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सातवाँ भाग

कंप्यूटर और शतरंज

शतरंज तो मैं पहले से ही खेल रहा था और बाकी खिलाड़ियों को हरा मैं उसमे महारथ भी हासिल कर रहा था। फिर मेरे बड़े भैया नें मेरी रुचि संगणक/कंप्यूटर में जगाई। यहाँ मुझे सिर्फ शौक और समय व्यतीत करने के लिए खेलने वालों के साथ ही शतरंज खेलने को मिल रहा था। अतः शतरंज में मेरी योग्यता एक स्तर से ऊपर नहीं जा रही थी और एक कंप्यूटर होने से मैं उसमें कंप्यूटर के साथ शतरंज खेल सकता था और अपनी योग्यता एवं कुशलता को और बढ़ा सकता था।

१९९५-९६ में कंप्यूटर सीखने की सुविधा बहुत कम जगह पर उपलब्ध थी। मेरा सौभाग्य था के मेरे हस्पताल के समीप ही एक तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र था जहाँ मैं कंप्यूटर सीख सकता था। हस्पताल में रहते हुए ही मैंने कंप्यूटर कोर्स में दाखिला ले लिया। यह केंद्र मेरे हस्पताल से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर था। मैं किसी तरह अपनी व्हीलचेयर धकेल वहाँ तक प्रतिदिन जाता। मैं टूटा फूटा ही कुछ लिख पाता था, अतः मुझे गणना (हिसाब) अपने मन में ही करनी पड़ती। मैं पढाए गए पाठ को लिख पाने में भी असमर्थ था। लेकिन मैंने हस्पताल में रहते अपनी मानसिक योग्यताओं को इतना बढ़ा लिया था के मैं यह सब कर पाता। मैं शिक्षक के पढ़ाते पढ़ाते ही पाठ को याद कर लेता।

एक साल बाद जब इस कोर्स की परीक्षा हुई और परिणाम घोषित हुए तो मैं ९९% अंकों के साथ कक्षा में प्रथम स्थान पर आया था।

मैंने इसी प्रशिक्षण केंद्र में आयोजित की गई एक शतरंज प्रतियोगिता में अपने सब विरोधी खिलाड़ियों को हरा प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त किया।

यद्यपि मैं इन उपलब्धियों को विशेष नहीं मानता था (क्योंकि मुझे तो जीवन में बहुत कुछ अनुभव और उपलब्धियाँ हासिल करनी थीं), मेरी इन उपलब्धियों के चर्चे होने लगे। इतनी भयंकर चोट से इतने कम समय में बाहर आ मैंने यह उपलब्धियाँ भी हासिल की थीं। अतः मुझे सबके लिए एक आदर्श माना जा रहा था।

कुछ समाचार पत्रों में मेरी उपलब्धयों के विषय में लेख लिखे गए और उसके बाद तो मेरे पास प्रतिदिन पचासों पत्र आने लग गए। वह ई-मेल का ज़माना नहीं था तो सब पत्राचार ही करते। मैं भी समय निकाल सभी पत्रों के उत्तर देता। मेरे कई पत्राचार मित्र भी बन गए।

यद्यपि मैं परिस्थितियों को हरा कर कामयाब हुआ था, मुझे घमंड नहीं था। हाँ गर्व अवश्य था। मैं परिस्थितियों और समय का सम्मान भी करता हूँ। किसी दिन मैं परिस्थितियों से हार भी सकता हूँ। लेकिन न मुझे उस दिन की परवाह है, न प्रतीक्षा। मैं मात्र अपने लक्ष्य और उद्देश्य की ओर बढ़ना जानता हूँ और यही मेरा कर्म है। कर्मंयहवाधिकरास्ते ... कर्म ही अधिकार है।


जीवन में वापसी

हस्पताल में लगभग दो साल रहने के बाद जुलाई सन १९९७ में मुझे हस्पताल से छुट्टी भी दे दी गई और सेना में सेवा से सेवानिवृत्त भी कर दिया गया। उन दिनों सेना में एक क़ानून लाया जा रहा था कि विकलांग हुए व्यक्ति को भी सेना से सेवानिवृत्त नहीं किया जाएगा और उसे किसी कार्यालय में उचित /नौकरी/कार्य दे दिया जाएगा। लेकिन मेरे मन में कोई शंका नहीं थी। अब इतना विकलांग होने के बाद सेना के लिए कुछ उतना अच्छा न कर पाऊँ लेकिन समाज और देश के लिए अवश्य कर पाऊँगा, ऐसी मेरी सोच थी। अब मैं समाज में अपना योगदान देना चाहता था।

जब सेना से सेवानिवृत्त हुआ तो मेरे मेडिकल सर्टिफिकेट (प्रमाणपत्र) में लिखा था, 'जीवन भर के लिए १००% अयोग्य'। मुझे पता था कि अवसर मिला तो एक दिन मैं अपनी योग्यता स्वयं साबित करके दिखाऊँगा।
लेकिन अब मेरे सामने एक युद्ध भूमि थी और जीतने के लिए एक महायुद्ध। मैं बड़ी कठिनाई से अपनी व्हीलचेयर ही थोड़ी बहुत चला पाता था और मेरे हाथ भी कुछ थोडा ही काम करते थे। ऐसी परिस्थिति में मैं बाहर की दुनिया में क्या कर पाऊँगा? स्वयं का ध्यान रखना और सकुशल रहना भी एक चुनौती होने वाली थी। मुझे नहीं पता था के मैं कैसे सफल होऊँगा, किन्तु मैं सफल होऊँगा, इस बात पर मेरा पूरा विश्वास था।

'जीवन में जब भी निर्णय लेना हो तो सबसे कठिन विकल्प को चुनो। ऐसा करके ही तुम जीवन में बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकोगे।'

मैंने निर्णय लिया कि मैं कंप्यूटर में आगे पढ़ाई करूँगा। पूना शहर के एक विख्यात अंतर्राष्ट्रीय कालेज में मैंने स्नातकोत्तर की डिग्री के लिए प्रवेश पाने का निर्णय लिया। किन्तु इस कालेज में प्रवेश पाने की कोशिश करने वालों की बहुतेरी भीड़ थी। अतः एक प्रवेश परीक्षा को पास करना था जिसमें ३०००० से अधिक विद्यार्थी प्रवेश के लिए भाग लेने वाले थे और जहाँ तक मुझे ध्यान है कुल पचास के लगभग ही प्रवेश पा सकते थे।

तगड़ा मुकाबला था। इस परीक्षा में बहुत सा गणित था और ऐसे प्रश्न थे जिसमें कागज़ पर लिखकर ही जवाब निकाला जा सकता था। मैं उतना लिखने में असमर्थ था और मेरा मुकाबला ऐसे विद्यार्थियों से था जो पढ़ाई में माहिर थे। बहुत से विद्यार्थी इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त कर चुके थे। यह वास्तव में मेरी मानसिक योग्यता की परीक्षा थी। हस्पताल में रहते हुए मैंने अपनी मानसिक योग्यता को बढ़ाया था। साधारण प्रतिभा वाले विद्यार्थियों से मुकाबला करना होता तो एक बात थी, किन्तु यहाँ मुझे विशेष प्रतिभाशाली विद्यार्थियों से मुकाबला करना था और मैं लिखकर उत्तर नहीं निकाल सकता था। मुझे मन में ही उत्तर निकालना था।

मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ और मैंने कालेज जाना शुरू किया। बहुत कठिनाई थी। ऐसी हालत में प्रतिदिन एक ऑटो रिक्शा में अपनी व्हीलचेयर और खुद को डाल मैं दस किलोमीटर का सफ़र तय करता और लगभग दस घंटे कक्षा में रहता। कक्षा में जाने और कक्षा से आने के लिए चालीस सीढियाँ चढ़नी और उतरनी पड़तीं। मेरे सहपाठियों नें मेरी सदैव बहुत सहायता की और मैं कक्षा में आ जा सका।

यह दो साल का स्नातकोत्तर का कोर्स था और इसमें बहुत पढ़ाई करनी पड़ती। बड़ी बड़ी और कठिन परीक्षाएँ भी होतीं। मेरी कठिनाई इसलिए बहुत अधिक थी कि मैं लिख नहीं पाता था। सब कठिन प्रश्न दिमाग में सुलझा उनका जवाब बोल कर एक नियुक्त व्यक्ति द्वारा लिखवाना पड़ता।

मैंने कठिन परिश्रम जारी रक्खा और जब अंतिम परीक्षा हुई तो मेरे ६८% अंक आए थे जो प्रथम श्रेणी में बहुत अछे अंक थे। प्रथम स्थान पाने वाले छात्र के अंक मेरे से मात्र तीन प्रतिशत अधिक थे। मैं अपने परीक्षाफल से प्रसन्न था। मैंने अपनी योग्यता को साबित किया था।

उस समय १९९७ में कंप्यूटर में इतनी बड़ी योग्यता (स्नातकोत्तर/डिग्री) पाने की बात मुझे देश में तो क्या, पुरे विश्व में कहीं भी नौकरी मिल सकती थी। मेरे सहपाठियों को मिल भी रही थी। लेकिन मैं किसी अन्तराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करने का इच्छुक नहीं था। मैं कुछ भिन्न करना चाहता था। मेरे निकटजनों और सहपाठियों को अचरज था के मैं इतनी बढ़िया नौकरियाँ पाने के अवसर क्यों छोड़ रहा हूँ। लेकिन मेरा मेरे भविष्य के विषय में भिन्न विचार था।

मैं आने वाले समय में अपने देश और समाज के लिए कार्य करना चाहता था। मेरा विचार था कि जिस मिटटी से आपने जन्म लिया, उस मिटटी के प्रति और वहाँ के लोगों के प्रति आपका कर्त्तव्य बनता है कि आप वहाँ के सुधार के लिए कार्य करो। जिस समाज ने आपको पाला और जहाँ से आपने इतना कुछ सीखा और पाया, उस समाज का हमपर ऋण है और हमारा कर्त्तव्य है कि हम उस समाज के लिए जितना हो सके उतना करें।

मैं जानता था कि मेरे पास साधन और योग्यता नहीं थी और ऐसा करने में समय लगने वाला था, किन्तु मैं समय और श्रम, दोनों देने के लिए तत्पर था। मैंने एक स्कूल में कम्पूटर के अध्यापक की नौकरी ले ली। यह स्कूल मेरे घर से लगभग २२ किलोमीटर दूर था। पर मैं बहुत खुश था। एक अध्यापक होना मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी।

एक साल तक इस विद्यालय में पढ़ाने के साथ ही मैंनें पूना विश्व विद्यालय से एक राष्ट्रीय स्तर की लेक्चरार बनने की परीक्षा (UGC NET ) भी सफलतापूर्वक पास कर ली। अब मैं किसी भी महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय में लेक्चरार बन सकता था। किन्तु मेरी रुचि छोटे और स्कूली बच्चों को पढ़ाने में ही अधिक थी। मैंनें विद्यालय में पढ़ाना जारी रखा।

स्वावलंबन - एक प्रयास और सफलता

मुझे स्वयं कहीं भी आने जाने में कठिनाई थी। चालक सहित गाड़ी होने से तो आ जा सकता था, किन्तु चालक हमेशा तो उपलब्ध नहीं रहेगा और आपको आना जाना तो किसी भी समय पड़ सकता है। बिना कहीं आने जाने की योग्यता के तो मैं जीवन में कुछ भी न कर पाऊँगा। मैंने निर्णय लिया कि मैं स्वयं ही गाड़ी चलाऊँगा। मेरे ऐसा निर्णय लेते ही मुझे चारों ओर से विरोध का सामना करना पड़ा। मेरे परिवारजन एवं मित्रगण, सबने मेरा विरोध किया। वे सब मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। उनका कहना था के जब आजकल साधारण और सेहतमंद लोग भी सड़क पर गाड़ी नहीं चला सकते तो मैं अपनी अवस्था में इतनी भीड़ भाड़ वाली सडकों पर गाड़ी कैसे चलाऊँगा। विरोध तो हुआ किन्तु मेरा विश्वास अडिग था।

बहुत दिनों तक मैंने एक दुपहिया स्कूटर को काट पीट के कुछ ऐसा बनाने का प्रयास किया के जिसे मैं चला सकूँ। उसमें संतुलन बनाए रखने के लिए दो पहिये और लगाए। एक अलग तरह का हैंडल भी लगाया। अलग तरह की कुर्सी लगाई। और भी बहुत से ताम झाम लगाए। लेकिन कई महीनों या लगभग एक साल की मेहनत के बाद भी मैं इसमें सफल न हो सका। मैं कुछ हताश था। फिर मैंने सोचा के क्यों न मैं एक स्तर आगे की सोचूँ। इस स्कूटर को कार के समान बनाने के बजाए मैं कार ही क्यों न चलाऊँ। मैंने ठान लिया कि मैं अब एक चार पहिया गाड़ी को ही, याने कि एक कार को ही कुछ परिवर्तित कर अपने चलाने योग्य बनाऊँगा।

यह बड़ी हर्षित और उत्तेजित करने वाली सोच थी। यदि मैं कार चला सका तो मैं बहुत आज़ाद हो जाऊँगा। बाकी लोगों की तरह कहीं भी आ जा सकूँगा। पूर्ण विकलांगता और अयोग्यता से सामान्य जीवन की ओर जाने में यह एक मुख्य कदम साबित होगा। मैंने दृढ निश्चय कर लिया कि अब तो मैं यह कर के रहूँगा। मेरे लिए शीघ्र सफल होना आवश्यक था क्योंकि किसी को भी यह विश्वास नहीं था के मैं सफल हो पाऊँगा। अतः मेरे पास समर्थन और सहयोग अधिक दिन नहीं रहने वाला था और बिना समर्थन और सहयोग के मेरे लिए यह उपलब्धि हासिल कर पाना और कठिन हो जाता।

सेना द्वारा एक बैटरी से चलने वाली व्हीलचेयर खरीदने के लिए मुझे ८०००० रूपए दिए गए। मैंने अनुमति माँगी कि मैं इस पैसे से एक पुरानी कार खरीद सकूँ। यह अनुमति मुझे मिल गई। अपनी ओर से २५००० रूपए और मिला मैंने एक आठ साल पुरानी कार खरीदी जो कि आटोमैटिक गेयर वाली कार थी। मेरे बड़े भाई ने मेरा बहुत प्रोत्साहन किया और अपना सहयोग दिया। मैं एक दिन के समय में ही कार को सड़क पर चलाने लगा। यहाँ बताने योग्य बात है कि इस से पहले मैंने कभी कार नहीं चलाई थी। चोट लगने से पूर्व तो मैं मात्र स्कूटर ही चला पाया था।

मैं खूब कार चलाने लगा। घूमने जाता, दोस्तों से मिलने जाता और काम पर भी जाता। खुद से गाड़ी चला पाना और सब जगह आ जा सकना मेरे लिए दोबारा जीवन मिलने के समान था। मैं वनों में, झीलों के किनारे और पर्बतों में गाड़ी चला कर जाता।
पूना शहर के बाहर एक सिंहगढ़ परबत था, जहाँ हम प्रशिक्षण के दिनों में पैदल चढ़ कर जाते थे। मैं अक्सर उस पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी चला ऊपर तक जाता और वहाँ उड़ रहे बादलों और धुंध के बीच किनारे पर बैठ सामने फैली घाटी की सुन्दरता को निहारता।
मैंने अपना जीवन फिर पा लिया था।
'यदि आपका स्वयं में विश्वास दृढ हो तो यह आपकी सबसे बड़ी शक्ति है'

गाड़ी चला पाना मेरे लिए दोबारा जनम लेने के समान था। मैं कहीं भी कभी भी आ जा सकता था और मैं अपने इस नए मिले जीवन का आनंद ले रहा था। मैंनें विकलांग लोगों के लिए विशेष गाड़ी चलाने के लाइसेंस के लिए ट्रांसपोर्ट ऑफिस में अर्जी दी और मुझे पहले गाड़ी सीखने वाला लाइसेंस मिल गया।

छह महीने के बाद जब मैंने पक्के लाइसेंस के लिए अर्जी दी तो वहाँ नियुक्त अधिकारी का रवैय्या बहुत नकारात्मक था। गाड़ी चलाने में निपुण होने के बावजूद उसने मुझे लाइसेंस देने से इंकार कर दिया।

कानूनन मुझे लाइसेंस लेने का अधिकार था। लेकिन अब इस अधिकारी के नकारात्मक रवैय्ये के कारण मुझे बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा। मैंने मुंबई में प्रांत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्ट ऑफिस में अर्जी दी।

मैंने एक समाचार पत्र को चिट्ठी लिख अपनी समस्या से अवगत कराया। मेरी कहानी और समस्या पर एक पत्रकार ने लेख भी छापा। इसके बाद मुझे बहुत लोगों से समर्थन के पत्र आने लगे और बहुत सी जनता का समर्थन भी मिला। अंततः मुझे मुंबई के ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के आदेश पर लाइसेंस दे दिया गया। लाइसेंस देने से पहले मेरी गाड़ी चलाने की योग्यता को अच्छे से परखा गया, जिसमें मैं सफल रहा।

इस सफलता के बाद मेरा साक्षात्कार उस समाचार पत्र ने फिर से छापा और इसमें मैंने सब लोगों का उनके समर्थन के लिए धन्यवाद् किया। मैंने यह भी कहा कि अगर मुझे हर कार्य के लिए दो गुना परिश्रम करना पड़ता है तो फिर मुझे अयोग्य क्यों कहा जाए? मुझे तो दोगुनी योग्यता वाला व्यक्ति कहा जाना चाहिए।

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२२ सिंतबर २०१४                               आगे-

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