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ऐसे में अपने एक पुराने अध्यापक की याद आई थी। अपना बनने के लिए, अपना ना होना कितना आवश्यक होता है। जो अपने होते हैं, वो कितनी आसानी से अपने नहीं रहते। और जो अपने नहीं होते, बिना किसी स्वार्थ के किसी को अपना लेते हैं। ऐसे ही हैं अपने पुरी सर! बिना किसी मतलब के अपना संरक्षण भरा हाथ मेरे सिर पर रख दिया था। उनके संरक्षण का सीधा-सा अर्थ था मेरी पढ़ाई का पुनर्जीवित होना। आज भी उनका मार्गदर्शन मेरे जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि घर से निकाले जाने के बाद, पहले दिन था।

तब से जीवन का हर दिन ही पहला दिन लगने लगा है। क्या कुछ नहीं बीत गया इतने वर्षों में। समुद्र की गहराई की थाह पा सकना यदि कठिन है, तो जीवन की गहराई की थाह पा सकना तो लगभग असम्भव है। उसी जीवन की गहराई खोजने में ही सारी ज़िन्दगी ख़र्च होती जा रही है। अब मुझे आदमी की जात से नफ़रत होने लगी थी। हर आदमी में मुझे केवल नर शरीर ही दिखाई देता था, जो कि किसी भी मादा पर झपटने को तैयार हो। यदि कोई नर शरीर मुझे बस या गाड़ी में छू भी जाता तो एक जुगुप्सा की सी भावना होती थी। पूरे जीवन का बस एक ही केंद्रबिंदु बनकर रह गया था-नीलिमा। नीलिमा को क्या अच्छा लगता है, नीलिमा कैसे नहाती है, कैसे खाती है, कैसे तुतलाती है। नीलिमा का वजूद मेरे ज़िंदा रहने का एकमात्र कारण था। डरती थी कहीं सूर्य की गरम किरण भी उसके शरीर को छू ना जाए।

गरमी, सर्दी, वर्षा, वसंत, पतझड़-सभी तो नीलिमा के शरीर को छूते गए। नीलिमा की उम्र देखकर याद आया कि मुझे भी अखबार के दफ्तर में काम करते पंद्रह वर्ष से ऊपर हो गए। अपने नाम के साथ यादव लिखना तो मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा था। अब तो जैसे अपना नाम ही भूल गई हूँ। एक बार प्रियदर्शिनी के नाम से लिखना शुरू किया तो बस कॉलम दर कॉलम यही नाम मेरे साथ जुड़ता चला गया। नीलिमा का नाम भी स्कूल में नीलिमा प्रियदर्शिनी ही हो गया था।
प्रियदर्शिनी के साथ भी कई लोगों ने जुड़ने का प्रयास किया था। शायद किसी ना किसी का प्यार सच्चा भी रहा हो। किन्तु मेरे पास फुरसत ही कहाँ थी, किसी की भावनाओं को समझने की। हर आदमी को देखकर यादव ही याद आता था। और ऐसा होते ही लगता था कि मेरे साथ-साथ मेरे माहौल की हवा का भी दम घुटने लगा हो।

माहौल से लड़ पाना कौन-सी आसान बात है। अख़बार की दुनिया में अपने आप को खपा पाना तो और भी मुश्किल काम था। यहाँ हर आदमी अपने आप को फ़न्ने खाँ समझता है। गलती से भी किसी के मुँह से दूसरे की तारीफ़ नही निकलती। तारीफ़ के मामले में कंजूसी, जेब में हाथ डालने में कंजूसी। हर बंदा दूसरे का गला काटने को तत्पर। सुबह-शाम ख़ामियाँ ढूँढने का चक्कर! शाम की दारू का जुगाड़। यह था मेरा माहौल - जहाँ मुझे अपने आप को ज़िंदा रखना था।
ज़िंदा रहना! जिजीविषा! कितनी अर्थपूर्ण स्थिति! ज़िन्दा तो माँ-बाप के घर में भी थी, ज़िंदा तो यादव के घर में भी थी। फिर ज़िंदा तो यादव के घर से निकाले जाने के बाद भी थी। ज़िंदा तो आज भी हूँ। पर क्या यह सारी स्थितियाँ एक जैसी हैं? क्या इन सब स्थितियों को एक ही शब्द 'ज़िंदा' वर्णित कर सकता है? क्या घुटे दम सांस लेने को भी ज़िंदा रहना कहेंगे। क्या इंसान को केवल इसलिए ज़िंदा मान लिया जाए क्यों कि उसके दिल की धड़कन अभी तक चल रही है?

नीलिमा साँस लेती थी तो मेरे दिल की धड़कन सुनाई देती थी। बिंदियों वाला लाल फ्रॉक पहने, बालों की पोनी टेल बनाए, सफ़ेद जूते पहने जब नीलिमा दौड़ती हुई मेरी बाहों में आकर लिपट जाती थी, तो जैसे मैं सारी कायनात को अपनी बाँहों में समेट लेती थी। जब पहली बार उसने मुझे 'मम्मा' कहा था तो इस शब्द के अर्थ ही मेरे लिए बदल गए थे। आकाश में उड़ते बादल जैसे वर्षा की फुहारों के रूप में इसी शब्द को बार-बार धरती की ओर प्रेषित कर रहे थे।

वर्षा का भाई सौरभ भी तो मुझे अपने मन की भाषा प्रेषित करने की असफल कोशिश करता रहा। वैसे तो उसकी भावनाएँ मुझे समझ आ गई थीं। संभवतः मेरी भावनाएँ अपनी निद्रा से जाग भी जातीं। पर वर्षा ने उन भावनाओं को अपने गुस्से की बाढ़ में बहा दिया। वह कहने को तो 'मेरी सहेली' थी किंतु यह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि उसका अपना भाई किसी परित्यक्ता से संबंध जोड़े। हमारी मित्रता रिश्तों के बोझ तले दब गई थी।
बोझ तले तो जीने की सारी आकांक्षाएँ, अरमान, दबे हुए थे। नीलिमा, इस बीच, उस बोझ से बेखबर, बड़ी हुई जा रही थी। मेरी चिंता में बढ़ोत्तरी होती जा रही थी। नीलिमा है भी तो सरू की तरह लंबी। सुन्दर भी कितनी है, मरी! एक बार जो उसे देखता है, तो नज़रें ही नहीं हटती। पाँच बच्चों का ग्रहण लगने से पहले मेरी माँ भी ऐसी ही सुंदर दिखती थी।

माँ! यह शब्द मेरे मुँह से निकले तो एक अरसा ही बीत गया है। पर नीलिमा के मुँह से यह शब्द सुनकर जैसे मरुस्थल से मेरे दिल में ठंडी हवा का एक झोंका-सा महसूस होता है। अब तो कालेज जाने लगी है। आत्मविश्वास तो कूट-कूट कर भरा है उसमें। उसकी उम्र में जब मैं थी तो उसे गोद में लिए घर से निकाली भी जा चुकी थी। हैरानी की बात यह है कि मैं भी नीलिमा को घर से निकालने के बारे में सोचने लगी थी। सोचती थी कि उसे विदा कर दूँ, उसके हाथ पीले कर दूँ। फिर एकाएक मन में डर-सा बैठने लगा था। नीलिमा को पढ़ाई करनी होगी। मेरी तरह उसकी किस्मत किसी यादव के घर से नहीं बँधेगी। उसे किसी अंकल पुरी की सरपरस्ती का मोहताज नहीं होना पड़ेगा। नीलिमा की पढ़ाई में कम से कम मैं स्वयं तो रोड़े नहीं ही अटकाऊँगी। नीलिमा को अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। जब इतना जीवन बीत ही गया है, तो आज अचानक नीलिमा के विवाह के बारे में सोचना क्या उचित होगा?

उचित-अनुचित की परवाह किए बिना ही किस्मत हमारी ही बिल्डिंग में समीर को ले आई थी। समीर ने हाल ही में डॉक्टरी की थी। अमरावती से पढ़ाई पूरी करके आया था। पास ही के हस्पताल में 'हाऊस-जॉब' कर रहा था। उससे मुलाकात भी अनायास ही हो गई थी। लिफ़्ट रुक गई थी। काफ़ी शोर-सा सुनाई दिया था। बाहर आकर देखा तो लिफ़्ट अटकी पड़ी थी। मेरा तो जीवन ही किसी अटकी हुई लिफ़्ट के समान था। ऊर्जा का अभाव, दिशा विहीन, स्पंदनहीन।
फिर भी लिफ़्ट में से मैंने ही उसे बाहर निकाला था। यद्यपि लिफ़्ट में फँसने का मेरा अपना तो कोई अनुभव नहीं है, परन्तु एक छोटी-सी जगह में घुटन का आभास मैं अच्छी तरह महसूस कर सकती हूँ। इसीलिए मैंने वाचमैन से अच्छी तरह सीख लिया था, कि लिफ़्ट के फँस जाने पर निकलने का रास्ता कैसे बनाते हैं।
समीर के चेहरे की मासूमियत ने मुझे पहली नज़र में ही आकर्षित कर लिया था। उसके बात करने का ढंग, तहज़ीब किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम थे। संभवतः लिफ़्ट में फँसा होने की शर्म से उबर नहीं पाया था, अभी। घबराहट और बौखलाहट से बना पसीना उसकी कमीज़ को गीला किए हुए था। माथे पर उभरी पसीने की बूँदें अपनी कहानी स्वयं ही सुना रही थीं।

कहानी तो हर व्यक्ति के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होती हैं। कहानियाँ बनती हैं टूटती हैं। ज़िन्दगी की टूटन, कहानियों की टूटन से कहीं अधिक दर्द पैदा कर जाती है। समीर के जीवन की भी एक कहानी थी। उसके सुखी बचपन की कहानी। पिता के पार्टनर के धोखे की कहानी? हवालात में बन्द पिता की कहानी! माता-पिता की आत्महत्या की कहानी! उसके अकेलेपन की कहानी! इस विकराल दुःख की कहानी के बावजूद डॉक्टर बनने के अपने सपने को साकार करने की कहानी।
सपने तो मेरे मन में भी जगा गया था समीर! एक बार फिर नीलिमा और समीर को लेकर सपनों के जाल बुनने लगी थी। समीर अब रात का खाना अक्सर हमारे साथ खाने लगा था। परिवार में अचानक एक मर्द के आ जाने से वातावरण अलग-सा होने लगा था। नीलिमा समीर से छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगती थी। समीर का धीर गंभीर चेहरा, नीलिमा की हर बेहूदगी बरदाश्त कर जाता। अगर मैं नीलिमा को डाँटती तो नीलिमा की ही तरफ़दारी करता, ''आप क्यों डाँटती हैं उसे। बच्ची है अभी।'' मेरा सपना और इंद्रधनुषी हो जाता।

इंद्रधनुष के सातों रंगों में से अलग-अलग कोई भी मेरा प्रिय नहीं है। पर सातों रंग मिलकर जब सफ़ेद रंग बनता है तो मुझे अपना-सा लगने लगता है। 'सैल्फ प्रिंट' की सफ़ेद साड़ी लिए समीर, मेरे जन्म-दिन पर सुबह-सुबह आ पहुँचा था। बहुत मना करने पर भी मुझे यह उपहार लेना ही पड़ा। और उसी साड़ी को पहनकर हम शाम को चौपाटी की रेत पर खेलते रहे।

उस शाम मैंने नीलिमा की आँखों में एक विशेष चमक देखी थी। हालाँकि नीलिमा अपने चेहरे के भाव आसानी से व्यक्त नहीं होने देती। पर मैं तो उसकी माँ हूँ। जब वो रूई के फाहे की तरह मुलायम-सी गुड़िया थी, तब से उसे देख रही हूँ। उसकी आँखों का क्षणिक बदलाव भी भला मेरी नज़र से कैसे बच सकता है। उसका समीर की ओर देखना और पकड़े जाने पर शरमा कर नज़रें झुका लेना।

दूसरी ओर समीर का धीर-गंभीर चेहरा। सब ठीक है। मुझे ऐसा ही दामाद चाहिए, जो नीलिमा को पति के प्यार के साथ-साथ, पिता होने का अहसास भी करा दे। उन दोनों का समुद्र की लहरों से खेलना देखकर, मैं मन ही मन अंदाज़ लगा रही थी कि जीवन की लहरों से यह दोनों कैसे निबटेंगे।
पहले तो नीलिमा को पढ़ाई और नाटक के अतिरिक्त और कुछ नहीं भाता था। समीर आकर बैठा रहता था, मुझसे बातें करता रहता था और नीलिमा अपने आप में मस्त रहती थी। फिर धीरे-धीरे उसमें एक बदलाव आया। वो समीर में मगन दिखाई देने लगी थी। रंगमंच के नाटक से कहीं अधिक अनोखा मोड़ उसके अपने जीवन में आ रहा था। घर में पालक-पनीर अक्सर बनने लगा था। चाय की पत्ती की जगह 'टी-बैग' इस्तेमाल होने लगे थे, रात को कॉफ़ी बनने लगी थी, नए फ़िल्मी गीतों को जगजीत सिंह ने परे धकेल दिया था और नीलिमा स्कर्ट और मिडी की जगह सलवार कमीज़ पहनने लगी थी। उसे यह सब करने को मैंने तो नहीं कहा था।
नीलिमा की इन्हीं बातों ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मैं समीर से नीलिमा के बारे में बात कर सकूँ। केवल सही समय और सही मौके की तलाश थी। सचमुच के घर बनाने और रेत के घरौंदे बनाने में तो बहुत फ़र्क होता है। रेत के घरों को तेज़ हवाएँ उड़ा ले जाती हैं। समुद्र की तेज़ लहरें उसे बहा ले जाती हैं। मैं भी डर रही थी कहीं मेरे ख़याली पुलाव भी समुद्री फेन की तरह न साबित हों।

ख़्याल तो मुझे सीधे रजत के पास ले जाते थे। कहीं मन में यह भी विचार उठ रहे थे कि जो काम मैं और रजत पूरा नहीं कर पाए, वह काम नीलिमा और समीर शायद सरअंजाम दे पाएँ। डॉक्टर दामाद के बारे में सोचकर सुख से भीगी जा रही थी।
सुख के ऐसे ही एक क्षण में समीर से बात शुरू कर बैठी। बाहर हल्की-हल्की बयार चल रही थी जो खिड़की के पल्ले से टकराकर घर के अन्दर तक फैलती जा रही थी। सूरज की लालिमा शाम का साथ छोड़ती जा रही थी और रात को दावत दे रही थी। नीलिमा कहकर गई थी कि शाम को घर आने में देर हो जाएगी। ऐसे में समीर घर में दाख़िल हुआ। बड़े अधिकार से एक कप चाय की माँग की। मैं अपना कॉलम लिख रही थी। कॉलम छोड़कर किचन में जाना अच्छा लग रहा था।
चाय बनाकर समीर के सामने रख दी। उसने एक बिस्कुट स्वयं ही उठा लिया था। आराम से चाय में डुबा-डुबाकर खा रहा था अपना बिस्कुट। अपनी पुरानी आदत अपने सामने सजीव देख रही थी। हिम्मत जुटा ही ली, ''समीर, विवाह के बारे में कुछ सोचा है?''
''आपके अलावा मेरा है ही कौन जो मेरे विवाह के बारे में सोचे।'' समीर ने दूसरा बिस्कुट उठा लिया था।
मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी। आखिर नीलिमा के भविष्य का फ़ैसला होने वाला था। ''नहीं समीर, मेरा मतलब था, क्या तुम खुद शादी के बारे में मन पक्का कर रहे हो?''
''जी! सोच तो रहा हूँ।''
''अपनी होने वाली पत्नी के बारे में कुछ सोचा है तुमने? तुम्हें कैसी पत्नी की तलाश है?''
समीर कुछ क्षणों के लिए सोच में पड़ गया। और फिर बोला, ''प्रियदर्शिनी जी, बस कोई अपने जैसी ढूँढ दीजिए। फट से कर लूँगा शादी।''
मैं हवा मैं तैरने लगी थी। नीलिमा से बढ़कर मेरे जैसी कौन हो सकती थी? जैसे समीर ने मुझे हरी झंडी दिखा दी थी। मेरे सपनों को साकार करने का इशारा दे दिया था। ''समीर, नीलिमा के बारे में तुम्हारी क्या राय है? उससे बढकर तो मेरे जैसा कोई नहीं होगा। क्या वह तुम्हारी पत्नी की तस्वीर में रंग भर सकती है?''
''जी आपने एकदम सही फ़रमाया कि मैं आजकल सीरियसली शादी के बारे में सोच रहा हूँ। पर नीलिमा! नीलिमा तो अभी बच्ची है। उससे शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? मैं... मैं उसे पसंद करता हूँ, प्यार करता हूँ, पर शादी के लिए नहीं। मैं उसका बड़ा भाई हो सकता हूँ, पिता हो सकता हूँ। आपको लगता है, इस दुनिया में नीलिमा सबसे ज़्यादा आप जैसी हो सकती है। मैं ऐसा नहीं मानता। आप जैसी सबसे अधिक आप ख़ुद हो सकती हैं। मैं इस घर में रोज़-रोज़ आता हूँ तो आपके लिए। नीलिमा के लिए नहीं। मुझे आपसे अच्छी पत्नी कहीं नहीं मिल सकती। मैं... मैं आपसे प्यार करता हूँ प्रियदर्शिनी!'' समीर एक तूफ़ान की तरह मेरे कानों से टकराया। उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया था।

तूफ़ान ने सारे घर को हिलाकर रख दिया था। मुझे लगा घर की दीवारें ध्वस्त होकर नीचे गिर पड़ी हैं। समीर के शब्द दीवारों के पार खड़ी नीलिमा को आहत कर गए हैं। मैंने अपना हाथ हटा लिया। मैं! नीलिमा की माँ, प्रियदर्शिनी... स्वयं उस की सौत! समीर यह तुमने क्या कह दिया? मेरी वर्षों की तपस्या की चूलें हिला दीं। मैंने नज़रें उठाईं तो समीर जा चुका था। मैं टूटी हुई दीवारों का मलबा समेटने लगी।

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१२ मई २००८

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