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जैसे उन्माद का एक दौरा ही पड़ गया था गुरमीत पर। इराक द्वारा कुवैत पर कब्ज़ा जैसे गुरमीत के जीवन की सबसे सुखद घटना बन गई थी। कहीं उसके दु:खी और अशांत मन को लगने लगा था जैसे उसने स्वयं ही कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया हो। वह कमरे से बाहर आया। बत्ती जलाई और सहन में पड़े दो-तीन खाली डिब्बों को ठोकरें मारने लगा। 'यह साला अमीर गया, यह गया क्राउन प्रिंस स्साला कहता था - सोने की चादर की कार बनवाऊँगा। भाग गया उल्लू का पट्ठा। सब स्साले भाग लिए, ओये दारजी खुशियाँ मनाओ ओये, आज तो जी भर के शराब पियो। ओये ओन्हां दी तां माँ मर गई ओए, लै गया सौरयाँ नू, करती सालयाँ दी ढिबरी टाइट!'

हँसी का जो बाँध उसने अपनी आँसओं के सामने खड़ा किया था उसमें दरारें उभरने लगीं और थोड़ी ही देर में वह बाँध पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गया, गुरमीत जितनी ज़ोर से हँसा था उतने ही ज़ोर से रोने लगा।

दारजी ने बेटे को सँभाला। माँ तो एक साल पहले ही पुत्तर को छोड़कर स्वर्गों में ठिकाना कर चुकी थी। गुरमीत अभी भी उन्माद में बड़बड़ाए जा रहा था, 'हुण नहीं छोड़ेगा जी, हुण कुछ नहीं बचेगा। सारे दा सारा गल्फ़ तबाह हो जाएगा। दारजी हुण ओथे कुछ नहीं बचना जे।'

दारजी को तो यह समझ नहीं आ रहा था कि वे दु:खी हों या प्रसन्न! एक ओर तो उनका पुत्र रो रहा था और दूसरी ओर प्रसन्नता इस बात की कि बेटा दो साल के बाद बोला तो! दो वर्ष से चुप्पी का एक ऐसा आवरण गुरमीत के चेहरे पर चढ़ा हुआ था कि उसके नीचे का दर्द किसी को दिखाई ही नहीं दे पाता था। गुरमात कुछ बोले, तभी तो दर्द दिखाई दे।

दर्द भी तो उसने स्वयं ही मोल लिया था। अच्छा ख़ासा घर था, खेती-बाड़ी थी, यह सब छोड़कर गया ही क्यों वह? अधिक पाने की चाह में जो कुछ था वह भी लुट गया। मनुष्य संतुष्ट क्यों नहीं रह पाता? क्यों अधिक से अधिक पा लेना चाहता है!

गुरमीत के भी कई मित्र विदेश हो आए थे। हर एक के पास विदेश की अलग-अलग रसीली कहानियाँ थी। वहाँ की कारों की दास्तां, डिपार्टमेंट स्टोर, सोने की दुकानें, न जाने क्या-क्या, सब के सब गुरमीत को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। नहीं तो गुरमीत को क्या कमी थी। कुछ अर्सा पहले ही उसने कुलवंत कौर से विवाह किया था। खेतों की मुंडेरों पर पला प्यार विवाह के बंधन में बँध गया था और फिर गर्भवती पत्नी और सभी परिवारजनों को छोड़कर गुरमीत कुवैत चला गया।

उसे तो केवल तरसेमलाल को दिखाना था कि वह भी विदेश जाने की कुव्वत रखता है। तरसेमलाल तो केवल आठवीं पास है, फिर भी देखो कैसे दुबई में नौकरी का जुगाड़ बना लिया और आज उसका घर देशी-विदेशी चीज़ों से भरा हुआ है। कौन कहेगा कि तरसेमलाल का पिता मूंगफली और गजक बेचकर गुज़ारा करता था। फिर गुरमीत के यहाँ तो वैसे ही खुशहाली है और वह तो ग्यारहवीं पास भी है! ट्रैक्टर चलाता हुआ क्या बांका जवान लगता था।

बस कर लिया निर्णय - मैं भी विदेश जाऊँगा। दारजी या बड़े भाई के समझाने का कोई असर नहीं। बस एक ही जी । हठीला तो बचपन से ही था। पहुँच गया एक ट्रैवल एजेंट के पास। ट्रैवल एजेंट भी तो सपनों के सौदागर होते हैं। विदेश के ऐसे रंगीन सपने बेचते हैं कि सपने ख़रीदने के लिए इंसान घर-बार भी बेचने को तैयार हो जाए। इन्हीं सपनों ने गुरमीत के दिल में भी विदेश जाने की इच्छा को दीवानेपन की हद तक भर दी थी।

गाँव में गुरमीत का घर हमारे घर से कोई अधिक दूर नहीं है। अब तो उसे एक गाँव कहना भी ठीक नहीं होगा। अनाज की बड़ी-सी मंडी है और एक छोटे से शहर की लगभग सभी सुविधाएँ वहाँ मौजूद हैं। हम दोनों के पिता अच्छे मित्र हैं। मेरे पिताजी की एक डिस्पेंसरी है वहाँ। अच्छी खासी प्रेक्टिस है। गुरमीत के पिता सरदार वरयाम सिंह का नाम बड़े किसानों में लिया जाता है।

गुरमीत जब कुवैत गया था तो पहले मेरे ही पास बंबई आया था, "वीर जी, कमाल है! इतना बड़ा जहाज़ और कहते हैं एयर बस! ओए भला ऐ क्या बात होई जी? भाई जहाज़ जहाज़ है और बस बस! हमें वेवकूफ़ क्यों बनाते हैं, भराजी, मेरे तो पेट में खलबली मची रही जब तक जहाज़ बंबई में आकर उतर नहीं गया। पर वीरजी पिंड वाले (गाँव वाले) आपकी भी बहुत तरीफ़ें करते हैं जी। हर आदमी इको ही गल (बात) करता है कि डॉक्टर जेतली दा पुत्तर बिल्कुल नहीं बदलया। देखो हवाई जहाज़ चलाता है पर अकड़ बिल्कुल नहीं।"

गुरमीत धारा प्रवाह बोले जा रहा था। मेरी पत्नी तो शहर की है - ख़ास बंबई शहर की। मैं कभी गुरमीत की ओर देखता और फिर अपराधी नज़रों से पत्नी की ओर भी देख लेता। परंतु पत्नी भी गुरमीत की बातों में आनंद ले रही थी। गुरमीत की निश्चल बातें उसे अच्छी लग रही थीं।

मैं स्वयं ही गुरमीत को कुवैत छोड़ने गया था। एअरलाईन की नौकरी के कुछ तो लाभ भी होते हैं ना।
वहाँ अपने दोस्त दिनेश बतरा से मिलवा भी आया। दिनेश तो लगभग दस वर्षों से कुवैत में चार्टड आकाउंटेंट है। गाँव के गुरमीत को परदेस में भी एक जानकार तो मिल ही गया था। गुरमीत ने अपने सरल स्वभाव और व्यवहार से शीघ्र ही अपने आपको वहाँ सुव्यवस्थित भी कर लिया था। उसे रहने के लिए हिल्टन होटल के पीछे ही एक जगह मिल गई थी। उसने स्वयं ही यह स्थान पसंद किया था। कुछ गाँव के घरों जैसा घर था। आँगन के मुख्य द्वार से घर तक पहुँचने तक ही तीन मिनट तो चलना ही पड़ता था। चारों ओर ऊँची दीवार और बीच मध्य में उसका तीन कमरे का वातानुकूलित घर! जी जान से मेहनत कर रहा था गुरमीत और वहाँ जगरांव में कुलवंत ने एक फूल-सी बेटी को जन्म दिया।

लाख चाहने पर भी गुरमीत अपनी पुत्री के जन्म पर जगरांव नहीं जा पाया। विदेश में छुट्टी अपनी मर्ज़ी से तो मिलती नहीं है। इस बीच मैं भी गाँव हो आया था। कुलवंत और गुड्डी को देख आया था अब मैं ही तो एक सूत्र था - गुरमीत और उसके परिवार के बीच।
मेरा एक चक्कर कुवैत का फिर लगा। अब गुरमीत में कई बदलाव आ चुके थे। अपनी कार में मुझे लेने आया और दोपहर का खाना सीज़र्स रेस्टॉरेंट में खिलाने ले गया। उसके भीतर का बालक अभी भी ज़िंदा था, 'भराजी, इस परदेस में तो घर से कोई चिट्ठी आ जाए उसी का तो एक सहारा होता है। यह अजब देश है जी जहाँ डाकिया ही नहीं होता। बस पोस्ट बॉक्स से आपे ही चिट्ठियाँ निकाल लाओ।' गुरमीत की आँखों में एक दर्द की टीस-सी उभरी। कुलवंत की याद और बिन-देखी गुड्डी की प्यारी-सी शक्ल ज़हन में उभरी। 'आपने तो गुड्डी को देखा है ना जी? किस पर गई है? फ़ोटो से तो कुछ पता ही नहीं चलता।'
मुझे लगा जैसे गुरमीत मेरी आँखों में कुलवंत और गुड्डी की छवि देखने की चेष्टा कर रहा है।
'भराजी, मैं दिनेश जी को कम ही मिलता हूँ। बहुत पढ़े-लिखे लोग हैं, कई बार तो अपने पर ही शर्म आ जाती है। उनकी मम्मी तो बहुत ही बढ़िया औरत हैं जी। खाना खिलाए बिना आने ही नहीं देती और भाभी जी ने तो कुवैत में तहलका मचा दिया जी। कितना चंगा गातीं हैं जी। 'कुवैत टाइम्स' और 'अरब टाइम्स' दोनों में उनकी फ़ोटो छपी थी जी।'
मैं बेसाख्ता उस इंसान को देखे जा रहा था। कितना सरल, कितना प्यारा।

मेरा जब भी कुवैत जाना होता, गुरमीत के पास हर बार कोई-न-कोई नयी कहानी, नया किस्सा रहता - मुझे सुनाने के लिए। उनमें से आधी से अधिक घटनाओं में तो केवल उसके अंदर का बच्चा ही बोलता रहता था। विदेशी चमकीली वस्तुओं के प्रति एक बालक का आकर्षण स्वाभाविक ही था।

किंतु एक दिन बहुत उदास बैठा था, 'भराजी, यहाँ की पुलिस तो बहुत ही ख़राब है। इक तां निरी अनपढ़ पुलिस है जी। अंग्रेज़ी का तो इक अक्षर भी नहीं बोलणा आंदा जी। स़ो जी पकड़ लिया एक दिन हमारे एक मलयाली भाई को ओजी वोही नायर को जी। पहले चौक पर उसकी वैन की तलाशी ली जी और 'ठुल्ला' (पुलिसवाला) अपनी ही बंदूक उसकी वैन में भूल गया। और जी अगले चौराहे पर दूसरे ठुल्ले चेकिंग कर रहे थे। बस जी वैन में बंदूक मिली। क़र दी अगले की पिटाई। वोह बिचारा दुबला-पतला घास-फूस खाणेवाला आदमी जी, शरीर में कोई ज़्यादा दम भी नहीं - फंस गया इन डंगरो के बीच जी। थाणे ले गए जी। बहुत मारा जी। वो अपणी अरबी में पूछे जा रहे थे और यह अपणा बंदा अंग्रेज़ी और मलयाली में रोए जा रहा था। रब ने बचा लिता जी ओस बंदे नूं। पता लग गया जी कि बंदूक उनके अपने ठुल्ले की है जी। पर अपणा बंदां तां अधमोया कर ता न जी। ऐथे अरबी बोली तां, भराजी, ज़रूर आणी चाही दी।'

विदेश में अकेले पड़ जाने का ख़ौफ गुरमीत की आँखों में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। सात समुद्र पार करके विदेश जाने वाली ललक थी गुरमीत में। पर एक ही समुद्र के उस पार पहुँच कर उसका दिल दहल गया था। फिर कुछ ऐसा भी हुआ कि कुछ महीनों के लिए कंप्यूटर ने कुवैत और मेरे नाम के बीच भी एक समुद्र भर दिया। और मेरा नाम कुवैत की फ्लाइटों पर दिखाई नहीं दिया। इस बीच पत्रों से ही सूचना मिली कि गुरमीत गाँव का चक्कर लगा आया है और कुलवंत और गुड्डी भी कुवैत पहुँच गए हैं।

कुलवंत और गुरमीत, साथ ही कुछ महीनों की गुड्डी- एक प्यारा-सा परिवार। मैं भी यह सोच कर प्रसन्न था कि चलो दोनों का अकेलापन समाप्त हुआ। आख़िर कुलवंत भी तो इतने परिवारजनों के बीच अकेली ही थी। गुरमीत के बिना उसे किसी और से कितना सरोकार होगा। और अब वही गुरमीत उसके पास था, उसके पास-उसका अपना गुरमीत। अब कोई गोरी मेम उसके गुरमीत को उड़ा कर नहीं ले जाएगी। अरब की हूरें भी तो जादू जानती हैं - बेचारी कुलवंत!

दिनेश का फ़ोन कुवैत से आया तो मैं उस समय जापान गया हुआ था। यह नौकरी भी तो एक जगह टिक कर नहीं बैठने देती ना। दुनिया भर के शहरों का चक्कर काटता फिरता हूँ। घर में टिक कर रह पाना तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि जैसा लगता है।

दिनेश ने कोई विशेष संदेश भी नहीं छोड़ा था। बात भी तो हमेशा संयत ढंग से ही करता है। समय ने उसे संपूर्ण रूप से परिपक्व बना दिया है। उसकी आवाज़ तो सदा ही सपाट-सी लगती है, किसी भी उत्तेजना या भावुकता से रहित। पत्नी ने उसे बता दिया था कि मैं जापान से कब लौटूँगा। और उसने भी बस इतना भर ही कहा कि 'मैं फिर फ़ोन कर लूँगा।'

'इकबाल भाई ने ईद पर सिवइयाँ भिजवाईं थीं। नाराज़ हो रहे थे। कह रहे थे कि इतना बड़ा मोटर ट्रेनिंग स्कूल चला रहे हैं और हमारी भाभी हैं कि अभी तक गाड़ी भी नहीं चला पाती हैं। आपको काफ़ी डांट रहे थे कि बीवी को घर में कैद करके रखा हुआ है।' पत्नी ने सूचना दी।

इकबाल भाई को ईद-मुबारक कहने के लिए टेलीफ़ोन किया और चाय की चुस्की भरने लगा।
दिनेश का फ़ोन फिर आया। वही संयत आवाज़, 'सुरेन तुम कल ही कुवैत आ जाओ। बहुत ज़रूरी काम है। मैं एयरपोर्ट पर तुम्हारे लिए वीज़ा लेकर आ जाऊँगा। कम से कम एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर आ जाओ। काम बहुत ज़रूरी है। गुरमीत को तुम्हारी सख़्त ज़रूरत है।'

मैं हलो-हलो कहता रहा। पर दिनेश को तो बस सूचना देनी थी और यह काम वह पहले ही कर चुका था।
पत्नी की नाराज़गी के बावजूद मैं कुवैत की ओर चल दिया। ना जाने क्या अनबूझ-सा रिश्ता बन गया था मेरे और गुरमीत के बीच।

घर से निकलने की सोच ही रहा था कि बाहर फ़ायर इंजन के चिंघाड़ने की आवाज़ आई। पता नहीं कहाँ आग लगी थी। टैक्सी में बैठा तो पास से सर्र करती हुए एँबुलैंस निकली। रास्ते में अंधेरी के श्मशान घाट के सामने से टैक्सी गुज़री तो शरीर में झुरझुरी-सी उभरी।
कुवैत पहुँचकर दिनेश मुझे सीधा अपने घर ही ले गया। गुरमीत वहीं पर था। चुप! एकदम चुप! उस हर समय चहकने वाले गुरमीत के स्थान पर जैसे किसी ने उसकी पत्थर की मूरत बनवा कर रखी दी हो। मुझे देखकर भी उस पर कोई विशेष प्रतिक्रया नहीं हुई। उसकी आँखों में कोई पहचान या ख़ुशी नहीं उभरी। उस ज़िंदादिल गुरमीत को एक ज़िंदा लाश बना देने के लिए किसे कसूरवार ठहराया जाए - नियति को या...। और मैं कुछ भी नहीं सोच पा रहा था, केवल गुरमीत की एक ही बात, हथौड़े की तरह, बार-बार मेरे दिमाग में बजे जा रही थी, 'भराजी, यहाँ की पुलिस बड़ी ख़राब होती है जी।'

अगले ही दिन मैं और दिनेश गुरमीत को साथ लिए एक बार फिर उस रास्ते पर चल दिए जहाँ सब कुछ घटा था। गुरमीत की आँखों में फैले आतंक, ख़ालीपन और सूनापन मुझे उस दिन की तमाम घटना सुनाते दिख रहे थे। कुलवंत माँ बनने वाली थी। बेटी के बाद बेटा होने की दोनों को प्रबल आकांक्षा थी। कुलवंत पूरे दिनों से थी। उसने गुरमीत को कहा भी, 'सुणो जी, आज कम ते ना जाओ। लगदा है आज हस्पताल जाणा पयेगा।'
'ओ भागवाने डरने की क्या गल है? ये फोन रख्या है न, बस कर देणा। मैं गोली वांग भजया आऊँ। डरीदा नहीं होंदा। कल तों तां ईद दियाँ छुटि्टया नें।'
हुआ वही जिसका कुलवंत को डर था। प्रसव वेदना शुरू हो गई। थोड़ी देर तक तो वह सहती रही। फिर जब नहीं सहा गया तो उसने गुरमीत को फ़ोन किया। गुरमीत भी काफ़ी उत्तेजित था। प्रसन्नता और चिंता की मिश्रित भावनाएँ लिए वह अपनी कार की ओर भागा। गुड्डी के जन्म के समय तो वह कुलवंत से बहुत दूर था किंतु इस बार वह कुलवंत के साथ होगा, उसे स्वयं सहारा देगा। साथी ने बधाई भी दी, 'गुरमीत सिंह अब तो ईद पर बेटा होने वाला है। बहुत किस्मत वाला होगा।'

आँखों में कुलवंत, गुड्डी और होने वाले पुत्र की तस्वीरें लिए गुरमीत ने अपनी कार स्टार्ट की। घर पहुँचने की जल्दी में गुरमीत ने एक्सीलेटर पर अपने पैर का दबाव बढ़ा दिया। अभी वह 'सी-फेस' पर पहुँचा ही था कि पुलिस का सायरन सुनाई दिया। किंतु वह तो अपनी ही धुन में गाड़ी चलाए जा रहा था। कुवैत टॉवर के पास पहुँचते-पहुँचते पुलिस की गाड़ी ने उसे रुकने का इशारा किया। गुरमीत घबरा गया। न जाने क्या अपराध हुआ है उससे। ठुल्ला अरबी भाषा में चिल्लाए जा रहा था और 'स्पीडो मीटर' की ओर इशारा किए जा रहा था। काफ़ी कठिनाई से गुरमीत को समझ आया कि उसे तेज़ गाड़ी चलाने के जुर्म में पकड़ा जा रहा है। उसने अपने सारे कागज़ पुलिस के हवाले कर दिए। एकाएक विचार कौंधा कि कुलवंत की क्या हालत होगी। अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में अरबी के शब्द मिलाकर वह पुलिस वालों को यह समझाने लगा कि उसकी पत्नी की 'डिलीवरी' होने वाली है और बच्चा किसी भी क्षण पैदा हो सकता है। किंतु उसकी बात न तो कोई सुन रहा था और ना ही किसी को समझ आ रही थी।

गुरमीत को ले जाकर कोतवाली में बंद कर दिया गया। वह गिड़गिड़ाया, उसने मिन्नतें की, वास्ते दिए। उसने हर एक पुलिस वाले से बात करने की चेष्टा की कि शायद किसी को उसकी बात समझ में आ जाए और उस पर दया करके उसे छोड़ दे।
हम तीनों दिनेश की कार में सवार कुवैत टॉवर तक पहुँच गए और गुरमीत की आँखों का दर्द जैसे कई गुणा बढ़ गया था। कुछ न कर पाने का अहसास उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।
गुरमीत को जेल में डालकर इंस्पेक्टर तो ईद की छुटि्टयाँ मनाने चला गया। और गुरमीत चार दिन तक उस जेल की दीवारों से सिर टकराता रहा, चिल्लाता रहा, अपनी कुलवंत को याद करता रहा।

फिर ख़याल आया, कुलवंत के पास दिनेश जी का घर का फ़ोन नंबर तो हैं। शायद भाभी जी को फ़ोन कर लिया हो। शायद जब वह जेल से बाहर निकले तो कुलवंत और बेटा दोनों हस्पताल में सुरक्षित हों। कुलवंत बेचारी गुरमीत की प्रतीक्षा करते-करते दर्द से निढाल होने लगी थी। गाँव की लड़की परदेस में अकेली। हिम्मत करके दिनेश बतरा के घर फ़ोन किया। पर वहाँ कोई फ़ोन ही नहीं उठा रहा था। जब दर्द असह्य हो गया तो सलवार उतार कर ज़मीन पर चटाई बिछा कर लेट गई। फिर विचार आया कि अगर बच्चा ज़मीन पर गिर गया तो वापस जाकर पलंग पर लेट गई। सोचा मोमजामा बिछा लूँ। ग़ुड्डी के जन्म के समय तो उसे कुछ सोचना ही नहीं पड़ा था। सब कुछ माँ के घर ही हुआ था। दर्द था कि बढ़ता ही जा रहा था। डेढ़ साल की गुड्डी माँ की हालत देखकर रोने लगी थी। पर माँ की कराहटें उसके बाल सुलभ मन को पीड़ित किए जा रही थीं।

कुलवंत दर्द से चीखे जा रही थी। गुरमीत को भी याद किए जा रही थी और अपनी माँ को भी। जब तक ईद का चांद पैदा हुआ कुलवंत बेहोश हो चुकी थी। उसे पता ही नहीं चला कि उसका बेटा हुआ या बेटी। बच्चा रोया या नहीं?
गुड्डी भी रोये जा रही थी। उसकी माँ का शरीर खून से लथपथ था और उसके साथ बँधा हुआ था एक छोटा-सा नन्हा मुन्ना। मुन्ना तो रोए जा रहा था। वह भी तो रक्त में सना पड़ा था। गुड्डी ने उसे हाथ लगाया तो उसे अपने हाथ में चिपचिपाहट महसूसू हुई। अब वह पूर्ण रूप से घबरा गई। अपने नन्हें-नन्हें कदमों के सहारे दरवाज़े की ओर भागी। किंतु दरवाज़े की चिटकनी तो उस नन्हीं सी गुड़िया की पहुँच से काफ़ी ऊपर थी। काफ़ी देर तक दरवाज़ा पीटती रही। मगर कोई सुन पाता तभी तो खोलता।

अब न तो माँ की कराहटें सुनाई दे रहीं थीं और ना ही मुन्ने का रोना। पूरे घर में एक भयानक-सा सन्नाटा छाया हुआ था। रोते-रोते ही गुड्डी की भूख तेज़ होने लगी। वह बेचारी फ्रिज खोलने की कोशिश करने लगी। किंतु फ्रिज था कि खुल ही नहीं रहा था। गुरमीत के सामने जेल में खाना पड़ा था। वह बेसुध कभी उस खाने की ओर देखता तो कभी दीवारों की ओर शून्य में ताकने लगता। और उधर गुड्डी पूरे घर में कुछ-न-कुछ खाने को खोज रही थी। आख़िर थक कर चूर हो गई और रोते-रोते सो गई।

गुरमीत हवालदार के पैर छूकर गिड़गिड़ा रहा था, एक टेलीफ़ोन करने की अनुमति माँग रहा था। पर 'वहाँ की पुलिस वाले तो बहुत ख़राब होते हैं ना जी।' सोते-सोते गुड्डी के पेट में मरोड़ ज़रूर उठा होगा। जाकर माँ को जगाने की कोशिश करने लगी। पर कुलवंत तो गहरी नींद में सो चुकी थी। गुड्डी के लिए एक बार फिर खाना ढूँढ़ने और रोने का काम शुरू।

चौथे दिन गुरमीत की रिहाई हुई। वह सीधा घर पहुँचा। चाबी से बाहर से ही दरवाज़ा खोला और अंदर घुसते ही उसे नाक पर हाथ रखना पड़ा। सामने कुलवंत और बच्चे की नंगी लाशे पड़ी थीं। गुड्डी को खोजा। वह फ्रिज के पास ही पड़ी थी।
'हरामज़ादों!' वह दहाड़ा, 'मैं तुम्हें ज़िंदा नहीं छोडूँगा। एक-एक को मार डालूँगा स़बको चुन-चुनकर मार डालूँगा।' वह चिल्लाए जा रहा था। कुलवंत, गुड्डी और मुन्ने की लाशों पर काफ़ी देर तक रोता रहा। थोड़ा सँभला और दिनेश बतरा को फ़ोन किया।

दिनेश अपने चिरपरिचित अंदाज़ में गुरमीत को हौसला दिलाता रहा।
'दिनेश जी मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा जी। पर जाने से पहले सबका काम तमाम कर दूँगा जी। किसी हरामज़ादे को नहीं छोडूँगा।' रह-रहकर गुरमीत के भीतर का हिंसक पशु जाग उठता। दिनेश ने उसे बड़ी कठिनाई से संभाला। और अब हम दोनों उसे समझा रहे थे।

अपनी गृहस्थी खुद अपने हाथों से जलाकर गुरमीत वापस आ गया था, दारजी के पास। पर सब कुछ सह जाने और कुछ न कर पाने की अपनी असमर्थता के कारण गुरमीत भीतर ही भीतर घुटता रहा - एक भयानक चुप्पी ओढ़े हुए।
और यह चुप्पी आज ही टूटी थी जब वह हर्षोल्लास से चिल्ला उठा था- 'कर दी सालों की ढिबरी टाइट!'

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२४ अक्तूबर २००

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