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						बाँकी अदा का अलबेले कवि थे मुकुट बिहारी सरोज।
 सरोज जी बाँकी अदा के कवि थे, जिनकी क्षमता अभी भी आँकी 
						जानी है। वाचिक परंपरा में ऐसे कवि बिरले हुए हैं।
 
 गीत मंच पर चला तो खूब चला। जमा तो रात–रातभर जमा। हृदय की 
						ताल पर तालियाँ बटोरीं गीत ने। श्रोताओं को झुमा–झुमा दिया 
						आंतरिक संगीत ने। गीली भावनाओं के पनीले गीतकार, रस की 
						साधना से रसीले गीतकार और अनुभव की ज्ञानझंकृति से सुरीले 
						गीतकार। इन कोमलकांत पनीले, रसीले और सुरीले गीतकारों के 
						बीच इक्का–दुक्का कंटीले गीतकार भी हुए, जिन्होंने जीवन की 
						चीत्कार के साथ सुर साधा। जिन्होंने बिखरे हुए आक्रोशों को 
						बांधा। जिन्होंने मुफ़लिसों–वंचितों के हित में सहित भाव का 
						खिचड़ा राँधा। ऐसे ही गीतकार थे मुकुट बिहारी सरोज।
 
 १८ सितंबर स्वर्गीय मुकुट बिहारी सरोज की पुण्यतिथि है। 
						काका हाथरसी जी की तो यह पुण्यतिथि भी है और जन्मतिथि भी। 
						गत वर्ष इसी दिन उन्हें 'काका हाथरसी पुरस्कार' दिया जाना 
						था। वे घनघोर बीमार चल रहे थे फिर भी समारोह में आने को 
						लेकर उमंगित थे। पूरा सभागार उनकी प्रतीक्षा करता रहा और 
						वे सीधे काका जी से पुरस्कार लेने ऊपर चले गए।
 
 सरोज जी बाँकी अदा के कवि थे, जिनकी क्षमता अभी भी आँकी 
						जानी है। वाचिक परम्परा में ऐसे कवि बिरले हुए हैं जो अपनी 
						आन–बान–शान में सरोज जी की तरह विशिष्ट हों। सरोज जी की 
						'महानों' से पटरी नहीं बैठती थी। उनकी हर संभव कोशिश रहती 
						थी कि वे 'महान' की 'महानता' को उसी के सामने पंचर कर दें। 
						जो भी मुकुट बिहारी सरोज से या उनके नाम से परिचित है उसने 
						उनका यह गीत अवश्य सुना होगा –
 
 इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं
 किंवदन्तियों के उद्गम का पानी रखते हैं
 पूँजीवादी तन में, मन भूदानी, रखते हैं
 होगा एक तुम्हारे इनके लाख–लाख चेहरे
 इनको क्या नामुमकिन है, ये जादूगर ठहरे
 इनके जितने भी मकान थे, वे सब आज दुकान हैं।
 तुम होगे सामान्य, यहाँ तो पैदायशी प्रधान हैं।
 ये तो बड़ी कृपा है जो ये दिखते भर इंसान हैं।
 
 मंच पर जब वो ये गीत सुनाते थे तो प्रणाम की मुद्रा बनाकर 
						श्रोताओं को आँखों के इशारे से बता देते थे कि यह प्रणाम 
						मंच के अध्यक्ष अथवा वरिष्ठ नेता के लिये है। मंच के 
						महामहिम मुख्य अतिथियों को पता ही नहीं चल पाता था कि 
						दर्शक श्रोता उन पर हँस रहे हैं।
 
 उन्हें याद करता हूँ तो अनेक चित्रशालाओं से घिरा पाता 
						हूँ। विचित्र यादें उनके साथ जुड़ी हैं। एक सुनाता हूँ 
						आपको कैलारस का किस्सा। यह उन दिनों की बात है जब मैंने 
						कविसम्मेलनों में दोबारा जाना शुरू किया था। अड़सठ से 
						अठहत्तर तक मैं कविसम्मेलनों से विमुख होकर वामपंथी रूझान 
						की लघु पत्रिकाओं में छपने वाला कवि बना हुआ था। 
						कविसम्मेलनों में दोबारा जाना शुरू किया तो खूब प्रोत्साहन 
						मिला और मैं मंच पर तत्काल स्वीकार कर लिया गया। एक 
						निमंत्रण का पोस्टकार्ड ग्वालियर से आया सरोज जी का। 
						कविसम्मेलन ग्वालियर के पास कैलारस नाम के कस्बे में होना 
						था। सरोज जी ने लिखा था कि आ जाओ, पूरे छः सौ रूपए 
						मिलेंगे, स्वीकृति जल्दी भेज दो तो इन रूपयों पर मलाई भी 
						पड़ सकती है। सरोज जी को मैं बचपन से सुनता आ रहा था। वे 
						मेरे पिता के मित्रों में भी रहे। उनका निमंत्रण पाकर बहुत 
						अच्छा लगा लेकिन अफ़सोस कि मैं आठ सौ रूपए के पारिश्रमिक 
						वाले अन्य कविसम्मेलन के लिये अपनी स्वीकृति पहले ही दे 
						चुका था। सरोज जी के पोस्टकार्ड के बाद मैंने मन ही मन 
						निश्चय कर लिया कि जहाँ स्वीकृति दे चुका हूँ वहाँ किसी भी 
						प्रकार क्षमा माँग लूँगा, भले ही छः सौ रूपए मिलें, जाऊँगा 
						कैलारस। लेकिन मुझसे एक ऐतिहासिक भूल हो गई। मैंने सरोज जी 
						को स्वीकृति तो भेजी पर आठ सौ रूपए वाला प्रसंग भी लिख 
						दिया। उनका दनदनाता हुआ उत्तर आया कि आठ सौ रूपए कैलारस से 
						भी मिल जाएँगे पर आना अनिवार्य है।
 
 बहरहाल, मैं कविसम्मेलन में कैलारस गया। सम्मेलन–सम्पन्नम् 
						के बाद पत्रम्–पुष्पम् की बारी आई। आयोजक भी अजीब थे। 
						उनमें से एक मुझसे बोला – 'अशोक जी, अगर आप छः सौ नहीं 
						लेंगे तो हम आपको आठ सौ देंगे। अब आप बताइए कि आप कितने 
						लेंगे?' मैंने कहा – 'भइया, जितने देने हों, दे दो। जितना 
						सरोज जी कहें दे दो।' वे बोले – 'अब सरोज जी बीच में नहीं 
						हैं, आप बताइए। और हम आपको फिर से बता देते हैं कि अगर आप 
						छः सौ नहीं लेंगे या कुछ नहीं बोलेंगे तो हम आपको आठ सौ ही 
						देंगे।' मैंने कहा – 'ठीक है भाई साहब! लाइए आठ सौ ही दे 
						दीजिए।' उन्होंने बिना किसी हील–हुज्जत के आठ सौ रूपए मेरी 
						हथेली पर टिका दिए और मेरी ओर देखे बिना अगले कवि को अंदर 
						बुलवाया। मैंने धन्यवाद दिया जो उन्होंने सुना नहीं। इधर 
						मैं कमरे से निकल ही रहा था कि दरवाजे की बगल से सरोज जी 
						एक झटके से प्रकट हुए, जैसे अचानक हौरर मूवी में भूत सामने 
						आ जाता है। रूपए उन्होंने मेरे हाथ से छीन लिये और रूपयों 
						को हवा में नचाकर वार–फेर करते हुए नाचने लगे। मैं उन्हें 
						कोई सफ़ाई देता पर वे तो तब तक अपने खास तेवरों में आ चुके 
						थे। नाचते हुए गाने लगे –
 
 हाए, हाए, हाए! मुझे क्षमा किया जाए!
 तुम तो आठ सौ ही लाए!!
 मुझे क्षमा किया जाए
 मुझे क्षमा ही किया जाए!
 
 मेरी स्थिति मेरी समझ से परे थी। अगला कवि कमरे से निकला 
						तो अपने नृत्य में उसे भी शरीक करते हुए वे गाने लगे –
 
 ये जनता का कवि बनता है
 'उत्तरार्ध' 'ओर' में छपता है
 लेकिन अब मंचों पर आकर
 दो सौ रूपयों पर मरता है,
 ये जनता का दुलारा कवि
 मजदूर की बातें करता है,
 दो सौ रूपयों पर मरता है।
 हाए, हाए, हाए! मुझे क्षमा ही किया जाए!!
 
 सरोज जी के इस आचरण से मैं मन ही मन बहुत खिन्न था पर क्या 
						करता! बहुत बुजुर्ग कवि, मेरे पिता स्वर्गीय राधेश्याम 
						प्रगल्भ के साथ मंच पर कविता पढ़ने वाले कवि, इतने आदरणीय 
						और वरिष्ठ कवि, क्या करूँ और क्या कहूँ। इससे पहले कि मैं 
						कुछ कहता उन्होंने आठ सौ रूपए मेरी जेब में ठूँस दिए और 
						कंधा थपथपाया – 'कोई बात नहीं, कोई बात नहीं। आठ सौ ही 
						रखें।'
 
 मैं अंदर ही अंदर बहुत व्यथित हुआ। रास्ते में बस में 
						धुआँधार सिगरेटें फूँके जा रहा था। उन दिनों बहुत सिगरेट 
						पीता था। मानसिक परेशानी की हालत में धूम्रपान की रफ्तार 
						और बढ़ गई। सरोज जी पिछली सीट पर बैठे थे। रात की बात का 
						खुमार गया नहीं था। किसी अदृश्य से वे कहने लगे – 'हम तो 
						सर्वहारा के कवि हैं, जनता के गीतकार हैं, इसलिये बीड़ी 
						पीते हैं। यहाँ ऐसे–ऐसे भी लोग हैं जो सिगरेट पीते हैं और 
						खुद को कहते हैं जनता के कवि! हम कैसे मानें! अगर हमें 
						सिगरेट पिला दें तो मान भी लें। हमने भी रात में बड़ी 
						मेहनत की है, एक सिगरेट पर तो, हमें क्षमा किया जाए, 
						अधिकार हमारा भी बनता है। क्या जनता का भूतपूर्व कवि जो अब 
						अभूतपूर्व होता जा रहा है, एक सिगरेट इस दिशा को पिला सकता 
						है। पिला दे तो अच्छा है अन्यथा दिशाएँ धुआँ भी उगल सकती 
						है।' अब तक मैं इतना क्षुब्ध और शुद्ध रूप से क्रुद्ध हो 
						चुका था कि मैंने अतिरिक्त मिले दो सौ रूपयों को 
						चिंदी–चिंदी करके सिगरेट के पैकेट में भरा और वह पैकेट 
						सरोज जी को दे दिया। सरोज जी ने जैसे ही डिबिया खोली वे 
						देखकर रोने लगे। बोले – 'मैं इसलिये नहीं रो रहा हूँ कि 
						भारतीय मुद्रा का अपमान हुआ है, वह तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर 
						पर हो रहा है, उसे अपमान के काबिल समझा जाता है, समझा जाए, 
						कोई बात नहीं। मैं रो इसलिये रहा हूँ अशोक कि तुमने खुद को 
						अपमान के काबिल समझ लिया। नहीं, नहीं, नहीं अन्यथा न लो, 
						मुझे क्षमा ही किया जाए। सचमुच, सचमुच। आओ चाय पी जाएँ।'
 
 वे हर चीज को बहुवचन में देखते थे। इस घटना के बाद चाय की 
						दुकान पर उनका स्नेह भी बहुवचनीय हो गया।
 
 सरोज जी अपने मिजाज के अनूठे कवि थे। उनका रंग और ढँग 
						निराला था। कविता की मर्यादा और उसके छंद विधान को लेकर वे 
						बहुत सचेत रहते थे। संभवतः धौलपुर या आसपास के किसी स्थान 
						की बात है, एक कवि श्रोताओं से अतिरिक्त तालियाँ बटोरने के 
						लिये अपने काव्यपाठ में स्पेशल ध्वन्यात्मक इफ़ेक्ट्स डालने 
						लगे। मुँह से ढिंचिक ढिंचिक जैसे ताल स्वर निकाले, जनता 
						मगन हो गई। कवि अपने क्लाइमैक्स पर थे, तालियों की धारासार 
						वर्षा हो रही थी। अचानक सरोज जी अपने स्थान से उठे, मंच के 
						किनारे पर रखा किसी का जूता उठाया और उस ढिंचिक–ढिंचिक कवि 
						के पास आनन–फानन में पहुँच गए। कवि को काटो तो खून नहीं। 
						जनता की तालियों में तत्काल ब्रेक लग गया। सब सहमे हुए थे, 
						यह सोचकर कि शायद सरोज जी उस कवि पर पादुका–प्रहार करने 
						वाले हैं, लेकिन सरोज जी ने जूता श्रीमन ढिंचिक–ढिंचिक के 
						हाथ में थमाया, अपना न्यूनकेशी सिर और माइक नीचे झुकाया और 
						सिर की तरफ इशारा करते हुए बोले – 'हे, महाकवि! आधुनिक 
						तुलसीदास!! इस जूतेरूपी कलम से एक रामचरित मानस मेरे ललाट 
						पर भी लिख दीजिए। लिखिए, लिखिए घबराइए मत, लिख दीजिए। सब 
						के सामने वो कर सकते हैं तो ये भी कर दीजिए। कर ही दीजिए!
 
 एक चर्चित संस्मरण है बदायूँ के महनीय वीर रस के कवि से 
						जुड़ा हुआ। रामलीला का मंच था। आदरणीय ओजस्वी स्वर में 
						काव्यपाठ कर रहे थे। अपनी कविता में देश के नौजवानों को आज 
						क्या क्या चाहिए की सूची बता रहे थे। अनुरक्ति चाहिए, 
						देशभक्ति चाहिए, भुजाओं में शक्ति चाहिए और पता नहीं क्या 
						क्या...। जैसे ही पंक्ति तालियों की कामना रखते हुए 
						अपने तुकांत के शीर्ष तक पहुँचती थी, सरोज जी नेपथ्य से 
						रामलीला की ढाल–तलवार लेकर प्रकट होते, आकाश में तलवार 
						घुमाते, श्रोताओं को ढाल दिखाते और विंग्स में कूदते हुए 
						वापस चले जाते। श्रोताओं का जबरदस्त ठहाका लगता और आदरणीय 
						कवि समझ ही नहीं पाते कि क्या हो रहा है। बार–बार जब ऐसा 
						हुआ तो आदरणीय ने मुड़कर भी देखा पर सरोज जी तो विद्युत 
						गति से गायब हो जाते थे।
 
 इस तरह मुकुट जी ओढ़ी हुई महानताओं की व्यावहारिक धुनाई 
						किया करते थे। नई कविता के एक वरिष्ठ और लोकप्रिय कवि ने 
						जब एक रेल यात्रा में अपनी कविताएँ सरोज जी को सुनाई तो 
						सरोज जी ने अपने चिर–परिचित अंदाज़ में कहा – 'क्या कहने 
						हैं! विचार हो तो ऐसे! बहुत ही महान! हम पर हों तो मालामाल 
						ही ना हो जाएँ! धन्य हैं! वाह, वाह, वाह!' फिर अचानक स्वर 
						बदलकर दयनीय आवाज में कहा – 'प्रभु! लेकिन हमारी इच्छा है 
						कि आपके कृतित्व के साथ हम भी अमर हो जाएँ। हमारा भी नाम 
						आपके साथ जुड़े, आज्ञा हो तो आपकी कविताओं का पद्यानुवाद 
						कर दूँ।'
 
 सरोज जी ने सदा जिन्दगी का पद्यानुवाद किया। मैं उनके 
						प्रसिद्धतम व्यंग्य गीत से व्यंग्य निकालने की धृष्टता कर 
						रहा हूँ। इसे उनके सम्मान में एक सकारात्मक पैरोडी माना जा 
						सकता है।
 
 उन्हें प्रणाम करो वो बड़े महान थे,
 तथाकथित जितने महान हैं उनके लिये कृपान थे।
 वैसे तो वे अपने तन पर खादी रखते थे,
 पर खादी में मन अपना जनवादी रखते थे।
 होंगे लाख तुम्हारे, उनका सिर्फ एक चेहरा,
 उस चेहरे पर दुनियाभर का दर्द आन ठहरा।
 गीतों का बाज़ार लगाना उन्हें न आता था,
 लोहे और लहू से उनका गहरा नाता था।
 जितने गीत अधर तक आए वे सब लहूलुहान थे।
 प्रतिभाएँ थर्राएँ उनसे ऐसे प्रतिभावान थे।
 उन्हें प्रणाम करो वो बड़े महान थे।
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