जो भी मिले उसी के पल्ले बाँध
दो। माँ-बाप को तो गंगा नहानी है, लाख समझाती रही, मिन्नतें
करती रही पर नहीं! पढ़-लिख कर ख़राब होने से कहीं अच्छा है अपना
घर बसाओ, पति का ध्यान रखो और बच्चों को पालो। कुछ यों सा
महसूस होने लगा था, जैसे मैं कोई इंसान नहीं हूँ, केवल एक मादा
शरीर हूँ, जिसे किसी भी नर शरीर के खूँटे पर बाँध देना है।
बँधना नहीं चाहती थी, ऐसा भी
नहीं था, रजत को देखकर मेरे मन में कुछ-कुछ होता था। मन चाहता
था उसे खिड़की से देखती रहूँ। हम दोनों के घर लगभग आमने-सामने
थे। उसकी खिड़कियों का रंग बाहर से नीला था। उसी खिड़की में
नीली कमीज़ पहने खड़ा रजत, मुझे आकर्षित करने के लिए ज़ोर से
चिटकनी बन्द करता था। मैं अपनी खिड़की में खड़े होकर कभी बाल
बनाने लगाती तो कभी कुछ गुनगुनाने लगती। हम खिड़कियों के फ़्रेम
में जडे फ़ोटो ही बने रह गए। खिड़कियों से कभी बाहर ही नहीं
निकल पाए।
रजत को मेरा खुले बालों में
कंघी फिराना बहुत अच्छा लगता था। वैसे, अभी हमारी उम्र ही क्या
थी। मैं तो दसवीं में पढ़ रही थी।।। बचपना! पर बचपन का प्यार
क्या कभी भुला पाता है कोई? मैं माता-पिता को रजत के बारे में
कभी कुछ बता नहीं पाई थी। रजत ने एक दिन कहा भी था कि उसके
कालेज की पढ़ाई के बाद, नौकरी लगते ही हम शादी कर लेंगे। रजत,
मुझे प्यार तो करता था, किन्तु मेरी पढ़ाई से उसे भी कोई
सरोकार नहीं था। उसने भी कभी अपने मुँह से यह नहीं कहा था कि
मेरी पढ़ाई विवाह के बाद भी पूरी हो सकती है। उस समय तो मुझे
रजत की यह अदा भी बुरी नहीं लगती थी। उसके लिए तो मैं अपना
सर्वस्व, अपना जीवन, होम करने को तैयार थी।
जीवन तो अंततः होम हो ही गया
था। माता-पिता के हठ के सामने मेरी एक भी नहीं चल पाई थी। अपने
दूर के किसी रिश्तेदार के पुत्र के साथ बाँध दिया था मुझे
पिताजी ने। अभी तो सत्रह की ही थी कि अमिता से श्रीमती यादव हो
गई थी। अभी श्रीमती बनने का शहर भी तो नहीं सीखा था। रजत की
चाँदनी बनना और बात थी। परन्तु रामखिलावन यादव के परिवार के तो
नियमों तक से वाकिफ़ नहीं थी मैं।
वाक़िफ़ होने में क्या समय
लगना था। पहली ही रात को पति के वहशियाना बर्ताव ने सब कुछ
समझा दिया था कि अमिता यादव बने रहने के लिए, जीवन भर
क्या-क्या सहना पड़ेगा। जैसे एक भेड़िया टूट पड़ा था अपने
शिकार पर। निरीह मेमने की तरह बेबस-सी पड़ी थी मैं। पीड़ा की
एक तेज़ लहर टाँगों को चीरती हुई निकल गई थी। शराब और तंबाकू की
महक, उबकाई को दावत दे रही थी। दर्द ने चीख़ को बाहर निकलने को
मजबूर कर ही दिया। चीख़ की परवाह किसे थी। चादर लहू से लथपथ हो
रही थी। चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए वोह! जो मेरा रखवाला था,
स्वयं ही मुझे ज़ख़्मी और आहत छोड़कर आराम की नींद सो रहा था।
आराम! इस शब्द से अब मेरा
संबंध सदा के लिए टूट चुका था। रामखिलावन यादव के परिवार ने एक
दरिद्र परिवार की पुत्री को अपने घर की बहु बनाया था। बहु के
लिए आवश्यक था कि वह घर में ग़रीब बैल की तरह जुटी रहती। ग़रीब
पिता के घर भी गरीब थी, और अमीर ससुराल में भी गरीब। नौकरों के
घर में होते हुए भी ऐसा क्यों होता था कि मैं स्वयं अपने आपको
उन्हीं नौकरों में से एक पाती थी। मैं क्यों अपने आपको उस घर
का सदस्य नहीं बना पा रही थी। कुछ यों सा भी तो लगने लगा था
जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से भटककर इस ग्रह में पहुँच गई हूँ।
इस भटकाव का खामियाजा भुगत रही थी।
भटकाव! मेरे पति के जीवन में
ऐसा भटकाव क्यों था? इस सवाल का जवाब ढूँढ पाना आसान काम नहीं
था। मैं रूप सुन्दरी चाहे ना रही होऊँ, परन्तु मुझे एक बार
देखकर लड़के दोबारा मुड़कर अवश्य देखते थे। बहुत से लड़के
मुझसे दोस्ती करने को उत्सुक रहते थे। वो सब केवल उम्र का
तकाज़ा था या मैं उन्हें सचमुच अच्छी लगती थी। दर्पण तो आज भी
मेरे रूप की गवाही देने से नहीं चूकता। फिर मेरे पति को मुझमें
क्या कमी दिखाई देती थी? क्यों वह मुझे छोड़कर किसी भी
ऐरी-गैरी के पीछ भागता रहता था। सास को भी इसमें कोई बुराई
नहीं दिखाई देती थी। उसे लगता था कि उसका लाडला है ही इतना
सुन्दर कि उसे देखकर किसी भी लड़की का उस पर मर मिटना
स्वाभाविक ही है।
स्वाभाविक तो था मेरा उस घर
से ऊब जाना। माता-पिता से निराशा, ससुराल से निराशा, पति से
निराशा। इतनी सारी निराशा के बावजूद मैं ज़िंदा थी। सोती थी,
जागती थी, मुसकुरा भी लेती थी, रोती थी। रोती तो थी ही रोने के
अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी। और अब तो रोने के साथ सुबह की
उल्टियाँ भी शामिल हो गई थीं।
घर की हर चीज़ उलटी थी। उसके साथ उल्टियाँ तो होनी ही थीं। मैं
माँ बनने वाली थी। माँ! माँ तो मेरी भी बहुत अच्छी है। पर मुझे
अपनी माँ जैसी माँ नहीं बनना था। ढेर से बच्चे पैदा करो और
जीवन भर उनकी परवरिश में खटते रहो। कैसा जीवन है यह? कभी सोचा
करती थी, बस! मुझे एक ही बच्चा चाहिए। बेटा हो या बेटी? इसके
बारे में कभी सोचा ही नहीं था। भला मैं अपने बच्चे के लिंग के
बारे में क्यों सोचती? क्यों चिंता करती? जिनको करनी है, करें।
चिंता करने वालों की कमी थी क्या? भला मेरे सोचने या ना सोचने
से क्या फ़र्क पड़ने वाला था। बाकी सभी को चिंता खाए जा रही थी
कि बेटा होगा या बेटी। लड़का होगा तो क्या नाम रखेंगे। उसके
ननिहाल से क्या आएगा। कैसा समारोह मनाया जाएगा। ढोल-ताशों का
प्रबंध कैसा रहेगा। मुहल्ले भर में मिठाइयाँ बँटेंगी। जाने
क्या-क्या किया जाएगा।
कुछ नहीं हुआ। कुछ नहीं करना
पड़ा। सब उल्टा-पुल्टा हो गया। घर में लक्ष्मी ने अवतार लिया
था। लक्ष्मी के पुजारी, यादव परिवार वाले लक्ष्मी के आगमन पर
भौचक रह गए थे। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था, कि यह सब कैसे हो
गया। मेरी सास के आँसू वर्षा ऋतु के बरसाती नालों को मात देने
में व्यस्त थे। मेरा अपना पति तो पुत्री-जन्म के दो दिन बाद घर
लौटा। उसे रेज़गारी कभी पसंद नहीं आती थी। बड़े-बड़े नोटों से
ही उसे लगाव रहता था। लक्ष्मी जी की चिल्लर भला उसे कहाँ भाने
वाली थी। ससुर जी की तो नाक ही कट कई थी।
अब मेरी सहनशक्ति भी जवाब
देने लगी थी। किसी हत्यारे को भी संभवतः ऐसा दंड कभी ना दिया
गया होगा जो दंड मुझे नीलिमा को इस संसार में लाने के जुर्म
में दिया जा रहा था। शरीर की नस-नस में ज़हर भरा जा रहा था।
''हरामज़ादी! लौंडी पैदा करके बहुत तीर मारी हो का? का समझती
हो अपने आप को! हमरा सामने मुँह चलाती है! ससुरी के सभेई दाँत
तोडे डाले हैं ना! तभे ही मारी बात समझेगी - पतुरिया!''
इतनी बेइज्ज़ती! ऐसा निरादर! सांस लेने के लिए भी मार खानी
पड़ेगी? समय आ गया था निर्णय लेने का। परन्तु मैं कौन होती थी
निर्णय लेने वाली। मैं तो यादव खानदान की मात्र बहू थी। निर्णय
लेना मेरे अधिकार क्षेत्र के बाहर की चीज़ थी। निर्णायकों ने
निर्णय ले ही लिया था। मैं।। मैं अब रामखिलावन यादव के परिवार
के लिए आवश्यक वस्तु नहीं रह गई थी। कह दिया गया, बहुत आसानी
से कह दिया गया, ''इस परिवार को तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं। अपनी
मनहूस सूरत और उससे भी अधिक मनहूस बेटी को उठाओ और यहाँ से दफ़ा
हो जाओ।''
दफ़ा तो हो जाती। पर जाती कहाँ? माता-पिता तो सुनते ही बेहोश हो
जाते। बसा बसाया घर त्यागकर उनकी बेटी वापस आ गई। भाई और बहनों
की भी हमदर्दी तो थी परन्तु सभी की मजबूरियाँ थीं। भाई की
धर्मपत्नी थी तो बहनें किसी ना किसी की धर्म-पत्नियाँ थीं। हम
लोग कितने धार्मिक हो जाते हैं। धर्म के रिश्ते, खून के
रिश्तों के मुकाबले कहीं अधिक वज़नदार हो जाते हैं। |