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						फरवरी महीना सैविण्टी थ्री का, बांदा शहर यू•पी•का। मौसम–माहौल 
						ठंडा स्थानीय बाज़ार का, लेकिन बाज़ार गर्म बतरस–गुंजार 
						का। बतरस–गुंजार में गुनगुना जिक्र कविसम्मेलन का, मन में 
						सिलसिला अजीब उद्वेलन का, चिंतापरक अनुमानों के आघात का, 
						कैसा होगा कविसम्मेलन रात का? तो मेहरबान, कदरदान! अब 
						खुलासा करता हूं पीछे छोड़ी हुई बात का –
 सुनेंगे आप मेरी बात?
 धूमिल से जुड़ी स्मृतियों में उनका एक शब्द कतई धूमिल नहीं 
						हुआ, हालांकि उस शब्द का अर्थ अभी तक धूमिल है। शब्द था – 
						'थेथरई', जो मलाई के साथ विशेषण के रूप में लगाया गया था। 
						थेथरई मलाई! मलाई–मलाई तो सब जानते हैं, थेथरई–थेथरई, 
						मुमकिन है न जानते हों। 'थेथरई मलाई' का जिक्र उन्होंने दो 
						बार किया। एक बार दिन में और एक बार रात में।
 
 बांदा सम्मेलन के अंतिम दिन के अंतिम सत्र में संगठन के 
						संयुक्त कार्यक्रम के मसौदे पर बहस चल रही थी। सनत कुमार 
						अचानक बहुत गर्म हो गए और मन्मथनाथ जी ने कोई टिप्पणी कर 
						दी जिस पर सारा वातावरण कुम्हार के अवे जितना अंदर ही अंदर 
						धधक गया। रात को कविसम्मेलन होना था, उसकी चिंता किसी को 
						नहीं थी। संगठन के लक्ष्य निर्धारित हो जाएं और किसी 
						प्रकार संगठन बन जाए, ये चिंता का एकमात्र विषय था। सुधीश 
						पचौरी और कर्णसिंह चौहान ने अपना दबदबा कायम कर लिया था, 
						लेकिन निर्णय का बिंदु निकट नहीं आ पा रहा था। युवा 
						आत्मविश्वास को बुजुर्ग शंकाएं परास्त किए दे रही थीं। बहस, 
						बहस और बहस। बेहिसाब बहस। क्योंकि सबके सब ज्ञानी। परम 
						ज्ञानी। सबके पास एक अदद अंतिम सत्य। ध्वनियों के परस्पर 
						काटू अंतर्नाद को अचानक धूमिल की बुलंद आवाज ने शांत कर 
						दिया – 'ठहरिए, मैं बताता हूं आपको कि करना क्या है! 
						सुनेंगे आप मेरी बात? बोलिए सुनेंगे! या थेथरई मलाई ही 
						चाटते रहेंगे!'
 
 क्या मतलब है थेथरई मलाई का? किसी ने किसी से नहीं पूछा तो 
						मैं भी किसी से क्यों पूछता। फैसला हुआ कि एक छोटे अंतराल 
						के बाद फिर से मिला जाएगा। गहमागहमी बरकरार रही। लोग बाहर 
						निकले और छोटे–छोटे समूहों में बंट गए। सव्यसाची सनत कुमार 
						को समझाते–बुझाते नज़र आ रहे थे। बाबा नागर्जुन और 
						त्रिलोचन नौजवानों की तरह मगन–मस्त थे। नौजवान बुजुर्ग हुआ 
						चाहते थे। धूमिल अब करन–सुधीश के साथ आ मिले। वे तीनों 
						कागज–पत्तर संभाले हुए चल दिए केन नदी के तट की ओर। मैं और 
						रंजक जी पीछे–पीछे। वे लोग बात कर रहे थे संगठन की और अपन 
						दोनों कविसम्मेलन की।
 
 जनता उमड़ पड़ी
 पूरा शहर जानता था कि साहित्य के धुरंधर लोगों का कुम्भ लगा 
						हुआ है। दिग्गज कवि आए हुए हैं। जनता ने पैसा भी 
						उदारतापूर्वक दिया था। प्रबंध बड़े अच्छे थे। आयोजन अच्छा 
						था। भोजन बड़ा अच्छा था। कविसम्मेलन महीनों पहले घोषित हो 
						चुका था।
 
 रात में हुआ कविसम्मेलन। आयोजकों को अनुमान भी न रहा होगा 
						कि इतनी जनता कविता सुनने आ जाएगी। माना कि केदार बाबू और 
						रणजीत ने शहर में कविता के अच्छे संस्कार डाले थे, अन्य 
						कस्बों की तुलना में यहां के श्रोता बेहतर सांस्कृतिक समझ 
						रखते थे, लेकिन जनता तो उमड़ पड़ी मेले वाली। जिसको कविता 
						नहीं चाहिए थी झमेले वाली। कविसम्मेलन का संचालन रंजीत कर 
						रहे थे। संचालन भी बारी–बारी बदलता रहा क्योंकि किसी को 
						किसी की कविता के बारे में कोई खास पता नहीं था। नाम पुकार 
						दिया जाता था, कवि आ जाता था और हूट होने के बाद अपने 
						स्थान को प्राप्त होता था। कवि धराशाई होते गए, एक के बाद 
						एक। ये सारे के सारे कवि जाने कौन सी भाषा में जनता को 
						संबोधित कर रहे थे। बोल तो रहे थे जनता के पक्ष की बात पर 
						जनता के पल्ले नहीं पड़ रहीं थी।
 
 मुझे अपने बचपन के कविसम्मेलन याद आ रहे थे जब मैं व्यंग्य 
						की सीधी सरल या कुछ वीररसनुमा कविताएं सुनाकर मजमा जमा दिया 
						करता था। पर अब तो नौजवान की मानसिकता बदल चुकी थी। मैं उस 
						प्रकार की कविता से स्वयं को ऊपर उठ चुका मानता था।
 
 गीत विहग उतरा
 ऐसा ही रमेश रंजक जी के साथ था पर वे मंच के पुराने और मंजे 
						हुए खिलाड़ी थे। उन दिनों नवगीत की नई हवा के साथ उनका गीत 
						विहग मंच की मचान से उतर आया था। एक पुस्तक छप चुकी थी – 'गीत 
						विहग उतरा'। नवगीत के हलके में उसका भारी स्वागत हुआ, परंतु 
						रंजक जी के आदरणीय जीजा जी, सुधीश पचौरी के पिताजी और बचपन 
						से मैं जिन्हें कहता था – ताऊजी, डॉ•भगवान सहाय पचौरी ने 
						कहा 'विहग' में 'वि' उपसर्ग है, गीत विशेष प्रकार से . . 
						.के उतरा है!' जब रंजक जी की अगली पुस्तक 'हरापन नहीं 
						टूटेगा' आई, तब भी जीजा जी नहीं चूके, उन्होंने हरापन को 
						हरामपन कह डाला। जीजा जी थे, कह सकते थे।
 
 शब्द रिश्तेदारों की तरह
 मैं जानता हूं, रंजक जी किसी पार्टी के नहीं, गीत के होल 
						टाइमर थे। गीत के लिए उन्होंने जीवन दांव पर लगा दिया। वे 
						गीत की सांस लेते थे, गीत की नींद। बात करते थे तो गीत का 
						सिरहाना लगा कर, चलते थे तो गीत की टेक पर, गीत को टेक कर। 
						हंसते थे तो गीत के लिए, मुस्कुराते थे तो गीत के लिए। 
						मैंने देखा कि उनके गीतों में समा सकने वाले शब्द भी उनकी 
						तलाश में भटक रहे होते थे। वे शब्द गांव के रिश्तेदारों की 
						तरह उन्हें ढूंढ़ते हुए आते थे, उनके गीतों के मकान में 
						किराएदार बनने के लिए। खेती–किसानी के, चक्की – पिसानी के, 
						पशुओं की सानी के, लोक–लासानी के, मैयत–मसानी के, माता–निसानी 
						के, नेजा–धंसानी के, हंसुली–हंसानी के, फंदे–फंसानी के, 
						हंसिया–घिसानी के, गरीब–गुरबा की परेसानी के, अपना सानी न 
						रखने वाले शब्द। मुझे रंजक जी इसलिए भी पसंद आते थे क्योंकि 
						मैं भी उनके शब्द–लोक का एक शब्द था।
 
 जैसे ही उनके सत्तर–अस्सी गीत पूरे हुए, वे कहते थे – अशोक 
						एक संकलन और डाल रहा हूं। मुझे लगता था जैसे साहित्य की 
						कूबड़–काबड़ ऊबड़–खाबड़ रजाई में संकलन की सुई से धागा 
						डालने वाले हैं।
 
 वे दूसरों को उखाड़ने के चक्कर में कई बार खुद उखड़ जाते 
						थे। लोकपरक सुई की चुभन वाले उनके प्रखर गीत सुनना बहुत 
						अच्छा लगता था, पर उन्हें गीतेतर सुनने के बारे में लोगों 
						की अलग–अलग राय हो सकती हैं।
 
 दोबारा थेथरई मलाई
 बहरहाल, उस कविसम्मेलन में रंजकजी का एक नवगीत तो प्यार से 
						सुना गया, दूसरा सुनाते वक्त थोड़ी हलचल दिखी तो उन्होंने 
						श्रोताओं को बुरी तरह डांट दिया। श्रोताओं ने 'जैसे को तैसा' 
						शैली में उनका दूसरा गीत फिर सुना ही नहीं। सुरीले गीत का 
						बेसुरा विरोध हुआ। शीलजी के सरल गीत जम गए। मनमोहन की छोटी 
						कविता ध्यान से सुनी गई। बाबा ने ठुमके लगा लगाकर कविताएं 
						सुनाईं, सबने सुनीं, लेकिन त्रिलोचन पर श्रोताओं ने कृपा 
						नहीं की। उद्भ्रांत की कविता कथात्मक थी, चल गई। लेकिन 
						अधिकांश कवियों को नहीं सुना गया।
 
 धूमिल का ग्लैमर कवियों पर तो भरपूर था पर श्रोताओं को अपना 
						जादू नहीं दिखा सका। लगभग पांच हजार लोगों के चेहरों से 
						टपक रहे नैराश्यभाव को देखकर वे बड़बड़ाए – 'इनको दो थेथरई 
						मलाई, कविता कौन ससुर चाहता है।'
 
 मेरे दिमाग में फिर से सवाल उठा कि थेथरई मलाई क्या होती 
						है? पर पूछा नहीं। मैं जानता हूं कि आज भी किसी बनारसी 
						विद्वान से पूछूंगा तो बता देंगे। उदाहरणों और वाक्य–प्रयोगों 
						से समझा भी देंगे। लेकिन जरूरी क्या है कि हर शब्द का अर्थ 
						जाना जाए। आप में से किसी को यदि थेथरई मलाई का अर्थ पता 
						लगे तो कृपया मेरा ज्ञान बढ़ाने में चूकें नहीं। ये जानते 
						हुए भी कि मैं लगभग नहीं जानना चाहता।
 
 उस कविसम्मेलन में मजे़ की बात ये थी कि कवि एक के बाद एक 
						वीरगति को प्राप्त हो रहे थे फिर भी कोई अपना नाम वापस नहीं 
						ले रहा था। कवि सूची बढ़ती जा ही रही थी।
 
 अजी, मैंने भी सुनाई। अप्रत्याशित रूप से जम गई। वो कविता 
						मेरे पास नहीं है। कहीं छपी भी नहीं। एक मज़दूर के श्रम की 
						विडम्बनाओं भरी कहानी थी। अब तो उसकी कुछ शुरूआती पंक्तियां 
						याद है बस –
 
 झोंक झोंक झोंके जा बॉयलर में कोयला
 मशीन कुछ और तेज़ चला
 चिनता जा दीवारें
 जो खड़ी होकर तुझमें ही थप्पड़ मारें . . .
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