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                        शुरू-शुरू में पाल के पास 'मीत' फिल्म का एक रिकार्ड था, 
                        और ग्रामोफोन। गाना सुनते ही उस पर ऐसा पागलपन सवार हो 
                        जाता, वह कमरे में तेज तेज चलने लगता और कई बार अपने कपडे 
                        फाडने लगता। आखिर जब पाल ने महसूस किया कि इस गीत के चक्कर 
                        में उसके बहुत से कपडे तार-तार हो चुक हैं, वह चुपके से 
                        'मीत' का एक मात्र रिकार्ड नाले में फेंक आया और देर तक 
                        गुमसुम बैठा रहा। ज्यों ही पाल की पत्नी कपडे बदलकर कमरे 
                        में आती, पाल बुडबुडाने लगता। धीरे-धीरे उसकी आवाज तेज 
                        होने लगती। बच्चे कमरा छोडकर भाग जाते और दालान में गर्ग 
                        के घर की रोशनी में 'लूडे' खेलने लगते या माँ और बाप के 
                        साथ-साथ रोने-लगते। झगडे के दौरान पाल को अपना कमरा छोटा 
                        लगता। अक्सर वह कमरे से बाहर निकल आता और तमतमाता हुआ 
                        इधर-उधर से घूमने लगता। बच्चों पर नजर पड जाती, तो एक ही 
                        ठोकर से 'लूडो' पलट देता। कुछ लोगों का खयाल था, कि पाल की 
                        बीवी बारह नम्बर के संतोष से फँसी है।  संतोष 
                        चाल का एक मात्र कुँआरा था। वह स्वास्तिक में फोरमैन था। 
                        हमेशा चुस्त दुरुस्त दिखाई देता। चाल में बारह-चौदह वर्ष 
                        के बच्चो से उसकी खूब दोस्ती थी। उसे दफ्तर में देर हो 
                        जाती तो बच्चे बेचैन होने लगते। जब तक सन्तोष चाल में 
                        रहता, कोई-न-कोई बच्चा उसके कमरे में जरूर रहता। कोई स्कूल 
                        के लिए रद्दी ले जाने का बहाना करके आता, कोई दीदी के लिए 
                        उपन्यास ले जाने का। कोई रेखागणित का सवाल हल कराने। आखिर 
                        तंग आ कर मोटू के बाप ने मोटू को ट्यूशन रख दी ताकि सवाल 
                        समझने के लिए उसे बार-बार संतोष के पास न जाना पडे। कुछ 
                        लोगों ने यह भी उडा दिया था, कि संतोष बच्चों को खराब करता 
                        है, मगर अभी तक इस बात की पुष्टि नहीं हुई थी। संतोष दिखने 
                        में इतना सरल, भोला और शर्माऊ लगता था, कि उसके बारे में 
                        कुछ-न-कुछ उडती रहती। लोगों को पूरा विश्वास था, कि पाल का 
                        परिवारिक जीवन इसी संतोष ने नष्ट किया है। सारे 
                        गडबड-घोटाले की वही जड़ है। वे तो यहाँ तक माने थीं, कि एक 
                        दिन संतोष पाल की बीवी के साथ गायब हो जाएगा। वह अपना 
                        सूटकेस होल्डाल लेकर कभी दफ्तर के काम से बाहर गाँव जाता, 
                        तो वे सोचतीं आज पाल की बीवी भी नहीं लौटगी। मगर ऐसा कभी 
                        नहीं हुआ। पाल की बीवी भी लौट आई और दो-एक दिन बाद संतोष 
                        भी।  किसी न 
                        किसी बात को लेकर बीवी से उलझ जाना पाल की आदत हो गई थी। 
                        झगडे के बाद पाल आत्महत्या की धमकी देकर सो जाता। जब पाल 
                        की पत्नी को विश्वास हो गया, कि पाल कभी आत्महत्या नहीं 
                        करेगा और जसतस बच्चों को पाल लेगा, वह निश्चिन्त होकर एक 
                        दिन गायब हो गई। पाल हताश होकर घर में पडा रहा। उसने पुलिस 
                        तक को भी खबर नही की कि उसकी बीवी गायब हो गई है। कुछ 
                        लोगों ने सूचना दी उसकी बीवी माला सिन्हा के ड्राइवार के 
                        साथ भाग गई है, मगर पाल ने कहा, 'रामसिंह ऐसा नहीं कर 
                        सकता। मैं उसे आठ वर्षों से जानता हूँ। उसकी पत्नी इस 
                        चुडैल से कहीं सुन्दर है।'  किसी ने 
                        पाल को बताया कि वह खार स्टेशन पर एक बूढे सिक्ख के साथ 
                        चाय पी रही थी। पाल ने कहा, 'वह बूढा सिक्ख मेरी बीवी का 
                        बाप है, और खार में ही रहता है। इस समय चाल में सन्नाटा था। एक व्यक्ति कब से अपने कमरे का 
                        दरवाजा पीट रहा था। प्रकाश ने देखा, गर्ग पडोस की खटिया पर 
                        बैठा धीरे-धीरे दरवाजा खटखटार रहा था। प्रकाश को देखकर, वह 
                        झेंप गया और उसकी तरफ चला आया।
 'मैं 
                        बहुत दिनों से आप से एक सवाल करना चाहता हूँ।' गर्ग ने 
                        झेंपते हुए कहा। 'कीजिए।'
 'सवाल जरूर आपको मूर्खतापूर्ण लगेगा, मगर मेरी इच्छा है, 
                        आप इसका जवाब जरूर दें।'
 'कहिए!'
 'औरतों के बारे में आपकी क्या राय है?' गर्ग ने पत्थर की 
                        तरह प्रकाश के ऊपर सवाल लुढका दिया।
 'जो मर्द के बारे में है।' प्रकाश ने कहा।
 'मर्द के बारे मे आपकी क्या राय है? मेरी बात को गम्भीरता 
                        से लीजिए।' गर्ग बोला।
 'औरत के बारे में मेरी राय बहुत अच्छी है। मगर मर्द के 
                        बारे उतनी अच्छी नहीं।' प्रकाश ने कहा।
 प्रकाश 
                        गर्ग की समस्या से परिचित था। जो आदमी पिछले डेढ घंटे से 
                        अपने ही घर का दरवाजा खटखटा रहा हो, उसके लिए यह उत्तर 
                        बहुत निराशाजनक हो सकता था। गर्ग परेशान-सा वहाँ बैठा रहा। 
                        गर्ग का खयाल था कि प्रकाश अवश्य कोई ऐसी बात कहेगा, जिससे 
                        उसकी संतप्त आत्मा को कुछ शान्ती मिलेगी। 'आप जानते ही होंगे।' प्रकाश ने गर्ग की ओर देखते हुए कहना 
                        शुरू किया-'किरण नौकरी पर जाती है और मैं घर में गुलछर्रें 
                        उडाया करता हूँ। दाल-रोटी की चिन्ता मुझे नहीं है। कपूर को 
                        देखिए, मेढेकर को देखिए, जिन्दगी से कितने संतुष्ट हैं। 
                        शाम को जब मेढेकर दम्पती एक-एक बच्चा कंधे से लगाकर घूमने 
                        निकलते हैं, तो कितना अच्छा लगता है। संतोष की शादी नहीं 
                        हुई, कितना गमगीन रहता है। दरअसल औरत के बिना आदमी अधूरा 
                        है। आप ही सोचिए, शादी से पहले आपकी क्या हालत थी। मैं तो 
                        आपसे तब परिचित नहीं था, आप खुद ही बताइए, आपको ऐसा नहीं 
                        लगता था, कि आप शून्य में जी रहे हैं। अब निचिश्त रूप से 
                        आपका दिल सिर्फ अपने लिए नहीं धडकता होगा। पहले कौन आप के 
                        लिए इतनी लगन से मछली बनाता होगा। क्यो मैं ठीक कह रहा हूँ 
                        या गलत?
 'आप जैसे 
                        लोगों से मुझे बीच-बीच मे मिलते रहना चाहिए।' गर्ग ने कहा 
                        और टाँग हिलाने लगा। गर्ग एक सिगरेट प्रकाश को दी और एक 
                        खुद सुलगा ली। 'आप कभी कोलाबा की तरफ नहीं आते?'
 'वह क्षेत्र मेरे लिए वर्जित है। बेकार आदमी कोलाबा की 
                        सडकों पर घूमेगा, तो उसका दिमाग खराब हो जाएगा।' प्रकाश ने 
                        कहा, 'मैंने बहुत जगह अर्जियाँ दे रखी है। मगर इधर मंदी 
                        है। नई नौकरियाँ बहुत कम निकल रही हैं।'
 'मदी तो सब जगह है। हौजरी लाइन भी चौपट हो रही है। कुछ 
                        वर्ष पूर्व हमारा चार-छह लाख का धंधा था, अब प्रतिष्ठान का 
                        खर्च मुश्किल से निकलता है।'
 प्रकाश 
                        को हँसी आ गई, प्रतिष्ठान का मुनीम इस तरह दोपहर में उठ-उठ 
                        कर आता रहा, तो रहा-सहा धंधा भी चौपट हो जाएगा। सिगरेट पीकर और प्रकाश से बतिया कर, गर्ग का तनाव स्खलित 
                        हो गया था वह उठा और प्रकाश से हाथ मिलाकर, चला गया। जाकर 
                        वह दोबारा दरवाजा पीटने लगा। प्रकाश ने कुर्सी खिसका ली और 
                        इस दृश्य का मजा लेने लगा।
 गर्ग के 
                        दरवाजे पर चाक से लिखा हुआ था-एक से चार के बीच दरवाजा न 
                        खटखटाना। इस बीच बंगालिन पोस्टमैन को भी दरवाजा नही खोलती थी। मगर 
                        आज गर्ग का सितारा बुलन्द था, इससे पूर्व कि वह दरवाजा 
                        पीटते हुए थक जाता और खटिया पर बैठकर दरवाजा पीटने लगता, 
                        बंगालिन ने दरवाजा खोल दिया और गर्ग के घुमते ही बन्द भी 
                        कर दिया। अन्दर पहुँचकर गर्ग को बहुत अफसोस हुआ। उसने 
                        पाया, बंगालिन घर में अकेली थी। डॉ. बापट का घर में कहीं 
                        नाम-निशान भी नहीं था। वह सरदर्द का बहाना करके लेट गया। 
                        उसने शिकायत भी नहीं की वह इतनी देर से दरवाजा पीट रहा था। 
                        उसे अपने सपने पर क्रोध आ रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी, 
                        उठकर कपाट पर बंगालिन की ही शैली में चाक से लिख दे-सपने 
                        पर विश्वास न करना।
 बच्चों 
                        के स्कूल से लौटते ही चाल में नया जीवन आ गया। कृष्णा छोटे 
                        बच्चों को कन्धों पर उठाकर घर पहुँचाने लगा। पार्क के पास 
                        खोमचे वालों की भीड लग गई। अब किरण भी लौट ही रही होगी, 
                        प्रकाश ने सोचा। वह बहुत बेताबी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा 
                        था। उसने आवश्य आज गुणवन्तराय की रिपोर्ट कर दी होगी। किरण 
                        चुपचाप यंत्रणा भोगने की आदी नहीं है। बहुत सम्भावना है, 
                        मामला रजिस्ट्रार अथवा कुलपति तक पहुँच गया हो, वह अपने 
                        अधिकारों के लिए लडना जानती है अच्छा होता, वह सुबह मुझे 
                        अपने साथ ले जाती। गले में रूमाल बाँधकर उसके कालिज के 
                        दो-एक चक्कर तो लगा ही सकता था। गुणवन्तराय कालिज में 
                        घुसने लगता तो ऐसी पटकी देता कि मुँह के बल गिर पडता। 
                        गुणवन्तराय को पागलखाने, हवालात अथवा अस्पताल में से 
                        किसी-न-किसी स्थान का चुनाव करना ही होगा।  चाल के 
                        पास आकर एक कार रुकी तो, प्रकाश को पहचानने में देर न लगी। 
                        यह शिवेन्द्र की छोटी मौरिस थी। यह कम्बख्त आज कहाँ से टपक 
                        पडा। गुणवन्तराय की सिफारिश लेकर आया होगा। इसका मतलब हुआ, 
                        गुणवन्तराय रात भर सोया नहीं, हमारे दोस्तों का पता लगाता 
                        रहा। बहुत सोच-विचार कर उसने शिवेन्द्र को इस काम के लिए 
                        चुना होगा। मैं शिवेन्द्र से साफ-साफ शब्दों में कह दूँगा, 
                        भैया, यह मामला दोस्ती की परिधि में नहीं आता।  
                        शिवेन्द्र कार से अकेला नही निकला। संजाना और सुनन्दा भी 
                        साथ थीं। प्रकाश को लगा, मामला कुछ दूसरा है। गुणवन्तराय 
                        की बात न हुई तो उसके लिए पाँच मिनट भी शिवेन्द्र को सह 
                        पाना मुश्किल हो जाएगा। वह एक दूसरी दुनिया का वाशिंदा है। 
                        शराब, लडकियाँ और चन्द बोसीदा शेर उसकी जिन्दगी हैं। ऐसे 
                        में कहीं किरण आ गई, तो सब चौपट हो जाएगा। यह दूसरी बात है 
                        कि शिवेन्द्र ने प्रकाश को हमेंशा आकर्षित किया है। मगर 
                        किरण को उसने चिढ है! प्रकाश को अच्छा लगता है शिक्षा और 
                        पूँजी के अभाव में भी वह मजे से दिन काटता है। दो चीजें तो 
                        उसके पास थी हीं, एक मौरिस और एक नन्हीं सी एडवर्टाइजिंग 
                        एजेंसी-पार्क डेविस एण्ड ली। 'पार्क 
                        डेविस एण्ड ली' कौन थे, शिवेन्द्र नहीं जानता। नाम उसे 
                        अच्छा लगा, उसने रख लिया। संयोग से उसे दो-एक बहुत अच्छी 
                        माडल मिल गईं, जिनके बल पर वह एक-न-एक अच्छे एकाउण्ट का 
                        जुगाड़ कर लेता।  प्रकाश 
                        से शिवेन्द्र का परिचय एक मारवाडी सहपाठी के यहाँ हुआ था। 
                        तबसे वह दो-तीन बार शिवेन्द्र की पार्टियों में हो आया था। 
                        नगर के कॉटन मैगनेट सेठ मनुभाई के यहाँ लडकी पैदा हुई, 
                        शिवेन्द्र ने ताजमहल में पार्टी फेंक दी। निरंजन बिडला की 
                        सगाई पर उसने अपने घर में पार्टी दी और एक ही शाम में 
                        हजारों रुपए फूँक दिए। शराब और लडकियाँ उसकी पार्टी में 
                        प्रचुर मात्र में होतीं। यह एयर होस्टेस मिस फर्नाडीज है, 
                        वह बहुचर्चित मॉडल पर्सिस खम्बाता, यह भारतसुन्दरी 
                        पाटनवाला। यह शर्मिला टैगोर, प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री। 
                        प्रकाश ने इतनी सुन्दर लडकियाँ एक साथ इतने निकट से नहीं 
                        देखी थीं। वह घण्टों लडकियों से बतियाता रहता। पार्टी खत्म 
                        होने से पहले शिवेन्द्र नशे में धुत्त सो जाता। श्रीमती 
                        शिवेन्द्र मेहमानों को बिदा करतीं।  पार्टी 
                        से लौटते हुए प्रकाश पाता कि वह अपनी मनहूसियत वहीं फेंक 
                        आया है मगर किरण को यह सब शोर-शरााबा सख्त नापसन्द था। वह 
                        अक्सर कहती, शिवेन्द्र को ज्यादा मुँह मत लगाया करो। मुझे 
                        वह आदमी ठीक नहीं लगता।  
                        शिवेन्द्र से चिढने का किरण के पास एक और कारण भी था। 
                        शिवेन्द्र ने पिछले वर्ष तय कर लिया कि 'न्यूइयर ईव' किरण 
                        की ओर से मनाई जाएगी। उसने बॉम्बोली में अपने बहुत से 
                        मित्रों को आमंत्रित कर रखा था। वहाँ किरण और प्रकाश का कई 
                        लोगों से परिचय हुआ। किरण का नाम बार-बार आ रहा था। वह 
                        इतना प्रसन्न हो गई कि हँस-हँस कर बिल चुकाती रही। दूसरे 
                        दिन उसने पाया, घर में अनाज के लिए भी पैसा नहीं है। तभी 
                        से वह शिवेन्द्र 'फ्रॉड' कहने लगी। शिवेन्द्र और किरण 
                        दोनों एक दूसरे को फ्रॉड कहने लगे।  
                        ५५ 
                        शिवेन्द्र ने आते ही विस्की की बोतल मेज पर रख दी और 
                        लडकियों से कहा जहाँ कहीं जगह मिले, बैठ जाएँ। 'मेज की चारों टाँगे हिल रही हैं। ऐसा न हो, तुम्हारी बोतल 
                        लुढक जाए' प्रकाश ने कहा, 'आज बोतलों की कमी नहीं।' 
                        शिवेन्द्र ने कहा।
 प्रकाश 
                        ने सुबह से बिस्तर भी साफ नहीं किया था। संजाना खाट पर बैठ 
                        गई और सुनन्दा किताबों के रैक से जा लगी। प्रकाश दोनों 
                        लडकियों से परिचित था। उसने कभी नहीं सोचा था, यह 
                        शिवेन्द्र का बच्चा किसी दिन इन लडकियों को भी उसका घर 
                        दिखा देगा। घर में तीसरे आदमी के लिए बैठने की भी जगह न 
                        थी। उसने सोचा कि गर्ग के यहाँ से दो-एक कुर्सिया उठा लाए। 
                        कुर्सियाँ आ गईं, तो हो सकता है, ये लोग यहीं जम जाएँ। वह 
                        चाहता था, किसी तरह किरण के आने से पहले इन्हें विदा कर 
                        दे। घर में जगह नहीं है, तो मैं कहाँ से लाऊँ? मैं कौन-सा 
                        इन लडकियों से शादी करने की सोच रहा हूँ, जो इन्हें देखकर 
                        परेशान होऊँ। मैं इन्हें बुलाने तो नहीं गया था। शिवेन्द्र 
                        को सोचना चाहिए था कि मेरे घर में बैठने की भी व्यवस्था 
                        नहीं है। अब क्या इन्हें सर पर बैठा लूँ?  
                        शिवेन्द्र उठा और रसोई से तीन गिलास और एक कप उठा लाया। 
                        तीनों गिलास अलग-अलग मेल के थे। उसने संजाना को चाबी दी कि 
                        जा कर डिकी से बर्फ निकलवा लाये। संजाना घर में ऐसे चल रह 
                        थी, जैसे कीचड़ में चल रही हो। दरवाजे पर चाल के बच्चों की 
                        भीड लग रही थी। प्रकाश ने उठकर पर्दा गिरा दिया। 
                         'हम लोग 
                        आज मड आइलैण्ड पर मिडनाइट पिकनिक मनाएँगे। तुम लोग भी 
                        जल्दी से तैयार हो जाओ। किरण से कहा, कुछ पराठे सेंक ले औ 
                        साथ में नीबू का अचार ले ले, जो उसकी माँ भेजा करती है। 
                        वैसे हमारे पास बहुत से कबाब हैं। किरण को रशियन सैलड बहुत 
                        पसन्द है, वह लेते आए हैं।' शिवेन्द्र बोला, 'बाकी लोग तो 
                        अब तक वहाँ पहुँच चुके होंगे। मैंने तय कर रखा था, जिन्दगी 
                        में कभी अंधेरी से गुजरा तो तुम से अवश्य मिलूँगा।' 
                         'किरण तो 
                        अभी कालिज से नहीं लौटी। दूसरे, उसकी तबीयज भी ठीक नहीं 
                        है।' 'तबीयत ठीक हो जाएगी।' शिवेन्द्र ने कहा, 'मैं उसका फ्राड 
                        नहीं चलने दूँगा।'
 संजाना 
                        थर्मस ले आई, तो शिवेन्द्र ने सबके गिलासों में थोडा-थोडा 
                        बर्फ डाल दी और खुद कप उठा लिया, 'चियर्स!' शिवेन्द्र अपना कप सिर से भी ऊपर ले गया।
 'चियर्स!' सबने कहा और पीने लगे।
 'यहाँ कही फोन है?' शिवेन्द्र ने पूछा।
 'हाँ है। एक नम्बर में।'
 'जरा दफ्तर में फोन पर मारिया से कह दो कि शिवेन्द्र यहाँ 
                        है और एक घण्टे तक इस फोन पर उपलब्ध है।' शिवेन्द्र ने 
                        गटागट अपना प्याला खाली कर दिया।
 प्रकाश 
                        ने इधर-उधर चवन्नी ढूँढी उसे कहीं न मिली। एक दिन उसने 
                        रसोई में एक कटोरी में कुछ रेजगारी देखी थी, मगर आज वह 
                        कटोरी भी नहीं मिल रही थी। 'क्या ढूँढ रहे हो?'
 'रेजगारी।' प्रकाश ने कहा।
 शिवेन्द्र ने पर्स खोला और एक दस का नोट उसकी ओर बढा 
                        दिया-'इधर रेजगारी की शहर में बहुत कमी है।'
 प्रकाश 
                        ने नोट थाम लिया और पाल के कमरे की ओर चल दिया। वह खुश था 
                        कि कुछ समय के लिए तो शिवेन्द्र से दूर हो सका। दोनों 
                        बंदरियाँ घर में कैसे फुदक रही हैं। किरण आएगी, तो सब को 
                        सीधा कर देगी। मॉडल होंगी, अपने घर होंगी। प्रकाश को उनकी 
                        हर हरकत पर क्रोध आ रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी, अंधेरी 
                        चला जाए और किरण को लेकर तब तक कहीं बैठा रहे, जब तक यह 
                        चंडाल चौकडी लौट नहीं जाती।  पाल 
                        कुर्सी पर उकडूँ बैठा था। टाइपराइटर केस में बन्द था। मेज 
                        पर कोई कागज नहीं था। जैसे पाल ने यह धंधा बन्द करने का 
                        निर्णय ले लिया हो। बच्चे भी कोनों में दुबके थे। 'पाल साहब!' प्रकाश ने धीरे से कहा।
 पाल ने 
                        आँखें उठाईं। उसकी आँखें सुर्ख हो रही थी। उनमें लहू था, 
                        और कुछ नहीं था। प्रकाश सहम गया। वह आदमी किसी भी समय 
                        बदतमीज हो सकता है। 'मैं शायद बहुत गलत समय पर आ गया। लगता है, आप की तबीयत 
                        नासाज है। मुझे जरूरी फोन करना था।'
 'कीजिए। फोन नहीं कटा, यही गनीमत है, वरना कोई मेरे घर की 
                        तरफ ताकता भी नहीं।'
 प्रकाश 
                        ने फोन मिलाया। मारिया मिल गई। उसने शिवेन्द्र का संदेश दे 
                        दिया और पाल के सामने दस का नोट फैला दिया। 'रेजगारी हो तो दीजिए।' पाल ने कहा।'
 'रेजगारी नहीं है।'
 'फिर कभी दे दीजिएगा।' प्रकाश लौटने लगा, तो पाल ने आवाज 
                        दी।
 'कल तक के लिए क्या आप दस का नोट स्पेयर कर सकते हैं? आप 
                        दे सकें तो दे दीजिए। कल ग्यारह तक लौटा दूँगा।' पाल ने 
                        मेजके ड्रॉअर से सौ रुपए का एक चेक निकाला और प्रकाश को 
                        दिखाते हुए बोला, 'यह कल की तारीख का चैक है। बियरर चेक। 
                        आप चेक रख सकते हैं। कल मुझे नब्बे रुपए लौटा दीजिए।'
 दरअसल यह दस का नोट मेरा नहीं है।' प्रकाश ने कहा, 
                        'शिवेन्द्र ने फोन के लिए दिया था।'
 'कोई बात नहीं।' पाल ने कहा।
 'रेणु कहाँ है?' प्रकाश ने पूछा।
 'दरवाजे में मुँह छिपाए रो रही है।'
 'क्यों?'
 'उसकी माँ भाग गई। दो दिन से घर नहीं आई।'
 'आपने कहीं पता कराया। कहीं कोई एक्सीडेण्ट न हो गया हो।'
 'नहीं एक्सीडेण्ट नहीं हुआ। वह बता कर गई है। कहती है, मैं 
                        गरीबी में नहीं रह सकती।'
 प्रकाश 
                        चुपचाप खडा रहा। दस का नोट उसके हाथ में था। उसने पाया 
                        उसकी कमीज या पाजामें में कोई जेब नहीं थी कि ठूँस ले। 'वह गरीबी में नहीं रह सकती और मैं गरीबी से उबर नहीं 
                        सकता, मैंने बहुत हाथ-पाँव मारे जिसकी तकदीर ही फूट गई हो, 
                        वह क्या कर सकता है। जाते हुए वह एक और दिलचस्प बात कह गई 
                        कि उसने पैंतीस वर्ष की उम्र में पहली बार डिस्कवर किया 
                        है, कि प्यार किसे कहते हैं। आप को ताज्जुब होगा, उसके चार 
                        बच्चे हो गए, मगर उसे प्यार का एहसास नहीं हुआ।' पाल ने 
                        कहा।
 प्रकाश ने देखा, शिवेन्द्र बाल्कनी में खडा उसकी प्रतीक्षा 
                        कर रहा था।
 'लीजिए आप दस रुपए ले लीजिए। मैं अपने मित्र से कह दूँगा।' 
                        प्रकाश बोला।
 'आप मुझ पर दया करके मुझे दस रुपए दे रहे हैं। मैं दया का 
                        पात्र नहीं बना रहना चाहता। आपका मित्र चाहे तो नब्बे रुपए 
                        में सौ का यह चेक खरीद सकता है। किसी ऐसी, वैसी पार्टी का 
                        नहीं है। ओ पी रल्हन ने खुद दस्तखत किया हैं।'
 'आप दस रुपए रखिए।' प्रकाश ने कहा, 'में अपने मित्र से यह 
                        प्रस्ताव नहीं रख सकता। उसके साथ कुछ दूसरे लोग भी हैं।'
 प्रकाश 
                        ने दस का नोट पाल की मेज पर रख दिया और बाहर निकल आया। 
                        सूरज डूबने को हो रहा था। किरण को अब तक आ जाना चाहिए था। 
                        उसने सोचा, शिवेन्द्र की गाडी में उसे अंधेरी तक देख आये। 
                        अंधेरी जाकर क्या होगा, हो सकता है, वह बस में बैठ चुकी हो 
                        या किसी वजह से गाडियाँ ही अस्त-व्यस्त हों। तभी पाल का 
                        बडा बेटा तीर की तरह प्रकाश के पास से निकल गया। 
                         'अंकल 
                        रसगुल्ले लेने जा रहा हूँ। खाओगे? रेणु ने लिए गुडिया 
                        लाऊँगा और अपने लिए पतंग।' बच्चा बकता हुआ भागे जा रहा था। 
                        कुछ ही देर में वह आखों से ओझल हो गया।  प्रकाश 
                        ने पलटकर देखा, पाल के घर का माहौल एकदम बदल गया था। बच्चा 
                        लोग इधर उधर से निकलकर बाप से चिपक गए थे। कोई बाप के कंधे 
                        पर सवार हो गया और कई कमर से लटकने लगा। शायद, बच्चों को 
                        प्रसन्न करने के लिए ही पाल को पैसे की जरूरत थी। 
                         
                        'तुम्हारा दस का नोट मैंने पाल को दे दिया। उसकी बीवी भाग 
                        गई है और बच्चे रो रहे हैं।' प्रकाश ने लौट कर घुसते ही 
                        शिवेन्द्र से कह कर दस रुपए से मुक्ति पा ली। शिवेन्द्र ने 
                        इस बात में कोई दिलचस्पी न ली। वह उस समय दोनों लडकियों को 
                        अपनी स्पेन-यात्रा के अनुभव सुना रहा था। लडकियाँ जानती 
                        हैं और शिवेन्द्र जानता है कि लडकियाँ जानती हैं कि वह कभी 
                        समुद्र पार नहीं गया। एक बार नेपाल गया था और वहाँ से 
                        सिफलिस लेकर लौटा था। वह तुरन्त सतर्क न हो जाता, तो अब तक 
                        उसका जीवन नरक हो गया होता। इस समय शिवेन्द्र वही पुराना 
                        किस्सा सुना रहा था कि कैसे मेड्रिड में एक युवती ने उसकी 
                        गाल पर थप्पड दे मारा था। इसके बाद वह उसे अपने घर ले गई। 
                        दरअसल शिवेन्द्र ने अपनी जवानी के दिनों में जो जो दो-एक 
                        उपन्यास पढ रखे थे, अक्सर उनके नायकों के साथ अपना 
                        तादात्म्य स्थापित करता रहता। शिवेन्द्र की शादी के समय 
                        उसके एक प्रसिद्ध साहित्यिक मित्र के पास उपहार देने को 
                        केवल 'ज्यां क्रिस्तोफ' था। शिवेन्द्र ने जस-तस उपन्यास पढ 
                        लिया, पढ क्या लिया, पढ-पढ कर अपनी बीवी को प्रभावित करता 
                        रहा कि वह पढाकू किस्म का आदमी है। उपन्यास पढ कर वह 
                        वर्षों अपने का क्रिस्तोफ समझता रहा। उसे विश्वास हो गया, 
                        'ज्यां क्रिस्तोफ' कोई और नहीं शिवेन्द्र ही है। शिवेन्द्र 
                        ने देखा कि लडकियाँ उसकी बात से प्रभावित नहीं हो रहीं और 
                        प्रकाश भी इधर-उधर ताक रहा है, तो उसने समझ लिया कि वह यह 
                        किस्सा जरूर दोहरा रहा होगा। अक्सर उसके दोस्त शिकायत करते 
                        हैं कि वह एक ही बात को महीनों किसी-न-किसी प्रसंग में 
                        दुहराया रहता है। वैसे शिवेन्द्र का बात करने का अंदाज 
                        इतना रोचक और आवाज इतनी संवेदनपूर्ण थी कि कोई भी आदमी 
                        उसकी बात को पाँच-छह बार आसानी में बर्दाश्त कर सकता था।
                         
                        'तुम्हारी बीवी लौट आई है और लौटते ही बडी बेनियाजी और 
                        अफसाना निगारी के अन्दाज में तथाकथित रसोई में घुस गई है। 
                        उससे पूछ कर बता दो कि उसे तैयार होने में कितना लगेगा?'
                        'कब आ गई?' प्रकाश ने पूछा।
 'जब तुम फोन करने गए थे। तुम साले पाल की बीवी की चिंता 
                        में मरे जा रहे हो जबकि तुम्हारी अपनी बीवी की भी हालत 
                        खस्ता है। तुमने कहीं अपना इंताजाम नहीं किया, तो तुम्हारा 
                        हश्र भी वही होगा, जो पाल का हुआ बताते हो। यह दूसरी बात 
                        है, तुम्हारे पास रोने के लिए बच्चे नहीं , दोस्त ही 
                        बचेंगे।'
 
                        शिवेन्द्र की बात से लडकियों को बडा मजा आया। वे खिलखिला 
                        कर हँस पडीं। किरण अपनी सूरत की साधरणता के बावजूद 
                        पार्टियों में इन लड़कियों पर हावी रही है। दोनों लडकियाँ 
                        सुन्दर हैं मगर बात करने में फिसडडी। वे अपनी बात से नहीं 
                        सुस्कराहट से प्रभावित करती हैं। प्रकाश ने संजाना की तरफ 
                        देखा और व्यंग से मुस्करा दिया। शिवेन्द्र के घर की लिफ्ट 
                        में उसने एक सिंधी फाइनेंसर को संजाना से लिपटे देख लिया 
                        था। संजाना ने भी प्रकाश को देख लिया था। प्रकाश ने इस तरह 
                        देखते हुए पाकर वह अपनी घडी देखने लगी थी।  'अब समय 
                        आ गया है पार्टनर, कि तुम भी फिट हो जाओ। तुम्हारे सामने 
                        कोई चारा न हो, तो 'पार्क डेविस एंड ली' तो है ही। तुम 
                        इंजीनियर आदमी हो, कुछ-न-कुछ तो पीट ही लाओगे। इधर 
                        'कमानीज' का बहुत शोर है। सुनते हैं, इस वर्ष वे पाँच लाख 
                        का एकाउंट दे रहे हैं। तुम अगर तय कर लो तो एकाउंट हथिया 
                        लोगे। पाँच प्रतिशत कमीशन तो कोई भी दे देगा। 'पार्क डेविस 
                        एंड ली' तो साढे सात प्रतिशत तुम्हारे नाम डेबिट कर देगी। 
                        तुम्हारा सहपाठी चन्द्रा चोकसी उनका पी.आर.ओ. है। कहो तो 
                        अभी तुम्हारा नियुक्ति पत्र टाइप करवा दूँ। 'कमानीज' को 
                        हमारे मॉडल भी पसन्द है। कम्पेन के बारे में निश्चिन्त 
                        रहो। लोग एकाउण्ट्स एग्जीक्यूटिव होने के लिए वर्षों जूते 
                        चटखाते हैं, यहाँ 'पार्क डेविस एण्ड ली' का सोल 
                        प्रोप्राइटर तुम्हारे घर में तुम्हें यह ऑफर दे रहा है। 
                        शुरू में कृष्णमूर्ति हमारे यहाँ चार सौ पाता था, अब 
                        'प्रतिभा' से फोर फिगर्स ड्रा कर रहा है। 'पार्क डेविस 
                        एण्ड ली' का आदमी बेकार नहीं रहता। सुनन्दा से ही पूछ लो, 
                        'उसका उसे कितने प्रलोभन दे चुके है। मगर सुनन्दा को मालूम 
                        है, हमारे यहाँ उसका भविष्य सुरक्षित है। तुम इस लाइन में 
                        नए आओगे। शुरू में ज्यादा नहीं दे पाऊँगा। मगर यह तय हे कि 
                        पहले ही रोज़ तुम्हारी वार्डरोब बनवा दूँगा। तुम जल्दी ही 
                        जान जाओगे, हमारा खेल दिखावे का खेल है। मेरी जरूरतें पूरी 
                        हों जाएँ, चर्चगेट में दफ्तर ले लूँ, नीचे इम्पाला खडी 
                        रहे, फिर देखो कैसे ए.एस.पी. की ऐसी-तैसी करता हूँ।'
                         प्रकाश 
                        शिवेन्द्र से पूर-का-पूरा यही भाषण कई बार सुन चुका था। 
                        शिवेन्द्र बात कर रहा था, और प्रकाश लगातार रसोई की तरफ 
                        देख रहा था। शिवेन्द्र की बात खत्म हो तो वह किरण से 
                        हाल-चाल मालूम करे। किरण ने आज जरूर गुणवंतराय का सिर फोड 
                        दिया होगा। प्रकाश ने रसोई में झाँक कर देखा, किरण कहीं 
                        नजर नहीं आ रही थी। आटे के कनस्तर पर उसकी किताबें पडी 
                        थीं। रसोई में जाकर हो वह किरण को देख पाया। वह एक कोने 
                        में दुबकी चाय पी रही थी।  'ये लोग 
                        अचानक चले आए। शिवेन्द्र को धीरे से समझा दो कि हम नहीं जा 
                        पाएँगे।' प्रकाश ने कहा। 'तुमने और तुम्हारे दोस्तों ने मुझे नौकरानी समझ रखा है। 
                        सुबह सात से निकली अब लौटी हूँ, और तुमने मेरे लिए दूसरे 
                        काम निकाल रखे हैं कि मैं कहीं सुस्ता न लूँ। रात को भी 
                        ठीक से सोने नहीं देते। कह दो जाकर मैं पराठे नहीं 
                        सेंकूँगी। अब यहाँ मेरे सर पर क्यों खडे हो? जाकर दोस्तों 
                        के संग पियो और मौज उडाओ। तुमसे इतना भी नहीं हुआ कि कालिज 
                        चले आते। मेरी मौत भी हो जाए, तुम पर असर नहीं पडेगा। 
                        पुरुष हो न, किरण रोने लगी।
 प्रकाश 
                        ने वहाँ खडा रहना उचित न समझा। वह खडा रहेगा किरण बोलती 
                        जाएगी। किरण की आवाज अवश्य बाहर जा रही होगी। उसने यह सब 
                        धीरे से नहीं कहा था, कि शिवेन्द्र या लडकियों ने न सुना 
                        हो। आखिर वह कलेजा मजबूत करके कमरे में आ गया। उसके मेहमान 
                        भी दीवारों वगैरह की तरफ ताक रहे थे।  
                        ६६६ 
                        शिवेन्द्र ने प्रकाश को देखते ही जल्दी से उसके लिए एक पेग 
                        बनाया और उसके हाथ में थमाता हुआ बोला, 'परेशान मत हो। अभी 
                        थोडी देर में उसका गुस्सा शांत हो जाएगा। उसका नाराज होना 
                        जायज है। लडकियाँ थकने पर अनाप-शनाप बका ही करती हैं।' 'सुनन्दा तुम जल्दी से आटा मल लो। और संजना तुम आलू उबाल 
                        लो। तब तक किरण भी स्वस्थ हो जाएगी।' प्रकाश ने कहा। 
                        इन्हें काम करते देख किरण ठीक हो जाएगी, वह जानता है।
 
 'न बाबा, मुझसे यह सब नहीं होगा।' सुनन्दा ने तुरन्त 
                        सिगरेट सुलगा ली और बोली, 'मुझे खाना आता है, पकाना नहीं।'
 
 'पकाने की जरूरत भी नहीं है। इतना खाना है, हमारे पास कि 
                        सुबह नाश्ते तक जरूरत नहीं पडेगी। यह तो शिवेन्द्र की जिद 
                        थी कि पराठे भी होने चाहिए। बीच-बीच में इसके मध्य वर्ग के 
                        संस्कार जोर मारने लगते हैं। वह आज भी परांठों को पिकनिक 
                        से एसोसिएट करता है।'
 
 'जिद नहीं है, जरूरत भी नहीं। मैंने तो किरण को फ्लैटर 
                        करने के लिए यह सुझाव रखा था। ये लडकियाँ शायद जानती नहीं, 
                        मैं इन सबसे अच्छा खाना बना सकता हूँ! स्त्री तो अच्छी कुक 
                        हो ही नहीं सकती। आप बडे-से-बडे रेस्तरों में चले जाइए, 
                        मेल कुक ही मिलेगा।'
 शिवेन्द्र अपनी बात जारी रखता कि सहसा किरण कमरे में आ गई। 
                        उसके हाथ में उबले हुए अंडों की तश्तरी थी। चाय पीकर और 
                        मुंह धोकर वह स्वस्थ हो गई थी। वह प्रकाश के पास ही खटिया 
                        पर बैठ गई और बोली; 'आई एम सॉरी, शिवेन्द्र। मेरा दिमाग 
                        खराब हो गया था।'
 लडकियाँ अंडे देखकर मचल उठीं, 'यू आर स्वीट, किरण! हम तो 
                        तुम्हारा मूड देख कर डर गई थीं। ये लोग वर्किड वूमन की 
                        परेशानी कभी नहीं समझ सकते।'
 कुकर की सीटी सुनाई दी, तो किरण उठ गई, 'आलू उबल गए हैं। 
                        मैं अभी तुम लोगों का टिफिन तैयार करती हूँ।'
 'हमें किसी चीज की जरूरत नहीं है। हमारे पास ढेर-सा सामान 
                        है। तुम्हारा प्रिय रशियन सैलड भी। तुम जल्दी से तैयार हो 
                        जाओ।'
 'प्रकाश को ले जाओ, मैं बेहद थकी हूँ।' किरण ने कहा।
 'प्रकाश को हम अकेले नहीं ले जाएँगे, तुम्हें चलना ही 
                        होगा।'
 'आज मैं 
                        किसी भी सूरत में नहीं जा पाऊँगी। सब लोग मजे के मूड में 
                        हों और मैं थकान-थकान चिल्लाती रहूँ, यह मुझसे न होगा! 
                        पिकनिक का मजा तभी है जब सब लोग नाचने गाने के मूड में 
                        हों। दुसरे सुबह मुझे कालिज भी जाना है। काम-काज के रोज 
                        तुम्हें यह मिडनाइट पिकनिक की क्या सूझी। सैटरडे नाइट को 
                        पिकनिक रखते, ताकि सण्डे को सब लोग सो पाते। तुम लोग सुबह 
                        काम पर कैसे जाओगे?' 'हमारे धन्धे में इतवार का बन्धन नहीं। दफ्तर में तो लोग 
                        आज भी ओवरटाइम कर रहे होंगे। इधर ग्लायकोडीन की कम्पेन पर 
                        हम लोग दिन रात एक कर रहे हैं। यह फिल्म भी एनिमेटिड फिल्म 
                        होगी। शुरू और अन्त में केवल कुछ क्षणों के लिए मॉडल के 
                        शॉट होंगे।'
 'पिछले वर्ष इन्हीं दिनों तुम 'वल्लभ ब्लेंकेट्स' पर काम 
                        कर रहे थे, उसका क्या हुआ?'
 'होना क्या था, फिल्म बनी और रिलीज हो गई। अलग-अलग रंगों 
                        के पचीस-तीस ब्लेंकेट्स भी मिले शूटिंग के लिए जो मैंने 
                        मित्रों में बाँट दिए। तुम लोगों के लिए भी मैंने बढिया 
                        कम्बल रखा था, मगर तुम लोग बड़े आदमी हो, शिवेन्द्र के 
                        यहाँ क्यों आओगे?'
 
                        'ग्लायकोडीन की फिल्म अंग्रेजी में भी 'डब' होगी। अनुवाद 
                        तुम्हें करना होगा। पचास रुपए मिलेंगे। वे भी कांइड में 
                        यानी हिस्की की एक बोतल किंग्ज ब्लेन्ड।' 'अनुवाद पाल से करा लेना। वह पचीस में कर देगा।' किरण ने 
                        कहा।
 'दस तो तुम दे ही चुके हो!' प्रकाश बोला।
 किरण ने 
                        कुकर की एक और सीटी सुनी तो भाग कर रसोई में घुस गई। उसे 
                        याद आया, आलू का तो अब तक हलुवा बन गया होगा। 'तुम्हारी बीवी एक जिद्दी औरत है।' शिवेन्द्र ने लडकियों 
                        की तरफ देखते हुए कहा, 'जाडिया तो अब तक पहुँचा गया होगा 
                        और गाली बक रहा होगा। चिंता मुझे चन्नी की है। कहीं लौट 
                        गया तो मनाने में हफ्तों खर्च हो जाएँगे। हम लोगों को अब 
                        फौरन से पेशतर रवाना हो जाना चाहिए। तुम लोगों को मालूम 
                        होना चहिए कि पिकनिक भी हमारे धंधे में एक काम है। चन्नी 
                        और चन्नी की बीवी को पेम्पर करने के लिए ही मैंने मिडनाइट 
                        पिकनिक आयोजित की हैं पहली ही भेंट में मैंने चन्नी की 
                        बीवी को चाँद की ओर टकटकी लगाए देख लिया। और तुरन्त 
                        मिडनाइट पिकनिक का सुझाव रख दिया। चन्नी मूढ आदमी है। बीवी 
                        की खुशी के लिए चला आएगा। वैसे उसे न चाँद में दिलचस्पी 
                        है, और न बालू में। मगर उसके हाथ में तीन लाख का एकाउंट 
                        है।'
 'चन्नी कौन है?'
 'नया दोस्त। कैप्टन चन्नी। शिपिंग कम्पनी का अत्यधिक 
                        प्रभावशाली एग्जीक्यूटीव। किंग ऑफ किंग्ज लेकर आने वाला 
                        है।' शिवेन्द्र ने प्रकाश को प्रलोभन दिया, 'किरण न जाती 
                        हो, न सही। तुम तैयार हो जाओ।'
 'मुझे-मुवाफ करोगे। जाना होता तो हम अब तक तैयार भी हो 
                        जाते। अगली बार चलेंगे।'
 शिवेन्द्र प्लीज, मजबूर न करो।' किरण रसोई मेंसे बोली, 'आज 
                        मैं सिर्फ सोना चाहती हूँ।'
 'रेत पर सो जाना।'
 'नहीं, आज मन नहीं।' किरण अल्युमिनियम के रंगीन डिब्बे में 
                        कुछ परांठे भर लाई। घर में एकमात्र डिब्बा था। अब यह सुबह 
                        अपना खाना किस चीज में ले जाएगी।, प्रकाश सोचने लगा। किरण 
                        ने खडे-खडे ही डिब्बे के ऊपर कागज चढा दिया और रिबन से 
                        बाँध कर सुनन्दा के हाथ में थमा दिया, 'लेकिन प्रकाश जा 
                        सकता है। निस्संकोच। मिडनाइट पिकनिक है, सुबह तक तो लौट 
                        आएगा।'
 प्रकाश 
                        ने लडकियों को उबाइयाँ लेते देखा तो बोला, 'अब इन लोगों को 
                        देर न करो। शिवेन्द्र से मुलाकत हो गई, यही बहुत है।' शिवेन्द्र ने सिगरेट फेंक दी और सिगार सुलगा लिया। किरण 
                        तुरंत नमस्कार की मुद्रा में खडी हो गई। जैसे उन लोगों की 
                        विदाई का इन्तजार ही कर रही थी।
 लडकियाँ 
                        कमरे से इस तरह निकलीं, जैसे जेल से रिहा हुई हों। दोनों 
                        ने जीन्स पहन रखे थे, और सिगरेट फूँक रही थीं, चाल के 
                        बच्चों और महिलाओं में हलचल मच गई। तुम लोग नहीं आओगे, मैं जानता हूँ।' शिवेन्द्र जाते-जाते 
                        बोला, 'मगर मैं आप लोगों का इन्तजार करूँगा। आधी रात को 
                        बालू का एक घरौंदा बनाऊँगा और खुद ही फोड दूँगा। फिर उस 
                        वीराने में रात भर पडा रहूँगा।'
 'तुम सिर्फ भावुक हो रहे हो, शिवेन्द्र।' किरण ने कहा, 'ए 
                        टोस्ट ऑव हैपी विशेज़, फार दे बेस्ट ऑव एवरीथिंग एट मड 
                        आइलैंड।'
 लडकियाँ 
                        कार में धँस गई थीं। चाल के बच्चे 'जोर लगा के हैया' कहते 
                        हुए कार धकेलने की कोशिश कर रहे थे। गोद में बच्चे उठाए 
                        महिलाएँ चाल की बाल्कनी पर जमा हो गई थीं।  
                        शिवेन्द्र की कार स्टार्ट हो, इससे पूर्व ही चाल में एक और 
                        घटना हो गई। सब बच्चा लोग पाल के कमरे की ओर भागे प्रकाश 
                        और किरण ने भी शिवेन्द्र को हाथ हिलाकर, विदा किया। और वे 
                        भी दूसरे लोगों की तरह तुरंत पाल के कमरे की तरफ देखने 
                        लगे। अचानक पाल की बीवी लौट आई थीं, और अब पाल अकड रहा था।
                         प्रकाश 
                        ने लक्षित किया, कुछ देर पहले पाल की आवाज में जो संजीदगी 
                        और उदासी थी, उसकी जगह अब आत्मविश्वास ने ले ली थी। वह 
                        फिल्मी नायक के अन्दाज में कह रहा था, 'अब यहाँ क्या करने 
                        आई हो, फौरन निकल जाओ। इस घर में अब तुम्हारे लिए जगह नहीं 
                        है। मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देख सकता। मुझे मुआफ करो और 
                        चली जाओ। तुम यहाँ रहना चाहती हो, तो मैं बच्चों को लेकर 
                        कही और चला जाता हूँ। सरदार जी, आप कल्पना नहीं कर सकते, 
                        इस औरत ने मुझे कितनी परेशानी दी है। मेरे बच्चों का 
                        सत्यानास कर डाला है। मेरी जिन्दगी तबाह कर दी है। बच्चों 
                        का मोह न होता, मैं दूसरी शादी करके अबतक सुखी हो चुका 
                        होता। आप बराय मेहरबानी इसे मेरे सामने से हटा लीजिए।'
                         पाल की 
                        बीवी के साथ शायद उसका बाप आया था। वह चुपचाप इस नाटक को 
                        देख रहा था। चाल के लोग जानते हैं, पाल की बीवी बोलने लगे, 
                        तो पाल तुरंत शांत हो जाएगा। मगर वह चुप थी। उसका बाप भी 
                        चुप था। आखिर उसने अपनी पगडी उतारी और पाल के पाँव पर रख 
                        दी, 'मैं कुछ नहीं बोलूँगा, बेटा तुम कुछ भी कहते रहो। 
                        मेरी पगडी की लाज रख लो। मेरी लडकी सती-सावित्री है, मगर 
                        नादान है। आज वह जो कुछ भी है, तुम्हारी बनाई हुई है। 
                        मैंने तो तुम्हें एक भोली-भाली बिटिया दी थी, तुम खुद सोच 
                        लो।'  सरदार 
                        दीवार पर टँगी अपनी बिटिया की शादी की तस्वीर देखने लगा। 
                        वह शादी के तुरन्त बाद का चित्र था। पाल कोट-पेंट-टाई पहने 
                        अकडकर खडा था, और उसकी बगल में छुई-मुई-सी एक लडकी थी। 
                        आँखे झुकी हुई, गर्दन भी झुकी हुई। पाल ने तस्वीर की तरफ 
                        देखा तो उसका क्रोध और बढ गया। मेज पर एक चम्मच पडा था, 
                        पाल ने चम्मच उठाया और पत्थर की तरह तस्वीर पर दे मारा। 
                        गुस्से में पाल का निशाना चूक गया। चम्मच दीवार से टकरा कर 
                        नीचे गिर पडा। पास के हाथ मेज पर दूसरी चीज तलाश करने लगे। 
                        मेज पर लाल स्याही की दावाज पडी थी, पाल ने दावात उठा कर 
                        तस्वीर पर पटक दी। तस्वीर चकनाचूर हो गई, दावात भी और कमरे 
                        में लाल स्याही के नन्हें-नन्हें तालाब बन गए।  पाल के 
                        बच्चे कमरे के बाहर से इस दृश्य को देख रहे थे। फोन की 
                        घण्टी बजी, तो रेणू भाग कर कमरे में गई और रिसीवर उठाकर 
                        अलग रख आई। फिर वह सहेलियों के साथ रस्सी टापने लगी। 
                        तोड-फोड से कमरे का तनाव कम हो गया था। पाल भी अब शांत नजर 
                        आ रहा था। उसने अपने पैरों से उठाकर पगडी सरदार जी के सर 
                        पर रख दी। पाल के दूसरे बच्चों ने भी काण्ड में दिलचस्पी 
                        खो दी और कट कर आती हुई एक पतंग के पीछे भागे।  किरण और 
                        प्रकाश बिना एक दूसरे से बात किए कमरे में लौट आए। प्रकाश 
                        पलंग पर लेट गया और लेटते ही उसने दीवार की ओर करवट ले ली। 
                        किरण भी प्रकाश के निकट हो पलंग पर बैठ गई और प्रकाश का 
                        हाथ सहलाने लगी। प्रकाश इतना थक गया था, और शिवेन्द्र 
                        लोगों में प्रति किरण के व्यवहार से इतना निराश हो चुका था 
                        कि उसकी इच्छा न हुई कि किरण से पूछ ले, गुणवन्तराय का 
                        क्या हुआ। वैसे उसे थकान गुणवन्तराय को लेकर ही आ गई थी।
                         'तुम 
                        नाराज हो, प्रकाश?' किरण ने प्रकाश को सहलाते हुए पूछा। 
                        किरण की आवाज मधुर एवं शांत थी। प्रकाश ने उत्तर नहीं दिया। वह उसी प्रकार दीवार की ओर 
                        देखता रहा। किरण ने उठ कर, किवाड बन्द कर दिए। कमरे में 
                        अंधेरा हो गया, मगर उसने बत्ती नहीं जलाई।
 'मैंने सोचा था, तुम सुबह मेरे साथ चलोगे। तुम बाद में भी 
                        नहीं आए।'
 'मैं आना चाहता था, मुझे टिकट के लिए कहीं पैसे नहीं 
                        मिले।' प्रकाश ने बिना करवट लिए कहा। अचानक उसे अच्छा 
                        बहाना मिल गया था।
 'मेरी साडियों के नीचे अब भी तीस रुपए पडे होंगे। तुम देख 
                        लो।'
 'तुमने साडियाँ कहा रखी हैं, मुझे मालूम नहीं।'
 'इस समय तुम जान-बूझ कर सता रहे हो।'
 'सॉरी।' प्रकाश में रुखाई से कहा।
 किरण प्रकाश को हिलाने-डुलाने की कोशिश करने लगी। वह सी-सा 
                        की तरह हिलने लगा।
 'प्रकाश।' किरण ने कहा ओर उसे यहाँ-वहाँ से चूमने लगी, 
                        'मैंने अभी देखा, तुमने खाना भी नहीं खाया, सुबह से भूखे 
                        पडे हो।'
 'मेरा मन ठीक नहीं है। मुझे सोने दो।' प्रकाश ने कहा।
 'नहीं, तुम सो नहीं सकते।' सहसा किरण के स्वर की कोमलता 
                        जाती रही और उसमें एक पेशेवर कठोरता आ गई, जो अध्यापकों के 
                        स्वर में अनायास कक्षा के बाहर भी आ जाती है, 'जब मेरा मन 
                        ठीक नहीं होता, तुम उस समय कुछ सोचते हो? मुझ में बात करने 
                        की शक्ति भी नहीं होती, मैं तुम्हारे साथ कहीं भी चल देती 
                        हूँ।'
 प्रकाश 
                        ने किरण के हाथ झटक दिए। किरण और भी निकट आ गई, 'तुम भी 
                        दूसरे गुणवन्तराय हो। तुममें और पाल में भी कोई विशेष 
                        अन्तर नहीं है। हमेश स्त्री पर हावी रहना चाहते हो। तुम 
                        चाहते हो, वह तुम्हारे सामने रोती रहे और तुम आँसू पोंछ कर 
                        बडप्पन दिखाते रहो। तुम अपने को मन में कितना भी उदार 
                        समझो, स्त्री के बारे में तुम्हारे विचार सदियों पुराने 
                        हैं। तुम चाहते हो, वह बिना किसी प्रतिरोध के तुम्हारे 
                        इस्तेमाल में आती रहे। यही समझते हो न? यही नहीं, घर में 
                        मेरी औकात नौकरानी, महराजिन और महरी से ज्यादा नहीं। झुठला 
                        सकते हो मेरी बात को?  किरण 
                        अपना हाथ प्रकाश की बनियान के नीचे ले गई और जोर-जोर से 
                        चिकौटियाँ काटने लगी। किरण के हाथ ठण्डे थे, प्रकाश की रीढ 
                        के पास फुर-फुरी-सी होने लगी। इसकी इच्छा हुई वह किरण को 
                        ऐसा झटका दे कि वह खाट से नीचे गिर पडे। इसे जरूर किसी 
                        पागल कुत्ते ने काट लिया है, प्रकाश ने सोचा और खाट पर 
                        आराम से पसर गया। प्रकाश को इस तरह जड और निरपेक्ष पाकर 
                        किरण उसे दाँतों से काटने लगी। इसी संघर्ष में किरण ने कब 
                        अपने कपडे फाड दिए या फेंक दिए, प्रकाश को इसका एहसास तब 
                        हुआ जब रह-रह कर किरण का पुष्ट और निम्न-वक्ष उसके सीने से 
                        टकराने लगा। वह अपना शरीर प्रकाश पर इस तरह पटक रही थी, 
                        जैसे प्रकाश पत्थर की सिल हो और वह उससे टकरा-टकरा कर 
                        चकनाचूर हो जाएगी। किरण की सांस इतनी तेज चल रही थी कि 
                        उसके लिए मुंह से बोल पाना असम्भव था, मगर वह फिर भी बोल 
                        रही थी, 'तुम्हें यही घमण्ड है न कि तुम पुरुष हो। मुझसे 
                        ताकतवर हो, मुझसे श्रेष्ठ हो। यही समझते हो न? हर पुरुष 
                        यही समझता है। मगर मैं आज तुम्हारे दिमाग से सदियों से 
                        बैठी यह गलतफहमी निकाल दूँगी।' उत्तेजना के अन्तिम बिन्दु 
                        पर पहुँच किरण सहसा निढाल हो गई और प्रकाश के ऊपर ही गिर 
                        पडी। उसका शरीर पसीने से तर था। ठंडा।  प्रकाश 
                        ने आँखें खोलीं, तो देखा अंधेरा घिर आया था। बालकनी में 
                        मेढेकर ने दो-तीन बल्ब लगा दिए थे। उसके यहा आज रतजगा था। 
                        बाहर बाल्कनी में बच्चा लोग मिलकर शायद तख्त घसीट रहे थे। 
                        कमरे के रोशनदान खुले थे। बालकनी से जलने वाले बल्बों से 
                        कमरे में जगह-जगह रोशनी के चकत्ते बन गए थे। प्रकाश ने 
                        देखा, मेज पर ह्विस्की की बोतल और सिगरेट का पैकेट पडा था। 
                        शिवेन्द्र जान-बूझ कर उसके लिए छोड गया होगा। बंतासिंह की 
                        टैक्सी रुकी, दरवाजे बन्द हुए और वह 'जपुजी' का पाठ करता 
                        हुआ सीढियाँ चढ गया।  रतजगे की 
                        तैयारी में बच्चा लोग दरियाँ झाड रहे थे। मगर चाल पे उस ओर 
                        गहरा सन्नाटा था। फैक्ट्रयों की बिजलियाँ दूर-दूर तक 
                        टिमटिमा रही थीं, जैसे देश के उद्योगीकरण का काम पूरा हो 
                        चुका हो। मछली बाजार का मैदान सो चुका था। बीच-बीच में 
                        कुत्तो और सियारों के रोने की आवाज आती और शांत हो जाती।
                         वे 
                        बिलकुल आदमियों की तरह रो रहे थे। 
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