|  सोम
      और सूर्या      
                         | शास्त्रों की दृष्टि से विवाह जीवनोपयोगी
    सोलह आचारों में से एक है। लोक ने भी इसे सर्वाधिक मान्यता दी
    है। विशेष बात यह है कि वेदों ने भी इस आचार को अत्यंत महत्व
    दिया है। ऋग्वेद का एक पूरा सुक्त और अथर्ववेद के दो सुक्त सोम
    और सूर्या के विवाह वर्णन के माध्यम से इस संस्कार की पर्याप्त
    विवेचना करते हैं। सोम और सूर्या काल्पनिक प्रकृति संबंधी पात्र हैं
    या ऐतिहासिक, इस विषय पर चर्चा करने से अधिक महत्वपूर्ण है वैदिक
    ऋषियों द्वारा विवाहसंस्कार को दी गई सम्मति। इन सूक्तों में
    वैदिक ऋषियों की काव्योचित सौन्दर्यानुभूति के साथसाथ
    आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण से साक्षात्कार होता है। ऋग्वेदीय
    वर्णन सोम और सूर्या के विवाह तक ही सीमित रहता है पर अथर्ववेद
    में इस दैविक आचार को लोकोपयोगी बनाने की उपक्रम हुआ है।
    ऋग्वेदीय वर्णन काव्योचित सौन्दर्य सृष्टि करता है तो अथर्ववेद में
    लौकिक पुनर्व्याख्यान सा दिखाई देता है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वां सूक्त
    और अथर्ववेद के चौदहवें काण्ड का पहला सूक्त सोम और सूर्या के
    वैवाहिक बंधन में समष्टि को सम्मिलित कर लेता है। अथर्ववेद के
    चौदहवें काण्ड का ही दूसरा सूक्त लोक प्रचलित वैवाहिक आचार की
    व्याख्या करते हुए विवाह के पीछे छिपी हुई लोकोपयोगी भावना
    सम्मिलित करता है। पहला सूक्त वैदिक ऋषियों की काव्योचित
    सौन्दर्यानुभूति के साथसाथ विवाह संस्कार के पीछे छिपी उदात्त
    भावना को व्याख्यायित करता है और दूसरा सूक्त भोग के उदात्त को
    लोकोपयोगी बनाने में समर्थ है। ऋग्वेद और अथर्ववेद के विवाह सुक्त का
    पहले मंत्र में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकबद्धता को लक्षित किया गया है। नर
    और नारी का बंधन उनका व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं अपितु समाज की
    एकसूत्रता और उसके माध्यम से मानव समाज की एकसूत्रता को लक्षित
    सामूहिक प्रयास है। पति और पत्नी परिवार को उसी तरह संयमित कर सकते
    हैं जिस तरह दोनों ध्रुव धरती को। 
                            यहां विवाह दो वयस्कों के मध्य
        नैतिक सम्बन्ध मात्र नहीं, अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सामंजस्य
        का मानवीय प्रयत्न भी है। इसमें मात्र दो व्यक्तित्वों का
        साहचर्य नहीं अपितु पूरे समाज को अपने साथ ले चलने की
        भावना है।नर और नारी के सम्बन्धों के साक्षी
        नक्षत्र होते हैं अतः उनके सम्बन्धों में वैसी ही दृढ़ता आ जाती है
        जैसी कि नक्षत्रों के सम्बन्धों में होती हैं। इसलिए सबसे पहले
        सूर्या और सोम के विवाह का वर्णन हैं। लोक में भी किसी भी
        शुभकार्य में सबसे पहले दिव्य शक्तियों को लोक स्तर पर ला कर,
        लोक और दैविक शक्तियों में सामंजस्य स्थापित करने के उपरान्त
        ही लौकिक आचार का निर्वाह किया जाता है। उदाहरण के लिए जब
        स्त्रियां अपने सुहाग के लिए कामना करती हुई कोई व्रत उपासना करती
        हैं तो सबसे पहले पार्वती के सुहाग की कथाओं का स्मरण किया
        जाता है, अथवा शिवपार्वती के विवाह प्रसंग को कथा रूप में
        सुनाया जाता है। उत्तर भारत में आज भी सुहाग सम्बन्धी अनेक
        पूजन चार कथा कहने भर से सम्पन्न हो जाते हैं। चावल के आटे का
        चौक पूर, सात ढ़ेले रख आटें का दिया जला कर कोई एक स्त्री कथा
        कहती है, बाकी सभी स्त्रियां बड़े मनोयोग से कथा सुनती हैं।
        इन कथाओं में एक गणेश से सम्बन्धित और एक या दो
        शिवपार्वती से सम्बन्धित अवश्य होती हैं। तीसरी कथा के पात्र
        लोक से सम्बन्धित होते हैं और चौथी कथा भोलीभाली
        लोकोक्ति के तर्ज पर आशीर्वचन होते हैं। सूर्या और सोम का
    विवाह  सूर्या और सोम के विवाहवर्णन
    में सबसे पहले ब्रह्माण्ड की एकसूत्रता को लक्षित किया गया है 
    भूमि सत्य से बंधी है, अन्तरिक्ष सूर्य से बंधा है, आदित्य नियम
    से बंधे हैं, अंतिरक्ष में सोम भी स्थित हैं। 
                            इसके उपरान्त सोम की महिमा का वर्णन
        करते हुए कहा जाता है कि सोम से आदित्य बलशाली होते हैं,
        सोम से ही पृथ्वी महान हैं, इन नक्षत्रों के समीप सोम स्थित
        हैं।कुछ मंत्रों तक सोम की महिमा के
        वर्णन के उपरान्त वधू सूर्या के आगमन का वर्णन होता है। सूर्या
        भी मानो समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करती है। मनोहारी
        ओढ़नी पहने आंखों में अंजन आंजे, द्यौ और भूमि के कोश को
        दहेज के रूप में संजोए सूर्या पति के पास आती हैं।देववाणी इसकी साथिन है,
        मनुष्यवाणी इसकी दासी है, सूर्या के वस्त्रों को गाथा से
        परिष्कृत कर सजाया गया है।इसके वस्त्रों के अंचल स्तोम हैं और
        कुरीर व छन्द मुकुट हैं।सोम वधु की कामना करने वाला हैं
        दोनों अश्विन वर के साथी हैं। अपने पति के मन पर शासन करने
        वाली सूर्या को सविता ने दिया है।जब यह सूर्या वधु अपने पति के पास
        आती है तो मन इसका रथ और द्यौ छत्र बनता है, और दोनों शुक्र
        अनङवान् होते हैं।जब यह दिव पथ पर चलती आती है तो
        चराचर इसकी प्रतीक्षा करते हैं। ऋक् और साम इसके रथ के दोनों
        बैल श्रोत्र इसके दोनों चक्र बनते हैं।जब यह मनोमय रथ पर पति के पास
        चलती हुई आती है तो दोनों चक्र बड़े पवित्र होते हैं, व्यान इन
        चक्रों के अक्ष होते हैं।सूर्या के आगेआगे पिता सविता
        द्वारा दिया गया दहेज चलता है।जब वह आती है तो विश्व के समस्त
        देवता उसे आशीर्वाद देते हैं। पूषा इन्हें पुत्र की तरह स्वीकार करते
        हैं।ज्ञानी जन शंका रखते हैं कि हो
        सूर्या! तेरे दो चक्रों को ब्रह्म ज्ञानी ऋतुएं मानते हैं,
        लेकिन एक चक्र अभी भी गुप्त है जिसे पहचान नहीं पाया है। ये
        दोनों जो दिखाई देते हैं वे माया के शिशुओं जैसे
        आगेपीछे खेलते हैं। इनमें से एक समस्त भुवनों को देखता है
        और दूसरा ऋतुएं बनाता हैं। |