| इंद्र के चरित्र को विवादास्पद बनाने में
    वेदोत्तर साहित्य का प्रमुख योगदान है। ऋग्वैदिक काल का सर्वाधिक
    महत्वपूर्ण देवता पुराणों तक आतेआते अपनी चमक खो बैठा। वृत्र के
    वध को ही लिया जाए, वैदिक युग में यह इंद्र की शौर्य गाथा को
    बढ़ाने वाला कर्म हैं, किंतु पुराणों तक आतेआते यह इंद्र के
    छलप्रपंच का सबूत बन गया। पुराणों की कथा के अनुसार वृत्रासुर एक
    दानव था, जो कि त्वष्टा का पुत्र था। उसका वध करने के लिए इंद्र ने
    दधीचि की हडि्डयों को दान में लेकर एक वज्र का निर्माण किया था
    और उसे युद्ध में पराजित किया। वृत्र के बारे में अधिकतर पुराणों में
    यह उल्लेख मिलता है कि वृत्र ने पिता की आज्ञा से ब्रह्मा की घोर
    तपस्या कर अमरत्व का वर प्राप्त कर लिया तो ब्रह्मा ने उसे वर दिया कि
    वह सूखेगीले, लोहे या लकड़ी के हथियारों से नहीं मारा जा
    सकता है। इंद्र ने विष्णु की सहायता से छलकपट द्वारा इसका वध किया।
    "पद्मपुराण" में इसे दिति का पुत्र बताया गया है, जब कि
    भागवत में इसकी माता का नाम अनायुधा दिया गया है। वाल्मीकि
    रामायण, महाभारत, भागवत पुराण आदि में इस कथा को और आगे
    बढ़ाया गया है।  कहा गया है कि वृत्रासुर का वध करने के
    कारण ब्रह्महत्या इसके पीछे पड़ गई। जिससे भयभीत हो इंद्र एक हज़ार
    सल तक कमलनाल के तंतुओं में छिपे रहे। ब्रह्म पुराण में कहा गया
    है कि ऐसी स्थिति में ब्रह्मा की सलाह पर देव और ऋषि इंद्र को पाप
    मुक्त करवाने के लिए गौतमी नदी के तट पर ले गए, वहां वे इंद्र को
    नदी में स्नान करवा कर जैसे ही अभिषेक के लिए तैयार हुए, गौतम
    ऋषि उन्हें भस्म करने को तैयार हो गए। तब वे घबरा कर नर्मदा नदी के
    तट पर पहुंचे, वहां मांडव्य ऋषि उन्हें भस्म करने को तैयार हो गए।
    देवताओं में मांडव्य की पूजा की और कहा  जिस स्थान पर इंद्र का
    अभिषेक होगा, वह स्थान धनधान्य से परिपूर्ण होगा। तब मांडव्य
    ऋषि ने उन्हें नर्मदा के तट पर इंद्र का अभिषेक करने की स्वीकृति दी।
    वृत्रासुर युद्ध से संबंधित एक अन्य घटना भी है। दक्ष पुत्री दनु और
    कश्यप के पुत्रों में एक थे पुलोमा, जो वृत्रासुर के साथ इंद्र से
    लड़े थे। वे इंद्र द्वारा मारे गए और उनकी पुत्री शचि के साथ इंद्र का
    विवाह हुआ। वेदों में भी इंद्र के लिए शचि पति विशेषण का प्रयोग
    हुआ है किंतु विवाह का उल्लेख नहीं है। ऐसा लगता है कि वृत्र और इंद्र का युद्ध
    वैदिक काल की महत्वपूर्ण घटना रही, जिसकी स्मृति काफी लंबे समय तक
    चली। इसी स्मृति ने अनेक कथाओं के बीज दिए। भागवत पुराण में कहा गया है कि इंद्र
    में सौ यज्ञ किए थे, इसलिए उनका नाम शतक्रतु पड़ा। समुद्र
    मंथन में इंद्र का उल्लेख बारबार हुआ है। समुद्र से निकले चौदह
    रत्नों में से एक कल्पतरू है, जो इंद्र के दरबार की शोभा है। इसी तरह
    इंद्र का हाथी ऐरावत ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ हाथी माना जाता है। कहा
    जाता है कि उसके दरबार में रंभा, मेनका आदि अनेक अप्सराएं थीं। इंद्र
    का दरबार सबसे ज्यादा वैभवशाली माना जाता है। पुराणों में इंद्र
    को मेघों का स्वामी माना जाता है। इनका अस्त्र वज्र और धनुष
    इंद्रधनुष है, तलवार का नाम परंज है। इनकी राजधानी नमदनवन है
    जहां पारीजात और कल्पतरू हैं। इंद्र के चरित्र पतन की सबसे प्रमुख कहानी
    है अहल्या के साथ व्यभिचार। वैदिक साहित्य में ही इस कथा का सूत्र
    दिखाई देता है। शतपथ ब्राह्मण में इंद्र के विशेषणों में अहल्यायें
    जार शब्द का प्रयोग इस कथा का संकेत देता है। दूसरे ब्राह्मण ग्रंथों
    जैमनीय ब्राह्मण, षडि्ंवश ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक,
    लाट्यायन श्रोतसूत्र तथा दाह्यायण श्रोत्र सूत्र में भी यह शब्द प्रयोग
    मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है कि इंद्र गौतम ऋषि
    की पत्नी अहल्या पर मोहित हो गया। अहल्या पतिव्रता स्त्री थी इसलिए इंद्र
    की मनोकामना पूरी होना मुश्किल था। इंद्र मौके की तलाश में रहा,
    एक बार जब गौतम ऋषि आश्रम से दूर चले गए तो इंद्र गौतम का रूप
    धर कर अहल्या के पास गए, और उसके साथ समागम किया। तभी गौतम
    ऋषि वापिस आ गए। उन्होंने इंद्र को शाप दिया कि दुनिया के हर
    व्यभिचार का आधा पाप उसे लगेगा, इंद्र को शत्रुओं से हार मिलेगी
    और इंद्र पद सदैव किसी एक के पास नहीं रहेगा, साथ ही उन्होंने
    अहल्या को शाप दिया कि वह शिला बन जाएगी। अहल्या द्वारा क्षमा
    मांगने पर कहा कि राम के स्पर्श से उसे शिला रूप से मुक्ति मिलेगी।
    इस कहानी के कई रूप मिलते हैं। कहीं अहल्या के गौतमी नदी होने की
    बात कही गई हैं तो कहीं भस्म शायिनी होकर तपस्या करने की बात कही
    गई है। इसी तरह कहीं इंद्र को सहस्त्र भग होने के शाप की बात भी कही
    गई है। यह इंद्र के दुश्चरित्र की सबसे ज्यादा प्रसिद्ध कथा है। यह कहानी
    लोक में भी इस तरह प्रचलित हो गई कि इंद्र की छवि एक व्यभिचारी
    देवता के रूप में प्रसिद्ध हो गई। इंद्र्र के चरित्र पतन से संबंधित अन्य
    कहानियां हैं। जैसे कि महाभारत के अनुशासन पर्व में कहानी है कि
    गौतम नामक ऋषि ने एक हाथी के बच्चे को पाल पोस कर बड़ा किया।
    जब इंद्र ने उस हाथी को देखा तो उन्होंने धृतराष्ट्र का रूप धारण किया
    और हाथी को लेकर चले गए। तब गौतम और ऋषि में तर्कवितर्क हुआ,
    आखिरकार इंद्र को हाथी लौटा ना पड़ा। व्यभिचार से संबंधित एक और कहानी है
    जिसमें बताया गया है कि कृकल नाम के वैश्य की पत्नी थी सुकला।
    वह बेहद सुदर थी। एक बार जब उसका पति तीर्थयात्रा को चला गया तो
    इंद्र काम के साथ उसका पातिव्रत्य भंग करने जा पहुंचा। दोनों ने
    सुकला को आकर्षित करने की बहुत कोशिश की, किंतु सफल न हों पाए।
    यही नहीं वह पतिव्रता नारी इंद्र को शाप देने को तैयार हो गई। इंद्र
    और काम, दोनों को जान बचाकर भागना पड़ा। मत्स्य पुराण में एक कथा है कि दैत्य माता
    दिति ने दस सहस्त्र वर्षों तक घोर तपस्या करके वज्र के समान अंगों
    वाला पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम "वज्रांग" रखा गया। दिति
    ने उसे आज्ञा दी कि वह इंद्र को पकड़ कर ले आए, जिसने उसके पुत्रों
    का वध किया था। वज्रांग इंद्र को पकड़ ले आया, तब ब्रह्मा और
    कश्यप ने इंद्र को छुड़ाया। ब्रह्मा ने वज्रांग को एक परम सुंदरी कन्या
    "वारांगी" का निर्माण करके पत्नी रूप में दिया। वज्रांग उसे
    लेकर वन में चला गया। वारांगी भी पति का अनुकरण करती हुई तप
    करने लगी। इंद्र उसे डराने के अनेक उपाय करने लगा। वह कभी बंदर,
    कभी मेष तो कभी सर्प बन कर उसे डराने लगा। लेकिन न तो इंद्र उसे
    डरा पाया और न ही मार पाया। तब उसने सियार और बादल बन कर कष्ट
    देना शुरू कर दिया। वारांगी ने इसे पर्वत की दुष्टता समझी और शाप
    देने को तैयार हुई। तब पर्वत ने इंद्र रूप धर कर बताया कि यह सब इंद्र
    की करतूत है। उसी वक्त वज्रांग की तपस्या पूरी हो गई, जब उसे इंद्र
    की करतूत के बारे में पता चला तो वह फिर से तपस्या करने लगा। इस
    बार तपस्या से उसे तारक नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जो महान योद्धा बना। भगवत पुराण के अनुसार जब बृहस्पति
    देवताओं को छोड़ कर चले गए तो इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को
    गुरू बना लिया। विश्वरूप के तीन मुंह थे। वे एक मुंह से सोम रस
    पीते, दूसरे से सुरापान करते और तीसरे से अन्न खाते। यज्ञ के
    समय वे उच्च स्वर में बोल कर वे देवताओं को आहुतियां देते, पर
    छिपछिप कर अप्रत्यक्ष रूप में असुरों को आहुतियां देते थे। विश्वरूप का
    सोम पान करने वाला सिर पपीहा, सुरापान करने वाला सिर गौरैया,
    अन्न खाने वाला तीतर हो गया। महाभारत के अनुसार जब इंद्र ने देखा
    कि विश्व जित तपस्वी, जितेंद्रिय और धार्मिक है तो इंद्र को भय हुआ,
    उसने पहले तप क्षीण करने के लिए अप्सराएं भेजी, जब उनसे काम नहीं
    चला तो वज्र से विश्वजित का सिर काट लिया। किंतु ऐसा नहीं है कि इंद्र का सदैव ही
    भ्रष्ट चित्रण हुआ हो। उनकी कतिपय अच्छाइयां भी रहीं। वे श्रेष्ठ राजा थे।
    इसलिए राज नैतिक दांवपेंच खेलना इनकी राजनीति का अंग रहा
    होगा। अपना सिंहासन बचाने के लिए वे कभी छलबल का सहारा भी
    लेते रहे। एक समर्थ शासक व योद्धा किस तरह तानाशाह बन जाता है,
    इसका उदाहरण हम इंद्र, रावण और बलि जैसे योद्धाओं में पाते हैं।
    दर असल पौराणिक कहानियां हमें यही सिखाती हैं कि शक्ति, चरित्र और
    वीरता का सामंजस्य कैसा होना चाहिए, जरा स्खलन कभी न मिटने
    वाला दाग डाल देता है। 
                         इंद्र की
    गाथाएं इंद्र का चरित्र इतिहास व
    साहित्य की दृष्टि से इतना रोचक है कि जीवन के हर क्षेत्र में उसका
    उदाहरण मिल सकता है। ऐसा लगता है कि इंद्र एक व्यक्ति नहीं बल्कि पद
    था। इससे संबंधित एक कथा ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में मिलती है। एक
    बार इंद्र ने विशाल भवन बनवाना शुरू किया। उन्होंने पूरे सौ
    वर्षों तक विश्वकर्मा को छुट्टी नहीं दी। तब भगवान विश्वकर्मा ब्रह्मा
    के पास गए। ब्रह्मा एक बटु का रूप धारण कर इंद्र के पास गए और उनसे
    महल के संबंध में बातचीत करने लगे। तभी दो सौ गज़ लंबा
    चींटियों का विशाल समुदाय दिखाई दिया। उसे देखते ही बटु को हंसी
    आ गई। इंद्र ने पूछा तो बटु ने बतलाया कि ये सब चींटे इंद्र थे
    जो आज क्रमानुसार चींटों की योनी में हैं। उसी समय ऋषि
    लोमश आ पहुंचे, जब इंद्र ने पूछा कि वे कहां रहते हैं तो उन्होंने
    जवाब दिया कि अल्पायु होने के कारण उन्होंने कहीं भी घर नहीं
    बनवाया। जब कि लोमश इतने दीर्घायु थे कि उनके वक्षस्थल का एक
    बाल एक इंद्र के पतन के साथ गिरता था। यह सुन कर इंद्र की आंखें
    खुलीं। वे विरक्त होकर वनस्थली चले गए। इस पर बृहस्पति ने उन्हें
    समझायाबुझाया और राज्य काज में प्रवृत्त किया। (ब्रह्मवैवर्त्त
    पुराण  श्री कृष्ण जन्म खंड अं47) इंद्र और वृत्र का युद्ध पौराणिक इतिहास की
    महत्वपूर्ण घटना रही है। कहीं वृत्र को ऋषभ तो कहीं दैत्य माना गया
    है। कहींकहीं पर वृत्र के वध से ब्रह्म हत्या लगने की बात भी कही
    गई है। ऐसा माना गया है कि इंद्र ब्रह्म हत्या से भयभीत होकर
    मानसरोवर में कमलनाल तंतुओं में एक हज़ार वर्षों तक छिपे रहे।
    तब ब्रह्मा की सलाह से देव और ऋषि ब्रह्म हत्या से मुक्ति
    दिलवाने के लिए गौतमी नदी के किनारे गए। वहां उन्होंने जैसे ही
    इंद्र को गौतमी नदी में स्नान कराके अभिषेक करने की तैयारी की,
    गौतम ऋषि उन्हें भस्म करने को उद्धत हो गए। तब वे सब भयभीत होकर
    नर्मदा नदी के तट पर पहुंचे। वहां मांडव्य ऋषि उन्हें भस्म करने को
    तैयार हो गए। तब देवताओं ने मांडव्य ऋषि की पूजा की और कहा कि
    जिस स्थान पर इंद्र का अभिषेक होगा वह स्थान धन्य धान्य से पूर्ण
    रहेगा, वहां पर कभी भी अकाल नहीं पड़ेगा। यह सुन कर मांडव्य ऋषि
    ने अभिषेक करने की आज्ञा दे दी। (ब्रह्मपुराणअ96) एक कथा के अनुसार इंद्र द्वारा केशी नामक
    एक स्त्री की रक्षा का प्रसंग भी मिलता है। एक बार जब इंद्र मानस पर्वत
    गए तो उन्होंने देखा कि एक स्त्री को केशी नामक दानव ने पकड़ रखा है।
    इंद्र ने उसे छोड़ने को कहा, लेकिन केशी तैयार नहीं हुआ। तब
    दोनों में युद्ध हुआ। केशी हार कर भाग गया। इंद्र उस स्त्री देवसेना
    को ब्रह्मा के पास ले गए और उस देवी के लिए पति प्रदान करने को कहा।
    ब्रह्मा ने कहा कि जो देवसेना का पराक्रमी सेनापति होगा वही इस
    देवी का पति होगा। तदनुसार स्कंद के देवसेना के सेनापति पद पर
    अभिषिक्त होने पर देवसेना से उसका विवाह हुआ। (महाभारतवनपर्व223229) इसी तरह एक कथा के अनुसार इंद्र ने एक
    वृक्ष की भी रक्षा की थी। एक बार जब एक शिकारी शिकार के लिए वन में
    गया तो उसने हिरणों पर विष बुझा तीर चलाया। तीर हिरण के न लग
    कर एक विशाल पेड़ पर लग गया, जिससे उस पेड़ में ज़हर फैल गया,
    उसके पत्ते, फल फूल सभी झड़ गए और पेड़ सूखने लगा। उस पेड़ में
    एक तोता रहता था, वह पेड़ छोड़ना नहीं चाहता था। जब इंद्र ने तोते
    का प्रेम देखा तो पेड़ को फिर से हराभरा कर दिया। अनेक दैत्यों के वध से भी इंद्र का
    संबंध जोड़ा जाता है। जैसे कि महाभारत के अनुसार नरकासुर नामक
    दैत्य ने दस हज़ार वर्षों तक तपस्या की। वह तपस्या के बल से
    देवताओं को सताने लगा। इंद्र उससे भयभीत रहने लगा। उसने
    विष्णु के पास जाकर दैत्य को मारने की प्रार्थना की। तब विष्णु ने उस
    दैत्य के प्राण हर लिए। जंभासुर दैत्यासुर बलि का अच्छा मित्र
    था। जब देवा सुर संग्राम में बलि पराजित हो गया तो उसने इंद्र
    से बदला लेने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया, उसने इंद्र के हाथी
    ऐरावत पर गदा से प्रहार किया और मातलि पर त्रिशूल से वार किया तब
    इंद्र ने क्रोधित होकर जंभ का सिर काट डाला। कश्यप और दनु का पुत्र नमुचि भी इंद्र का
    शत्रु था। एक बार वह सूर्य की किरणों में प्रविष्ट हुआ और इंद्र से
    मित्रता कर ली। उसने इंद्र से कई विषयों पर चर्चा की। उसकी वाक्पटुता
    से प्रभावित होकर इंद्र ने उसे वर दिया कि वह आदर्र या शुष्क पदार्थ
    से दिन या रात में नहीं मारा जाएगा। बाद में इंद्र ने कोहरे के
    वक्त समुद्र फेन से नमुचि को सिर काट डाला। तब नमुचि का सिर
    इंद्र का पीछा करने लगा। इंद्र ने पाप की मुक्ति का उपाय ब्रह्मा से पूछा
    और उनके कथनानुसार संगम में स्नान के लिए आया। इंद्र के
    पीछेपीछे नमुचि का सिर भी संगम पर आ पहुंचा और संगम में
    गिर पड़ा। संगम में गिरने से नमुिच को मुक्ति मिल गई। इस तरह इंद्र से संबंधित सैंकड़ों
    कथाएं मिलती हैं। कुछ में इंद्र शक्तिशाली राजा है तो कुछ में चतुर
    राजनीतिज्ञ, कहीं वह प्राकृतिक शक्ति है तो कहीं मानवीय
    कमज़ोरियों वाला देव, कहीं पर उसकी कुत्सित मनोवृत्त दिखाई देती
    है तो कहीं पर दयाशीलता। जो भी है इंद्र वैदिक व पौराणिक युग का
    महत्वपूर्ण देवता रहा है जिसकी स्मृतियां आज तक जीवित हैं। |