| 
                         शुक्र 
                        की रात यह मैदान रोशनी से जगमगाने लगता। उस बस्ती में 
                        टैक्सी मिलना दुश्वार हो जाता। मछुओ-मछुवारिनों का दल 
                        रात-भर में अपनी दुकानें बैठा लेता, सूखी हुई मछली के 
                        बडे-बडे अम्बार लग जाते और दूर-दूर तक बस्ती में मछली की 
                        गंध गमकने लगती। चाल के लोग बडी तत्परता से मैदान की और 
                        खुलने वाली खिडकियाँ बन्द करने लगते। सुबह 
                        होते-होते अहाते के बाहर मछली बाजार के समानांतर एक और 
                        बाजार लग जाता, जिसमें आलू प्याज से लेकर 'हरचीज दस नये 
                        की' जैसी चीजें बिकने लगतीं। गुब्बारे, चाट, सिंदूर, 
                        पुराने कपडे, धोतियाँ, साडियाँ, पतलूनें, कमीजें, पुराने 
                        जूते, लाटरी, वेणी, पाँच नये में भाग्य आजमाओं और दस नये 
                        में ताकत। शुद्ध शिलाजीत, भीमसेनी काजल। ताजा मुर्ग 
                        मुसल्लम। गर्म चाय। गर्ज यह कि धीरे-धीरे मछली बाजार मेले 
                        के रूप में बदलने लगता। सूखी मछली से लदे बीसियों ट्रक आते 
                        और मछली से लद कर बीसियों ट्रक लौट जाते। मछली बाजार से 
                        निकलते ही मछुवारिनें अपनी हफ्ते-भर की कमाई का कुछ हिस्सा 
                        वहाँ खर्च कर देतीं। शीघ्र ही यह दल वरसोवा की ओर लौटने 
                        लगता, पैदल, बसों में, टेक्सियों में और खाली ट्रकों में 
                        लद कर। बाजार के उठते ही धीरे-धीरे मैदान की ओर वाली चाल 
                        की खिडकियाँ खुलने लगतीं।  प्रकाश 
                        के कमरे में एक ही खिडकी थी और वह इसी मछली बाजार की तरफ 
                        खुलती थी। शायद खिडकी के लिए कमरे में दूसरी जगह थी भी 
                        नहीं। बीच में दीवार खींचकर रसोई और पाखाने का इन्तजाम कर 
                        दिया गया था। यही कारण था कि चाल में कमरों का भाड़ा और 
                        पगडी अपेक्षाकृत कम थी। चाल के मालिकान लोग अक्सर सरकारी 
                        कार्यालयों से आसपास मंडराते रहते थे। मछली बाजार इस मैदान 
                        से उठाने के लिए वे कोई भी रकम खर्च करने को तैयार थे। 
                        उन्हें मालूम था कि मछली बाजार के उठते ही उनकी आमदनी में 
                        आशातीत वृद्धि होगी। पुराने किरायेदार अधिक पगडी के लालच 
                        में कमरे छोडने लगेंगे और नए किरायेदारों से मनमाना किराया 
                        ऐंठा जा सकेगा। नगर निगम ने चाल के आसपास कच्ची सडकें 
                        बनावा दी थीं। थोडी ही दूर पर स्टेशन जाने के लिए बस मिलती 
                        थी। डाकखाना खुल गया था, बच्चों के लिए एक छोटा-सा उद्यान 
                        बन चुका था। मकान मालिकान ने किसी तरह से बिजली का कनेक्शन 
                        ले लिया था अब अगर मछली बाजार भी उठ जाए। यह चाल 
                        किरण के कालिज से बहुत दूर पडती थी, मगर किराये को देखते 
                        हुए इससे उपयुक्त स्थान उन्हें नहीं मिल सकता था। पाँच सौ 
                        रुपए पगडी और पचास रुपए किराया। लैट्रिन बाथरूम अटैच्ड। 
                        शहर में रहते हुए गाँव का मजा।  किरण 
                        सुबह जल्दी में रही होगी, वह खिडकी बन्द करना भूल गई थी, 
                        और प्रकाश के लिए अब सूखी हुई मछली की गंध के बीच और अधिक 
                        लेटे रहना नामुमकिन हो गया था। वह हडबडा कर उठा और उसने 
                        खिडकी बन्द कर दी, मगर मछली की गंध तब तक सारे कमरे में 
                        रच-बस चुकी थी। आखिर उसने खिडकी खोल दी और दरवाजा भी और 
                        अपने को उस गंध के सुपुर्द कर दिया। प्रकाश ने देखा, किरण 
                        जाने से पूर्व उसके लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाकर 
                        जाली में रख गई थी। अक्सर वह किरण के साथ ही नाश्ता किया 
                        करता था। मगर उस रोज वह देर तक सोता रहा था। सोता क्या 
                        रहा, लेटा रहा था। बिना हिले-डुले। किरण की ओर पीठ किए। वह 
                        नहीं चाहता था, किरण से उसकी आँखें मिलें। उसे लग रहा था, 
                        कल शाम उसकी मौत हो गई थी और अब किरण के जाने के बाद ही 
                        उसका पुर्नजन्म होगा। वास्तव में वह रात-भर सोया नहीं था। 
                        रात-भर ठंडा खून खौलता रहा, जैसे खटिया के नीचे धू-धू आग 
                        जल रही हो। पड़े-पड़े ही वह कई बार गुणवंतराय की हत्या कर 
                        चुका था, मगर दूसरे ही क्षण वह गुणवन्त राय को ठहाके लगाते 
                        हुए और स्वयं को अशक्त पाता। जैसे उसके शरीर का सारा रक्त 
                        निचुड गया है, और वह किरण के साथ अपने ही खून के तालाब में 
                        गोते खा रहा है।  प्रकाश 
                        ने बर्तनों की खनक से पडे-पड़े ही जान लिया था कि किरण जग 
                        गई है। प्रकाश का खयाल था कि किरण आज कालिज नहीं जाएगी, 
                        कभी कालिज नहीं जाएगी और वह टैक्सी चालाना सीख लेगा। 
                        बंतासिंह दयालू आदमी है। उसे टैक्सी चालाना भी सिखा देगा 
                        और भाडे की टैक्सी भी दिलवा देगा। टैक्सी में ही वे अपने 
                        दोस्तों से मिलने जा सकते हैं। टैक्सी वह सबर्ब में ही 
                        चलाएगा। अंधेरी कुर्ला रोड पर टैक्सी मिलना कितना मुश्किल 
                        है। बंतसिंह से उसकी दोस्ती हो जाएगी। वह चाल में सबसे 
                        पहले उठता है। और देर तक टैक्सी पोंछते हुए 'धन्न बाबा 
                        नानक जेन्हें जग तारिया' गुनगुनाता रहता है। टैक्सी का 
                        लाइसेंस मिलने में दिक्कत हुई, तो वह अपने दोस्त की तरह 
                        'टाइम लाइफ' की एजेंसी ले लेगा और दिन भर वार्षिक ग्राहक 
                        बनाएगा। जब बहुत से ग्राहकों का पैसा इकट्ठा हो जाएगा, तो 
                        वह चुपके से शहर छोड देगा। नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। सबका 
                        चंदा-ठीक-ठीक जमा कर देगा और तरक्की करता-करता एक दिन 
                        फोर्ट एरिया में अपना दफ्तर खोल लेगा-किरण एजेंसीज। फिलहाल 
                        वह टयूशनें भी कर सकता है। वह और किरण मिलकर किंडर गार्डन' 
                        खोल सकते हैं। इधर तो चाल के लोगों में भी अंग्रेजी 
                        स्कूलों का आकर्षण बढ रहा है। कुछ भी सम्भव न हुआ, तो वह 
                        दादर स्टेशन पर पेन बेचेगा। पढे लिखे बेकार लोगों की 
                        संख्या बढाएगा।  किरण ने 
                        यह सब सोचा था। वह रोज की तरह उठी और सुबह का काम निपटा कर 
                        एक सौ तेरह नम्बर की कतार में जुड गई। प्रकाश आँखें बंद 
                        किए भी जान रहा था, कि किरण अब नाश्ता बना रही है। अब 
                        भोजन। अब नहा रही है, अब ब्लाउज और अपना एकमात्र पेटीकोट 
                        पहने दीवार पर टँगे आइने में देखते हुए बाल कर रही है। अब 
                        वह अपना पर्स ढूँढ रही है। पर्स कल उसने कुछ इस अन्दाज से 
                        किताबों के ऊपर फेंक दिया था, जैसे अब वह कभी उस पर्स को 
                        नहीं उठाएगी। अब वह भूल चूकी है। प्रकाश कहते-कहते रुक गया 
                        कि पर्स रैक के नीचे गिरा पडा है। मगर आवाज उसके हलक में 
                        ही चिपक कर रह गई। पर्स धूल में लथपथ हो चुका होगा, किरण 
                        देखेगी तो भन्ना जाएगी। इससे अच्छा है, वह चुप रहे और उसके 
                        लौटने से पूर्व रैक के नीचे सफाई कर दे और झाड-पोंछकर पर्स 
                        ठिकाने पर रख दे। प्रकाश का खयाल था, कि आज कालिज जाने से 
                        पहले किरण उससे परामर्श कर लेगी, मगर उसे यह सब गवारा न 
                        हुआ। अगर उसके लिए इतनी ही साधारण घटना थी, तो कल इतने 
                        रोने-धोने की क्या जरूरत थी? प्रकाश को देखते ही क्यों फूट 
                        पडी थी। क्या वह उसके पुरुषत्व को चुनौती दे रही थी? अब वह 
                        गुणवन्तराय के सामने कैसे जाएगी?  'साला 
                        गुणवन्तराय!' प्रकाश बुदबुदाया, 'हरामजादा।' किरण ने कल जब कालिज से लौट कर सारा किस्सा बताया था, तो 
                        प्रकाश को कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा था। वह 
                        भीतर-ही-भीतर इस परिणति की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कोई भी 
                        पुरुष इतना मूर्ख नहीं होगा कि अकारण ही इतनी सुविधाएँ 
                        देता रहे। उसकी गिद्ध दृष्टि निहित स्थानों में लगी रहती 
                        है। स्टाफ-सेक्रेटरी वह गुणवंत राय की कृपा से ही हुई थी। 
                        स्नातकोत्तर कक्षाएँ भी उसी के प्रयत्न से मिली थीं। 
                        सीनियर ग्रेड के लिए उसी ने किरण का नाम आगे किया था, जबकि 
                        किरण से भी अधिक अनुभवी दूसरी प्राध्यापिकाएँ अब भी छोटी 
                        कक्षाओं को व्याकरण पढाती थीं। साला कितने योजनबद्ध ढंग से 
                        काम करता है। क्रिमिनल!
 'तुमने 
                        एक थप्पड क्यों नही धर दिया?' प्रकाश ने किरण से कहा था।
                        'मैं बेहद घबरा गई थी। वह बहुत बेशर्मी से मुझे ताक रहा 
                        था। बोला, बेबी मुझे लगता है, तुम किसी साइको-सेक्सुअल 
                        उलझन में हो। तुम्हें मैन्सेस तो समय पर होते हैं?
 'हरामजादा!' प्रकाश ने कहा, 'तुम्हें चप्पल से उसकी पिटाई 
                        करनी चाहिए थी।'
 'मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं और दरवाजा खोलकर बाहर आ गई।'
 'उसने दरवाजा बंद कर रखा था?'
 'नहीं। वह दरवाजा खुलने पर अपने-आप बंद हो जाता है। कालिज 
                        में सभी दरवाजे ऐसे हैं।'
 'तुमने हल्ला नहीं किया?'
 'नहीं! मैं तुरन्त निर्णय नहीं कर पाई। मुझे अभी तक 
                        कंपकंपी आ रही है।'
 'तुम्हें बाहर आते देख वह घबरा गया था खलनायक की तरह हँसने 
                        लगा?'
 'मैं ने उसकी तरफ देखा भी नहीं। मुझे बुढऊ किस्म के आशिकों 
                        से वैसे ही नफरत है।'
 'तुम मुझसे कुछ छिपा तो नहीं रही?'
 'नहीं!'-किरण ने घूर कर प्रकाश की तरफ देखा।
 'ऐसी जगह नौकरी करने से कहीं अच्छा है, मेरी तरह घर पर ही 
                        सड़ती रहो।' प्रकाश अपने को बेहद निस्सहाय, कमजोर और 
                        असंतुलित पा रहा था। किरण नल पर जाकर मुँह पर छींटे देने 
                        लगी।
 'उस 
                        हरामखोर ने जरूर चुम्बन वगैरह ले लिया होगा, जो अब यह इतना 
                        परेशान हो रही है और बार-बार मुँह पर साबुन पोत रही है।' 
                        प्रकाश अनाप-शनाप बकता रहा-'मैं आज ही किरण के प्रिंसपल से 
                        मिलूंगा। प्रिंसिपल से क्या, सारी मैनेजिंग कमेटी से 
                        मिलूँगा। उल्लू के पट्ठे को इतना परेशान कर दूंगा कि 
                        आत्म-हत्या कर लेगा। मैं शिक्षामंत्री को पत्र दूँगा और 
                        उसकी प्रति लिपियाँ इन्दिरा गांधी, वी वी गिरि और 
                        विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास भिजवा दूँगा। मैं उसको 
                        चौराहे पर अपमानित कर दूँगा। मुझे और काम ही क्या है? 
                        दिन-भर इसी में लगा रहूँगा और जब वह मेरे पाँव पर लोटेगा, 
                        तो अपना पाँव पटक दूँगा सारी आशिकी घरी रह जाएगी। उसकी 
                        पत्नी को बताऊँगा कि यह शख्स जिंदगी भर तुम्हें मूर्ख 
                        बनाता आया है, तुम इसके लिए करवा चौथ-जैसे ब्रत रखती हो और 
                        यह जानवरों से भी गया-बीता है। बीवी भडक गई तो ठीक नहीं तो 
                        साले कि बिटिया का अपहरण करा दूँगा। ड्रेंगो दो सौ रुपए 
                        में यह काम करा देगा। वैसे यह नौबत नहीं आएगी, साले की 
                        बिटिया जवान होने से पहले ही पीटर के साथ भाग जाएगी।
                         मैं 
                        इंजीनियर नहीं बन पाया, मगर सफल खलनायक जरूर बन सकता हूँ। 
                        'ब्लिट्ज' में एक टिप्पणी छप गई, तो टापता रह जाएगा । सारे 
                        देश में आग की तरह यह खबर फैल जाएगी। कोई भी निर्माता इस 
                        'थीम' पर फिल्म बना कर लाखों कमा लेगा। लाखों कमा लेगा, 
                        मगर 'थीम' का सत्यानाश कर देगा। हीरो को तुरत मुक्केबाजी 
                        के लिए पहुँच जाना चाहिए था, मगर वहाँ हीरो निहायत चूतिया 
                        है। फिल्म में तो हीरो अब तक वहाँ पहुँच चुका होता, जहाँ 
                        पन्ना का मुजरा देखते हुए गुणवंतराय नशे में धुत्त पडा 
                        होता। मेरे पास तो कार भी नहीं है कि मैं टेढी-मेढी सडकों 
                        पर तीन मिनट तक, उसका पीछा करता। फिल्म कैसी भी बने, सारा 
                        समाज गुणवंतराय पर थू-थू करेगा। मगर किरण का प्रिंसिपल 
                        निहायत चुगद किस्म का आदमी है। उसे तो इस बात को लेकर अब 
                        तक इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर किरण का प्रिंसिपल 
                        इस्तीफा नहीं देगा। उसे किसी पागल कुत्ते ने काटा है कि वह 
                        इस्तीफा दे। वह जानता है कि उसने इस्तीफा दे दिया, तो 
                        गुणवंतराय तुरत प्रिसिंपल हो जाएगा। प्रिंसिपल टापता रह 
                        जाएगा और मैं भी।  दरअसल इस 
                        देश का लगातार पतन हो रहा है। जिस देश में एक इंजीनियर इस 
                        तरह खटिया पर पडा-पडा ही दिन बिता दे और नौकरी को तरसता 
                        रहे, उस देश का क्या होगा? समय आ गया है कि भगवान कृष्ण अब 
                        जन्म ले लें, नहीं तो यह अग्रवाल का बच्चा बनारसी साडियाँ 
                        बेच-बेच कर इमारत-पर-इमारत बनाता जाएगा। वह पैसा तो खूब 
                        कमा लेगा मगर जीवन भर महसूस नहीं करेगा कि उसकी बीवी 'भांग 
                        की पकौड़ी' पढ-पढकर समय काटती है। अग्रवाल का भाग्य अच्छा 
                        था कि वह सुन्दर न हुई। वह सुन्दर होती तो क्या होता? कुछ 
                        भी नहीं होता। अग्रवाल और अधिक मन लगा कर साडियाँ बेचने 
                        लगता।  प्रकाश 
                        ने सुबह से चाय भी नहीं पी थी। किरण अब तक दो पीरियड ले 
                        चुकी होगी। मालूम नहीं, गुणवंतराय से उसकी भेंट हुई या 
                        नहीं। हो सकता है मामला प्रिंसिपल या रजिस्ट्रार तक पहुँच 
                        गया हो। कुछ हो भी सकता है। प्रकाश ने देखा, किरण ने सुबह 
                        आलू उबालकर उनसे कई काम ले लिए थे। डबलरोटी में आलू, हरी 
                        मिर्च भर कर उसने नाश्ता तैयार कर दिया था और उबले आलू की 
                        तरकारी बना दी थी। अपने लिए, शायद वह आलू के परांठे बना कर 
                        ले गई थी, क्योंकि आलू का एक परांठा प्रकाश के लिए भी रखा 
                        था। आलू के इतने उपयोग देखकर प्रकाश फिर भडक गया, मैं आलू 
                        से भी गया-बीता हूँ। मेरा परांठा भी नहीं बन सकता। आलू एक 
                        मुफीद चीज है, इसे कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अपने 
                        बाप की तरह किसी बैंक में आलू हो जाता तो रिटायर होत-होते 
                        किसी ब्रांच का मैनेजर जरूर हो जाता, मगर मेरा बाप मुझे 
                        इंजीनियर बनाना चहता था। बना दिया इंजीनियर? क्या फायदा 
                        हुआ रात देर तक ओवरटाइम करने का? लकवा मार गया और आँखें 
                        जाती रहीं। कोई भी मेरे बाप को देख कर कह सकता है कि यह 
                        शख्स 'ओवरटाइम' का मारा है। यह तो मैं काफी फुरसत में था 
                        कि किरण को फाँस लिया। मेरा बाप तो मेरे लिए लड़की भी न 
                        ढूँढ पाता। बाप आखिर बाप है। बूढे बाप पर क्यों तैश दिखा 
                        रखा हूँ?  मुझे 
                        नौकरी मिल जाए, मैं बाप के सब शिकवे दूर कर दूँगा। बांद्रा 
                        में दो बेडरूम-हाल ले लूँगा और अपने बाप के लिए एक नर्स 
                        नियुक्त कर दूँगा। किरण को बुरा लगेगा। उससे कहूँगा, वह भी 
                        अपनी माँ को बुला ले। दोनों मिल कर पूजा-पाठ करते रहेंगे। 
                        बैंक के मैनेजर ने ऋण के सिलसिले में दुबारा मिलने को कहा 
                        था, उससे मिलूँगा। संसद-सदस्य चौधरी पिछले पंद्रह वर्षों 
                        से लोकसभा में बैठा है, मगर उसे खबर तक नहीं कि पंडित 
                        नन्दलाल अग्निहोत्री का होनहार बेटा, जिसे वह गोद में उठा 
                        लिया करता था, अंधेरी की एक चाल में बेकार पडा है। मैं 
                        चौधरी को एक मर्मभेदी पत्र लिखूँगा। उसे लिखूँगा कि वह 
                        इतने वर्षों से संसद में क्या कर रहा है? पिछले वर्ष मेरे 
                        बाप ने भी चौधरी के नाम एक पत्र लिखवाया था, जिसके उत्तर 
                        में चौघरी ने बहुत-सा साहित्य भेजा था। आजादी से पहले भारत 
                        में सुइयाँ भी आयात की जाती थीं आज यहाँ हवाई जहाज बनते 
                        हैं। चौधरी ने बहुत सा रंगीन साहित्य भेजा था। उसके पत्र 
                        के साथ एक बहुरंगी फोल्डर भी था, 'आर यू प्लानिंग टु सेट 
                        आप ए स्मॉल स्केल इंडस्ट्री' फोल्डर की भाषा अत्यंत 
                        मुहावरेदार थी। दो रंगी छिपाई। मैपलिथो कागज। कागज के उस 
                        टुकडे ने मुझे कितना आंदोलित कर दिया था!'  प्रकाश 
                        को याद है, उसने कुछ ही दिनों में कई योजनाओं का प्रारूप 
                        तैयार कर लिया था। ड्राई सेल, बैटरी एलिमेनटर, इण्टर 
                        कम्युनिकेशन सेट, लाख रुपए तक का ऋण देने को तत्पर था। 
                        प्रकाश ने बीसियों बार वह फोल्डर पढा और अपने बाप को उसने 
                        एक बहुत ही भावुकतापूर्ण पत्र लिखा। उसने लिखा कि उनके 
                        आशीर्वाद से वह शीघ्र ही व्यस्थित हो जाएगा। उसने 
                        इण्डस्ट्रियल इस्टेट में डेढ हजार वर्गफीट जगह भी सुरक्षित 
                        करा ली है। अगर परिस्थितियों ने साथ दिया, तो छह महीनों 
                        में उसकी फैक्ट्री चाले हो जाएगी। उसकी हार्दिक इच्छा है 
                        कि शुभ मुर्हूत पर वह अवश्य उपस्थित रहें।  जिस दिन 
                        प्रकाश बैंक के मैंनेजर से मिलने गया, किरण ने कालेज में 
                        अवकाश ले लिया था। प्रकाश बैंक में पहुँचा, तो बिजली नहीं 
                        थी। तमाम कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सी छोडकर हवा में टहल रहे 
                        थे।  'आपसे 
                        मिलने के पूर्व मैं कार्यालय से कुछ जानकारी ले लेना चाहता 
                        था, मगर दुर्भाग्य से आज बिजली नहीं।' प्रकाश ने मैंनेजर 
                        के सामने बैठते हुए कहा, 'मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा 
                        अच्छे अंक प्राप्त करके पास की है और 'आर' यू प्लानिंग टु 
                        सेट अप एक स्मॉल स्केल इण्डस्ट्री' पढ कर आप से मिलने आया 
                        हूँ।'  'यह 
                        अच्छा ही हुआ कि बिजली नहीं है, वरना आपसे भेंट ही न हो 
                        पाती। आप मिश्रा से मिलते और मिश्रा आपको जानकारी की बजाय 
                        गाली दे देता। वह आने वाले से यही कहता है कि यह सब स्टंट 
                        है आप घर में बैठकर आराम कीजिए। कुछ होना-हवाना नहीं है।'
                         प्रकाश 
                        अपनी योजनाओं के बारे में बिस्तार से बात करना चाहता था, 
                        मगर उसने पाया कि बैंक का मैनेजर सहसा आध्यात्मिक विषयों 
                        में दिलचस्पी लेने लगा है। वह धूप में कहकहे लगा रहे बैंक 
                        के कर्मचारियों की ओर टकटकी लगा कर देख रहा था और जैसे 
                        दीवारों से बात कर रहा हो, 'तुम नौजवान आदमी हो, मेरी बात 
                        को समझ सकते हो। यहाँ तो दिन-भर अनपढ व्यापारी आते हैं, 
                        जिन्हें न स्वामी दयानन्द में दिलचस्पी है, न अपनी 
                        सांस्कृतिक विरासत में। वेद का अर्थ हे ज्ञान। ज्ञान से 
                        हमारा रिश्ता कितना सतही होता जा रहा है, इसका अनुमान आप 
                        स्वंय लगा सकते हैं। प्रकृति की बडी-बडी शक्तियों में आर्य 
                        लोग दैवी अभिव्यक्ति देखते थे। आज क्या हो रहा है, आप अपनी 
                        आँखों से देख रहे हैं। बिजली चली गई और इनसे काम नहीं 
                        होता। कोई इनसे काम करने को कहेगा, ये नारे लगाने लगेंगे। 
                        मैं इस से चुप रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। आप चले 
                        आए, बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो मैं गुस्से में भुनभुनाता 
                        रहता और ये सब मुझे देख-देखकर मजा लेते। मैं पहले ही 
                        'एक्सटेंशन' पर हूँ। नहीं चाहता इस बुढापे में प्राविडेंट 
                        फंड और ग्रेच्युटी पर कोई आँच आए।  आपकी तरह 
                        मैं भी मजा ले रहा हूँ। मैंने बिजली कम्पनी को भी फोन नहीं 
                        किया। वहाँ कोई फोन ही नहीं उठाएगा। इन सब बातों पर मैं 
                        ज्यादा सोचना ही नहीं चाहता। पहले ही मन्द रक्त चाप का 
                        मरीज हूँ। दिल दगा दे गया, तो यहीं ढेर हो जाऊँगा। देवों 
                        का तर्पण तो दूर की बात है, यहाँ कोई पितरों का तर्पण भी 
                        नहीं करेगा। आप यह सब सोचकर उदास मत होइए। आप एक 
                        प्रतिभासम्पन्न नवयुवक है, तकनीकी आदमी हैं। बैंक से ऋण 
                        लकर अपना धंधा जमाना चाहते हैं। जरूर जमाइए। पुरुषार्थ में 
                        बडी शक्ति है। हमारा दुर्भाग्य यही है, हम पुरुषार्थहीन 
                        होते जा रहे हैं। आप हमारे बैंक का फोल्डर पढकर आये हैं, 
                        मेरा फर्ज है, मैं आपकी पूरी मदद करूँ। ऋण के लिए एक फार्म 
                        है, जो आपको भरना पडेगा। इधर कई दिनों से वह फार्म स्टॉक 
                        में नहीं है। मैंने मुख्य कार्यालय को कई स्मरण-पत्र दिए 
                        हैं कि इस फार्म की बहुत माँग है। दो सौ फार्म तुरंत भेजे 
                        जाएँ। फार्म मेरे पास जरूर आए मगर वे नया एकाउंट खोलने के 
                        फार्म थे। आज की डाक से यह परिपत्र आया है। आप स्वयं ही 
                        पढकर देख लीजिए। मैं अपने ग्राहकों से कुछ नहीं छिपाता। 
                        मैं खुले पत्तों से ताश खेलने का आदी हूँ। इस परिपत्र में 
                        लिखा है कि बैंकों के राष्ट्रीकरण के बाद पढे-लिखे तकनीकी 
                        लोगों को बैंक से अधिक-से-अधिक आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए।
                         आपका समय 
                        नष्ट न हो, इससे मेरी राय यही है कि आप कहीं से उस फार्म 
                        की प्रतिलिपि प्राप्त कर लें, उसकी छह प्रतिलिपियाँ टांकित 
                        करा लें, मुझसे जहाँ तक बन पडेगा, मैं आपके लिए पूरी कोशिश 
                        करूँगा। वैसे निजी तौर पर आपको बता दू, मेरे कोशिश करेने 
                        से कुछ होगा नहीं। मैं कब से कोशिश कर रहा हूँ कि अस 
                        ब्रांच के एकाउंटेंट का तबादला हो जाए, मगर वह आज भी मेरे 
                        सर पर सवार है। सारे फसाद की जड़ भी वही है। गर्मी भी उसे 
                        ही सबसे ज्यादा लगती है। पुराना आदमी है, अफसरों से लेकर 
                        चपरासियों तक को पटाये रखता है, यही वजह है कि उस पर कोई 
                        अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती। दो ही वर्षों में 
                        मैंने उसकी 'कन्फीडेंशल फाइल इतनी मोटी कर दी है कि अकेले 
                        उठती नहीं। मगर आज कागजों का वह अर्थ नहीं रह गया, जो 
                        अंग्रेजों के जमाने में था। कागज का एक छोटा-सा पुर्जा 
                        जिन्दगी का रुख ही बदल देता था। ऋण की ही बात ले लीजिए। यह 
                        सब 'पेपर एनकरेजमेंट' यानी कागजी प्रोत्साहन है। यही वजह 
                        है कि हिन्दुस्तान में कागज का अकाल पड गया है। राधे बाबू 
                        ने गेहूँ या तेल से उतनी कमाई नहीं की, जितनी आज कागज से 
                        कर रहे हैं।'  इसी बीच 
                        बिजली आ गई। कमरे में उजाला हो गया और धीरे-धीरे पंखे गति 
                        पकडने लगे। प्रकाश के दम-मे-दम आया। अपनी योजनाओं के 
                        प्रारूप की जो फाइल प्रकाश अपने साथ इतने उत्साह से लाया 
                        था, मैनेजर ने पलट कर भी नहीं देखी थी। चपरासी ने बहीखातों 
                        का एक अम्बार मैनेजर के सामने पटक दिया। एक ड्राफ्ट उडकर 
                        प्रकाश के पाँव पर गिरा। प्रकाश ने वहीं पडा रहने दिया। 
                        मैंनेजर ने चिह्नित पृष्ठों पर मशीन की तरह कलम चलानी शुरू 
                        कर दी।  प्रकाश 
                        उठा और मैंनेजर के कमरे से बाहर आ गया, जैसे एक दुनिया से 
                        दूसरी दुनिया में आ गया हो। उसके सामने कारों, बसों, 
                        दुमंजिला बसों और टैक्सियों का हजूम था। लोगों की लम्बी 
                        कतारे बसों की प्रतीक्षा में खडी थीं। सडक के दोनों ओर 
                        ऊँची-ऊँचीं इमारतें। प्रकाश को लगा वह किसी भी स्तर पर इस 
                        दुनिया से तादाम्य स्थापित नहीं कर पा रहा है। वह न तो बस 
                        की कतार में शामिल हुआ और ना ही स्टेशन का पुल पार करने 
                        स्टेशन की ओर बढा। आगे रेल की लाइन के नीचे से एक रास्ता 
                        पूरब की ओर जाता था, वह उसी पर बढ गया । किरण घर में उसका 
                        इन्तजार कर रही होगी, मगर उसे घर जाने की जल्दी नहीं थी। 
                        किरण सारा किस्सा सुनकर अवश्य गुमसुम हो जाएगी। 
                         वह 
                        लुढ़कता-लुढ़कता घर पहुँचा, तो मालूम हुआ किरण कालिज चली 
                        गई है। वह एक पत्र छोउ गई थी कि आज उसके केवल दो पीरियड 
                        हैं, छुट्टी उसी दिन लेगी, जिस दिन उसके चार पीरियड होंगे। 
                        प्रकाश ने राहत की सांस ली और खटिया पर कटे पेड की तरह गिर 
                        पडा और घंटों यों ही अकर्मण्य-सा लेटा रहा। किरण के लौटने 
                        का समय हो रहा था, मगर उसने उठकर चाय का पानी भी नहीं 
                        चढाया। 'वह अब 
                        शायद रोज मुझे से चाय की अपेक्षा रखने लगी है'-प्रकाश ने 
                        कहा-'ठीक ही तो है, दिन-भर की थकी लौटगी। कम-से-कम चाय का 
                        एक गर्म प्याला तो उसे मिलना ही चाहिए। लेकिन आज मैं चाय 
                        नही बनाऊँगा, यों ही लेटा रहूँगा। डाक भी खोल कर नहीं 
                        देखूँगा, सब में एक ही शब्द होगा: रिसैशन। जब तक रिसैशन 
                        दूर नहीं होगा, मैं किरण के लिए चाय बनाता रहूँगा, रिसैशन 
                        खत्म न हुआ तो खाना भी बनाने लगूँगा।  चाल में 
                        किसी का पंखा खराब हो जाए, इस्त्री काम न करे, रेडियो एक 
                        साथ दो-दो स्टेशन पकडने लगे या फ्यूज उड जाए, सब मेरे पास 
                        ही आते हैं। अब कह दिया करूँगा, आटा गूँथ लूँ और चपाती 
                        सेंक लूँ, फिर आता हूँ।  मछली 
                        बाजार का शोर मन्द पडने लगा था। मैदान वीरान हो रहा था। 
                        प्रकाश उठा और उसने किसी तरह से नाश्ता लिया। वह देर तक 
                        बिना किसी उत्साह और दिलचस्पी के अखबार पढता रहा। कोई भी 
                        खबर उसे कहीं भी नहीं छू रही थी। हवाई दुर्घटना में एक सौ 
                        व्यक्ति मारे गए, निक्सन ने चीन का निमंत्रण स्वीकार कर 
                        लिया। अगला बच्चा अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं। घर में 
                        बच्चा होता, तो प्रकाश कितनी आसानी से उसे पाल लेता। मगर 
                        वह खाता क्या? ईश्वर सबका इन्तजाम करके धरती पर भेजता है। 
                        मगर लिडियाल जिन्दाबाद! किरण भुलक्कड है, मगर 'लिंडियाल' 
                        लेना नहीं भूलती। भूल गई तो कन्फरमेशन खटाई में पड जाएगा, 
                        मिसेज बोस के साथ यही हुआ था कच्ची नौकरी में ही बच्चे ने 
                        धर दबाया और अंधेरी से कांदिवली पहुँच गई।  हल्के से 
                        दरवाजा खुला और बाई प्रकाश के पास से गुजर गई। बाई जवान है 
                        और घर में एकान्त है, प्रकाश फिर भी जड बैठा रहा। 'बाई!'-प्रकाश ने जोर से आवाज दी।
 'क्या है?' बाई ने झाँक कर उसकी तरफ देखा।
 'और मैं तुम्हें पकड लूँ और तुम्हारा भरता बना दूँ, तो तुम 
                        क्या कर लोगी?'
 'यही सब करना होता, तो मैं बर्तन ही क्यों मलती।' बाई ने 
                        कहा, 'पाँच नम्बर का मारवाडी बाबू जानबूझ कर टकरा गया था, 
                        मैंने तभी काम छोड दिया।'
 'मारवाडी बाबू की तो चाल में बहुत इज्जत है।'
 'होगी!' बाई ने कहा, 'मगर मुझसे आँख मिलाने को कहो।'
 'तुम्हारा आदमी क्या करता है?'
 'मजूरी, और क्या करेगा?'
 'कहाँ?'
 'फैक्टरी में, और कहाँ?'
 'कौन-सी फैक्टरी में?'
 'वह सामने वाली फैक्टरी में, जहाँ काँच के गिलास बनते 
                        हैं।' बाई ने कहा, 'मगर अब कई दिनों से वह बैठ गया है। 
                        कहीं भी जम कर काम नहीं करता। उसे कहीं कोई काम दिलवा दो, 
                        तो मेरी छुट्टी हो।'
 प्रकाश 
                        को हँसी आ गई। अकेलापन कितना काटता है। बाई से बात करना 
                        बहुत आच्छा लग रहा था। उसकी इच्छा हुई, बाई को गोद में 
                        उठाकर झूम जाए। वह सुबह से कितना मनहूस बैठा था। अभी वह 
                        अपने आदमी को फैक्टरी का पता बता रही थी, अभी कह रही है, 
                        बेकार है।  
                        'तुम्हारे कितने बच्चे हैं?' 'दो।' बाई ने कहा, 'तीसरा पेट में है। इसके बाद बस।'
 'कौन-सा महीना है?'
 'कार्तिक में होगा।' बाई ने कहा, 'बाबू तुम्हारे यहाँ भी 
                        तो होना चाहिए। दो तो सरकार भी कहती है।'
 'तुम ठीक कहती हो।'
 'साठे को क्यों नहीं दिखाते। सब उसी का इलाज कराते हैं।' 
                        बाई ने कहा, 'रोज पर एक फकीर बैठता है, उसका ताबीज भी काम 
                        करता है।'
 'अच्छा!'
 'बबलू की माँ कहती थी, बहू कोई गोलियाँ खाती है।'
 प्रकाश 
                        ने बाई की तरफ देखा, उसके ब्लाउज का बीच का बटन खुला था। 
                        और वह पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने की कोशिश कर रही थी।
                        'साली मुझे अकेला पा कर फाँस रही है।' प्रकाश ने मन-ही-मन 
                        कहा और अखबार में मशगूल हो गया।
 बाई 
                        तुरंत वहाँ से हट गई अन्दर जाकर बर्तन मलने लगी। कमरे में 
                        पोछा लगा दिया, कपडे धोकर कमरे में ऊँची टँगी तारों पर 
                        बाँस से फैला दिए। प्रकाश कौतुक से उसे देखता रहा। अपना 
                        काम निपटा कर वह दरवाजे के पास जाकर खडी हो गई। 
                         'आज 
                        बाजार है, दो रुपए चाहिए।' 'बहू से लेना।' प्रकाश ने कहा। उसे वाकई मालूम नही था कि 
                        घर में रुपए हैं या नहीं हैं।, हैं तो कहाँ हैं। किरण रुपए 
                        कुछ इस ढंग से निकालती है कि पास खडा आदमी भी नहीं जान 
                        सकता, अभी-अभी उसके हाथ कहाँ गए थे।
 बाई के 
                        जाते ही कमरा भायं-भायं करने लगा। प्रकाश कुर्सी से उठा और 
                        मछली बाजार की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास जा खडा हुआ। 
                        चाल की स्त्रियाँ आलू-प्याज से भरे थैले ले-ले कर लौट रही 
                        थीं। मगर बीच में नाला पडता था। स्त्रियाँ आलू-प्याज और 
                        बच्चे के साथ आसानी से नाला फांद जातीं। खिडकी के सामने 
                        फैक्टरियों की चिमनियाँ धुआँ उगल रही थीं।  'बाजार 
                        में अगर मंदी है तो यह फैक्टरियों धुआँ क्यों उगल रही हैं, 
                        गाडियों में इतनी भीड क्यों है? गगनचुग्बी इमारतें कौन बना 
                        रहा है? जबकि देश की उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक 
                        के पास ईट खरीदने के लिए पैसा नहीं है, काम करने के लिए 
                        जगह नहीं है। मैं दो बम बनाऊँगा, एक गुणवंतराम की खोपडी पर 
                        और दूसरा बैंक की भव्य इमारत पर दे मारूँगा।' प्रकाश 
                        बुदबुदाया, 'शट-अप प्लीज! तुम कुछ नहीं करोगे। बीवी की 
                        डाँट खाओगे और अजगर की तरह पडे रहोगे। एक दिन यो ही 
                        पड़े-पड़े तुम्हारे बाल सफेद हो जाएँगे और तुम बिना औलाद 
                        के मर जाओगे। दादर स्टेशन पर जाकर कुलीगिरी क्यों नहीं 
                        करते? अभी-अभी किसके सामने शेखी बघार रहे थे? बोलो! बोलो!'
                         प्रकाश 
                        उठकर बालकनी में आ गया। चाल की यह संयुक्त बालकनी है। बाहर 
                        केवल औरतें और बच्चे ही नजर आ रहे थे। इस समय शायद वह चाल 
                        में अकेला पुरुष था। नहीं, अकेला नहीं। एक और माई का लाल 
                        इसी चाल में रहता है। पाल प्रशांत। प्रशांत महासागर की 
                        औलाद!  प्रकाश 
                        ने ऊपर से पाल के कमरे की ओर निगाह फेरी। पाल हास्बेमामूल 
                        टाइपराइटर से भिड़ा हुआ था। टाइपराइटर बिगड़ जाए, तो पाल 
                        मैकेनिक की तलाश नहीं करता। दहेज में मिला उषा सिलाई का 
                        पेचकस निकाल कर खुद ही ठीक-ठाक कर लेता है। प्रकाश ने यह 
                        महसूस किय पाल के अलावा चाल सो रही थी। चाल की स्त्रियाँ 
                        खाने वाने से निपट कर बालकनी में जगह-जगह सुस्ता रही थीं। 
                        दरअसल यह समय सबके लिए फुरसत का समय है। बडी-बूढी औरतें 
                        खाँसते हुए बच्चों को टाँगों पर बैठा कर चंदामामा की सैर 
                        कराते हुए, बहू के सिर से जुएँ निकाल कर अथवा खाट पीट कर 
                        पिस्सू निकालते हुए अपना समय बिताया करती हैं। जिन 
                        स्त्रियों को अपने मैके से आई चिट्ठी पढ़वानी या कुछ 
                        भेद-भरी बात माँ को लिखवानी होती है, वे प्रकाश के कमरे के 
                        आस-पास मंडराया करती हैं। पहले पाल कभी यह काम बखूबी कर 
                        दिया करता था, मगर इधर वह इस काम की भी फीस माँगने लगा है। 
                        यही कारण है कि प्रकाश की लोकप्रियता लगातार प्रगति की 
                        मंजिलें तय करती जा रही हैं। प्रकाश चुपचाप पत्र वगैरह लिख 
                        देता है और उसके पत्र लिखते ही चाल में कृष्णा की ढुढवाई 
                        मचती है। चाल के बच्चे उसे कहीं-न-कहीं से ढूँढ निकालते 
                        हैं। कृष्णा आँखें नचाता, कमर मटकाता कहीं से प्रकट हो 
                        जाता।  कृष्णा 
                        हिजडे का नाम है, जो चाल में सीढियों के नीचे एक छोटी सी 
                        कोठरी में रहता है। शाम घिरते-घिरते उसकी व्यस्तताएँ नए 
                        रूप में प्रकट होने लगती हैं। शृंगार करके निकलता, उसे 
                        पहचाना मुश्किल हो जाता है। बालों में वेणी, होठों पर 
                        लिपस्टिक, साडी में लिपटी स्लीवलेस बाँहें, कांता सेंट की 
                        महक और पीछे-पीछे बच्चो की लम्बी कतार। बच्चे दूर तक उसके 
                        पीछे जाते हैं। रास्ते में मौका मिल जाए और दो-एक शरीर 
                        बच्चे साथ हों, तो उसके चीरहरण के प्रयास शुरू हो जाते 
                        हैं।  बच्चों 
                        का विश्वास है कि कृष्णा, हिजडा नहीं, भला-चंगा आदमी है। 
                        वे यह भी जानते हैं कि कृष्णा ने इस समय जो ब्लाउज पहना 
                        हुआ है, वह उसे पप्पू की माँ ने दिया था। साडी देवकी ने दी 
                        थी। लिपस्टिक अग्रवाल की पत्नी की है। पाउडर उसे चौपडा 
                        साहब के यहाँ से मिलता है।  कृष्णा 
                        के पीछे भागते बच्चे पार्क के पास पहुँचकर, सहसा ठिठक जाते 
                        हैं। वहाँ कृष्णा के आशिकों का एक नया दल उसकी प्रतीक्षा 
                        में बीडी-पर-बीडी फूँकता नजर आता है। शाम की पाली से छूटे 
                        आशिकों का दल मुँह से तरह तरह की सीटियाँ बजाता। पहले यह 
                        दल चाल तक भी हो लेता था, मगर एक दिन कपूर साहब ने अपनी 
                        बीवी और दोनों बेटियों को इस तरह से एक दृश्य का मजा लेते 
                        देख लिया। कपूर साहब गुस्से में पैर पटकने लगे और बीवी के 
                        रोकते-रोकते संतरी को पाँच रुपए थमा कर अपने साथ लेते आए। 
                        संतरी ने मजदूरों को देखते ही गाली बकना शुरू कर दिया। 
                        दो-तीन दिन तक संतरी ने ऐसा समाँ बाँधा कि उन लोगों ने चाल 
                        तक आना छोड दिया। अब पार्क उनकी सीमा-रेखा थी।  कपूर 
                        साहब को शांति मिल गई थी। उनकी दानों जवान बेटियाँ अब पाली 
                        छूटने का भोंपू सुनते ही कपाट बन्द कर लेतीं। छोटा भाई 
                        मटकू किराये की किताबों की दूकान से गुलशन नंदा का कोई 
                        उपन्यास ला देता। चाल से जरा ही दूर सडक पर किराये की 
                        किताबों की दूकान थी। जहाँ आलू-प्याज मटके की पत्रिकाएँ और 
                        सिगरेट-बीडी एक साथ बिकते थे। चाल में किताबें लाने, ले 
                        जाने का काम कृष्णा ही करता था, मगर कपूर-परिवार चूंकि 
                        कृष्णा से खफा था, इसलिए यह काम मोटू को ही करना पडता था।
                         कृष्णा 
                        के आशिक कृष्णा को देखते ही उसे कंधों पर उठाकर भाग जाते। 
                        चाल के बच्चे हो-हो करते उनके पीछे-दौडते मगर मछली बाजार 
                        के आगे कोई नहीं जाता। कृष्णा रात देर से लौटता। अक्सर एक ही पिक्चर उसे रोज 
                        देखनी पडती। सुबह होने से पहले वह उठकर नहा लेता और 
                        बंतासिंह की टैक्सी धुलाते हुए नजर आता। कहते हैं, चाल में 
                        किसी ने उसे सोते नहीं देखा था। सुबह जब चाल के पुरुष 
                        काम-धंघे के लिए निकल जाते, तो चाल पर कृष्णा का साम्राज्य 
                        हो जाता। औरतों के पास आँख लडाने के लिए यह हिजडा ही रह 
                        जाता। सिन्हा की बीवी सिन्हा सहब और बच्चों का खाने का 
                        डिब्बा भिजवाते ही खटिया बाहर निकलवा लेती और घण्टों 
                        कृष्णा से टाँगें दबवाती।
 पाल की 
                        पत्नी चाल में किसी से बात नहीं करती थी। पाल से भी नहीं। 
                        मगर कृष्णा से उसकी पटती थी। अक्सर वह टैक्सी में लौटती और 
                        कृष्णा से पैसे लेकर भाडा चुकाती। वह ड्राइवर से दो-तीन 
                        बार हार्न बजाने को कहती, कृष्णा कच्चे धाके से बँधा चला 
                        आता। पाल या उसके बच्चों पर हार्न की इस आवाज को कोई असर 
                        नहीं पडता। पाल बदस्तूर टाइप करता रहता। चाल की भावुक 
                        स्त्रियाँ दिन-भर यतीम की तरह घूमते पाल के बच्चों को 
                        देखकर कई बार रो पडतीं। शुरू में कई बार दया-भाव से 
                        प्रेरित होकर स्त्रियाँ बचा-खुचा भोजन पाल के बच्चों के 
                        लिए भिजवा देती थीं, मगर एक दिन पाल को कहीं से तीन सौ का 
                        चैक मिल गया। वह चाल में शेर की तरह दहाडने लगा कि उसके 
                        बच्चों की तरफ किसी ने टुकडा फेंका, तो वह उसे कभी माफ 
                        नहीं करेगा। उसके पास खाने को नहीं होगा, तो वह 
                        बच्चों-समेत आत्महत्या कर लेगा, मगर भिखमंगों की तरह नहीं 
                        जिएगा। ऐसी हालत में पाल की बीवी का टैक्सी में आना-जाना 
                        चाल की स्त्रियों को बडा रहस्मय लगता। वे आपस में 
                        फुसफसातीं, 'इस छिनाल के कई यार हैं। जाड़िया की रखैल है। 
                        वही नित नयी-नयी साड़ियाँ देता होगा। कैसे सती सावित्री की 
                        तरह जमी की तरफ देखते हुए चलती है।'  
                        स्त्रियों का खयाल था कि कृष्णा पाल की पत्नी के बारे में 
                        बहुत-कुछ जानता था। कई बार वह उसे अज्ञात जगहों पर दौड़ाया 
                        करती। वह घण्टों गायब रहता और गृहणियाँ पाल की पत्नी की 
                        गाली देतीं। कृष्णा लौटता, तो कुछ भी न बताता। स्त्रियों 
                        की कोशिश रहती कि किसी प्रकार कृष्णा को फुसलाकर उस छिनाल 
                        के बारे में जानकारी हासिल करें, मगर कृष्णा इतना ही कहता, 
                        'उसके दिन फिरने दीजिए बहन जी!' सिन्हा की पत्नी कृष्णा से 
                        टाँग दबवाते हुए उसकी बात छेडती, तो कृष्णा छिटक कर अलग हो 
                        जाता, 'बहन जी हमसे अंट-संट की बात न किया करो कृष्णा के 
                        इस रवैये का परिणाम यह निकाला कि वह सब किसी का विश्वास 
                        प्राप्त करने लगा। स्त्रियाँ उसके प्रति इतनी निश्चिन्त हो 
                        गईं कि उसके सामने ब्लाउज अथवा पेटीकोट बदलने में भी 
                        उन्हें संकोच न होता, साडी की बात तो दर किनार। 
                         फिल्मी 
                        दुनिया की चकाचौंध पाल को बम्बई खींच लाई थी। वर्षों के 
                        संघर्ष के बाद पाल को एक फिल्म के निर्देशन का काम मिला 
                        था, मगर निर्माता कहीं भाग गया। निर्माता की तलाश में वह 
                        पागलों को तरह भटकता रहा, मगर किसी मनचले ने उद्योेग में 
                        यह भ्रम फैला दिया कि जो भी निर्माता पाल से फिल्म 
                        करवाएगा, इस दुनिया से जरीवाला की तरह कूच कर जाएगा। आखिर 
                        थक-हार कर पाल ने 'मीत' फिल्म की कुछ तस्वीरें फ्रेम करवा 
                        के अपने कमरे में टाँग लीं और रोजी-रोटी के लिए दूसरे 
                        दरवाजे खटखटाने लगा। 'मीत' की तस्वीरें आज भी पाल के कमरे 
                        में लटक रही हैं। घर में गन्दगी रहे, पाल सुबह उठकर उन 
                        तस्वीरों का अवश्य झाड देता है। इस सैट के लिए उसने मद्रास 
                        के कारीगर मँगवाया था, मुधुवाला की यह मुस्कराहट 'मीत' के 
                        बाद किसी फिल्म में न आ पाई, हैलेन का यह कैबरे आज भी कोई 
                        न दे सका। पाल तस्वीरें झाडते जाता और उदास होता जाता। 
                        दुनिया ने उसकी कला की कद्र नहीं की। पाल को आज भी कभी कभी 
                        उम्मीद होने लगती कि कोई न कोई माई का लाल उसके पास जरूर 
                        आएगा और फिल्म पूरी करने को कहेगा। सत्यजित रे उसके सामने 
                        परनी भरेगा। हृषिकेश मुखर्जी बम्बई छोड देगा। उन दिनों 
                        बाँठिया उसके पीछे-पीछे घूमता था, जरीवाला के चक्कर में न 
                        आकर बाँठिया से अनुबंध कर लिया होता तो, आज नक्शे दूसरे 
                        होते। पाली हिल पर फ्लैट होता, यही हरामजादी मिसेज पाल दुम 
                        हिलाते हुए चापलूसी करती। आज उसे गरीबी से नफरत हो गई है, 
                        मुझसे विरक्ति और बच्चों से एलर्जी।  दरअसल 
                        अपनी सफलता की प्रत्याशा में पाल ने बहुत असावधानी और 
                        निश्चिन्तता में एक के-बाद दीगरे चार बच्चे पैदा कर लिए 
                        थे, जो क्रमश: पब्लिक स्कूलों से म्युनिसिपैलिटी की 
                        पाठशालाओं में पहुँचते गए। उन दिनों वह माहिम में रहता था। 
                        रात देर को लौटता और अपनी पत्नी के आगोश में डबल बेड पर 
                        धँस जाता। फिर उसे सुबह ही होश आता था। अपने सुनहरे दिनों 
                        में पाल ने पत्नी को ढेरों कपडे दिए थे, और बहुत से गहने। 
                        पाल की पत्नी मूर्ख नहीं थी। उसने ये सब चीजें कुछ ऐसे 
                        सँभाल कर रखीं कि आज भी जब वह चाल से निकलती है, तो किसी 
                        फिल्म निर्देशक की पत्नी से कम नहीं दिखती। कडके के दिनों 
                        में पाल नाक रगड कर रह गया कि जेवर बेचकर कोई धंधा जमा ले, 
                        मगर पाल की बीवी ने अंगूठी तक नहीं दी। उसने अपने को 
                        दुर्घटनाओं से कुछ इस तरह बचाकर रखा कि बडे से बडा 
                        स्त्री-विशेषज्ञ भी नहीं कह सकता कि यह चार बच्चों की माता 
                        है। वह सुबह दस-ग्यारह बजे बन-सँवर कर घर से निकल जाती और 
                        शाम को तब तक न लौटती जब तक पाल शाम का भोजन वगैरह पका कर 
                        बच्चों को खिला और सुला न देता। पाल चूँकि पंजाब 
                        विश्वविद्यालय लाहौर का पुराना स्नातक था, धाराप्रवाह 
                        अंग्रेजी और उर्दू बोल सकता था, उसे फिल्मों में दूसरी तरह 
                        का काम मिलने लगा। बहुत से नायक निर्माता अपनी फिल्म के 
                        लिए पाल से पटकथा और संवाद लिखा लेते और नाम अपनी पत्नी का 
                        दे देते। उसकी लिखी कुछ फिल्में सफल भी हुईं, मगर इससे पाल 
                        को कोई लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे पटकथा और संवादों के 
                        अंग्रेजी अनुवाद करने का काम मिलने लगा। यह काम उसे पसन्द 
                        आया। इसमें ज्यादा खुशामद भी दरकार न थी। पूरी फिल्म का 
                        अनुवाद वह पचास-सौ रुपए में कर देता, इसलिए उसके पास काम 
                        की कमी भी नहीं थी। जबकि चाल के लोगों का खयाल था, कि यह 
                        काम भी उसकी बीवी ही लाती थी।  पाल को 
                        तीन चीजें जिन्दा रखे थीं। उसके पास अगर टेलीफोन, 
                        टाइपराइटर और खूबसूरत बीवी न होती, तो वह भूखों मर जाता। 
                        चालभर में फोन पाल के ही पास था, इसलिए फोन से भी उसे 
                        अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। शुरू में चाल के बहुत से 
                        मनचले तो फोन के बहाने, उसकी बीवी से आँख लडाने चले आते 
                        थे। बीवी पलट कर भी न देखती कि कौन आया है। वह अधलेटे 
                        उपन्यास पढती या शूल्य में ताकती। अब केवल जरूरत-मन्द लोग 
                        ही फोन करने आते। बहुत से लागों ने अपना सिक्का जमाने के 
                        लिए अपने विजिटिंग कार्ड पर पाल का फोन नम्बर दे रखा था, 
                        जिससे रह-रह कर फोन की घण्टी टनटनाने लगती। गर्ग के 
                        फोन सबसे अधिक आते। गर्ग ताजमहल होटल में होजरी की एक 
                        दूकान में मुनीम था। मालिक लोग लुधियाना में थे, लिहाजा 
                        उसे ऊपर की आमदनी भी हो जाती थी। वह अपनी बीवी से बेतरह 
                        डरता था। उसने बंगालिन से शादी की थी और इस शादी में उसने 
                        तन-मन-धन सब खो दिया था। वह दरअसल प्यार का मारा हुआ आदमी 
                        था। बंगालिन से प्यार का एक छींटा मिलते ही वह उस पर फिदा 
                        हो गया और बाप के मरते ही अपनी सारी जायदाद बंगालिन के नाम 
                        कर दी और खुद हौजरी की दुकान में मुनीम हो गया। उसके चेहरे 
                        पर, होठों पर सफेद कोढ था। औरत को पाकर उसका जीवन सार्थक 
                        हो गया, मगर जल्दी ही वह मनचिकित्सकों से परामर्श लेने लगा 
                        कि उसकी पत्नी होंठ पर चुक्बन नहीं देती, संभोग से उसे 
                        वितृष्णा है, गर्ग अगर प्यार के अतिरेक में बच्चे को चूम 
                        लेता तो बंगालिन कई हफ्तों के लिए विनोबा भावे की तरह मौन 
                        व्रत धारण कर लेती। हस्पतालों के चक्कर लगाकर वह थक गया तो 
                        चाल के एक सफल डॉक्टर से परामर्श लेने लगा। डॉ बापट 
                        नया-नया डॉक्टर हुआ था, और धंधे की अपेक्षाओं से अपरिचित 
                        था। नतीजा यह हुआ कि शीघ्र ही गर्ग की ये बातें चाल में 
                        फैल गईं। मेढेकर नाम के लाइनो-ऑपरेटर से डॉक्टर की मित्रता 
                        थी, जो गर्ग के बगल वाले कमरे में रहता था। इन अफवाहों का 
                        असर यह हुआ कि एक दिन गर्ग को सपना आया कि उसकी पत्नी 
                        डॉक्टर बापट के प्रेमपाश में फँस गई है। गर्ग बेचैन हो 
                        गया। उसने सपने को सच मान लिया और उदास रहने लगा। दूकान से 
                        असमय उठ आता और 'चेकिंग' करके लौट जाता। पाल को गर्ग जैसे 
                        वहमी किस्म के ग्राहकों से बहुत असुविधा होती थी। गर्ग का 
                        फोन आता, तो उसकी बीवी कहलवा देती, टिंकू को दस्त आ रहे 
                        हैं, उनसे कहो फोन न करें। पाल इस बात से चिढ जाता। उसे तब 
                        तक चवन्नी नहीं मिलती थी, जबतक बात न हो जाए। गर्ग बात भी 
                        क्या करता था, चिल्लाता था,'बच्चे की 'फीड' में पाँच बूँद 
                        'पिपटाल' जरूर मिला देना, फिर भी पेट ठीक न हो, तो 
                        'केल्टिन-सस्पेंशन' दे देना। जरूरत पडे, तो मुझे बुलवा 
                        लेना, मैं बापट से सलाह कर लूँगा।'  गर्ग 
                        साहब, तीन मिनट हो गए। अब दुगना पैसा देना होगा!' पाल 
                        कहता। वैसे ग्राहक से ज्यादा बात करना पाल के स्वभाव में 
                        नहीं है। पैसे उगाहने का काम प्राय: उसकी बेटी ही करती है। 
                        सब से छोटी बेटी रेणु। रेणु अब स्कूल नहीं जाती। सुबह 
                        नहाकर खुद ही धोया हुआ फ्राक पहन लेती है और फोन के निकट 
                        रखे स्टूल पर ऊँघने लगती है। एक दिन गर्ग का फोन आया, तो 
                        रेणु ने फटाक से कह दिया कि वह बंगालिन को नहीं बुलाएगी। 
                        वह खाली पीली बोम मारती हैं और चवन्नी भी नहीं देती। पाल 
                        ने चौंक के बिटिया की ओर बडे स्नेह से देखा। कितना अच्छा 
                        है! उसकी बेटी अब बात-बात पर परेशान नहीं करती और स्वयं ही 
                        निर्णय ले लेती है।  गर्ग ने 
                        कहा कि उसकी बीवी अगर फोन नही भी सुनती वह चवन्नी देगा। तब 
                        से रेणु बैठे-बैठे चवन्नियाँ कमाने लगी। गर्ग का फोन आता 
                        दे, तो वह 'होल्ड ऑन' कहकर कमरे में नाचने लगती है और थोडी 
                        देर बाद आवाज में खीझ भर कर कहती है, बंगालिन दरवाजा भी 
                        नहीं खोलती।  एक दिन 
                        गर्ग से बीवी की यह उदासीनता बर्दाश्त न हुई और वह तीखी 
                        दोपहर में घर चला आया। यह संयोग ही था कि बंगालिन सोयी हुई 
                        थी, गर्ग के लाख खटखटाने पर भी उसने दरवाजा न खोला। गर्ग 
                        को विश्वास हो गया था, जब उसकी पत्नी दरवाजा नहीं खोलती, 
                        तब अवश्य डाक्टर बापट उससे रंगरलियाँ मनाता होगा। 
                         पाल अपनी 
                        बेटी की इन शरारतों पर ध्यान न देता। यह लडकी दिन भर में 
                        पाँच रुपए की रेजगारी जमा कर लेती थी। आने वाली 'कालों' 
                        में कुछ खर्च भी नहीं होता था। इस लिहाज से रेणु दिन-भर 
                        में ढाई-तीन रुपए तो कमा ही लेती थी। पाल के लिए यह 
                        पर्याप्त था। लडकी अपना काम दिलचस्पी और जिम्मेदारी से कर 
                        रही थी। जिस किसी का भी फोन आता, रेणु घोडे की चाल से 
                        भागती और उस व्यक्ति को ढूँढ निकालती। ग्राहक के रिसीवर 
                        रखते ही वह चवन्नी वसूल लेती। उसके आगे किसी का बहाना न 
                        चलता। रेजगारी न होती तो वह हाँफते हुए डाकखाने तक जाती और 
                        रेजगारी ले आती। डाकखाने के बाबू लोग उसे पहचानने लगे थे।
                         प्रकाश 
                        को रेणु ने खुली छूट दे रखी थी।, कि वह भी अपने विजिटिंग 
                        कार्ड पर उसका फोन नम्बर दे दे, मगर प्रकाश कहीं 'विजिट ही 
                        नहीं करता था। रेणु को प्रकाश पर दया आ गई। उसने कहा, 
                        प्रकाश का फोन आएगा तो वह उससे बुलाने के पैसे नहीं लेगी। 
                        मगर प्रकाश को पाल की ही तरह किसी के फोन का इन्तजार नहीं 
                        था। प्रकाश के कमरे में पाल के फोन की टनटनाहट स्पष्ट 
                        सुनाई देती थी। प्रकाश को कभी नहीं लगा कि टनटनाहट उसके 
                        लिए हो सकती है। पाल पर भी इस घंटी का कोई असर नहीं होता। 
                        रेणु आस-पास न हो, तो वह रिसीवर भी नहीं उठाता। 
                         दिन में 
                        पाल जितना ही शांत नजर आता, पी के लौटने पर उतना ही अशांत 
                        और खूंखार हो जाता। घर की चीजें इधर-उधर पटकने लगता। एक 
                        बार तो उसने खाट के नीचे पडे पत्नी के ट्रंक पर इतने जोर 
                        से ठोकर मारी कि उसके पाँव के अंगूठे का नाखून छिल गया। कई 
                        बार वह भोजन की थाली बाहर मैदान में पटक देता, फिर थोडी 
                        देर बाद स्वयं ही उठा लाता। उसकी पत्नी की आवाज बहुत कम 
                        लोगों को सुनाई देती, मगर वह सुई की तरह कोई-न-कोई बात 
                        अवश्य चुभो देती होगी कि पाल आपे से बाहर हो जाता। 
                       |