''उन्होंने मेरी उम्मीद की किश्ती को तैरने से
पहले ही डुबा दिया। कहती हैं, देख भई गुडडी, तेरे बच्चे अलग तरह से पले हैं। उनको
हम अपने पास नहीं रख सकते। अपनी मरती हुई बेटी का झूठा दिल रखने को भी उन्होंने यह
नहीं कहा कि मेरी मौत के बाद मेरे बच्चों को सँभाल लेंगी।''
''हम कितने किस्मत वाले हैं सुरभि, कि हमारे रिश्तेदार हमसे झूठ नहीं बोलते।''
पर सुरभि की बीमारी भी तो झूठ नहीं. . .उससे अधिक कठोर सत्य तो दूसरा कोई हो ही
नहीं सकता। डॉ. कुरकुरे ने तो घोषणा कर ही दी थी।'' मि. नरेन, मेरा ख़याल है आप
टाटा हस्पताल जाकर मौरफ़ीन ले आएँ। युअर वाईफ़ नीडज दैट!''
''डाक्टर साहिब इसका क्या मतलब है? कितने दिन की मोहलत देते हैं आप?''
''बस एक महीना भर समझ लीजिए, आप।''
नरेन ने अचानक अपनी सैकंड-हैंड मारुति के ब्रेक
पूरे ज़ोर से दबा दिए थे। अगर पीछे आने वाला रिक्शा चालक चौकन्ना न होता तो
दुर्घटना घट ही जाती। ''सॉरी डॉक्टर!'' नरेन का बदन काँप रहा था।
''आई कैन अंडरस्टैंड, रिलेक्स!''
कैसा आराम! सुरभि के शरीर की सारी हड्डियों को कर्क रोग खोखला कर गया था। सरू के
बूटे की तरह लंबी सुरभि अब अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो सकती थी। नरेन सुरभि की
आँखों में मौत का लंबा साया हर रोज़ देखा करता था। उसकी आँखें आज भी इसी प्रतीक्षा
में हैं कि शायद उसकी माँ उसके अंतिम क्षणों में किसी भी तरह उसके पास आ जाए। इंसान
की हर इच्छा कहाँ पूरी हो सकती है। सुरभि की आत्मा को कहीं भटकना ना पड़े, अपनी माँ
को खोजती ना रहे।
नरेन में भी वह अपने पिता को खोजा करती है। नरेन
की बहुत-सी आदतें सुरभि के पिता से मिलती-जुलती हैं। नरेन का विनोदी स्वभाव,
गुस्सा, प्यार, तुनकमिजाज़ी, मिठाई का शौक, बच्चों की पढाई में रुचि, और सबसे अधिक
ज़िंदादिली. . .यह सब उसे अपने पिता की याद दिला जाते हैं। अब ना जाने कौन-सी बातें
नरेन के दिमाग़ की डायरी में सुरभि की यादें ताज़ा करती रहेंगी।
''सरू, तुम डायरी भी लिखती हो?''
''नहीं, बस यों ही।''
''अरे! मुझे तो इतने वर्षों में पता ही नहीं चला।''
''तुम्हें अपनी कविताएँ और कहानियाँ लिखने से फुरसत ही कहाँ मिलती है, जो तुम किसी
दूसरे की लिखी चीज़ें पढ़ो।''
''मेरा लेखन तो बस एक मृग-मरीचिका ही है, सुरभी। मेरी कामना जितनी अधिक प्रबल होती
है कि मेरा लेखन प्रकाशित हो, छपाई मुझसे उतनी ही दूर होती चली जाती है। यह बात
मुझे अंदर ही अंदर आहत करती रहती है, सर्पदंश से अधिक विषदायक है यह सच्चाई कि मेरा
लेखन छपने के लायक नहीं है।''
''ऐसा क्यों सोचते हो जी? और फिर छपास की भूख भी कोई भूख हुई, नहीं मुझे देखिए, जब
हायर सेकंडरी में थी, तब से लिख रही हूँ। कम से कम तीन किताबों के लायक कहानियाँ तो
लिख ही चुकी हूँ। आप को आज तक पता भी चला? मेरे मन में छपने की भूख है ही नहीं। बस
लिखती हूँ, आत्मसंतोष मिल जाता है। कहानी फ़ाइल में रख देती हूँ। मैं तो उन्हें
दोबारा साफ़ सुथरा करके लिखने की भी नहीं सोचती। यदि किसी काम से मन को सुकून मिल
जाए, तो इससे बडी उपलब्धि क्या होगी?''
''मैं तुम्हारी तरह महान नहीं हूँ, सुरभि। मैं देखता हूँ, इतनी ख़राब-ख़राब कविताएँ
अख़बारों में, पत्रिकाओं में छप जाती हैं। फिर मेरी ही रचनाओं की ऐसी परिणति
क्यों।''
महान सुरभि की परिणति भी कितनी दर्दनाक है! उसे
भूख लगी है। कुछ भी खा नहीं पा रही, उल्टी हो जाती है। अरुण दूध की बोतल ले आया है,
बच्चों को दूध पिलाने वाली बोतल, उसमें थोड़ा दूध डालकर पिलाने की कोशिश में है
नरेन। अपराधबोध का प्रेत फिर से तंग करने लगा है। इस दूध पीती बच्ची के बारे में
उसने ऐसा सोचा ही कैसे?
अरुण को कितना स्नेह देती है सुरभि। ''इस महानगर में आपके बाद यदि मुझे किसी पर
विश्वास है तो अरुण पर! वैसे आपको अरुण से कुछ सीखना चाहिए। दुनियादारी के मामले
में अरुण जितना सफ़ल हो पाना कठिन ही है।''
अरुण भी रोज़ हस्पताल आता है। दो रातें तो हस्पताल में सोया। नरेन को आराम देना भी
तो आवश्यक है। मन ही मन द्वंद्व जारी है, नरेन सोच रहा है, अरुण को बता देने से
क्या अपराधबोध कम हो जाएगा?
सुरभि बच्चों को मिलना चाहती है। अंतरा की दसवीं
की परीक्षा चल रही है। अपूर्व तो छोटा है - अभी पाँचवीं में ही है। सुरभि की बेचैन
निगाहें दीवार पर जैसे कुछ ढूँढ़ रही हैं। नरेन के माथे पर पसीना छलकने लगा है।
कहीं सुरभि के जाने से पहले उसका ही दम ना निकल जाए। नर्स को बुलाता है नरेन, सुरभि
का दर्द बढ़ता जा रहा है। नरेन का प्रेत और बड़ा होता जा रहा है। अरुण को फ़ोन करना
है। बच्चों को हस्पताल ले आए। माँ से मिल लेंगे। अरुण के स्वर में झल्लाहट है,
''भाभी को अकेला क्यों छोडा? जल्दी वापस उनके पास जा, सारी उमर साहित्यिक गोष्ठियों
के चक्कर में रहा और भाभी को कभी वक्त नहीं दिया और अब उनके आखरी वक्त में भी उनके
पास नहीं बैठ रहा।''
''तुम्हारे पास घर के लिए बिल्कुल भी वक्त नहीं है। कैसा है यह इंसान! मर जाऊँगी ना
तब ढूँढ़ते फिरना। हाथ मलते रह जाओगे'' रोने लगती है। हिचकियाँ बँध जाती हैं।
''मेरे पास बैठा करो ना, तुम्हारे बिना बिस्तर काटने को दौड़ा है। मर जाऊँगी तो कर
लेना साहित्य की सेवा।''
पहली बार सुरभि ने नरेन को तुम कहकर पुकारा था। वह तो आप और जी के बिना बात ही नहीं
करती थी। टेमोक्सीफ़िन और जाने क्या-क्या दवाइयाँ खा रही है। रेडियेशन, कीमोथिरेपी,
मौत का डर। नरेन को पकडक़र अपने पास बिठाए रखना चाहती है सुरभि। प्यार की पराकाष्ठा
है सुरभि। नरेन समझ नहीं पाता, सुरभि बनकर सोच नहीं पाता। आसान काम है क्या. .
.सुरभि बनकर सोचना आसान काम है क्या!
इतना लेखन करके एक रचना भी ना छपवाना, क्या आसान काम है? ऐसे मुश्किल काम सुरभि ही
कर समती है। सुरभि अच्छी पत्नी भी है, अच्छी माँ भी है, अच्छी मित्र भी है, अच्छी
लेखक भी है।
हाँ नरेन उसकी सारी फ़ाइलें चुपके से पढ़ गया था,
उसे बिना बताए। कई रचनाएँ पढ़कर उसकी आँखों में भी आँसू आ गए थे। इतना दर्द, कहाँ
से कोई इतना दर्द ला सकता है अपने लेखन में। और ऐसा लेखन छपवाना नहीं चाहती, पागल
है. . .पागल ही तो है, वरना नरेन जैसे साधारण इंसान से विवाह क्यों करती। उसकी
बेहूदगियाँ बरदाश्त करते सुरभि को वर्षों बीत गए हैं।
डॉ दलजीत सिंह तो सदा नरेन को ही दोषी ठहराते हैं। साफ़-साफ़ अपनी कडवाहट नरेन पर
उँड़ेल देते हैं। सुरभि को रिसर्च करवा रहे थे, गाइड़ थे उसके। सुरभि को अपने कालेज
में लेक्चररशिप भी दे रहे थे। पर अंतरा बस अढ़ाई वर्ष की थी उस समय। नरेन की सास या
सुरभि की सास दोनों में से कोई भी अंतरा की देखभाल को तैयार नहीं हुआ। नरेन और
सुरभि दोनों ही अंतरा को 'क्रेश में रखने को राजी नहीं थे। अंततः सुरभि नौकरी नहीं
कर पाई। डॉ दलजीत सिंह के अनुसार यही एक घटना सुरभि के कैंसर का कारण भी बनी। वह तो
नरेन को सुरभि का कातिल कहने में भी नहीं चूकते।
अंतरा और अपूर्व को लेकर अरुण आ गया है। डबडबाई आँखें सफ़र की तैयारी बच्चों को
प्यार। अंतरा का रोना. . .अपूर्व चुप, माँ को देखता जा रहा है। नरेन, सुरभि, रक्त
की बोतल, ऑक्सीजन का सिलंडर, नकाब. . .कहीं सब सुरभि के आभूषण लग रहे, सुरभि इस समय
भी कितनी सुंदर लग रही है। कीमोथिरेपी, टेमोक्सीफ़िन, सब फ़ेल। आँखें माँ को ढूँढ़
रही हैं, भाई की प्रतीक्षा में हैं।
''मेरी एक बात मानोगे?''
''तुम्हारी बात कब नहीं मानता!''
''मेरे मरने के बाद दूसरी शादी मत करना। मेरे बच्चों का जीवन नरक बन जाएगा। तुम
मजबूर हो जाओगे, दूसरी माँ बस दूसरी हो जाती है. . .माँ नहीं रह पाती।''
''कल तो तुम कह रही थीं कि तुम्हारे मरने के बाद दूसरी शादी ज़रूर कर लूँ, ताकि
तुम्हारा महत्व जान सकूँ।''
''यही तो मेरी समस्या है, जीवन में पहली बार किसी मुद्दे पर एक राय नहीं हो पा
रही।''
''तुम ठीक हो जाओगी। तुम्हें कुछ नहीं होगा। तुम फिर पहले की तरह चलने लगोगी।''
चलना तो दूर, अब तो बैठ भी नहीं पाती, बिस्तर. . .बिस्तर. . .बस बिस्तर। पिछले दो
वर्ष से बाहर की दुनिया से अब उसका संपर्क बस टेलिविजन और टेलीफ़ोन के माध्यम से है।
''तुम सारा-सारा दिन फ़ोन से ही चिपके रहते हो। कभी हमें भी वक्त दिया करो।''
''. . .''
''चुप रहने से काम नहीं चलेगा, कभी सोचा है इन बच्चों को भी तुम्हारा वक्त चाहिए।
मैं कितनी अकेली हो जाती हूँ, मेरे साथ करने के लिए तुम्हारे पास कोई बात नहीं,
बाहर वालों के साथ घंटों बतिया सकते हो।''
अंतरा की परीक्षा है। उसे जल्दी घर लौटना है। अरुण बच्चों को छोड़कर फिर वापस आने को
कह रहा है। तीनों के वापस जाते ही कमरे में सुरभि और नरेन अकेले रह जाएँगे। नरेन के
अपराधबोध का प्रेत फिर सक्रिय हो आएगा। नरेन बेचैन, सुरभि की आँखें बंद हैं, शायद
सो रही हैं। अगर सुरभि को कुछ हो गया तो यह प्रेत उसे कभी नहीं छोड़ेगा। उसे जकड़े
रहेगा।
प्रेत का अस्तित्व नरेन को बेचैन किए जा रहा है।
उसे इस अपराध के लिए सुरभि से माफ़ी माँगनी ही है। उसे सुरभि को विश्वास दिलाना होगा
कि ऐसा कुत्सित विचार उसके मन में फिर कभी नहीं आएगा। ''मुझे माफ़ कर दो सुरभि मैं
सोच रहा था तुम मर जाओगी तो तुम्हारी सारी कहानियाँ और कविताएँ अपने नाम से
छपवाऊँगा। मुझे माफ़ कर दो।''
सुरभि का सिर लुढक़कर स्थिर हो गया है। अब उसे रक्त या ऑक्सीजन की कोई आवश्यकता नहीं
थी।
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