|  
    दिल्ली में मेरी वापसी - एक कठिन 
	निर्णय 
 सन २००० के आते आते मेरे पिता के सेना से सेवानिवृत्त होने का समय आ गया। अब 
	हमें पूना में मिला सैन्य आवास खाली करना था। मेरे पास दो विकल्प थे। या तो मैं 
	यहाँ पूना में एक छोटा सा मकान खरीद कर रह सकता था, या मैं दिल्ली के निकट बसे 
	गुडगाँव शहर में अपने पैत्रिक स्थान के बहुत निकट रह सकता था।
 
 मुझ जैसी चोट वाले व्यक्ति के लिए पूना एक उपयुक्त शहर था। रीढ़ की हड्डी की 
	चोट वाले व्यक्तियों के लिए यहाँ विशेष हस्पताल थे। मुझ जैसी चोट वाले व्यक्ति 
	के लिए ठंडा या गरम मौसम सह पाना बहुत कठिन होता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति का 
	शरीर काम नहीं करता है। पूना में बारह महीने अच्छा मौसम रहता था लेकिन फिर भी 
	कभी कभी सर्दी और गर्मी से मुझे भयंकर कष्ट का सामना करना पड़ता था। फिर दिल्ली 
	का मौसम तो तेज़ गर्मी और ठण्ड के लिए जाना जाता है। मैं वहाँ कैसे निर्वाह कर 
	पाऊँगा। पूना में जीवन इतना सरल था कि यहाँ आने के बाद कोई भी व्यक्ति इस जगह 
	को छोड़ कर जाना नहीं चाहता था।
 
 लेकिन मैं जानता था कि मेरे जो उद्देश्य थे उन्हें मैं अपने पैत्रिक स्थान के 
	पास रह अधिक अच्छे तरीके से प्राप्त कर पाऊँगा। मैं सामाजिक कार्य के द्वारा 
	समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन लाना चाहता था। मैं गाँव में बच्चों की शिक्षा 
	की बेहतरी के लिए कार्य करना चाहता था, मैं ज़रूरतमंद बच्चों की मदद करना चाहता 
	था, लेखन करना चाहता था और साहसिक खेलों में कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहता 
	था।
 
 मैंनें निर्णय लिया कि चाहे यह मेरे लिए कितना भी कठिन हो मैं दिल्ली आ कर अपने 
	कार्य को आगे बढ़ाऊँगा।
 
 'जीवन में जब भी आपके सामने कुछ विकल्प हों, तो आप सबसे कठिन विकल्प चुनें। 
	सबसे कठिन विकल्प को चुन कर ही आप अपने जीवन को साकार बना सकते हैं।'
 
 
 'मैं कैसे कर पाऊँगा यह मुझे नहीं पता था, किन्तु मैं कर पाऊँगा ऐसा मुझे पूर्ण 
	विश्वास था'
 
 
 दिल्ली में वापसी
 
 सन २००० में पूना से सब समेट मैं और मेरा परिवार दिल्ली आ गए। मेरा जीवन एक 
	चक्रव्यूह के समान चल रहा था। मैं घूम फिर के फिर वहीँ आ जाता था। सबसे पहले 
	मेरा जन्म १९७३ में यहाँ दिल्ली में हुआ, फिर १९८०-८४ तक मैं यहाँ पढ़ा, फिर चोट 
	लगने के बाद मेरा आपरेशन यहाँ हुआ और अब मैं यहाँ अपने कार्य के लिए और समाज 
	में अपना योगदान देने के लिए आया था। जहां मैं गुडगाँव/गुरुग्राम में रह रहा था 
	वो हज़ारों वर्ष पूर्व गुरु द्रोण का आश्रम था और जहां मैं कार्य कर रहा था वो 
	धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र से अधिक दूर नहीं था। हाँ यह मेरा कुरुक्षेत्र था और 
	जो महाभारत की लड़ाई मुझे लड़नी थी वो अब मेरे सामने थी।
 
 'कर्मंण्येवाधिकरास्ते... कर्म ही अधिकार है'
 
 जब मैं दिल्ली पहुँचा तो बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। क्योंकि मेरा शरीर 
	काम नहीं करता था गर्मी में मुझे बहुत तेज़ बुखार हो जाता और मुझे अपने सिर पर 
	थोडा पानी डालते रहना पड़ता। बहुत बार मेरे शरीर का तापमान इतना बढ़ जाता कि मैं 
	सुध बुध खो बैठता।
 
 मुझे खुद यह ध्यान नहीं कि कितनी बार मैं गर्मी से लगभग बेहोश सा हो गया था। 
	सर्दियों में मैं ठिठुरता रहता। लेकिन मैंने अपने काम को रुकने नहीं दिया। मैं 
	बच्चों को कम्पूटर और गणित पढाता। मैं गाँव में जा बच्चों को अंग्रेजी पढाता।
 
 धीरे धीरे मैंने अपने आपको ऐसे ढाल लिया के मैं इस माहौल में भी पूरी लगन और 
	कुशलता के साथ कार्य कर सकूँ।
 
 एक असंभव लक्ष्य
 
 पूना में रहते हुए ही मेरी नज़र एक दिन एक समाचार पर पड़ी थी। लिखा था कि तीन 
	युवक अपनी मोटरसाइकिल पर हिमालय में दुनिया की सबसे ऊँची सड़क 'खर्दुंग ला', जो 
	समुद्रतल से १८,३८० फुट ऊँचाई पर है, तक गए थे। यह सफ़र तय करने में उनको 
	पच्चीसियों दिन लगे थे।
 
 मुझे अपना लक्ष्य मिल गया था। मैंने मन में ठान लिया था कि एक दिन मैं उस पहाड़ी 
	की चोटी तक जाऊँगा। मैं कैसे जा पाऊँगा यह मुझे नहीं पता था, किन्तु मैं जा 
	पाऊँगा ऐसा मेरा विश्वास था। मुझ जैसे व्यक्ति के लिए इतने दिन सड़क और पहाड़ों 
	में निकालना और शुन्य से चालीस डिग्री कम तापमान वाली जगह जाना या जाने की 
	सोचना असंभव ही नहीं बल्कि हास्यास्पद भी था। मैंने किसीको अपने उद्देश्य के 
	बारे में नहीं बताया किन्तु मैंने अपने स्तर पर जानकारी इक्कट्ठी करनी शुरू कर 
	दी।
 
 इस बीच मुझे पता चला कि दिल्ली से लगभग ७० कि॰ मी॰ दूर मेरठ शहर के निकट एक 
	हवाई अड्डे पर छोटे हवाई जहाज़ और ग्लाइडर उडाना सीखने की सुविधा उपलब्ध है। मैं 
	इस अवसर को छोड़ने वाला नहीं था। मैंने तैयारी की और मेरठ में जा हवाई जहाज़ 
	उड़ाने का प्रशिक्षण लिया। एक खुले ग्लाइडर में बैठ उसे आसमान में ऊँचाइयों तक 
	उडाना एकदम पक्षी की तरह उड़ने के समान था। कभी कभी ऊँचाइयों पर उड़ते हुए हम एक 
	ऊँचे उडते बाज पक्षी का पीछा करते। यह मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत अनुभवों में 
	से एक था। मैंने जीवन में हमेशा यह लक्ष्य रखा के जब भी मुझे कुछ नया अनुभव 
	करने का और सीखने का अवसर मिले तो मैं उस अवसर का अवश्य सदुपयोग करूँ।
 
 'जीवन में जब भी कुछ सीखने और अनुभव करने का अवसर मिले तो ऐसे अवसर का सदुपयोग 
	करो और व्यर्थ न जाने दो।'
 
 मैं अपनी गाड़ी चला लेह लद्दाख जाना चाहता था किन्तु यदि मैं किसी को अपना यह 
	उद्देश्य बताता तो उसे यह हँसने योग्य और मूर्खतापूर्ण ही लगता। मैंनें बहुत 
	कोशिश की कि मैं उस रास्ते के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकूँ ताकि मैं उसी 
	अनुसार अपनी तैयारी भी कर सकूँ लेकिन उन दिनों इन्टरनेट पर भी कोई जानकारी 
	उपलब्ध नहीं थी।
 
 मुझे बस कहीं से यह पता लगा के लेह-लद्दाख का मार्ग साल में सिर्फ दो महीने के 
	लिए ही खुलता है और बाकी समय बर्फ से ढँका रहता है। (हालाँकि यह जानकारी सही 
	नहीं थी किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं था और मैंने इसी जानकारी के आधार पर अपनी 
	तैयारी शुरू कर दी)
 मुझे लगा कि यदि यह मार्ग गर्मियों में कुल दो माह के लिए ही खुलता है तो शायद 
	वो मई और जून के माह होंगे क्योंकि ये सबसे गर्मी वाले महीने होते हैं। तो 
	मैंने यह निर्णय लिया कि मैं मई महीने की बीस तारीख को अपने सफ़र की शुरुवात 
	करूँगा।
 
 मेरी गाड़ी/कार बहुत पुरानी हो चुकी थी और यह मारुती ८०० उस समय की सबसे छोटी 
	गाड़ी थी। क्या मैं ऐसी गाड़ी को सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे तक ले जा पाऊँगा? यह 
	उद्देश्य तो असंभव सा प्रतीत हो रहा था।
 
 'जीवन में आपको अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थितियाँ कभी नहीं मिलेंगी। किन्तु 
	आपका विश्वास होना चाहिए कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हों, आप अवश्य सफल 
	होंगे।'
 
 मैंने कुछ पैसे लगा अपनी गाड़ी की मरम्मत करवाई ताकि वो ऐसे कठिन सफ़र को तय कर 
	सके। मेरे पहले सफ़र पर मेरा साथ देने के लिए मेरा मौसेरा भाई धर्मेन्द्र और 
	उसका दोस्त उपेन्द्र तैयार हुए और हमने जाने की तैयारी शुरू कर दी। ऐसे पहाड़ी 
	दर्रों और हिमालय की चोंटियों के बीच यह एक कठिन सफ़र होने वाला था। जो भी 
	सामान हमें लगा कि जिसकी आवश्यकता इस सफ़र में हो सकती है, वो सामान हमने 
	एकत्रित कर लिया।
 
 हिमालय की ओर - पहला प्रयास
 
 जब मैंने अपने परिवार और मित्रों को अपने निर्णय के विषय में बताया तो सबने 
	मेरे निर्णय का विरोध किया। सबने बहुत प्रयास किया कि मैं अपना निर्णय बदल लूँ 
	किन्तु मैं अपने निर्णय पर अडिग था। बीस मई को कुछ परिवारजनों और शुभचिंतकों की 
	उपस्थिति में हम लोग शाम पाँच बजे गुडगाँव से रवाना हुए। गर्मी बहुत थी और मेरा 
	इरादा था के हम रात के रहते चंडीगढ़ तक का सफ़र तय कर लेंगे और जब सुबह होगी तो 
	हम पहाड़ी चढ़ रहे होंगे।
 
 मैं देर रात तक गाड़ी चलाता रहा। रात हम अम्बाला शहर पहुँचे, जहाँ कुछ घंटे 
	विश्राम कर हम सुबह चार बजे फिर चल पड़े। दिन होते होते हम हिमांचल की पहाड़ियाँ 
	चढ़ रहे थे। चंडीगढ़ से मनाली तक का ढाई सौ किलोमीटर का रास्ता घुमावदार मोड़ों 
	से भरा हुआ था। सड़क लगातार दाहिने या बाएँ मुड़ रही थी। पूरे दिन इन रास्तों पर 
	लगातार दाहिने और बाएँ गाड़ी के स्टीयरिंग को मोड़ते मेरे हाथ जाने कितनी बार 
	सुन्न हो चुके थे।
 
 अगर हमें मात्र मनाली तक जाना होता तो शायद मैं रुक के हाथों को आराम दे सकता 
	था, लेकिन हमें तो लेह तक जाना था। मैं पहले लम्बे सफ़र पर गाड़ी चला चुका था। 
	दिल्ली से पूना दो बार जा चुका था और मसूरी और नैनीताल के पहाड़ी रास्तों पे भी 
	गाड़ी चला चुका था। मेरा अनुभव यह था कि हम सड़क पे सफ़र करते जितने अधिक दिन 
	लेंगे उतनी ही हमारे लिए यह यात्रा कठिन होती जाएगी।
 
 लगातार गाड़ी चलाते हम दोपहर बाद तक मनाली पहुँच गए। मैंने होटल के कमरे में 
	आराम करने का फैसला किया क्योंकि मैं पिछले दिन की शाम से गाड़ी चला रहा था। 
	धर्मेन्द्र और उपेन्द्र ने तो मेरे गाड़ी चलाते समय आराम कर लिया था। मेरे लिए 
	विश्राम करना आवश्यक था क्यूँकि आगे एक लम्बा सफ़र था। धर्मेन्द्र और उपेन्द्र 
	आगे के मार्ग की जानकारी लेने और कुछ रास्ते के लिए खाने की चीज़ें खरीदने चले 
	गए।
 
 कुछ घंटे बाद जब वो वापस आए तो जो जानकारी उन्होंने दी उसके अनुसार आगे का सफ़र 
	बहुत कठिन होने वाला था।
 
 मनाली से लेह का रास्ता बस दो ही दिन पहले खुला था और पूरे मार्ग पर जहाँ तहाँ 
	बर्फ की दीवारें थीं जो किसी भी समय टूट टूट कर सड़क पर गिर सकती हैं और राह को 
	रोक सकती हैं।
 
 दिन के समय पिघलती बर्फ का पानी नालों के रूप में सड़क के ऊपर बहता है। इन बहते 
	पानी के नालों को पार करते समय बड़ी बड़ी गाड़ियाँ भी फँस जाती हैं।
 
 मनाली से सड़क द्वारा लेह जाने का यह सबसे अनुचित समय था। ऊपर से हमारी गाड़ी 
	इतनी पुरानी और खराब हालत में थी। बीच में लगभग चार सौ किलोमीटर तक कोई सहायता 
	उपलब्ध नहीं थी। वो सिर्फ पहाड़ी दर्रों का रास्ता था। उसमें न कोई पेट्रोल 
	डलवाने की जगह थी, न कोई दुकान, किसी भी तरह की सुविधा नहीं थी।
 
 हमने अपना सामान बाँधा और अगले दिन सुबह तीन बजे निकलने का प्लान बनाया। इतनी 
	सुबह निकलने का प्लान इसलिए बनाया क्योंकि इतनी सुबह की ठण्ड में बरफ पिघलना 
	शुरू नहीं करती और सड़क पर कम पानी होता है।
 
 सुबह तीन बजे अपनी गाड़ी में बैठ हम पहले पहाड़ी दर्रे रोहतांग को चढ़ने लगे। सड़क 
	बहुत टूटी हुई और खराब थी। चढ़ाई भी बहुत ज्यादा थी। लेकिन हम चढ़ते गए। गाड़ी 
	में शीशे बंद होने से बाहर की ठण्ड का पूरा अहसास हमें नहीं था। किन्तु मुझे 
	पता था कि बाहर की ठण्ड असहनीय होगी। धर्मेन्द्र और उपेन्द्र बहुत उत्साहित थे 
	कि वो बिना गरम कपडे पहने ही लेह पहुँच जाएँगे। मैंने कुछ न कहा। जैसे ही हम 
	दर्रे के ऊपर पहुँचने वाले थे तो गाड़ी एक जगह बर्फ में फँस गई और दोनों नीचे 
	उतर कार को धक्का लगाने लगे। गाड़ी बर्फ से बाहर निकली तो दोनों दौड़ के गाड़ी 
	में बैठे। उनके हाथ, पैर नीले पड़ गए थे और दोनों बुरी तरह ठिठुर रहे थे। मैंनें 
	भी उनको चिढाने का मौका नहीं छोड़ा "और न पहनो गर्म कपडे" मैंने कहा। उन्होंने 
	भी स्वयं पर व्यंग करते हुए फट से गरम कपडे पहन लिए।
 
 हम शीघ्र ही ऊपर पहुँच गए। सुबह होती हुई रौशनी में आस पास की बर्फ से ढँकी 
	पहाड़ियों और वादियों की अतुल्य सुन्दरता को कुछ समय निहार हम आगे चल पड़े। 
	रास्ते के दोनों ओर बर्फ की दीवारें बनी हुई थीं। बहुत ही रोमांचक सफ़र था। दूर 
	दूर तक कोई मनुष्य तो दूर, परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। बस नीचे घाटी में से 
	इन दो पहाड़ी श्रंखलाओं के बीच से होकर बहती नदी की आवाज़ आ रही थी।
 
 यह लाहौल-स्पीती की घाटी थी। इतने एकांत में कुछ भय भी लग रहा था कि यहाँ तो 
	राह बताने वाला भी कोई न मिलेगा। राह में एक दो जगह ऐसी भी आई जहाँ दाहिने ओर 
	किसी गाँव तक और घाटी के दूसरी ओर रास्ता जाता था, किन्तु नक़्शे/मानचित्र के 
	अनुसार मैंने उलटे हाथ वाला रास्ता चुना। घाटी से नीचे उतरते हम एक लकड़ी के 
	तख्तों से बने पुल को पार कर नदी के दूसरी ओर खोखसर नाम के गाँव में पहुँचे। 
	गाँव तो क्या था, गाँव के नाम पर कुछ खोखे नुमा दुकानें थी जहाँ पर चाय की 
	सुविधा थी।
 
 वहाँ बैठ हमने चाय पी। सामने साफ़ पारदर्शी पानी की बहती नदी और चारों ओर ऊँची 
	बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच हमारा हर पल हमारे जीवन का सबसे सुन्दर पल था। 
	कुछ समय रुक हम फिर चल पड़े।
 
 नदी के साथ साथ चलते इस घाटी की सुन्दरता से हम मंत्रमुग्ध से थे। दोपहर बाद 
	फिर नदी को पार कर हम दारचा गाँव पहुँचे। यह इस घाटी का अंतिम गाँव था। एक 
	स्थानीय तिब्बती निवासी के पत्थरों से बने घर में हमने शरण ली। उन्होंने अपने 
	घर में ही यात्रियों के रुकने और खाने की व्यवस्था कर रखी थी। पिछली खिड़की के 
	बाहर पहाड़ी की तलहटी में एक बर्फ की गुफा में से नदी निकल रही थी। इसी घर में 
	तीन-चार और यात्रियों ने भी शरण ली थी, जिसमे एक बस का ड्राइवर भी था।
 
 रात हुई और हम अजनबी आग के चारों ओर बैठ, उस तिब्बती गृहणी के हाथ बने आलू के 
	पराँठों का चाय के साथ आनंद लेते, आपस में बात करने लगे। बस ड्राईवर ने बताया 
	के आगे का रास्ता बहुत खराब है और फौजी कान्वाई की गाड़ियाँ भी फँस 
	गईं थीं। उसकी सरकारी बस को भी सिर्फ इसी गाँव तक आने की अनुमति थी।
 
 अगले पहाड़ी दर्रे पर बर्फ की दीवारों से पिघल पानी के बड़े झरने सड़क के ऊपर से 
	बहते हैं और इसमें बड़ी बड़ी गाड़ियाँ भी फँस जाती हैं। यह समय सड़क से लेह जाने 
	का प्रयास करने का सबसे अनुचित समय था। अगस्त का महीना सबसे उचित होता है।
 
 इस नई जानकारी के परिपेक्ष में मैंनें धर्मेन्द्र और उपेन्द्र के साथ सोने से 
	पहले आपस में विचार विमर्श किया। हमारी गाड़ी हमें पहले ही कई जगह समस्या दे 
	चुकी थी। हमें गाड़ी की मरम्मत की कतई जानकारी नहीं थी। अगले लगभग चार सौ 
	किलोमीटर तक कोई सहायता उपलब्ध भी नहीं होगी। जहाँ बड़ी बड़ी फौजी गाड़ियाँ भी 
	फँस रही थीं वहाँ हमारी गाड़ी के इस सफ़र को तय करने की संभावना न के बराबर थी।
 
 मेरा विचार था के उस दिन हम आगे जाने के लिए तैयार नहीं थे, अतः हमें आगे नहीं 
	जाना चाहिए। इस राह में लेह और हमारे बीच चार दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ी दर्रे 
	थे जो रोहतांग दर्रे से बहुत ऊँचे थे और इस राह में सफ़र करते, जाने कितने ही 
	लोगों की मौत, ऊँचाई पर कम आक्सीजन के कारण और बर्फ में फँस जाने से ठण्ड के 
	कारण हो चुकी थी।
 
 मेरे निर्णय का उपेन्द्र ने समर्थन किया किन्तु धर्मेन्द्र बहुत उत्तेजित था। 
	वो नहीं चाहता था कि हम वापस मुड़ें। मुझे अपनी समझदारी से फैसला करना था। 
	साहसी खेलों में मैंने एक बात सीखी थी - 'साहस और मूर्खता में बहुत कम अंतर 
	होता है। बिना पूरी तैयारी के खतरा उठाना मूर्खता होगी।' और मुझे आगे जाना 
	मूर्खता लग रही थी।
 
 हमें और तैयारी की आवश्यकता थी। हमने निर्णय लिया कि हम आगे नहीं जाएँगे। मुझे 
	विश्वास था के मैं शीघ्र लौटूँगा और इस सफ़र को पूरा करूँगा।
 |