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                     वे इंतज़ार 
                    करने लगती है मेरी ओर से कुछ कहे जाने का। मुझे एक और सवाल सूझ 
                    जाता है जो कि मुझे काफी सही ही लगता है पूछना, ''क्या 
                    हिन्दुस्तानी मित्र है आपके?''''वही हिन्दुस्तान में ढेर लोगों को जानते थे, वही सब यहाँ आते 
                    रहते हैं, कोई नए मित्र तो यहाँ आकर नहीं बनाए, पर हमारे कुछेक 
                    दोस्तों के बच्चे यहीं कालेजों में पढ़ते हैं, इसी से वे 
                    आते-जाते रहते हैं।''
 ''तब तो ख़ासे अमीर लोग होंगे, यहाँ आना जाना..."
 ''बिल्कुल, स्टिकिंग रिच, पर हिन्दुस्तानियों की एक बात समझ 
                    नहीं आती, इतना पैसा होते हुए भी अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए 
                    आर्थिक सहायता माँगते रहते हैं, मेरी अपनी ही सहेली हैं बम्बई 
                    से लिखती है कि कालेज से पैसा दिलवा दो, लड़के की फीस के पैसे 
                    नहीं है पर लड़का यों बड़ा ब्राईट है, दाखिला भी मिला है उसे 
                    यहाँ, मुझे तो शर्म आती है सच में, मैं जानती हूँ कि करोड़ों 
                    से खेलने वाले ये लोग हैं, अपने कपड़ों और घड़ियों पर लाखो 
                    उड़ेल देंगे पर बच्चे की फीस के लिए भीख!''
 ''पर यहाँ फीसें भी तो इतनी ज़्यादा है औ़र हिन्दुस्तानी रुपए 
                    डालर के तौल में इतने कम..."
 ''सो तो मैं जानती हूँ, पर करोड़ों से खेलने वाले..."
 ''कुछ भी हो इन देशों के सामने तो हम गरीब ही है।''
 यों मेरी अपनी बिटिया ने यहाँ पढ़ने के लिए कोई आर्थिक सहायता 
                    नहीं ली थी फिर भी मुझे यह पैरवी करनी ही सही लगी।
 ''जानती हूँ 
                    मैं, पश्चिमी देशों पर भी यह अपराध बोझ है कि तीसरी दुनिया के 
                    बूते पर ही वे अमीर भी हुए है इसलिए उनकी मदद करना इन देशों का 
                    नैतिक दायित्व है, लेकिन कब तक भरते रहेंगे ये हर्जाना! और कब 
                    तक हम इनके आगे हाथ पसारे बैठे रहेंगे। मुझे तो 
                    हिन्दुस्तानियों के रवैये से बहुत शर्म आती है, आखिर यहाँ भी 
                    तो पैसा कोई आसमान से तो गिरता नहीं... सबकी मेहनत से ही होता 
                    है, यहाँ तो अनलिखा कानून है कि जिन छात्रों को आर्थिक सहायता 
                    दी जाती है नौकरी लगने के बाद वे अपने कालेज की आर्थिक सहायता 
                    करते हैं, आज हमारे कालेज को जो सबसे बड़ी ग्रांट मिल रही है 
                    वो यहीं के एक पुराने छात्र की कंपनी से हैं, हिंन्दुस्तानी 
                    छात्र तो इस तरह की कोई ज़िम्मेदारी नहीं समझते सिर्फ़ लेना ही 
                    जानते हैं।'' बात सही होते 
                    हुए भी मुझे उनकी इस बात से बड़ी तकलीफ़ हो रही थी, शायद मैं 
                    विदेश में बैठी किसी हिन्दुस्तानी के मुँह से हिन्दुस्तानियों 
                    की बुराई सुनने की आदी नहीं थीं, हिन्दुस्तानियों से मिलकर 
                    ज़्यादातर घर की खट्टी-मीठी यादों को ही दुहराया जाता या फिर 
                    राजनीति की बात छिड़ जाती। पर इस तरह के औपचारिक माहौल में 
                    हिन्दुस्तानी होने मात्र से आ जाने वाली अनौपचारिकता बड़ी 
                    अस्वाभाविक-सी लग रही थी और मुझे अपने आप में अजीब तरह का 
                    नैतिक बोझ महसूस होने लगा। ख़ास तौर से इसलिए भी मैं कुछ अटपटा 
                    महसूस करने लगी क्योंकि उनकी बातों में कुछ वैसी ही गंध थी 
                    जैसी कि ऊँचे तबके के अमरीकियों की बातों में होती हैं क़ुछ 
                    पेट्रनाइज करने की, कुछ यह मान कर चलने की कि अगर मैं सफल हो 
                    सका हूँ तो दूसरे क्यों नहीं हो सकते और अगर नहीं होते तो 
                    उन्हीं में कमी हैं और इसलिए वही इसका फल भी भोगे! जबकि मेरी 
                    अपनी परवरिश चाहे भरे-पूरे घर में हुई थी फिर भी समानता और 
                    समाजवाद के हक में बोलना मैंने अपने कालेज के माहौल से जज़्ब 
                    किया हुआ था। ''अब आप ही 
                    बताइए कि ऐशियाई देशों को सहायता देकर अगर अमीर बन जाने के बाद 
                    भी ये लोग अपने कालेजों की सहायता न करे तो फिर इन कालेजों के 
                    आर्थिक स्त्रोत तो एकदम सूख जाएँगे और अगर एशियाइयों को ही मदद 
                    मिलती रही और बदले में उन्होंने कुछ भी दिया नहीं तो कालेज बंद 
                    होने की नौबत आ जाएगी। आजकल कालेज - यूनिवर्सीटियों में जो 
                    इतना आर्थिक संकट आ पड़ा है उसकी एक वजह तो यही है कि लोगों 
                    में वैसी देने की प्रवृत्ति नहीं रही, और लेने वालों की गिनती 
                    में इज़ाफा होता जा रहा है।'' मुझे समझ 
                    नहीं आ रहा था कि मुझे यह सब क्यों सुनाया जा रहा है। कौनसी 
                    भड़ास है जिन्हें मुझ पर उगला जा रहा है। अमरीका की पैरवी करके 
                    या हिन्दुस्तानियों की बुराई करके यह मुझसे क्या पाने की 
                    अपेक्षा कर रही हैं, सिर्फ़ हमदर्दी या एक सक्रिय अभियान! या 
                    कुछ और परेशान कर रहा है इन्हें! मेरी सहज बुद्धि चुपके से 
                    बोली, ''हीनता ग्रंथि।'' पर किसी ने ज़ोर देकर थप्पड़ जमाया 
                    उसे..." ऐसे भी कहीं बिना पड़ताल किए फैसले दिए जाते हैं, यह 
                    सब सरलतावादी दृष्टिकोण हैं, नहीं चलेगा।'' यों भी फ्रायड की 
                    भाषा अब फैशनेबल नहीं रही...ज़रूरत से ज़्यादा घिसायी-पिटायी 
                    जा चुकी हैं। मैंने धीरे 
                    से पूछा, ''आपके ख़याल से हिन्दुस्तानी यहाँ के वैभव को पराया 
                    या लूट का धन मान उसका भोग करते या उसे उजाड़ते हैं, अपनों 
                    जैसा नहीं समझते?''मेरा सवाल कुछ ज़्यादा तीखा रहा होगा, वे अचकचायी।
 ''परायी 
                    संपत्ति जैसा बर्ताव तो ज़रूर करते हैं, तभी लूट-मारकर, चाहे 
                    वाजिब ढंग से ही, अपना घर भरने की, अपने साथ हिन्दुस्तान भरसक 
                    ले जाने की कमोबेश प्रवृत्ति सभी में होती है पर जहाँ तक अपना 
                    समझने का सवाल है..." वे कुछ पल 
                    सोचने की मुद्रा में रही। दायाँ हाथ कुछ उपर को उठा फिर गोदी 
                    में वापस आ गिरा। वे जैसे शब्द ढूँढ़ती रही, "अपना बनाना या 
                    अपना हो पाना, शायद वह सब मुमकिन ही नहीं..."मैं हैरान-सी उन्हें देखती रही।
 ''चाहे जो भी हो जाए, अपने तो वे हो ही नहीं सकते।''
 ''ऐसा क्यों कह रहीं है आप?''
 ''अब मुझी को देख लीजिए, बीस सालों से ब्याही हूँ निक से, अभी 
                    भी किसी नए आदमी से मिलती हूँ तो पहला सवाल यही पूछता है, 
                    ''किस देश से हैं आप?'' एक बात कहूँ आपसे, मैं सोचती थी कि 
                    यहीं की हूँ और दरअसल यही की होकर रहना चाहती हूँ, लेकिन एक 
                    विदेशी बनकर ही अमरीकी बन कर नहीं।''
 ''ऐसा क्यों?''
 ''सीधी सी बात है, आप के अमरीकी बनना चाहने से क्या होता है! 
                    असल बात तो तब है कि ये लोग आपको अमरीकी माने! ये लोग तो आपके 
                    रंग और शक्लसूरत को देख कर पूछेंगे ही कि कहाँ से हैं आप? उनके 
                    लिए यह सवाल बड़ा सहज है लेकिन सवाल उठते ही आप दूसरे की 
                    कैटगरी में आ जाती है, यहाँ की नहीं रहती।''
 मैं घूरे जा 
                    रही थी उन्हें! यह बीस साल की पत्नी कह रही हैं! वह पत्नी जो 
                    कि उन्हीं की भाषा बोलती है, उन्ही के लिए लड़ती है, उन्हीं की 
                    पैरवी करती है, उन्हीं के सिद्धान्त बघारती है, फिर भी उनके 
                    समाज का हिस्सा नहीं! बहुत अजीब-सा 
                    लगा। एक पत्नी एक तरह से पुरुष के जीवन में सबकुछ होती है। अगर 
                    पुरुष की जगह समाज में होती है तो पत्नी की जगह अपने आप ही बन 
                    जाती है। फिर निक तो खुद भी भारत का बड़ा हिमायती, बड़े खुले 
                    दिल वाला इन्सान दीखता है, अपने भाषण में भी उसने इसी बात पर 
                    ज़ोर दिया था कि उसके कालेज में ऐशियाई विषयों को पढ़ाने पर 
                    विशेष ध्यान दिया जाएगा, कि वह बहुत ज़रूरी समझता है कि अमरीकी 
                    लोग बाहर की दुनिया को जाने-समझे। ऐसे व्यक्ति की पत्नी होकर 
                    भी यह खुद को बाहर का महसूस करती है। मैंने पूछ ही लिया, 
                    ''लेकिन आपके पति तो..."''नहीं पति की बात नहीं व़े तो यों भी निराले हैं व़ैसा उदार 
                    इन्सान तो मैंने कभी नहीं देखा होगा ल़ेकिन उन्होंने खुद भी तो 
                    अपने समाज की अवहेलना कर ही मुझसे शादी की थी, निक के माँ बाप 
                    ने तो कभी भी इस शादी को अपना आशीर्वाद नहीं दिया, जब समाज की 
                    रजामंदी ही नहीं थीं तो किसी को स्वीकारने को बाध्य भी कैसे 
                    किया जा सकता है, यों वे मिलते हैं, फिर बच्चों से भी बड़ा 
                    प्यार करते हैं..." उनकी आँखें कुछ खोजती हुई बैठक की शीशे की 
                    दीवार के पार से झाकती अजेलिया फूलों की नारंगी झाड़ी पर टिक 
                    गई, ''जानती हैं मुझे कैसा लगता है ख़ासकर जब भी मैं निक के 
                    साथ इन अभिजात अमरीकियों के घर जाती हूँ तो नहीं, कहता कोई कुछ 
                    नहीं पर जैसे उन आँखों में एक भाव रहता है जैसे कि मैं निक की 
                    कोई ग़लती हूँ, ऐसी ग़लती जिसे वे शायद माफ़ कर देंगे, आखिर 
                    पत्नी के चुनाव की गलती तो बहुत लोगों से हो जाती है, पर उस 
                    पत्नी के साथ निभाना उनकी मजबूरी नहीं। वे निक को स्वीकार तो 
                    करते हैं क्योंकि वह उन्हीं के बीच का हैं लेकिन मुझे पता नहीं 
                    कैसे वे महसूस करा ही देते हैं कि मैं उनके बीच की नहीं कि निक 
                    ने अगर गलती की हैं तो या तो उसका सुधार कर ले या फिर खुद ही 
                    भोगे, उनसे तो ऐसी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे मुझे सिर पर 
                    चढाए सिर्फ़ इसलिए कि उनके समाज का एक सदस्य पागलपन कर बैठा 
                    है!''
 चाय का प्याला मुझे थमाते हुए बोली, ''यों निक भी उनके जैसा तो 
                    नहीं, कहीं विद्रोही था, अपने समाज से बड़ा अलग था। तभी तो 
                    मेरे साथ निभी। पर अब कुछ अजीब सा हो रहा है, ऐसा लगता है मानो 
                    वह अब फिर से अपनी पहचानी दुनिया के करीब जाना चाहता है, जबकि 
                    मैं इस के लिए तैयार नहीं हो सकती फिर मेरे तैयार होने की तो 
                    बात ही नहीं, मेरा होना मात्र ही मुझे उस दुनिया से दूर छिटक 
                    देता है, बाकी सब तो बस कहने की बातें हैं..."
 ''निक इस बारे में क्या महसूस करते हैं?''
 ''निक तो डंके की चोट पर सब से मनवाने को तैयार रहते हैं, 
                    विद्रोह तो हमेशा से उनका स्वभाव रहा है पर कहा न, एक पूरे 
                    समाज को बदलना किसी एक के बस की बात नहीं होती फ़िर..."
 वे रुक गई। 
                    मेरी आँखें उन पर जमी रही। शायद हार मान आँखें नीचे झुकाये ही 
                    उन्होंने फिर से कहना शुरू किया, ''शायद मैं खुद अपनी पहचानी 
                    दुनिया के करीब जाना चाहती हूँ, एक अरसा घूमघाम के अब अपने घर 
                    लौट आने का मन होता है।'' मैं दुविधा 
                    में पड़ गई। अभी कुछ देर पहले वे यही की होकर रहने की बात कर 
                    रही थी, अब घर लौटने की। पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वे बोल 
                    उठी, ''पर घर से मेरा मतलब हिन्दुस्तान से नहीं है, शायद वहाँ 
                    भी रहना अब तकलीफदेह ही होगा, घर मेरे लिए एक आरामदेह माहौल का 
                    ही नाम है, जिसे यों कहीं भी खोजा जा सकता है, और कहीं भी 
                    खोया..." और उन्होंने एकदम चुप्पी साध ली मानो इस विषय पर और 
                    बात नहीं करना चाहती हो और अपनी नज़र अजेलिया के नीले झाड़ पर 
                    गाड़ दी। मैं कुछ देर इधर उधर ताकती रही। मैंने चाय की 
                    चुस्की ली तो बड़ी पहचानी-सी खुशबू नथुनों की ओर दौड़ी।'बड़ी बढ़िया चाय है, क्या इलायची डाली है इसमें? खूब महक आ 
                    रही है।''
 ''सच में! पसंद आई आपको! मुझसे तो यहाँ की चाय पी ही नहीं 
                    जाती, जब तक अपने मन का स्वाद न हो चाय का मज़ा भी क्या, मैं 
                    तो अभी भी वही देसी ढंग से चाय बनाती हूँ।''
 मैं सुनहरी 
                    लकीर वाले उस बढ़िया अमरीकी प्याले से कड़क हिन्दुस्तानी चाय 
                    का स्वाद लेते हुए लान में चहकते-महकते अजेलिया फूलों को देख 
                    सोचने लगी कि इनसे पूछूँ कि क्या इन्हें हर कहीं उगाया जा सकता 
                    है! 
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