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जिस आदमी के इर्द-गिर्द सारा संसार रचा गया है जब वही केंद्र से हट गया तो पूँजी को
केंद्र में लाकर बनेगा भी क्या-- एक डैड प्लैनेट। पर यह सीधी-सी बात इसे पूँजीवादी
देश में किसी के पल्ले पड़ती नहीं, सब अपनी-अपनी पूँजी बनाने के चक्कर में घूम रहे
हैं।''
उसी दिन सुबह अखबार में ख़बर निकली थी कि एक लगभग मृत पचासी साल के बूढ़े को
हस्पताल में एक नर्स ने ऑक्सीजन वगैरह लगाकर पुनर्जीवित कर दिया। ज़िंदा होने के
बाद, ऑक्सीजन के कुछ देर तक पूरी तरह रुके रहने की वजह से उस आदमी के जिस्म का एक
भाग लकवा मार गचा था। अब उसने हस्पताल वालों पर मुक़दमा दायर कर दिया था कि
उन्होंने उसे क्यों जीवनदान दिया क्योंकि अब एक तो उसे अपंग होकर जीना पड़ रहा है,
दूसरे उसके पास अस्पताल की फीस चुकाने के लिए भी पैसा नहीं है। जो ब्रूनो ने अपनी
बात इसी सिलसिले में शुरू की थी।
जो ब्रूनो एक साथ चाँद और अणु-अस्त्रों की भट्टी में इंसान को भेजने वालों की इस नई
दुनिया का होकर भी नहीं था। बीस-बाईस साल पहले वह दक्षिण इटली से यहाँ आया था। तब
उसकी नई-नई शादी हुई थी, बहुत कम उम्र थी उसकी, क़रीब उन्नीस बीस रही होगी। उसके
अनुसार उसकी बीवी के बहुत ज़ोर देने पर वे यहाँ आए थे। मेरी ही तरह वह भी अपने देश
में पल-बढ़ कर यहाँ आया था। इसलिए पूरा अमरीकी नहीं बन सका। उसकी ज़ुबान में भी
इटैलियन भाषा का बहाव और पुट था। फिर भी इतना हिम्मती था कि स्टॉक्स (सट्टा
बाज़ारी) में पैसा कमाकर उसने ''तीसरी दुनिया'' शीर्षक से अपना एक केबल चैनल पर
टेलीविजन प्रोग्राम शुरू कर रखा था। इस प्रोग्राम में वह विद्वान प्रोफ़ेसरों और
अपने विषय के विशेषज्ञों को बुलाकर तीसरी दुनिया के देशों की धर्म, राजनीति,
आर्थिक-सामाजिक स्थिति और समस्याओं पर बहस के कार्यक्रम पेश करता था। यों मुझे नहीं
मालूम कितने लोग इस केबल चैनल पर आनेवाले प्रोग्राम को देखते थे (केबल चैनल का
क्षेत्र सीमित होता है), पर वह बड़ी निष्ठा से हर हफ़्ते यह प्रोग्राम पेश करता।
अपने स्टॉक्स बेचने के काम में उसे क़तई दिलचस्पी नहीं थी। कहता था कि उसे वहाँ
बेचने के लिए झूठ बोलना पड़ता है इसलिए वह यह काम जल्द ही छोड़ देगा।
मेरी उससे मुलाक़ात उसके 'तीसरी दुनिया' प्रोग्राम के सिलसिले में ही हुई थी।
हिंदुस्तानी औरतों के हालात पर बहस करने के लिए उसने मेरा भी इंटरव्यू लिया था। मैं
इस विषय में कोई विशेषज्ञ तो नहीं थी, लेकिन एक भुक्त-भोगी-पुरुष के अत्याचारों की
शिकार नारी की हैसियत से मुझसे बातचीत की गई थी। ब्रूनो के ख़्याल में सभी एशियायी
औरतें अपने पुरुषों द्वारा दबाई हुई है और उनके द्वारा किए अनर्थ और अत्याचारों को
खामोश रह कर सहती है इसलिए उसके इस प्रोग्राम के लिए कोई भी हिंदुस्तानी औरत चली
जाती। उसने हिंदुस्तान जाकर दलितों और गरीबों पर एक लंबी फ़िल्म भी बनाई थी लेकिन
किसी भी टी.वी. स्टेशन ने अभी तक उसकी फ़िल्म ख़रीदी नहीं थी। अपने केबल चैनल पर तो
वह उसे दिखला चुका था पर जितना ख़र्चा फ़िल्म बनाने में हुआ था उसकी पूर्ति कैसे
होती। उसका अपना चैनल तो विज्ञापन-विहीन था। वह गुस्से में आकर अमरीका को और भी
गाली देता।
''-- या तो फ़ैशन राज करता है इस देश में, या राजनीति। हिंदुस्तान आजकल फ़ैशन में
नहीं, रूस और कोरिया है...उन्हीं से राजनैतिक कार्य-कलाप चलता है... उन्हीं पर बनी
फ़िल्में दिखाई जाएँगी। आपने फ़ैशनेबल चीज़ नहीं बनाई तो यू आर आउट ऑफ सरकुलेशन!
इंसानियत का तो नामोनिशान नहीं जबकि उसी का ढोल पीट-पीट कर ये सारी दुनिया को उल्लू
बनाने की ताक़ में रहते हैं।''
कभी-कभी मुझे लगता कि मुझमें भी उसकी रुचि तीसरी दुनिया के एक नुमाइंदे के रूप में
ही ज़्यादा थी- नुमाइंदा भी तो अव्वल दर्जे का थी मैं- एक तो औरत दूसरा दुःख की
मारी। मेरी हालत किसी भी संवेदनशील इंसान में हमदर्दी जगा ही देती! नहीं दहेज की
वजह से जल मरने की नौबत तो नहीं आई थी जैसा कि जो ब्रूनो ने सोचना चाहा था।
उलटे किसी ने मसीहा बनकर बिना दहेज के शादी कर मेरे निम्नमध्यवर्गीय परिवार का
उद्धार किया था। लेकिन अमरिका में लाकर उसने मुझे फ्लशिंग की एक गली के इस
अपार्टमेंट में सिर्फ़ एक घर की देखभाल करने वाली पत्नी या ज़्यादा सीधे शब्दों में
नौकरानी से बढ़कर दर्जा नहीं दिया था। उनकी प्रेमपात्रा सिर्फ़ प्रेमिका ही बनी
रहना चाहती थी। कैरियर वुमन... शादी और बच्चों में पड़कर अपना संसार उलट-सुलट नहीं
कर सकती थी। - तो उन्हीं सब कामों के लिए मेरी ज़रूरत आ पड़ी थी। लेकिन लगता है
खुदा ने मेरे भीतर की आह को भी ज़रूर सुन लिया होगा... क्योंकि लाख कोशिश करने के
बावजूद मैं गर्भवती नहीं हो सकी। बाँझ होना मेरे लिए कहीं वरदान ही बना। क्योंकि
मैं भी इस घर की भोगते हुए कहीं उसके अपेक्षित दायित्वों से मुक्त थी।
ब्रूनो मुझे प्यार करता है... अगर मैं अपने पति कहलाए जानेवाले पुरुष से तलाक ले
लूँ तो मुझसे शादी करेगा- ऐसा बार-बार कहा है उसने। मैं कहीं अपने भीतर यह हिम्मत
जुटा रही हूँ कि अपने उस दूसरी स्त्री के प्रेमी पति से कह सकूँ कि जितना बेजान और
बेचारा मुझे समझा हुआ है उतनी नहीं हूँ मैं। यों तलाक़ के नाम से मेरे खून के कतरे
तक काँप उठते हैं... समाज के डरों को चाहे पल भर टाल भी दूँ... पर अपने आप से ही
इतना डर लगने लगता है... पता नहीं कितनी तरह के खौफ़...।
अपने हिंदुस्तानी पति को छोड़कर किसी दूसरी जाति के इंसान पर भरोसा करना ही अपने आप
में बड़ी खौफ़नाक बात लगती है... कितनी-कितनी अनजान डरावनी स्थितियाँ मेरे ख़यालों
में से पैदा होती रहती हैं... फिर जब जो ब्रूनो साथ होता है तो सारे डरों की बात
सोचकर मैं खुद में बहुत छोटा महसूस करने लगती हूँ... जो ब्रूनो की इंसानियत की कोई
जाति नहीं थी... जितना हिंदुस्तान या हिंदुस्तानियों को प्यार औऱ इज़्ज़त वह देता
था उतना मेरा हिंदुस्तानी पति भी कतई नहीं दे सकता था। और महसूस करने लगती हूँ...
जो ब्रूनो की इंसानियत की कोई जाति नहीं थी... जितना हिंदुस्तान या हिंदुस्तानियों
को प्यार और इज़्ज़त वह देता था उतना मेरा हिंदुस्तानी पति भी क़तई नहीं दे सकता
था। और इस तरह जब मन ठिकाने पर होता तो इच्छा होती कि अपने पति से कह डालूँ, ''लो
सँभालो अपना घर (बार यानि कि बाहर मेरे पास था ही नहीं, सिर्फ़ घर था)- यह नौकरीनी
तुम्हें तलाक़ देती है। मसीहा रहे होंगे तुम मेरे माँ बाप के लिए। मेरे लिए तो किसी
शैतान से भी बदतर हो।''
शायद छुपे रूप में वह कहीं मेरे लिए मसीहा भी रहा होगा... मुझे अमेरीका न लाया होता
तो शायद अपनी शख़्सियत का इतनी जल्दी अहसास न हुआ होता। न ही मैं मिल पाती अपने इस
नए मसीहा - जो ब्रूनो को।
ब्रूनो से मैंने कहा था कि ज्यों ही मैं ये इम्तहान पास कर लूँगी और मेरी नौकरी लग
जाएगी तो हम दोनों साथ रहने लगेंगे और फिर शादी कर लेंगे। बिना नौकरी के मैं तलाक़
नहीं लेना चाहती थी। दरअसल मेरे इस अर्थहीन वैवाहिक-जीवन के मूल में भी यही एक छेद
था कि पैसा न होने की वजह से ही एक तो मेरे माँ-बाप ने मुझे किसी दूसरे के हवाले
करने की जल्दबाज़ी की, दूसरे यहाँ आकर चूँकि मैं खुद कमाने के क़ाबिल नहीं हुई थी
इसलिए दूसरे की शर्तों पर ज़िंदगी ढोने को मजबूर हो गई थी। अब धीरे-धीरे बच्चों की
देखभाल के केंद्रों में अस्थायी सब्सीट्यूट की नौकरी करके इतना अनुभव हो गया था कि
कुछ पढ़ाई करके स्कूल टीचर बन सकूँ। एक बार बस पक्की नौकरी लग जाए तो किसी भी पुरुष
को चुनौती दे सकूँगी।
लेकिन जो ब्रूनो को मैं कोई चुनौती नहीं देना चाहती। न ही उसके लिए कोई चुनौती बनना
चाहती हूँ। उसे तो मैं प्यार करती हूँ... एक बहुत सहज आपसी प्यार का रिश्ता... बस
यही चाहती हूँ। उसे मैं अपने अन्नदाता या भरण-पोषण करने वाले पुरुष के रूप में भी
नहीं देखती जैसा कि अपने पिता या पति को अब तक देखती रही हूँ। वह इस क़िस्म का है
भी नहीं जिस पर पूरी तरह से ऐसा भार डाला जा सके। वह तो बड़ा सैलानी किस्म का आदमी
है। कभी हिंदुस्तान भाग जाता है तो कभी नेपाल या तिब्बत, तो कभी दक्षिण अमरीका।
हमेशा किसी खोज में। प्राचीनता और पुरानी संस्कृतियों से उसे ख़ास मोह है... इसीलिए
हिंदू धर्म और संस्कृति की भी उसके मन में ख़ास इज़्ज़त है। वह मुझे भी कहा करता
है, ''तुम को तो अंदाज़ा ही नहीं, तुम बहुत ख़ास लोग हो।... मैं चाहता हूँ कि
हिंदुस्तान की पुरानी महत्त्वपूर्ण संस्कृति और वहाँ की आज की ग़रीबी की तस्वीरें
दिखाकर संसार का ध्यान उधर दिलाऊँ... वर्तमान हिंदुस्तान की तरक्की के लिए अमरीका
का अमीर आदमी तभी पैसा लगाएगा जब उसमें यहाँ के आदमी की रुचि होगी और यहाँ के आदमी
को आकर्षित करने का एक ही तरीका है- उन्हें हिंदुस्तान की रंग-बिरंगी, मोहक प्राचीन
यानि क्लासिकल संस्कृति दिखाई जाए।'' अपने 'तीसरी दुनिया' कार्यक्रम द्वारा वह
विश्वशांति और विश्वबंधुत्व जैसी भावनाओं को स्थापित करने की कोशिश किया करता था।
उसे खुद पैसे के लिए पैसा कमाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। जब तब कुछ पैसा कमाकर वह
घूमने निकल जाता था। लेकिन जहाँ भी जाता मुझे ख़त या कार्ड भेजना नहीं भूलता था। वह
कहता, ''मैं जहाँ भी रहूँ तुम्हारी कमी महसूसता रहता हूँ। मैं न्यूयार्क लौटता हूँ
तो सिर्फ़ तुम्हारे लिए...वर्ना कुछ नहीं रखा अमरीका में... बड़े निर्दयी लोग बसते
हैं वहाँ।''
उसे अमरीकी लड़कियाँ भी पसंद नहीं। मुझे प्यार करते हुए वह कह डालता है,
''तुम्हें मालूम है तुम यहाँ की लड़कियों से बहुत फ़र्क हो... बहुत नर्म, बहुत
प्यारी, बहुत मीठी। मैं कभी अमरीकी लड़कियों के साथ डेट नहीं करता अब। बड़ी ज़ालिम,
बेहया और सख़्त किस्म की होती हैं वे। फ़ैमिनिज़्म ने कबाड़ा कर डाला है इन
लड़कियों का।''
उसके आगोश में मैं बहुत नरम-सी कली-सा महसूस करती जिसे बड़ी एहतियात से चूमा जाता
है कि कहीं हल्के से दबाव से भी मसल न जाए। जबकि मैं बुरी तरह से झकझोरे और मसले
जाने के बावजूद भी किसी की हवस बुझाने के लिए तैयार रहने की आदी रही हूँ। वह मेरे
जिस्म के हर हिस्से को चूम-चूमकर जब उसे खूबसूरत बयान करता है तो मुझे लगने लगता है
कि मैं पहली बार जवान हुई हूँ। वह मुझसे हर बार प्यार करने की इजाज़त - मेरी रज़ा
माँगता है। दरअसल वह मुझे बड़ी गंभीरता से लेता है- मेरी 'न' को 'न' और 'हाँ' को
'हाँ' ही समझता है। यों आज तक मुझे मेरे माँ-बाप या ससुराल घर में किसी ने भी
गंभीरता से नहीं लिया- यहाँ तक कि मैंने खुद अपने आप को कभी गंभीरता से नहीं लिया
था इसलिए मेरी न या हाँ का कुछ परिणाम नहीं निकलता था। लेकिन अब उस न या हाँ के
परिणामों का पूरा दायित्व मुझ पर था। इसीलिए अपने को लेकर अब मैं गंभीर होती जा रही
थी।
फिर भी मुझे यह अजीब लगता कि सिर्फ़ हिंदुस्तानी होने भर से ही वह मुझे अच्छी लड़की
की कैटेगिरी में डाल देता। वह अकसर कहता भी- 'तनु, तुम हिंदुस्तानी नारियाँ सच्ची
नारियाँ हो। यहाँ की औरतों ने तो अपना नारीत्व ही खो दिया है। उन्हें प्यार करने
में भी डर लगता है। पता नहीं कब कौन-सा सिद्धांत छाँटने लगें। प्यार की नाज़ुकी को
तो वे कुछ समझती ही नहीं। समानता-स्वतंत्रता के नारों को भोंक कर सब कुछ तहस-नहस कर
देती हैं।''
तब मैं उससे खूब औरताना बातें करनी लगती। 'क्या तुम बहुत-सी अमरीकी लड़कियों से
मिलते रहते हो?'
'अब नहीं। अब तो सिर्फ़ तुम ही हो मेरी ज़िंदगी में और रहोगी भी।'
उसने मुझे बताया हुआ था कि वह तलाक़शुदा है।
'क्या तुम्हारी पत्नी भी अमरीकी थी?'
'आधी अमरीकी, आधी जर्मन। सबसे ख़राब मिश्रण। तभी हमारी पटी नहीं।'
'क्या कोई संतान है?'
'नहीं।'
और वह झट से बात बदल देता है।
'मैं तुम्हें ढेर सारा प्यार देना चाहता हूँ... तुम्हारे हर दर्द को हर लेना चाहता
हूँ... हम दोनों साथ-साथ सिर्फ़ प्यार औऱ समानता की ज़मीन पर टिकी ज़िंदगी
जियेंगे...
और वह हँसकर जोड़ देता है कि उसके साथ न मुझे दहेज की समस्या होगी, न सास-ससुर के
साथ निबाहने की, न घर की नौकरानी बनने की और न ज़बरदस्ती अपने शरीर को किसी के
हवाले करने की... बस साथ-साथ सबकुछ शेयर करते हुए... एक सही ज़िंदगी जियेंगे।
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