का गिर्राज सुना गया था।
 जिस वक्त 
                      गदल पहुँची, पटेल बैठा था। निहाल ने कहा था, ''खबरदार! भीतर 
                      पाँव न धरियो!''''क्यों लौट आई है, बहू?'' पटेल चौंका था। बोला, ''अब क्या 
                      लेने आई है?''
 गदल बैठ गई। कहा, ''जब छोटी थी, तभी मेरा देवर लट्ठ बाँध 
                      मेरे खसम के साथ आया था। इसी के हाथ देखती रह गई थी मैं तो। 
                      सोचा था मरद है, इसकी छत्तर-छाया में जी लूँगी। बताओ, पटेल, 
                      वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका, तो क्या 
                      करती? अरे, मैं न रही, तो इनसे क्या हुआ? दो दिन में काका उठ 
                      गया न? इनके सहारे मैं रहती तो क्या होता?''
 पटेल ने कहा, ''पर तूने बेटा-बेटी की उमर न देखी बहू।''
 ''ठीक है'' गदल ने कहा, ''उमर देखती कि इज्जत, यह कहो। मेरी 
                      देवर से रार थी, खतम हो गई। ये बेटा है, मैने कोई बिरादरी के 
                      नेम के बाहर की बात की हो तो रोककर मुझ पर दावा करो। पंचायत 
                      में जवाब दूँगी। लेकिन बेटों ने बिरादरी के मुँह पर थूका, तब 
                      तुम सब कहाँ थे?''
 ''सो कब?'' पटेल ने आश्चर्य से पूछा।
 ''पटेल न कहेंगे तो कौन कहेगा? पच्चीस आदमी खिलाकर लुटा दिया 
                      मेरे मरद के कारज में!''
 ''पर पगली, यह तो सरकार का कानून था।''
 ''कानून था!'' गदल हँसी, ''सारे जग में कानून चल रहा है, 
                      पटेल?''
 दिन दहाड़े 
                      भैंस खोलकर लाई जाती हैं। मेरे ही मरद पर कानून था? यों न 
                      कहोगे, बेटों ने सोचा, दूसरा अब क्या धरा है, क्यों पैसा 
                      बिगाड़ते हो? कायर कहीं के?''निहाल गरजा, ''कायर! हम कायर? तू सिंधनी?''
 ''हाँ मैं सिंधनी!'' गदल तड़पी, ''बोल तुझमें है हिम्मत?''
 ''बोल!'' वह भी चिल्लाया।
 ''जा, बिरादरी कारज में न्योता दे काका के।'', गदल ने कहा।
 निहाल सकपका गया। बोला, "पुलस ''
 गदल ने सीना ठोंककर कहा, ''बस?''
 ''लुगाई बकती है!'', पटेल ने कहा, ''गोली चलेगी, तो?''
 गदल ने कहा, ''धरम-धुरंधरों ने तो डूबो ही दी। सारी गुजरात 
                      की डूब गई, माधो। अब किसी का आसरा नहीं। कायर-ही-कायर बसे 
                      हैं।''
 फिर अचानक कहा, ''मैं करूँ परबंध?''
 ''तू?'' निहाल ने कहा।
 ''हाँ, मैं!'' और उसकी आँखों में पानी भर आया। कहा, ''वह 
                      मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही 
                      करूँगी।''
 मौनी 
                      आश्चर्य में था। गिर्राज ने बताया था कि कारज का जोरदार 
                      इंतजाम है। गदल ने दरोगा को रिश्वत दी है। वह इधर आएगा ही 
                      नहीं। गदल बड़ा इंतजाम कर रही है। लोग कहते है, उसे अपने मरद 
                      का इतना गम नहीं हुआ था, जितना अब लगता है। गिरीराज तो 
                      चला गया था, पर मौनी में विष भर गया था। उसने उठते हुए कहा, 
                      ''तो गदल! तेरी भी मन की होने दूँ, सो गोला का मौनी नहीं। 
                      दरोगा का मुँह बंद कर दे, पर उससे भी ऊपर एक दरबार है। मैं 
                      कस्बे में बड़े दरोगा से शिकायत करूँगा।'' कारज हो 
                      रहा था। पाँते बैठतीं, जीमतीं, उठ जातीं और कढ़ाव से पुए 
                      उतरते। बाहर मरद इंतजाम कर रहे थे, खिला रहे थे। निहाल और 
                      नरायन ने लड़ाई में महँगा नाज बेचकर जो घड़ों में नोटों की 
                      चाँदी बनाकर डाली थी, वह निकली और बौहरे का कर्ज चढ़ा। पर 
                      डाँग में लोगों ने कहा, ''गदल का ही बूता था। बेटे तो हार 
                      बैठे थे। कानून क्या बिरादरी से ऊपर है?'' गदल थक गई 
                      थी। औरतों में बैठी थी। अचानक द्वार में से सिपाही-सा दीखा। 
                      बाहर आ गई। निहाल सिर झुकाए खड़ा था।''क्या बात है, दीवानजी?'', गदल ने बढ़कर पूछा।
 स्त्री का बढ़कर पूछना देख दीवान सकपका गया।
 निहाल ने कहा, ''कहते हैं कारज रोक दो।''
 ''सो, कैसे?'', गदल चौंकी।
 ''दरोगा जी ने कहा है।'' दीवान जी ने नम्र उत्तर दिया।
 ''क्यों? उनसे पूछकर ही तो किया जा रहा है।'' उसका स्पष्ट 
                      संकेत था कि रिश्वत दी जा चुकी है।
 दीवान ने कहा, ''जानता हूँ, दरोगा जी तो मेल-मुलाकात मानते 
                      हैं, पर किसी ने बड़े दरोगा जी के पास शिकायत पहुँचाई है, 
                      दरोगा जी को आना ही पड़ेगा। इसी से उन्होंने कहला भेजा है कि 
                      भीड़ छाँट दो। वर्ना कानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी।''
 क्षणभर गदल 
                      ने सोचा। कौन होगा वह? समझ नहीं सकी। बोली, ''दरोगा जी ने 
                      पहले नहीं सोचा यह सब? अब बिरादरी को उठा दें? दीवान जी, तुम 
                      भी बैठकर पत्तल परोसवा लो। होगी सो देखी जाएगी। हम खबर भेज 
                      देंगे, दरोगा आते ही क्यों हैं? वे तो राजा है।''दीवान जी ने कहा,''सरकारी नौकरी है। चली जाएगी? आना ही होगा 
                      उन्हें।''
 ''तो आने दो!'', गदल ने चुभते स्वर से कहा, ''सब गिरफ्तार कर 
                      लिए जाएँगे। समझी! राज से टक्कर लेने की कोशिश न करो।''
 'अरे तो क्या राज बिरादरी से ऊपर है?'', गदल ने तमककर कहा, 
                      ''राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धर्म नहीं 
                      छोड़ देंगे, तुम सुन लो! तुम धरम छीन लो, तो हमें जीना हराम 
                      है।''
 गदल के पाँव के धमाके से धरती चल गई।
 तीन पाँते और उठ गई, अंतिम पाँत थी। निहाल ने अँधेरे में 
                      देखकर कहा, ''नरायन, जल्दी कर। एक पाँत बची है न?''
 गदल ने छप्पर की छाया में से कहा, ''निहाल!''
 निहाल गया।
 ''डरता है?'' गदल ने पूछा।
 सूखे होठों पर जीभ फेरकर उसने कहा, ''नहीं!''
 ''मेरी कोख की लाज करनी होगी तुझे।'' गदल ने कहा, ''तेरे 
                      काका ने तुझको बेटा समझकर अपना दूसरा ब्याह नामंजूर कर दिया 
                      था। याद रखना, उसके और कोई नहीं।''
 निहाल ने सिर झुका लिया।
 भागा हुआ एक लड़का आया।
 ''दादी!'' वह चिल्लाया।
 ''क्या है रे?'' गदल ने सशंक होकर देखा।
 ''पुलिस हथियारबंद होकर आ रही है।''
 निहाल ने गदल की ओर रहस्यभरी दृष्टि से देखा।
 गदल ने कहा, ''पाँत उठने में ज्यादा देर नहीं है।''
 ''लेकिन वे कब मानेंगे?''
 ''उन्हें रोकना होगा।''
 ''उनके पास बंदूकें हैं।''
 ''बंदूकें हमारे पास भी हैं, निहाल!'' गदल ने कहा, ''डाँग 
                      में बंदूकों की क्या कमी?''
 ''पर हम फिर खाएँगे क्या!''
 ''जो भगवान देगा।''
 बाहर पुलिस की गाड़ी का भोंपू बजा। निहाल आगे बढ़ा। दरोगा ने 
                      उतरकर कहा, ''यहाँ दावत हो रही है?''
 निहाल भौंचक रह गया। जिस आदमी ने रिश्वत ली थी, अब वह पहचान 
                      भी नहीं रहा था।
 ''हाँ। हो रही है?'' उसने क्रुद्ध स्वर में कहा।
 ''पच्चीस आदमी से ऊपर है?''
 ''गिनकर हम नहीं खिलाते, दरोगा जी!''
 ''मगर तुम 
                      कानून तो नहीं तोड़ सकते।''राज का कानून कल का है, मगर बिरादरी का कानून सदा का है, 
                      हमें राज नहीं लेना है, बिरादरी से काम है।''
 ''तो मैं गिरफ्तार करूँगा!''
 गदल ने पुकारा, ''निहाल।''
 निहाल भीतर गया।
 गदल ने कहा, ''पंगत होने तक इन्हें रोकना ही होगा!''
 ''फिर!''
 ''फिर सबको पीछे से निकाल देंगे। अगर कोई पकड़ा गया, तो 
                      बिरादरी क्या कहेगी?''
 ''पर ये वैसे न रुकेंगे। गोली चलाएँगे।''
 ''तू न डर। छत पर नरायन चार आदमियों के साथ बंदूकें लिए बैठा 
                      है।''
 निहाल काँप उठा। उसने घबराए हुए स्वर से समझने की कोशिश की, 
                      ''हमारी टोपीदार हैं, उनकी रैफल हैं।''
 ''कुछ भी हो, पंगत उतर जाएगी।''
 ''और फिर!''
 ''तुम सब भागना।''
 हठात् लालटेन बुझ गई। धाँय-धाँय की आवाज आई।
 गोलियाँ अंधकार में चलने लगीं।
 गदल ने चिल्लाकर कहा, ''सौगंध है, खाकर उठना।''
 पर सबको जल्दी की फिकर थी।
 बाहर धाँय-धाँय हो रही थी। कोई चिल्लाकर गिरा।
 पाँत पीछे से निकलने लगी।
 जब सब चले गए, गदल ऊपर चढ़ी। निहाल से कहा, ''बेटा!''
 उसके स्वर की अखंड ममता सुनकर निहाल के रोंगटे उस हलचल में 
                      भी खड़े हो गए। इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा, 
                      ''तुझे मेरी कोख की सौगंध है। नरायन को और बहू-बच्चों को 
                      लेकर निकल जो पीछे से।''
 ''और तू?''
 ''मेरी फिकर छोड़! मैं देख रही हूँ, तेरा काका मुझे बुला रहा 
                      है।''
 निहाल ने बहस नहीं की। गदल ने एक बंदूकवाले से भरी बंदूक 
                      लेकर कहा, ''चले जाओ सब, निकल जाओ।''
 संतान के मोह से जकड़े हुए युवकों को विपत्ति ने अंधकार में 
                      विलीन कर दिया।
 गदल ने घोड़ा दबाया। कोई चिल्लाकर गिरा। वह हँसी। विकराल 
                      हास्य उस अंधकार में गूँज उठा।
 दरोगा ने सुना तो चौंका, ''औरत! मरद कहाँ गए! उसके कुछ 
                      सिपाहियों ने पीछे से घेराव डाला और ऊपर चढ़ गए। गोली चलाई। 
                      गदल के पेट में लगी।
 युद्ध 
                      समाप्त हो गया था। गदल रक्त से भीगी हुई पड़ी थी। पुलिस के 
                      जवान इकट्ठे हो गए।दरोगा ने पूछा, ''यहाँ तो कोई नहीं?''
 ''हुजूर!, एक सिपाही ने कहा, ''यह औरत है।''
 दरोगा आगे बढ़ आया। उसने देखा और पूछा, ''तू कौन है?''
 गदल मुस्कराई और धीरे से कहा, ''कारज हो गया, दरोगा जी! आतमा 
                      को सांति मिल गई।''
 दरोगा ने झल्लाकर कहा, ''पर तू है कौन?''
 गदल ने और भी क्षीण स्वर से कहा, ''जो एक दिन अकेला न रह 
                      सका, उसी की।''
 और सिर लुढ़क गया। उसके होठों पर मुस्कराहट ऐसी दिखाई दे रही 
                      थी, जैसे अब पुराने अंधकार में जलाकर लाई हुई पहले की बुझी 
                      लालटेन।
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