''मैंने कहा ना, मुझसे झूठ नहीं बोला जाता।''
सुरभि की खिलखिलाहट भरी हँसी पूरी फ़िजाँ में फैल गई थी।
सुरभि ने आँखें खोलीं। नरेन को अभी भी पहचान पा रही थी। उसे पेशाब करने की ज़रूरत
महसूस हुई थी। अपराधबोध से ग्रस्त नरेन ने जल्दी से कमोड लगाया, पेशाब करवाया और
रूई से सफ़ाई कर दी।
सुरभि की बीमार आँखों में से आँसू की एक बूँद निकली और उसके तकिये में समा गई। वैसे
तो उसके शरीर में कैंसर ने पाँच साल पहले ही जडें जमा ली थीं, पर पिछले दो वर्ष ने
उसका संबंध बिस्तर से और भी प्रगाढ क़र दिया था। करवट बदलते हुए भी हड्डियों के
भुरभुराकर टूटने का डर रहता था। सीधे लेटे रहने से पीठ में वैसे भी दर्द होता रहता
था। बोन मैटास्टेसिस! सुनने में कितना रोमैंटिक-सा नाम लगता है. . .कितनी भयानक
बीमारी!
''तुम्हें माँ ने बुलाया है।''
''तुम तो कह रही थीं कि ममी हस्पताल में हैं।''
''हाँ, पेट में बहुत बड़ा टयूमर हो गया था। काफ़ी बड़ा आपरेशन हुआ है। मैंने एक दिन
हस्पताल में ही तुम्हारे बारे में बात कर दी। पहले तो बहुत नाराज़ हुईं, फिर बोलीं
कि उसे ले आना, मैं भी देखूँ कि वो चीज़ क्या है, जो मेरी बेटी को इतना पसंद आ गया
है।''
''एक बात तो है सुरभि, अगर माँ जी ने मुझे पसंद कर लिया, तो तुम्हें छोले-भटूरे
खाने से मुक्ति मिल जाएगी।''
''भला, वोह कैसे?''
''लल्लू लाल! फ़िर तो उन्हें बता सकोगी कि टिफ़िन में एक्स्ट्रा खाना किसके लिए ले
जाना है।'' हँसी के साथ सुरभि के सुंदर दाँतों की कतार जैसे किसी टूथपेस्ट का
विज्ञापन लगने लगती थी।
इतनी लंबी बीमारी भी सुरभि के दाँतों को बीमार
नहीं कर पाई। अभी दो महीने पहले तक तो सुरभि घर में बैठकर फ़ोन पर बात भी कर लेती
थी। फ़ोन पर उसकी आवाज़ सुनकर कोई मानने को तैयार ही नहीं होता था, कि सुरभि सचमुच
बीमार है। पिछले तीन सप्ताह से तो बस. . .हस्पताल का बिस्तर, रक्त की बोतल और
ऑक्सीजन का सिलंडर!
''बेटा जी, काम कहाँ करते हो?''
''बस जी, यह जो पंखा ऊपर चल रहा है ना, उसी कंपनी में सेल्ज़ आफ़ीसर हूँ।''
''तनख्वाह कितनी मिल जाती होगी?''
''साढे आठ सौ रुपये। माँ जी ऊपर की कोई आमदनी नहीं है। हाथ में बस आठ सौ पचास रुपये
ही आते हैं। वैसे सरू का कहना है कि इतने पैसों में घर चला लेगी।''
माँ जी के माथे पर बल दिखाई दिए, ''सिगरेट, शराब की कोई आदत है क्या?''
''माँ जी, आज तक तो दोनों चीज़ें नहीं पीं, भविष्य की तो रामजी ही जानें।''
''सुरभि बता रही थी कि माँ-बाप के अकेले बेटे हो!''
''जी हाँ, एक बहन है, बड़ी। शादी हो चुकी है उनकी। दो बेटे भी हैं।''
माँ जी के चेहरे से नरेन कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि वह साक्षात्कार में सफल रहा
या उसे रिजेक्ट कर दिया गया। पर कुछ दिनों बाद सुरभि के टिफ़िन में उसका खाना भी आने
लगा था।
सुरभि ने फुसफुसाहट भरी आवाज़ में कुछ कहा। नरेन
का अपराधबोध और गहरा हो गया। जिस गले से दाग़ और ग़ालिब की ग़ज़लें माधुर्य पाती
थीं, उसी गले से आज फुसफुसाहट भी मुश्किल से निकल पा रही थी। फ़िल्मी गीतों को लेकर
भी नरेन और सुरभि में नोकझोंक चलती रहती थी। नरेन की पसंदीदा जोडी थी शैलेंद्र और
शंकर जयकिशन जबकि सुरभि को शकील की शायरी अच्छी लगती थी, ''शृंगार रस का उपयोग जिस
तरह शकील करते हैं, किसी और फ़िल्मी शायर के बस की बात नहीं उस पर नौशाद का संगीत
मेड फ़ॉर ईच अदर जोडी।''
''जयपुर भी कोई हनीमून पर जाने की जगह है?''
''वहाँ से माऊंट आबू भी तो जाएँगे।''
''पर जयपुर क्यों?''
''सरू, ना जाने क्यों, आमेर के किले में जाकर ऐसा लगता है, जैसे मैं वहाँ पहले भी आ
चुका हूँ, तुम भी मेरे साथ वहाँ चलकर वह किला देखना। लोग तो इंग्लैंड और अमरीका से
आते हैं वह महल देखने।''
''उनका हनीमून नहीं होता। हनीमून के लिए तो हर कोई हिल स्टेशन पर ही जाता है।''
''तो पहले माऊंट आबू चले चलते हैं। वापसी में जयपुर चले जाएँगे।''
''नहीं, पहले जयपुर ही चलेंगे।''
नरेन की हर बात रख लेती है सुरभि। कभी भी ऐसा नहीं
हुआ कि सुरभि ने अपनी कोई बात नरेन पर लादी हो। जयपुर में ही एक ब्रिटिश जोड़ा भी
अपने हनीमून पर आया हुआ था। उसी होटल में ठहरा था जहाँ नरेन और सुरभि रुके थे।
देखते ही अंग्रेज़ युवती के मुँह से निकला था, ''मेड फ़ॉर ईच अदर कपल!''
नर्स आई है। साँवले रंग की, मध्यम काठी, नीली पोशाक। आमतौर पर नर्सें सफ़ेद पोशाक
पहनती हैं। संभवतः हस्पताल वाले सफ़ेद रंग को शोक का प्रतीक मानते हैं। या फिर कोई
और भी कारण हो सकता है। पर इस हस्पताल में नर्सें नीले रंग के कपड़े पहनती हैं।
नरेन उसे देखे जा रहा था. . .उसका मन हुआ कि आगे बढ़कर नर्स के होठों पर एक चुंबन
अंकित कर दे। दूसरा कुत्सित विचार. . .अभी तो पहले विचार के अपराधबोध से ही बाहर
नहीं निकल पाया था। आज उसका मन बेलगाम क्यों हुए जा रहा है।
नरेन के विचारों से अनभिज्ञ, नर्स ने सुरभि की
नब्ज़ देखी, फ़ाइल में लिखा। खून का टपकना चेक किया। सुरभि की आँख खुली। ''हैलो, कैसा
है अबी? रात को नींद ठीक से आया?'' सुरभि के बीमार चेहरे पर भी मुस्कान की एक लकीर
दिखाई दी। उसकी आँखें कह रही थीं अब तो बस अंतिम निद्रा की प्रतीक्षा है, सुरभि को
ऑक्सीजन और खून की बोतल ने अहसास करवा दिया था कि मामला चला-चली का ही है, कल रात
ही नरेन के कानों में फुसफुसाई थी, ''कार के ट्रांस्फर पेपरों पर मेरे साईन करवा
लो।'' घर की चीज़ों का हमेशा से ही बहुत ख़याल रखती है।
''यह दराज क्यों खुला छोड दिया। अलमारी भी हमेशा खुली छोड देते हो। कभी भी अपनी रखी
हुई चीज़ें तुम्हें बिना ढूँढ़ मचाए मिलती हैं! मैं नहीं रहूँगी ना तब मेरी याद
आएगी तुम्हें। बैठक में यह शोपीस सजाने का क्या मतलब है!''
सुरभि को घर एकदम तरतीब से सजा हुआ अच्छा लगता है।
बहुत बार नरेन को कह चुकी है कि फ़िजूल के रद्दी कागज़ों को फैंक बाहर करे। पर नरेन
के लिए ज़िंदगी को सिलसिलेवार तरतीब से सजाना संभव ही नहीं है। उसे तो यह भी समझ
नहीं आता कि उसका कौन-सा कागज़ रद्दी है और कौन-सा काम का। वैसे पत्रिकाओं के
संपादकों की राय में तो नरेन का सारा लेखन ही रद्दी है. . .इसीलिए तो उसकी सभी
रचनाएँ या तो लौट आती हैं या फिर रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं। कितने वर्षों से
लिख रहा है नरेन। कहीं किसी भी पत्रिका में एक भी तो रचना नहीं छपी। यह अलग बात है
कि वह अपने आप को कवि भी समझता है और कहानीकार भी।
''ज़रा थोड़ी देर के वास्ते बाहर जाने का। हम पेशेंट को सपंज देइंगा।'' नर्स की
आवाज़ नरेन को चौंका गई। सुरभि को उठकर बाथरूम में गए तो एक महीने से ऊपर हो चुका
है। सपंज से ही काम चल रहा है। सुरभि को डेटॉल की महक अच्छी नहीं लगती, नर्स को यह
मालूम है। सपंज के लिए पानी में यूडेकोलोन डाल रही है। सुरभि नरेन को कुछ कहना
चाहती है। नरेन अपना कान सुरभि के होठों के पास ले जाता है। चुंबन का हल्का-सा स्वर
उसके कानों में पहुँच जाता है। सुरभि की आँखें फिर गीली हैं, नरेन का अपराधबोध और
गहरा गया है।
''मेरी छाती तो कटवा आए, मुझे प्यार कर पाओगे अब?'' पाँच वर्ष पहले भी सुरभि अपने
कैंसर और कटे हुए स्तन को लेकर इतनी बेबाकी से बात कर लेती थी।'' नरेन ने उसे कई
बार समझाने की कोशिश भी की कि उसका काम एक छाती से भी चल जाएगा। उसे लगता था शायद
सुरभि से अधिक वह अपने आप को समझा रहा है। कई बार सोचा कि सुरभि की बीमारी पर एक
कहानी ही लिख डाले, समझ नहीं पाया शुरू कहाँ से करे। अपने लेखन को लेकर तो उसे कई
बातें समझ नहीं आती थीं। उसकी कोई भी रचना छप क्यों नहीं पाती यह सवाल हमेशा उसके
सामने मुँह बाए खड़ा रहता है।
समझ तो यह भी नहीं पाता था कि सुरभि के अंतिम समय में वह अकेला ही उसके पास क्यों
बैठा है। सुरभि का तो व्यक्तित्व इतना आकर्षक है कि हस्पताल में उसे देखने के लिए
मित्रों का तांता लगा रहता है। पर मित्र तो हमेशा बाहर वाले ही कहलाते हैं ना! फिर
अंदर वाले, सुरभि के माता-पिता, भाई, बहनें, ससुरालवाले सब कहाँ हैं?
''मैंने अपनी माँ से बात की थी।''
''इसमें कौन-सा बड़ा तीर मार लिया आपने। हर बेटी अपनी माँ से बात करती है।''
''मेरी बात को यों मज़ाक में ना उड़ाओ। वैसे तो मुझे अपनी माँ से यही उम्मीद होनी
चाहिए थी। फ़िर भी इतना कोरापन! वह ऐसा कह देंगी इसकी भी आशा नहीं थी।'' सुरभि की
आँखें बात करते-करते गीली हो गई थीं।
''ऐ. . .! ऐसी भी क्या बात हो गई जो हमारी सरू को इस कदर गीला कर गई?''
''मैंने पूछा था कि पता नहीं मैं कितने दिन और ज़िंदा रहूँगी। मेरे मरने के बाद
मेरे बड़े भैया अगर मेरे बच्चों को रख लें। मैंने तो यह भी कहा था कि तुम सारा
खर्चा दोगे, पर. . .''
''क्यों, क्या-क्या कहा उन्होंने?''
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