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कितना खूबसूरत लगता है ज़िंदगी का ऐसा नक्शा। जो ब्रूनो सच में कोई मसीहा बनकर आया था मेरी ज़िंदगी में।
उन्हीं दिनों मुझे केंद्र में किसी ने शहर में आए एक स्वामी विराटानंद के बारे में बताया था। बड़े पहुँचे हुए गुरु हैं, सब बीमारियाँ ठीक कर देते हैं, भविष्य-भूत एकदम सही बतला देते हैं। मुझमें भी कौतूहल था। मैंने जो ब्रूनो से कहा, ''चलो इन स्वामी जी से मिलते हैं। तुम यों भी मुझसे हिंदू धर्म और दर्शन के सवाल पूछते रहते हो, स्वामी जी सारे जवाब सही सही दे सकेंगे।
स्वामी जी का व्यक्तित्व सच में बहुत प्रभावशाली था। जो ब्रूनो पर तो ऐसा असर हुआ था मानो किसी ने हिप्नोटाइज़ कर दिया हो।
- 'बहुत पहुँचा हुआ आदमी लगता है वह। मुझे पहली बार ज़िंदगी में किसी ने सही तौर पर बताया है कि क्यों मेरी ज़िंदगी इतनी नाकामयाब रही... क्यों इतने ग़लत फ़ैसले हुए हैं मुझसे...
अचानक मैंने ग़ौर किया कि उसके चेहरे पर छाया रहनेवाला सहज उल्लास और रोशनी नदारद थे। उनकी जगह मैं उसकी आँखों में देख रही थी- संदेह, कन्फ्यूजन, डर।
- 'लेकिन ग़लत और नाकामयाब क्योंकर मानने लगे तुम अपने-आप को?
उसने एक लंबी साँस ली।
- 'और क्या! सब कुछ ही ग़लत हुआ है मेरी ज़िंदगी में- शादी की तो ग़लत लड़की से। पढ़ाई की तो इंजीनियरिंग जिसमें मेरी कतई दिलचस्पी नहीं थी। नौकरी की तो स्टॉक ब्रोकर की जो कभी भी मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं थी। फिल्म भी बनाई तो ऐसी कि जिसे कोई खरीदता नहीं। जो मैं बनना चाहता था कभी नहीं बन सका... सब कुछ इतना ग़लत, इतना उलझा हुआ है। उसके चेहरे पर उदासी और आत्मदया बढ़ी हुई थी। मैंने आज तक उसका सिर्फ़ समर्थ रूप ही देखा था। इस तरह देखकर धक्का लगा।
शायद स्वामी जी से मिलकर वह अपने आप को छोटा महसूस करने लगा था- ऐसा मैंने सोचा। ऐसा शायद सभी को लगता है... ख़ासकर किसी को जब इतने ऊँचे पद पर बैठा दिया जाए, उसे भगवान के क़रीब मान लिया जाए... लेकिन मैंने अपना आपा नहीं खोया था। स्वामी जी की सिर्फ़ एक बात ने मुझे चौंका दिया था- ''मेरे जीवन में बड़ा भारी परिवर्तन होगा।' एक तरह से अच्छा ही लगा था... जो ब्रूनो के साथ विवाह का सोचकर गुदगुदाता रहा मन... और क्या परिवर्तन संभव था?
स्वामी जी ने ब्रूनो को दुबारा आने के लिए कहा था। मुझे नहीं बुलाया था सो मैं नहीं गई। फिर ब्रूनो बार-बार उनके पास जाने लगा था। एक दिन जो ब्रूनो का फ़ोन आया तो वह बहुत परेशान था। हमेशा की तरह उस दिन भी लंच के लिए हम एक छोटे से चाईनीज़ रेस्तराँ पर मिले तो मुझे उसके चेहरे पर अनगिनत रेखाएँ उभरी दिखीं।
- 'तुम इतना परेशान क्यों हो जो?' उसने मेरी आँखों में सीधे झाँकते जैसे कुछ पढ़ने की कोशिश कर कहा, 'तुम्हें मैंने अपने बारे में एक बात नहीं बताई थी, शायद डर था कि तुम्हें खो दूँगा। अब बताना चाहता हूँ।'
मैं डर-सी गई। पता नहीं क्यों मैं बहुत जल्दी डर जाती हूँ। जब भी कोई बात कहने से पहले भूमिका बाँधने लगता है मैं डर से पहले ही अधमरी हो जाती हूँ। मेरे माँ-बाप ने ऐसी ही भूमिका बाँधकर मेरी शादी की घोषणा की थी, मेरे पति ने ऐसे ही भूमिका बाँधकर दूसरी स्त्री से अपने प्रेम की चर्चा की। ब्रूनो अब क्या कहने वाला है। साँस रोके सुनने को तैयार हो रही थी मैं।

-'मेरी एक बेटी है।' कहकर जो ब्रूनो मेरी प्रतिक्रिया जानने को थम गया। लेकिन इसमें छिपाने की क्या बात थी? जब उसने मुझे अपने तलाक़ का बता दिया था तो बेटी का बताने से क्या मेरा फ़ैसला कुछ फ़र्क होत! मुझे समझ नहीं आया मैं क्या प्रतिक्रिया दूँ। एक हलका-सा धक्का इस बात का ज़रूर लगा था कि जो ब्रूनो झूठ भी बोल सकता है!
-'क्या तुम्हारे साथ रहती है?'
-'नहीं, अपनी माँ के साथ।'
मुझे लगा वह किसी तक़लीफ़ में है... पर मेरे मुँह से कोई शब्द ही नहीं निकल पा रहा था।
'दरअसल वह कुछ ठीक नहीं। मुझे मेरी एक्स-वाइफ़ ने बताया तक नहीं कि उसकी हालत इतनी ख़राब हो चुकी है... उसने स्कूल जाना तक छोड़ रखा है।
'क्या हुआ है उसे?'
'कुछ दिमाग़ी तकलीफ़... मैं जिस डॉक्टर के पास उसे भेजना चाहता हूँ... वह मानती नहीं... जर्मन है न। बड़ी ज़िद्दी और असर्टिव है।'
'लेकिन इतना कुछ हो गया और तुम्हें पता ही नहीं लगा? क्या तुम अपनी बेटी से मिलते नहीं हो?'
'इधर कुछ सालों से नहीं... अब वह मुझसे मिलना भी नहीं चाहती। पता नहीं माँ ने क्या-क्या पट्टी पढ़ाई है। पिछले हफ़्ते मैं उसे डिनर पर साथ ले गया तो मुझे बुरा भला कहती रहीं कि इटैलियन बड़े स्वार्थी, लापरवाह और अनैतिक किस्म के होते हैं... सब माँ वाली बातों का रट्टा मारा हुआ। अभी तक उसकी परवरिश का खर्चा मैं देता रहा हूँ- तब भी मुझको वे बातें सुनने को मिल रही हैं... बहुत टूटता है मन। वे माँ-बेटी कभी भी मुझे अपराध-बोझ से मुक्त नहीं होने देंगी।

जिस अपने संसार को जो मेरे सामने खोल रहा था, उससे मैं अब तक पूरी तरह नावाक़िफ़ थी। फिर भी मुझे उससे हमदर्दी ही हुई।
'तुम्हें बुरा नहीं मानना चाहिए जो। बच्चे तो हमेशा माँ के ही रहते हैं... फिर वह तो माँ के पास ही रहती हैं।'
'लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हर वक़्त बच्ची को मेरे खिलाफ़ भड़काती रहे। बेटी को तो मैं अब भी बेहद प्यार करता हूँ... उसकी ऐसी चोटवाली बातें... मेरा इस दुनिया में और है भी कौन... एक बेटी ही तो है।'
ब्रूनो के आखिरी वाक्य ने मुझे तक़लीफ़ पहुँचाई। मैं कोई नहीं उसकी। सच में अभी तो एक पराई औरत ही हूँ... किसी और की ब्याहता। मुझे अपना कहने का हक़ नहीं महसूस करता होगा। अभी तो हमारे बीच आश्वासन और उम्मीद का ही रिश्ता है। लेकिन संदेह तो कहीं नहीं... सिर्फ़ विश्वास ही विश्वास। मेरा मन हुआ उसके माथे पर ओंठ रख कर उसे तसल्ली दूँ। रेस्तराँ में लंच के वक़्त की भीड़ थी। मैंने बस हल्के से उसका हाथ दबा दिया।
'मैं सोचता हूँ उसे स्वामी जी के पास ले जाऊँ, शायद उनके आशीर्वाद से कुछ फ़र्क पड़े।'
'तुम्हें विश्वास है उनकी सामर्थ्य में?'
'हाँ है।''
जिस मज़बूती से जो ब्रूनो ने हाँ कही, मन में कहीं खटका कि वह स्वामी जी को बहुत गंभीरता से ले रहा है। लेकिन मैंने रोकना या कुछ उफ् करना भी ठीक न समझा।
आखिर उनके बारे में मैं खुद इतना नहीं जानती थी कि कुछ साबित कर सकूँ।
'तो ले जाना।'
'पता नहीं वह राज़ी होगी या नहीं।'
लंच के बाद वह मुझे अपने अपार्टमेंट ले गया था। उससे प्यार करते हुए मैंने महसूस किया कि आज हमारे रिश्ते को एक नया धरातल मिल गया था।
तीन चार रोज़ बाद जब मैं उसे मिली तो वह बहुत खीझ रहा था कि उसकी बेटी ने स्वामी जी के पास जाने से इंकार कर दिया है।
'मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ।'
'नहीं स्वामी जी ने कहा है कि वही कुछ करेंगे कि जिसके असर से वह आने को मान जाए। लेकिन तुम्हारी बहुत सपोर्ट है मुझे तनु। यू आर लाइक ओ ब्रैथ ऑफ फ्रेश एयर। तुम ऐसी ही रहना तनु। यही तुम्हारी मदद होगी।
मेरे इम्तहान नज़दीक थे और मैं जी-तोड़ मेहनत कर रही थी- अपनी कैद से छुटकारा पाने के लिए। अपने जो ब्रूनो के साथ नई ज़िंदगी शुरू करने के लिए। मेरे पति को मेरी किसी योजना की भनक नहीं थी। उसने मेरे 'व्यक्ति' में कभी कोई दिलचस्पी ली ही नहीं कि मैं अपना भीतरी जगत उसके आगे खोलती। मैं घर के दूसरे पदार्थों की तरह ही एक पदार्थ थी। वह तभी घर रहता जबकि उसके माँ-बाप या दूसरे कोई रिश्तेदार हिंदुस्तान से मिलने-रहने के लिए आते। बाकी वक़्त उसकी ज़िंदगी का बहुत कम अता-पता रहता मुझे। मुझे स्कूल की फीस और घर चलाने का खर्चा हर महीने मिल जाता था। शुरू में उसकी ग़ैरमौजूदगी मुझे किसी उड़ने को तत्पर परनुचे पक्षी-सा घायल और पागल कर जाती थी। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि कोई आदमी इतना कायर हो सकता है कि सिर्फ़ अपनी ही कायरता की वजह से ऐसी दोहरी ज़िंदगी जीने पर मजबूर हो जाए। पर अब अर्जुन के तीर की तरह मेरी निगाह सिर्फ़ मुक्ति पर जमी थी। और द्रौपदी की तरह मेरा फल भी जो ब्रूनो की उपलब्धि में निश्चित था।
जिस दिन मेरा आखिरी परचा था, मैं बुरी तरह नर्वस थी। मुझे इम्तहान बढ़िया करना ही था। परचा जब सच में अच्छा हो गया तो मैं अपनी योजनाओं के पूरा होने की संभावनाओं से खुश लगभग काँप रही थी। मैं सबसे पहले जो ब्रूनो को फ़ोन करके बताना चाहती थी और उससे मिलने का तय करना चाहती थी। स्कूल के बाहर आकर पब्लिक बूथ से ही मैंने पच्चीस सेंट डाल कर फ़ोन मिलाया। सड़क पर कुछ शोर था या क्या कि उधर से आती आवाज़ मुझसे पहचानी ही नहीं गई। कई बार हलो करने के बाद बात शुरू हुई। वह दूसरी तरफ़ वाली आवाज़ जो शब्द रच रही थी वे मैंने कभी नहीं सुने थे, कभी सोचे भी नहीं थे...कहीं दूर से भी कोई संभावना नहीं पैदा हुई थी।
'मैं अब तुमसे नहीं मिलूँगा तनु।... स्वामी जी ने कहा है कि मेरा-तुम्हारा मिलना शुभ नहीं है।'
'क्या मतलब? तुमने स्वामी जी से मेरे बारे में बात की थी?'
'वो मेरी बेटी... दरअसल मेरी सारी परेशानियाँ दूर करने के लिए एक लंबा जाप करवा रहे हैं। उन्होंने मुझसे मेरी भावी-योजनाओं के बारे में पूछा था। मैंने बताया कि मैं एक हिंदुस्तानी लड़की से शादी करने जा रहा हूँ। उनके ज़्यादा पूछने पर मैंने तुम्हारा शादी-शुदा और नाखुश होना भी बताया था... वे कहने लगे यह बड़ा अधर्म होगा... कुछ गणना करके वे बोले यह हम दोनों के लिए ही बहुत अनर्थकारी है।'
'तुम मज़ाक कर रहे रो जो?'
'नहीं।'
'तुमने इतनी आसानी से उनकी बात मान ली?'
'उन्होंने सभी बातें सही बताई हैं। यह कैसे ग़लत मान लूँ? तुम्हारा-मेरा भला अलग हो रहने में ही है।'
'दिस इज़ स्टुपिड। आई कांट बिलीव दिस। ओह जो! तुम एक भगवे कपड़े वाले की बात का इतना विश्वास कर गए कि मैं... मुझको...'
मेरी आवाज़ टूट रही थी... मैं कहूँ भी तो क्या? गले में जैसे पत्थर अटका हुआ था। उधर से जो ब्रूनो की घिसती हुई आवाज़ टेलीफ़ोन के कान से सटे छिद्रों से सुइयों की तरह उभर रही थी...
'ये मेरी-तुम्हारी ज़िंदगी का सवाल है तनु... जान-बूझकर रिस्क लेने का क्या मतलब... तनु... आर यू देयर... कैन यू हियर मी तनु...'
'ओह, इने कमज़ोर! इतने डरपोक हो तुम! और मैं तुम्हें अपना मसीहा समझती रही।

मैंने फ़ोन का चोगा यों ही लटकता छोड़ दिया... गुस्सा, आक्रोश, क्षोभ और आँसू पता नहीं क्या-क्या घुल-मिल कर मेरी नसों को चकनाचूर किए दे रहा था। मेरी पूरी ज़िंदगी को जैसे किसी दीवार में चुन दिया गया था। सब कुछ फिर से एक शून्य में आ अटका था... क्या करूँगी अब मैं... कहाँ जाऊँगी। फिर से उस अंधेरी गुफ़ा में... जहाँ अब और भी ज़्यादा अंधेरा भर चुका था।

इन स्वामी जी ने मेरे जीवन में भी बड़े भारी परिवर्तन की बात कही थी। क्या यही परिवर्तन था?
भरी हुई अंडरग्राऊँड ट्रेन में मुझे बैठने की जगह नहीं मिली तो निढाल-सी मैं हाथ टिकाने वाले लोहे के मोटे डंडे पर ही माथा टिकाकर खड़ी हो गई। एक पुरुष सवारी ने मेरी थकी-कमज़ोर हालत देख मेरे कंधे को हल्का-सा छुआ और मुझे अपनी सीट पर बैठने का इशारा किया। पता नहीं उससे क्या गुज़र गया मुझ पर। मन हुआ चिल्ला-चिल्ला कर कह दूँ, 'तुम आदमियों में औरतों को लेकर मसीहा बनने की ख़्वाहिश क्यों होती है? और हम औरतें भी मान जाती हैं कि ये पुरुष मसीहा हो सकते हैं। हमारी ज़िंदगी सँवार सकते हैं... जबकि उनसे अपनी ही ज़िंदगी का बोझ नहीं सँभलता... सबके सब लंगड़े मसीहे।
लेकिन मैं... मैं ही क्यों मसीहों का इंतज़ार करती हूँ।

मैं उस आदमी का सीट छोड़ने की शराफ़त दिखाने का शुक्रिया कहा और डंडे पर वैसे ही सिर टिकाए खड़ी रही।

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२४ अगस्त २००९

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