मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


''पता है, मेरा बेटा बड़ा होशियार है! अगर उसे अभी यह मदद नहीं मिली तो उस की पढ़ाई बीच में ही रुक जाएगी।
मैं जब-जब इस बारे में सोचता हूँ तो मेरी रातों की नींद हराम हो जाती है।'
प्लेट से दूसरा समोसा उड़ चुका था। मोहित ने मौका पा कर किशोर जयदेव के चेहरे से इस आगंतुक के चेहरे को मिला कर देखा और अब उसे पूरा यकीन हो गया कि उस बालक के साथ इस अधेड़ आदमी का कहीं कोई मेल नहीं।
'इसलिए कह रहा था कि ' चाय की चुस्की भरते आगंतुक ने आगे कहा, 'अगर तुम सौ-डेढ़ सौ रुपए अपने इस पुराने दोस्त को दे सको तो...'
'वेरी सॉरी।'
'क्या?'
मोहित ने मन-ही-मन यह सोच रखा था कि अगर बात रुपए-पैसे पर आई तो वह एकदम 'ना' कर देगा। लेकिन अब जा कर उसे लगा कि इतनी रुखाई से मना करने की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए अपनी गलती की मरम्मत करते हुए उसने बड़ी नरमी से कहा, 'सॉरी भाई। अभी मेरे पास कैश रुपए नहीं हैं।'
'मैं कल आ सकता हूँ।'
'मैं कलकत्ता के बाहर रहूँगा। तीन दिनों के बाद लौटूँगा। तुम रविवार को आ जाओ।'
'रविवार को?'

आगंतुक थोड़ी देर तक चुप रहा। मोहित ने भी मन-ही-मन में कुछ ठान लिया था। यह वही जयदेव है, इस का कोई प्रमाण नहीं है। कलकत्ता के लोग एक -दूसरे को ठगने के ही हज़ार तरीके जान गए हैं। किसी के पास से तीस साल पहले के बाली गंज स्कूल की कुछ घटनाओं के बारे में जान लेना कोई मुश्किल काम नहीं था। वही सही।
'मैं रविवार को कितने बजे आ जाऊँ?'
'सवेरे -सवेरे ही ठीक रहेगा।'

शुक्रवार को ईद की छुट्टी है। मोहित ने पहले से ही तय कर रखा है कि यह अपनी पत्नी के साथ बारूईपुर के एक मित्र के यहाँ उन के बागान बाड़ी में जा कर सप्ताहांत मनाएगा। वहाँ दो-तीन दिन तक रुक कर रविवार की रात को ही घर लौट पाएगा। इसलिए वह भला आदमी जब रविवार की सुबह घर पर आएगा तो मुझ से मिल नहीं पाएगा। इस बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, अगर मोहित ने दो टूक शब्द में उससे 'ना' कह दिया होता। लेकिन ऐसे भी लोग होते हैं जो एकदम ऐसा नहीं कह सकते। मोहित ऐसे ही स्वभाव का आदमी है। रविवार को उससे मुलाक़ात न हाने के बावजूद वह कोई दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाले तो मोहित उससे भी बचने की कोशिश करेगा। शायद इस के बाद किसी दूसरी परेशानी का सामना करने की नौबत नहीं आएगी।

आगंतुक ने आखिरी बार चाय की चुस्की ली और कप को नीचे रखा था कि कमरे में एक और सज्जन आ गए। ये मोहित के अंतरंग मित्र थे - वाणीकांत सेन। दो अन्य सज्जनों के भी आने की बात है, इसके बाद यहीं ताश का अड्डा जमेगा। उसने भले आगंतुक की तरफ़ शक की नज़रों से देखा। मोहित इसे भाँप गया। आगंतुक के साथ अपने दोस्त का परिचय कराने की बात मोहित बुरी तरह टाल गया।
'अच्छा तो फिर मिलेंगे, अभी चलता हूँ।' कह कर अजनबी आगंतुक उठ ख़ड़ा हुआ, 'तू मुझ पर यह उपकार कर दे, मैं सचमुच तेरा ऋणी रहूँगा।'
उस भले आदमी के चले जाने के बाद वाणीकांत ने मोहित की ओर हैरानी से देखा और पूछा, 'यह आदमी तुम से 'तू' कह कर बातें कर रहा था - बात क्या है?'

'इतनी देर तक तो तुम ही कहता रहा था। बाद में तुम्हें सुनाने के लिए ही अचानक तू कह गया।'
'कौन है यह आदमी?'
मोहित कोई जवाब दिए बिना बुक-शेल्फ की ओर बढ़ गया और उस पर से एक पुराना फोटो एलबम बाहर निकाल लाया। फिर इसका एक पन्ना उलट कर वाणीकांत को सामने बढ़ा दिया।
'यह तुम्हारे स्कूल का ग्रुप है शायद?'
'हाँ, बोटोनिक्स में हम सब पिकनिक के लिए गए थे।' मोहित ने बताया।
'ये पाँचों कौन-कौन हैं?'
'मुझे नहीं पहचान रहे?'
'रुको, ज़रा देखने तो दो।'

एलबम को अपनी आँखों के थोड़ा नज़दीक ले जाते ही बड़ी आसानी से वाणीकांत ने अपने मित्र को पहचान लिया।
'अच्छा, अब मेरी बाईं ओर खड़े इस लड़के को अच्छी तरह देखो।'
तस्वीर को अपनी आँखों के कुछ और नज़दीक ला कर वाणीकांत ने कहा, 'हाँ, देख लिया।'
'अरे, यही तो है वह भला आदमी, जो अभी-अभी यहाँ से उठ कर गया।'  मोहित ने बताया।
'स्कूल से ही तो जुआ खेलने की लत नहीं लगी है इसे?' एलबम को तेज़ी से बंद कर इसे सोफ़े पर फेंकते हुए वाणीकांत ने फिर कहा, 'मैंने इस आदमी को कम-से-कम तीस-बत्तीस बार रेस के मैदान में देखा हैं।'
'तुम ठीक कह रहे हो,' मोहित सरकार ने हामी भरी और इस के बाद आगंतुक के साथ क्या-क्या बातें हुई, इस बारे में बताया।
'अरे, थाने में खबर कर दो।' वाणीकांत ने उसे सलाह दी, 'कलकत्ता अब ऐसे ही चोरों, लुटेरों और उचक्कों का डिपो हो गया है। इस तस्वीर वाले लड़के का ऐसा पका जुआड़ी बन जाना नामुमकिन है असंभव।'
मोहित हौले-से मुस्कुराया और फिर बोला, 'रविवार को जब मैं उसे घर पर नहीं मिलूँगा तो पता चलेगा। मुझे लगता है इस के बाद यह इस तरह की हरकतों से बाज़ आएगा।'

अपने बारूइपुर वाले मित्र के यहाँ पोखर की मच्छी, पॉल्टरी के ताज़े अंडे और पेड़ों में लगे आम, अमरूद, जामुन डाब और सीने से तकिया लगा ताश खेल कर, तन-मन की सारी थकान और जकड़न दूर कर मोहित सरकार रविवार की रात ग्यारह बजे जब अपने घर लौटा तो अपने नौकर विपिन से उसे खबर मिली कि उस दिन शाम को जो सज्जन आए थे - वे आज सुबह भी घर आए थे।
'कुछ कह कर गए हैं?'
'जी नहीं।' विपिन ने बताया।
चलो जान बची। एक छोटी-सी जुगत से बड़ी बला टली। अब वह नहीं आएगा। पिंड छूटा।

लेकिन नहीं। आफत रात भर के लिए ही टली थी। दूसरे दिन सुबह यही कोई आठ बजे, मोहित जब अपनी बैठक में अख़बार पढ़ रहा था तो विपिन ने उस के सामने एक और तहाया हुआ पुर्जा ला कर रख दिया। मोहित ने उसे खोल कर देखा। वह तीन लाइनों वाली चिट्ठी थी -- 'भाई मोहित, मेरे दाएँ पैर में मोच आ गई है, इसलिए बेटे को भेज रहा हूँ। सहायता के तौर पर जो थोड़ा-बहुत बन सके, इस के हाथ में दे देना, बड़ी कृपा होगी। निराश नहीं करोगे, इस आशा के साथ, इति।' - तुम्हारा जय
मोहित समझ गया अब कोई चारा नहीं हैं। जैसे भी हो, थोड़ा-बहुत दे कर जान छुड़ानी है - यह तय कर उसने नौकर को बुलाया और कहा, 'ठीक है, छोकरे को बुलाओ।'

थोड़ी देर बाद ही, एक तेरह-चौदह साल का लड़का दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ। मोहित के पास आ कर उसने उसे प्रणाम किया और फिर कुछ कदम पीछे हट कर चुपचाप खड़ा हो गया।
मोहित उसकी तरफ़ कुछ देर तक बड़े गौर से देखता रहा। इसके बाद कहा, 'बैठ जाओ।'
लड़का थोड़ी देर तक किसी उधेड़बुन में पड़ा रहा, फिर सोफ़े के एक किनारे अपने दोनों हाथों को गोद में रख कर बैठ गया।
'मैं अभी आया।'
मोहित ने दूसरे तल्ले पर जा कर अपनी घरवाली के आँचल से चाबियों का गुच्छा खोला। इसके बाद अलमारी खोल कर पचास रुपए के चार नोट बाहर निकाल, इन्हें एक लिफ़ाफ़े में भरा और अलमारी बंद कर नीचे बैठकखाने में वापस आया।
'क्या नाम है तुम्हारा?'
'जी, संजय कुमार बोस।'
'इसमें रुपए हैं। बड़ी सावधानी से ले जाना होगा।'
लड़के ने सिर हिला कर हामी भरी।
'कहाँ रखोगे?'
'इधर, ऊपर वाली जेब में।'
'ट्राम से जाओगे या बस से?'
'जी, पैदल।'
'पैदल? तुम्हारा घर कहाँ है?'
'मिर्ज़ापुर स्ट्रीट में।'
'भला इतनी दूर पैदल जाओगे?'
'पिताजी ने पैदल ही आने को कहा है।'
'अच्छा तो फिर एक काम करो। तुम एक घंटा यहीं बैठो ठीक है। नाश्ता कर लो। यहाँ ढेर सारी किताबें हैं, इन्हें देखो। मैं नौ बजे दफ़्तर निकलूँगा। मुझे दफ़्तर छोड़ने के बाद मेरी गाड़ी तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देगी। तुम ड्राइवर को अपना रास्ता बता सकोगे न?' मोहित ने पूछा।
लड़के ने सिर हिला कर कहा, 'जी हाँ।'

मोहित ने विपिन को बुलाया और इस लड़के संजय बोस के लिए चाय वगैरह लाने का आदेश दिया। फिर दफ़्तर के लिए तैयार होने ऊपर अपने कमरे में चला आया।
आज वह अपने को बहुत ही हल्का महसूस कर रहा था। और साथ ही बहुत ही खुश।
जय को देख कर पहचान न पाने के बावजूद, उस के बेटे संजय में उसने अपना तीस साल पुराना सहपाठी पा लिया था।

पृष्ठ- . . .

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।