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अचानक मिले इस प्रस्ताव से यात्रा के दौरान होने वाले खर्चों के बारे में सोचते हुए मुझे कुछ राहत मिली।

मैंने शमशाद को बताया कि अचानक इस तरह का प्रस्ताव मिला है। मित्र को दो महीनों के लिए अपना फ्लैट दे रहा हूँ। ऐसे में टी.वी. और वी.सी.आर. को हटाना उचित नहीं होगा। शमशाद को भी इसमें कुछ अनुचित नहीं लगा। उसने कहा, 'जाने से पहले किसी सेकेण्ड हैण्ड शाप से मुझे एक टी.वी. और वी.सी.पी. खरीद दीजिए... ।'

शहर में सैकड़ों दुकाने हैं जिन पर सेकेण्ड हैण्ड फर्नीचर से लेकर इलेक्ट्रिानिक सामान बिकते हैं। कुछ भी खरीदना मुश्किल नहीं हैं। मैंने हामी भर दी। छुट्टियाँ शुरू होने में अभी चार दिन बाकी थे। हर शाम खरीदारी चल रही थी। एक सामान लेकर लौटने के बाद दूसरा सामान याद आता। इसके लिए यह लिया, उसके लिए वह लिया करते–करते ध्यान आता कि अरे, उसके लिए तो अब तक कुछ नहीं खरीदा। यात्रा से पहले हर बार ऐसा ही होता है। आखिरी पल तक कुछ न कुछ छूटा ही रहता है। भागमभाग वाली स्थिति में समय गुजर रहा था।

यात्रा से ठीक एक दिन पहले शमशाद ने सुबह फोन किया,' मैंने एक टी.वी.देख लिया है, उसे आप भी देख लें तो मैं खरीद लूँ... वी.सी.पी. दो–चार दिन बाद ले लूँगा।'
'ठीक है, मैं कुछ देर में तुम्हारे पास पहुँचता हूँ... बच्चे अभी सोए हैं और पत्नी स्कूल गई है... बच्चे उठ जाएँ तो आता हूँ...'.
'बच्चे क्यों नहीं गए... 'उसने पूछा।
'बच्चों के लिए आज आखिरी दिन है... इस दिन वैसे भी कुछ खास पढ़ाई नहीं होती इसलिए घर में ही हैं... मुझे और पत्नी को कल भी स्कूल जाना होगा तब पासपोर्ट मिलेगा...'

जिस दिन से छुट्टियाँ शुरू होती है उसी दिन स्पॉन्सर पासपोर्ट देता है। इस देश का यही नियम है। मैं और मेरी पत्नी, दोनों एक ही स्कूल में हैं। वह सुबह की पाली में और में अपराह्न। दोपहर की पाली सवा बजे से शुरू होती है।

बच्चों को लगभग नौ बजे जगाने के बाद मैं शमशाद के पास जाने के लिए निकला। शमशाद की लांड्री है। है तो उसके चाचा की, वह उस पर काम करता है। बारी–बारी से चाचा–भतीजा भारत आते – जाते रहते हैं। चाचा की मौजूदगी में टी.वी. और फिल्म देखने पर पाबंदी है अतः जिन दिनों वे भारत में होते हैं, शमशाद एक सेकेण्ड हैण्ड टी.वी.और वी.सी.पी. खरीद लेते हैं और जब चाचा के वापस आने की तारीख का पता चलता है, बेच देते हैं।
चाचा का मानना है कि फिलिम–विलिम देखना सच्चे मुसलमान के लिए तो नाच गाना... कतई अच्छा नहीं है। खैर, शमशाद भी सच्चे मुसलमान हैं, झूठे नहीं। अब उनकी रुचि है तो वे क्या करें। कुछ काम सभी को छिपाकर करने पड़ते हैं। शमशाद भी करते हैं। मेरे घर से लांड्री की दूरी यही कोई आधा किलोमीटर होगी। बस, नाज़दा स्ट्रीट के निशान कार–शो–रूम से ज़ावाज़ात रोड की ओर बढ़ते हुए सिग्नल तक जाना है। धूप तेज थी। जून के महीने की उन्तीस तारीख। गरमी शबाब पर थी। इतनी कम दूरी के लिए टैक्सी भी क्या लेता!
• • • •

'बताओ, कहाँ चलना है...' मैंने माथे पर उभर आए पसीने को पोंछते हुए शमशाद से पूछा।
'यहीं, पॉसपोर्ट रोड़ पर... दो मिनट का रास्ता है...'
शमशाद ने दुकान के मुख्य द्वार पर ताला लगाया और जल्दी से कदम बढ़ाते हुए कहा, 'यह समय कस्टमरों के आने का है... तुरन्त लेकर लौटते हैं... '
सेकेण्ड हैण्ड इलेक्ट्रॉनिक सामान बेचने वाली वह दुकान लांड्री से एक फर्लांग भी दूर नहीं थी मगर वहाँ से टी.वी. खरीदने के बाद टैक्सी लेना मजबूरी थी। हम दोनों ने टी.वी.को उठाया और मुख्य सड़क से फुटपाथ पर उसे रखकर टैक्सी का इंतजार करने लगे। एक टैक्सी पास आकर रुकी। उसकी डिक्की में टी.वी.रखा गया। शमशाद ड्राइवर के साथ और मैं पिछली सीट पर बैठा। टैक्सी को एक यू–टर्न लेकर घूमकर आना था फिर भी वह दूरी तय करने में तीन–चार मिनट से ज्यादा समय नहीं लगना था। लेकिन यही तीन–चार मिनट का समय... ?
टैक्सी में बैठते ही मुझे अपने पैरों से कोई चीज टकराती हुई लगी। देखा तो एक बड़ा पर्स था। लेडिज पर्स। मैंने उसे उठाया और शमशाद को देते हुए कहा, 'यह पर्स यहाँ पड़ा हुआ है। शायद कोई लेडी भूल गई है। ड्राइवर को दे दो... 'पर्स को उठाने और शमशाद को देने में लगभग पाँच–सात सेकेण्ड का वक्त लगा होगा। इससे ज्यादा नहीं। शमशाद ने पर्स मुझसे लेकर ड्राइवर को दे दिया। उसकी लांड्री के सामने टैक्सी रुकी। टी.वी. डिकी से निकालकर हम उस दुकान के अंदर ले गए। मैंने शमशाद से कहा, 'एन्टीना की व्यवस्था कर लो, मैं शाम को आकर इसे टयून कर दूँगा... अब मैं सूक (बाजार) निकलूँगा। कुछ खरीदारी करनी है... '
मैं उसकी लांड्री से बाहर निकलकर मुख्य सड़क पर आ गया। बाज़ार पहुँचकर अपनी बनाई हुई लिस्ट के हिसाब से खरीददारी करते हुए बारह बज गए। फ्लैट पर पहुँचते ही पहला सवाल यही होता है कि किसी का फोन तो नहीं आया। बड़े बेटे ने बताया 'लाँड्री से फोन आया था।'
मैं झल्लाया कि शमशाद को जरा सा भी धैर्य नहीं है। मुझे साढ़े बारह बजे की बस पकड़नी थी
स्कूल के लिए, फिर भी मैंने शमशाद को फोन मिलाया, 'हैलो...' उधर से शमशाद थे, 'भाई सॉब, आफत गले पड़ गई... टी.वी. नहीं बवाल मोल लिया है'
'क्यों परेशान हो, शाम को मैं आऊँगा तो उसे सेट कर दूँगा... '
'नहीं, उसे सेट करने की बात नहीं है... वह पर्स... मुसीबत बन गया है... और, देखिए पुलिस आ गई... 'शमशाद ने फोन काटने से पहले कहा,'पर्स ब्रिटिश लेडी का है....वह कहती है कि उसमें बारह सौ दिरहम और कुछ परसनल फोटोग्राफ्स और ड्राइविंग लाइसेंस था... जो अब इसमें नहीं है... धमकी दे कर गई थी कि पुलिस ले आएगी... और अब आ भी गई... 'शमशाद ने फोन काट दिया। मगर उसकी सूचना ने दिल की धड़कन बढ़ा दी।
मेरे सामने धरती नहीं थी। पाँवों के नीचे धरती नहीं थीं। सर के ऊपर, ऊपरवाले का आसमान नहीं था। मेरी अपनी ईमानदारी मेरे पास नहीं थीं। अचानक इस समाचार से हिल उठा था। मुझे लगा कि बस कुछ ही देर की बात है। पुलिस शमशाद से पूछेगी और उसे मजबूरी में पुलिस को मेरे फ्लैट तक लाना होगा।

पूरे कमरे में पिछले दिनों खरीदे गए सामानों के पैकेट बिखरे पड़े थे। कई दिनों की की गई खरीददारी अस्त–व्यस्त अवस्था में पड़ी थी। प्रायः हर जेब में रुपए थे। तीन–तीन महीने का मेरा और पत्नी का वेतन था। सवाल बारह सौ दिरहम का नहीं था। सवाल यह ाकि बारह सौ दिरहम दे देने के बाद भी क्या मैं लोगों को यह यकीन दिला पाता कि इस मामले में मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। घबराहट में मैं घर के अन्दर खरीदे गए सभी सामानों और सूटकेसों को दूसरी मंजिल में रहने वाले एक मित्र के फ्लैट में रखने के लिए तीन–चार बार पहुँचा। अफरातफरी में मित्र की पत्नी से कुछ कह भी नहीं पा रहा था। बच्चे घबराए जरूर, मगर उन्हें स्थिति की भयावहता का अंदाज नहीं था। जेबों में पड़े रुपए भी बिना गिने मैंने मित्र की पत्नी के हाथ में रखे और फिर अपने फ्लैट में आकर आगे वाली स्थिति पर विचार करने लगा।
मैंने स्कूल फोन किया और प्रधानाचार्य को बताया कि अचानक किस परिस्थिति से दो–चार होना पड़ रहा है। और यह कि मैं कुछ देर से स्कूल पहुँचूँगा, पत्नी से फोन पर कहा कि जरा भी न घबराए। यदि मुझे पुलिस ले जाती है तो भी परेशान होने की बात नहीं हैं। वह बच्चों को लेकर कल की बुक्ड फ्लाइट से भारत जरूर जाए। मैं बाद में आ जाऊँगा। मुझे पुलिस कब तक रखेगी। वह भी उस हाल में जबकि मैंने कोई अपराध नहीं किया है। इस मुल्क में न तो अन्याय है और न ही मुकदमों के फैसले होने में कोई देर लगती है। कहने को तो मैंने यह सब कुछ कहा अवश्य और यह भी दिखाने की कोशिश की कि मैं पूरी तरह सामान्य हूँ। पर, न तो मैं सामान्य था और न पत्नी ही इस समाचार और मेरे आश्वस्त करने के बावजूद संयत रह सकी। वह भी बेहद घबराई हुई लगी। मेरा हाल तो खैर जो था वह मैं ही जान रहा था। वक्त का एक–एक पल एक नई दहशत से मिला रहा था।
कानून सब कुछ सुनेगा मगर पुलिस। पुलिस तो कुछ भी नहीं सुनेगी। उसे तो अपना काम करना होगा और वह अपना काम करेगी। कुछ पलों के लिए लगा कि वह ब्रिटिश औरत और टैक्सी ड्राइवर दोनों ही मिले हुए हैं। रोज ही वह अपना पर्स टैक्सी में जान–बूझकर छोड़ती होगी और फिर दोनों मिलकर किसी सवारी को फँसाते होंगे। पुलिस का डर दिखाकर उससे रकम ऐंठते होंगे वरना इतनी जल्दी उस औरत और ड्राइवर का आपस में मिलना और लांड्री तक आ पहुँचना संभव ही नहीं था।

एक–एक पल मुश्किल से बीत रहा था। मैं बार–बार लांड्री का नम्बर डायल करता मगर उधर से फोन नहीं उठ रहा था। हर बार डायल करने और फोन के न उठने की दशा में बस यही ख्याल उभरता कि पुलिस अब पहुँची कि तब पहुँची, मेन दरवाजे पर। लेकिन जैसे–जैसे देर हो रही थी वैसे–वैसे मन की घबराहट बढ़ती जा रही थी। एक मन हो रहा थ कि लांड्री ही चला चलूँ जो होगा देखा जाएगा। दूसरे पल यह शंका होती कि यदि पुलिस घर पर आ गई और उसने मुझे न पाया तो कहीं बच्चों के साथ ही अपना अंदाज न बरत बैठे। किसी एक बात पर मन स्थिर नहीं हो पा रहा था। जब लगभग डेढ़ घंटे के इंतजार और अपने प्रयत्नों के बावजूद शमशाद से कोई संपर्क नहीं हो पाया तो मैं स्कूल जाने के लिए निकल पड़ा। बच्चों से कहा कि यदि पुलिस आती है तो उसे स्कूल का पता बता दें।
मैं सड़क पर था। बच्चे घर पर और पत्नी स्कूल में। परन्तु घबराहट सबके दिलों में थी। एक आशंका कि जेल जाना होगा। दूसरी संभावना कि सब कुछ ठीक हो जाएगा, मगर समय लगेगा। स्कूल जाने के लिए जो टैक्सी ली उसके ड्राइवर को यह किस्सा बताया तो उसने मुझे एक ऐसा आदमी कहा जो परले दरजे का बेवकूफ हैं। उसके अनुसार क्या जरूरत थी पर्स छूने या उसे ड्राइवर को देने की। यही बात मुझे आगे भी झेलनी पड़ी। स्कूल में दो–सौ शिक्षकों और सत्तर–अस्सी के लगभग अन्य कर्मचारियों के बीच वह घटना मेरे स्कूल फोन करने के बाद जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। जबकि मैंने प्रधानाचार्य और पत्नी को ही फोन से इस घटना की जानकारी दी थी परन्तु मैंने तुमसे कहा, तुमने उनसे कहा, कहते–सुनते हुई दास्तां की तर्ज पर बात पसर चुकी थी। स्कूल पहुँच कर सबसे पहले पत्नी से मिला, 'घबराओ नहीं, कुछ नहीं होगा मुझे...तुम घर पहुँचकर लांड्री से संपर्क करने की कोशिश करो... शमशाद से एक बार बात हो जाए तो कुछ पता चले... यदि पुलिस मुझे ले भी जाती है तो भी तुम कल की फ्लाइट से घर जरूर जाओ... '
'आपको जेल में छोड़कर मैं घर जाऊँ... लोग क्या कहेंगे... 'वह बोल रही थी कि काँप रही थी कुछ कह पाना कठिन था।
'देखो, जो मुसीबत आ गई है... वह तो झेलनी है... इसमें तुम सबका मानसिक रूप से परेशान होना मुझे दुखी करेगा... यदि तुम लोग हिन्दुस्तान चले गए तो कम से कम मुझे यह तसल्ली तो रहेगी कि तुम और बच्चे ठीक–ठाक हो... मैं इस मामले से निपटते ही जो भी फ्लाइट उपलब्ध होगी, उससे आ जाऊँगा...'
'नहीं, मैं बच्चों को लेकर इस हालत में नहीं जाऊँगी... क्या जरूरत थी आपको टैक्सी में पड़ा पर्स छूने की...
''अब तो जो होना था... वह हो गया... मुझे क्या मालूम था कि ऐसी बात हो जाएगी...और मुसीबत गले पड़ेगी...
''आप जान–बूझकर मुसीबत मोल लेते हैं...सभी लोग कह रहे हैं कि पर्स की ओर देखना भी नहीं चाहिए था... और, मगर देख भी लिया तो उसके बारे में कोई बात नहीं करनी थी... न तो ड्राइवर से और न ही शमशाद से... '
'अब मैं क्या जानता था कि ऐसा होगा... मैंने तो अपनी समझ से ठीक किया....' बातें आगे भी होती मगर तभी प्रातः पाली की घंटी बजी।
'तुम घर जाओ... कोई फोन आए तो मुझे तुरन्त सूचित करो... बाकी, यहाँ कुछ हुआ तो उसकी सूचना तुम्हें मिल जाएगी... '

पत्नी इस तरह अलग हुई कि जैसे अब मुलाकात ही नहीं होगी। मैं प्रधानाचार्य के पास पहुँचा। उन्होंने देखते ही कहा, 'अपने स्कूल में एक बच्चा है, उसकी माँ सी.आई.डी. विभाग में हैं, मैंने उससे फोन पर सारी बात बताई है... उसका कहना है कि यदि पुलिस स्कूल में आती है तो उससे पहले उसकी बात कराई जाए... नम्बर नोट करो...'

मैंने फोन नम्बर नोट कर लिया। तसल्ली की एक डोर दिखी तो। पर, तुरन्त ही कई महीने पहले हुई एक घटना याद आ गई। एक अध्यापिका ने किसी को पोस्ट डेटेड चेक दिया था जो बाउंस हो गया। उस मामले में भी पुलिस स्कूल आ गई थी और सबके देखते–देखते उस अध्यापिका को लेकर चली गई। कोई भी कुछ नहीं कर पाया था। तब भी यही प्रधानाचार्य थे।

मैंने सोचा कि जिस बच्चे की माँ सी.आई.डी. विभाग में हैं, वह तब भी तो रही होगी। लेकिन कोई मदद तो नहीं हो सकी थी। सभी अध्यापकों ने अपनी–अपनी इच्छानुसार रकम देकर एक मोटी धनराशि जमा की और पार्टी को पुलिस के सामने सौंपी तब कहीं वह जेल से रिहा हुई थी। हिरासत में रहते वक्त तक कुछ नहीं हो पाया था। स्टाफ–रूम की ओर बढ़ते हुए रास्ते में जो भी मिलता वही अपनी–अपनी राय देने लगता, एक ने कहा, 'पर्स लेकर उतर लेना था... बेकार में उसे ड्राइवर को दिया... '
'क्या कह रहे हो... '
'ठीक कह रहा हूँ... अब कभी ऐसा हो तो उठाओ और उतरो... '
'मैंने तो अच्छा काम किया है... '
'तो उसका फल भुगतने के लिए भी तैयार रहो। आज के जमाने में अच्छाई करने का नशा जिसे होता है,
वह ऐसे ही भुगतता है...'

उसकी बात का बिना कोई उत्तर दिए मैं आगे बढ़ गया। दुनिया है। तरह–तरह के लोग हैं। कुछ न कुछ तो उन्हें कहना ही है। दूसरे की हिम्मत बढ़ाने का चलन अब खत्म हो रहा है।

स्टाफ–रूम में पहुँचते ही सबने घेर लिया। एक बार फिर से पूरी कहानी दुहरानी पड़ी। प्रायः सभी को ऐसा लग रहा था कि जिस महिला का पर्स है वह जान–बूझकर ऐसी हरकत करती होगी। ड्राइवर के साथ मिलकर पैसा कमाने के इस धंधे में उसका भी कमीशन होगा। अव्वल तो वह पर्स में पैसा रखती ही नहीं होगी। और, जब जैसा मुर्गा फँस गया उसे वैसे ही हलाल भी करती होगी। टैक्सी ड्राइवर ने चूँकि लांड्री चलाने वाला समझा इसीलिए केवल बारह सौ दिरहम की रकम का होना बताया। कहीं बड़ी आसामी समझता तो हजारों का चक्कर चलाता। यह सब सुनकर दिमाग और भन्ना गया। जहाँ तक बारह सौ दिरहम की बात थी तो उसे देकर जान छुड़ाने में कोई कठिनाई नहीं थी। दिल को समझा लेता कि इतनी रकम देकर जीवन की व्यावहारिकता का एक पाठ पढ़ा है मगर मैं उसकी शिकायत के अनुसार व्यक्तिगत फोटोग्राफ्स और ड्राइविंग लाइसेंस कहाँ से लौटाता।'

स्टाफ रूम से ही एक बार फिर लांड्री को फोन मिलाया। घंटी बजती रही मगर फोन नहीं उठा। झल्लाहट होने लगी कि आखिर शमशाद गया तो गया कहाँ। घर का नम्बर मिलाकर पत्नी से पूछा 'कोई फोन कहीं से... '
'नहीं, कुछ हुआ... '
'होना क्या है... शमशाद का भी कोई पता नहीं... लांड्री पर दूसरा कोई और है भी नहीं। बिना उसके फोन आए कुछ भी पता नहीं चलेगा कि मामला कहाँ तक पहुँचा है... जैसे ही कोई फोन आए, मुझे तुरंत सूचित करो... '

फोन काट देने के बाद अपने टाइम–टेबल के अनुसार क्लास की ओर बढ़ा। लेकिन ऐसी मानसिकता में कुछ भी पढ़ा पाना संभव नहीं था। आशंकाओं की बदलियाँ कभी भयावह हो उठतीं तो कभी मिट जातीं। मगर उनका बनना बिगड़ना जारी रहा।

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स्कूल की एक दुनिया थी। उस दुनिया में लोग थे। मैं भी उसी दुनिया की इकाई था। उस दुनिया का हर शख्स मुझे हद दर्जे का बेवकूफ समझते हुए कोई न कोई नसीहत दे रहा था। मुझे यह लगने लगा कि इस दुनिया में अच्छे कामों के लिए कोई जगह नहीं है। आदमी ने आदमी को इस तरह धोखा दिया है कि अब कोई किसी जरूरतमंद का भी यकीन नहीं करता। कोई कितनी भी बड़ी मुसीबत में फँस जाए चाहे उसकी जान पर ही क्यों न बन आए। कोई अनजान व्यक्ति अब किसी अनजान की सहायता के लिए आगे नहीं आता।
मुझे एक के बाद एक घटनाएँ याद आतीं। कुछ ही दिन पहले की बात है। एक मित्र के साथ अलेन से लौट रहा था। तेज धूप थी। गर्म हवाएँ सनसना रही थीं। रास्ते में सड़क के किनारे खड़े एक आदमी ने लिफ्ट मांगी। मगर मित्र ने कार नहीं रोकी। मैंने कहा, 'तेज धूप में खड़ा है बिचारा, बिठा लेते... '
मित्र ने इस तरह देखा कि जैसे मैं कुएँ में कूदने की सलाह दे रहा हूँ। उसने कहा, ' बिठा तो लूँ... लेकिन रास्ते में अगर कार चेक हो गई और उसके पास वर्क–परमिट न हुआ तो मैं तो आदमी की स्मगलिंग में अंदर जाऊँगा ही... तुम भी नहीं बचोगे... बिना किसी को जाने उसकी सहायता करना बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना होना है, समझे... '

मैं कुछ नहीं बोला, क्या बोलता। जमाना ही ऐसा आ गया है। यह लगने लगा कि इस दुनिया से नेकी का जमाना लद गया। मगर फिर कुछ ही दिनों पहले हुई एक घटना दिमाग में तैर गई। अपनी रेमंडवेल घड़ी को सर्विस के लिए देकर जब हमदान रोड़ पर टैक्सी में बैठा तो कलाई सूनी होने के खालीपन को बाटने की कोशिश में ड्राइवर से पूछा, 'क्या वक्त हुआ होगा उस्तादजी... ' हालांकि, वक्त मुझे मालूम था। ग्यारह बजे सर्विस सेंटर में घड़ी देकर बाहर निकलने और टैक्सी में बैठने के बीच बमुश्किल चार–पाँच मिनट का समय लगा होगा।
ड्राइवर ने अपनी कलाई पर बँधी घड़ी मेरे सामने कर दी। मैंने समय देख लिया, दो–तीन सेकेण्ड बाद उसने कहा, 'आपने मेरी घड़ी नहीं देखी... '
'समय देख तो लिया... '
' मैं घड़ी की बात कर रहा हूँ... '
'वह भी देख ली... '
' फिर से देखिए... ' उसने फिर कलाई मेरी आँखों के आगे कर दी।
मैंने एक नजर उसकी घड़ी पर डाली। बोला फिर भी कुछ नहीं। मुझे यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी घड़ी दिखाने की कोशिश में क्यों लगा है।
'कुछ कहा नहीं आपने... '
'क्या कहूँ...' फिर लगा कि शायद वह अपनी घड़ी की तारीफ सुनना चाहता हो। मैंने कहा, 'अच्छी है... स्लीक है... ' किसी की भी चीज को खराब कहना या उसमें नुक्स बताना मुझे नहीं रूचता।
'सॉब, गौर से देखिए... जरा गौर से... '
मैंने ध्यान दिया तो पाया कि उसकी घड़ी के डायल पर यू.ए.ई. का राष्ट्रचिन्ह अंकित है,' इसमें तो यहाँ की सरकार का...' मैं बात पूरी करता इससे पहले ही उसने कहा, 'यह घड़ी सरकार ने मुझे ईनाम में दी है... स्पेशल आर्डर देकर यह घड़ी स्विटजरलैंड से मंगवाई गई...'
'किस बात पर ईनाम मिला आपको...'
'मेरी टैक्सी में एक ब्रीफकेस मुझे मिला। किसी सवारी ने भूल से छोड़ दिया था। उसमें डेढ़ लाख दिरहम थे। मैंने वह ब्रीफकेस आसमां थाने में जमा कराया।

पुलिस ने मेरी ईमानदारी से खुश होकर सरकार से सिफारिश की कि ऐसे आदमी को ईनाम दिया जाना चाहिए... '
'आपने सचमुच बहुत ईमानदारी का काम किया। आपको ईनाम तो मिलना ही चाहिए था।'
'लेकिन सॉब, अब वह जमाना नहीं रहा। अब मैं ऐसा कोई काम नहीं करता... '
'एक बार फिर मुझे एक बैग मिला... मैंने पुलिस में जमा कराया... उसे लेने जो आदमी आया वह कहने लगा कि उसके बैग में पाँच हजार दिरहम थे... जलील इन्सान... पुलिस भी मेरी ईमानदारी का सबूत देती रही मगर वह हैवान... खवीस का बच्चा हरदम बोलता रहा कि उसके बैग में रुपए थे... '
'फिर क्या हुआ... '
'केस चला... और मैं अपने पिछले रिकार्ड की वजह से बच गया वरना तो लेने के देने पड़ गए होते...'

इस घटना की याद से मैं सोच रहा था कि एक आदमी को उसकी ईमानदारी पर ईनाम मिलता है। उसको हमेशा के लिए सच्चे इंसान का दर्जा मिलता है और एक मैं हूँ जिसे पुलिस का खौफ खाए हुए हैं। जो अगले किसी भी पल जेल जाने के भय से गुजर रहा है। जिसे अपने जीवन भर के अच्छे किए हुए कामों के मिट जाने की आशंका सता रही है। जिसका पूरा भविष्य प्रश्नांकित हो गया है।
यदि उसे जेल हुई तो हिन्दुस्तान में यह बात पहुँचते देर नहीं लगेगी। सबके पास फोन हैं। और, शुभचिंतक इस समाचार को वैसा ही नहीं पहुँचाएँगे जैसे कि यह घटना हुई है। लोग कहेंगे, 'पर्स चुरा रहे थे... पकड़े गए.... और जेल हुई... 'मैंने किसी और देश के नागरिक को अपने देश की निन्दा अथवा अपने देशवासी की हँसी उड़ाते हुए यहाँ नहीं पाया। यह काम करते हुए केवल भारतीय फूला नहीं समाता। निश्चित रूप से मैं दीन और दुनिया दोनों से जा रहा था।
लांड्री फोन करते–करते उँगलियाँ थक गई थीं। हर बार एक आशा जगती कि अबकी शमशाद से बात हो जाएगी लेकिन हर बार निराशा हाथ लगती। लगभग चार घंटे बेचैनी और घबराहट के आलम में गुजर चुके थे।

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साढ़े चार बजे घर फोन किया, कोई फोन... '
'शमशाद का फोन आया था... बात बहुत बिगड़ चुकी है... आप लांड्री फोन करके उनसे बात कर लीजिए... 'लांड्री पर शमशाद को जैसे मेरे फोन का ही इंतजार था, 'पण्डीजी... मामला बहुत उलझ गया है... '
जब शमशाद बहुत आत्मीय होते तो मुझे पण्डी जी कहते हैं।
'क्या हुआ... तुम चले कहाँ गए थे... '
'कहीं नहीं गया था... आपसे बात करते हुए जब मैंने पुलिस को देखा और फोन कट किया तब तक पुलिस लांड्री में घुस आई... फिर से एक बार मैंने अपनी बात पुलिस के आगे दुहराई कि इस मामले में हम लोग निर्दोष हैं... ड्राइवर कहता है कि उसने सुबह इस औरत को टैक्सी में बिठाया था उसके बाद हम लोग ही दूसरी सवारी थे... ड्राइवर यह भी कह रहा है कि आगे बैठी हुई सवारी ने पर्स पाने के बाद पर्स दिया तो उसके पास इतना समय ही नहीं था कि वह उसे खोलकर पैसे निकाल सके... पैसे और अन्य चीजें निकालने का काम पीछे बैठी हुई सवारी का है अतः उसे पकड़ा जाए... मैं उन्हें आपका पता कैसे दूँ... आपको कल इंडिया जाना है... वह भी... बच्चों समेत... मैंने पुलिस से कहा है कि मैं उस आदमी को करीब से नहीं जानता... वह कस्टमर है.... पुलिस ने मेरा पताका (वर्क–परमिट) अपने कब्जे में कर लिया है... शाम को पाँच बजे फिर बुलाया है... अब आप बताएँ कि हम क्या करें... '
' मैं क्या बताऊँ...बस, घबराओ नहीं... शाम को साढ़े छह पर मैं पहुँचता हूँ... पता बताओ... '
'साबिया पुलिस स्टेशन...' शमशाद ने उधर से कहा।
'लेकिन, तुम्हें यह नहीं लगता कि औरत और ड्राइवर दोनों मिलकर धंधा कर रहे हैं... '
'नहीं पण्डी जी, बात ऐसी नहीं है... पहले मैंने भी यही सोचा था लेकिन वह तो ड्राइवर से बात करने पर पता चला... '
'कैसे कह सकते हो तुम कि ऐसा नहीं है... '
'असल में उस लेडी का पेजर भी बैग में था। उसने अपना पेजर नम्बर खुद डायल किया तो ड्राइवर ने उसका बैग खोलकर पेजर पर आया नम्बर देखकर डायल किया और बताया कि उसे एक बैग मिला है। वह तो जब उस लेडी ने अपना बैग चेक करने के बाद उस पर आरोप लगाया कि उसने पैसे ले लिये होंगे तो उसने पुलिस लाने की बात की... ड्राइवर का कहना है कि उस औरत के बाद बैठने वाली सवारी हम लोग थे और जो आदमी पीछे बैठा था, उसी ने रुपए निकाले होंगे ...'

मैंने फोन काट दिया। मेरे सामने एक बात स्पष्ट हो गई कि पर्स उठाकर देने के मामले में हर बात मेरे खिलाफ है... और, अब मुझे मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए कि आगे आनेवाला समय तकलीफदेह है।

शाम पाँच बजे पत्नी को फोन करके बताया कि बात कुछ बिगड़ चुकी है। घेरे में मैं ही आता हूँ... फिर भी डरने और घबराने की जरूरत नहीं है... शाम को मैं स्कूल से छूटने के बाद सीधे थाने जाऊँगा साबिया... वहाँ से तुम्हें फोन करूँगा कि अगला कदम क्या उठाना है... '
पत्नी का हाल बहुत बुरा था। वह आनेवाली परिस्थितियों को अनुमानते हुए सुबकने लगी थी।

पत्नी से बात करने के बाद मेरा दिल और टूट गया। वह बेतरह घबरा रही थी। अरब कंट्री में कुछ हो–हवा गया तो बचाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। मेरे लाख सांत्वना देने के बाद भी वह संयत नहीं हो पा रही थी। मैं भी कहाँ स्थिर हो पा रहा था...'
यह तय हो गया था कि अंधेरे ने कुछ समय के लिए राहु–केतु का रूप ले लिया है।
• • • •
आठ साल इस तरह निकल गए कि कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन ये छह–सात घंटे जिस तरह बता–बताकर गुजर रहे थे उनसे अजीब–सी उलझन होने लगी थी। बार–बार एक बेतुका ख्याल भरता कि हिन्दुस्तान में यदि कत्ल भी कर दिया होता तो इतनी मानसिक यातना से गुजरना नहीं पड़ता। झूठे आरोप पर परेशान होने का तो प्रश्न ही नहीं था। पहली बार एहसास हुआ कि अपने देश के अंदर आदमी की अपनी और जड़ों की जो ताकत होती है वह दूसरे देश में कोई औकात नहीं रखती। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सवैये की यह पंक्ति अर्थहीन–सी लगने लगी, 'समुझें जग की सब नीतिन्ह को उन्हें दुर्ग विदेश मनो घर है', जगत की नीति क्या दूसरे का सामान हड़प लेने की है।
साबिया पुलिस स्टेशन के लिए चलने से पहले खुफिया विभाग में काम करने वाली महिला को फोन किया। सारी घटना बताई और अनुरोध किया कि थाने पर पहुँचे। उन्होंने आश्वस्त किया कि घबराने की कोई बात नहीं है। वह पुलिस को समझाने की कोशिश करेगी। मुझे थोड़ा–सा बल मिला।
जिस वक्त मैं स्कूल से साबिया के लिए निकला उस समय शाम का सूरज डूबने को था। आने वाली रात और इस जैसी ही कई रातों की कल्पना ने शरीर में सिहरन भर दी।

थाने में शमशाद एक ओर बैठा दिखाई पड़ा। मैं उसकी ओर बढ़ा। उसके चेहरे पर जो घबराहट थी वह इस घटना को लेकर कम बल्कि मेरी यात्रा के खटाई में पड़ जाने को लेकर ज्यादा दिखी। उसने मुझे एक पुलिस कर्मी को ओर इशारा किया और बताया कि उसी से पहले बात करनी है। मुझे थोड़ी बहुत अरबी आती है। बस इतनी कि अपना परिचय दे सकूँ। पुलिसकर्मी यानी यहाँ की भाषा में शुरता। शुरता के बहुत करीब पहुँचकर मैंने कहा, 'सलामवालेकूम... '
'वालेकुअसलाम बरहमतउल्लाह ओबराखातू'... कहते हुए उसने मुझ पर एक चुभती–सी दृष्टि डाली, शमशाद को एक नज़र देखा और फिर मुझसे पूछा, 'अइना तामिल... ' जिसका अर्थ था कि क्या करते हो।'
'अना मुअल्लिम फी मदरसा अलहिन्दीया... ' मैंने बताया कि हिन्दुस्तानी मदरसे में अध्यापक हूँ। इसके आगे अरबी में मेरा हाथ तंग था।
'मुअल्लिम... अरबी मालूम... ' उसने अध्यापक जानकर थोड़ी नरमी–सी दिखाई।
'अरबी माफी... इंगलिश... उर्दू... मालूम... '
'दीश इज नॉट इंगलैण्ड... मालूम... '
'मालूम... '
'आइना बीताकत अल अमल... '
मैं असहाय सा शमशाद की ओर देखने लगा। उसने बताया कि वर्क–परमिट माँग रहा है।
वर्क–परमिट को चेक करते हुए उसने पूछा, 'अल हकीबा...मनी... मनी... देरहम... देरहम... १२०० देरहम... '
'आई डिडंट ओपेन द पर्स... '
'ला तकदीभ... दोंत तेल लाई... '
'आय डोंट टेल लाइस... '
'इज़लिस उनके... नहनूं अरफना अलऐन... '
कहते हुए उसने एक तरफ इशारा किया। शमशाद ने बताया कि उधर बैठने को कह रहा है।
साथ ही धमका भी रहा है कि सच का पता चल जाएगा।
मैंने मन ही मन सोचा कि अब सच क्या है और झूठ क्या है, इसका फैसला ऊपरवाला करेगा।

खुफिया विभाग में काम करने वाली महिला भी तब तक नहीं पहुँची थी। उसका इंतजार भी खलने लगा। हम और शमशाद एक किनारे बैठ गए। उनसे पता चला कि ड्राइवर का लाइसेंस और टैक्सी के कागजात भी थाने में रखवा लिए गए हैं। मेरा वर्क–परमिट भी उसने ले लिया था। बिना वर्क–परमिट जमा किए स्पांसर से पासपोर्ट नहीं मिलना था और वर्क–परमिट अब तभी मेरे हाथ में आएगा जब यह मामला पूरी तरह से निपट जाएगा।

जाने कब निपटेगा मामला। लगभग आधे घंटे तक खीज भरे इंतजार के बाद पुलिसवाले ने आवाज लगाई, 'शमशाद... अ... शमशाद अहमद... '
'जनाब... ' शमशाद लपकते हुए उसके पास पहुँचे।
'अलहने मामिला सुलह... इन्ते रोह... '
'शुगुले इन्ते... केफ हादा शकल... '
मैं शमशाद को देख रहा था। उसके चेहरे पर चौंकनेवाले भाव थे। करीब पाँच–सात मिनट तक बात करने के बाद शमशाद ने मुझसे कहा, 'पण्डीजी, बहुत बड़ी हरामिन औरत है साली... घर से फोन करके उसने यहाँ बताया है कि उसका पर्स मिल गया... साली का वह पर्स कल रात को कॉर्निश रोड पर किसी टैक्सी में छूटा था जो किसी दूसरी सवारी को मिला। उसने उसे आस्मां पुलिस स्टेशन में जमा कराया... जो पर्स आज हम लोगों को मिला वह सवेरे वाली टैक्सी में छूटा था... . दिन भर आस्मां की पुलिस इसे फोन करती रही... उन्होंने इसके पर्स में नम्बर पाया... लेकिन यह अपने घर पर नहीं थी... कुछ देर पहले घर पहुँची तो फिर आस्मां से फोन मिला कि किसी ने उसका पर्स कल रात जमा कराया है... आकर ले जाए, पर्स वापस पाने के बाद उसने यहाँ फोन किया कि शमशाद अहमद को छोड़ दिया जाए... लेकिन, मेंने शुरता से कहा है कि दिनभर जो तकलीफ हम सबको हुई... उसका क्या होगा... आप मुझे लांड्री से जाली वाली गाड़ी में लेकर आए... आस–पास की दूकानों पर खड़े लोगों ने देखा... वे लोग मुझे अपराधी समझेंगे .. . . मैंने शुरता से कहा है कि उस औरत को बुलवाओ... उससे मिले बिना मैं नहीं जाऊँगा...' शमशाद की पीड़ा को मैं समझ सकता था। केवल मुझे बचाने के लिए उसने पुलिस को मेरा नाम–पता और टेलीफोन नम्बर नहीं दिया था। मैं जो कुछ दूर से भुगतता रहा, शमशाद ने उसे करीब से भुगता था।
'एक फोन घर कर लूँ... ' मैंने शमशाद से कहा।
जल्दी... सबसे पहले यही काम करना चाहिए... '
मैंने घर फोन किया। बस इतना बताया कि मामला सुलझ गया है।

घर आकर सारी बात बताऊँगा। फोन पर मुझे अपनी और पत्नी की राहतभरी लंबी साँसे सुनाई पड़ रही थीं। शमशाद ने शुरता से फिर पूछा कि वह औरत कब तक पहुँच रही है तो उसने बताया कि वह घर से निकल पड़ी है। इतना सब कुछ हो चुका था लेकिन वह खुफिया विभाग में काम करने वाली महिला नहीं आई थीं।
मेरे भीतर दिन भर की दहशत का उबाल उबल रहा था। शमशाद अपने दिन भर की दुखी अवस्था से परेशान था। फिर भी एक राहत की सांस मिल गई थी।
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साबिया पुलिस स्टेशन के मुख्य गेट से जब एक अंग्रेज औरत किसी के साथ आती हुई दिखी तो लग गया कि यही होगी। शमशाद ने भी इशारा किया। उसके साथ एक आदमी भी था। दोनों एक–दूसरे का सहारा लिए चल रहे थे। उनके कदमों के दाएँ–बाएँ पड़ने से ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्होंने पी रखी हो।

औरत कोई तीस–बत्तीस की और आदमी पचास के ऊपर लग रहा था। औरत सीधे शुरता के पास पहुँची तो उसने उसके साथ के आदमी की ओर देखते हुए कहा, 'हल हुआ अबूका... '
'ला, हूआ तलीकी... ' औरत ने जवाब दिया। लगा कि उसे अरबी आती है। उसका जवाब सुनकर शमशाद और शुरता, दोनों हँसने लगे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसी भी क्या बात हो गई कि उन्हें हँसी आ रही है। यहाँ तो उसे देखते ही बेतरह गुस्सा आ रहा था।

शमशाद से पूछा तो उसने बताया कि शुरता ने औरत से पूछा कि साथ में आया हुआ यह आदमी क्या उसका बाप है तो उसने कहा कि नहीं, यह उसका तलाकशुदा पति है। इस जानकारी से मेरा दिमाग भी हिल गया कि तलाकशुदा पति के साथ जब यह हाल है तो वर्तमान या फिर आगामी पति के साथ क्या हाल होगा। बहरहाल, शुरता ने हम लोगों की ओर इशारा करते हुए उससे जब कहा कि ये लोग बिना मिले जाने को तैयार नहीं थे। वह हम लोगों की ओर बढ़ी,' आयम सॉरी...'उसने कहा।
'ह्वॉट डू यू मीन...' मैंने गुस्से से कहा, 'डू यू नो... द ट्रामा वी हैव गान थ्रू... ' दिन भर की खीज और आगामी आतंक के डूबे पलों का आक्रोश सब एक साथ निकल पड़ने को मजबूर–से लगे।
'आयम एक्स्ट्रीमली सॉरी... ' उसने लड़खड़ाती आवाज में दुबारा कहा।
'इट्स वेरी सिम्पल टू से दैट... डू यू नो द डैमेज यू हैव डन...'

शमशाद ने अपनी खीझ भी उतारी, 'ऐंड ह्वॉट... मेरा जो नुकसान हुआ दिन भर... माय कस्टमर्स... दे सफर्ड... उसका क्या होगा... '
'सॉरी... आई विल कंपंसेट द लॉस... ' ब्रिटिश औरत ने जो जवाब दिया उसे सुनकर शमशाद के साथ–साथ मुझे भी जोर का गुस्सा आया, 'ह्वॉट हैव यू थाट अबाउट अस... कैन यू कंपंसेट द मेंटल सफरिंग्स... व्हाई डिड यू नॉट ट्रस्ट दिस मैन... 'मेरे रुकते ही शमशाद शुरू, 'यू स्प्यायल्ड अवर डे... शुरता एँड... 'शमशाद ने उसे यह अहसास करा दिया कि लांड्री से पुलिस ने उसे जाली वाली बंद गाड़ी में लाकर उसकी इज्जत को बट्टा लगाया है। केवल पैसा दे देने से इज्जत वापस नहीं आ जाती।

सफेद औरत का चेहरा सफेद हो गया। मैंने शमशाद से कहा, 'माफी सबसे बड़ी सजा है, वर्क–परमिट शुरता से लो और घर चलो... '
'नहीं पण्डीजी, मन तो कर रहा है कि इस साली को... '
'छोड़ो भी... चलो, बहुत–से काम पड़े हैं करने को... '
'रूकिए... ' उसने कहा और शुरता की ओर बढ़ा–– वर्क–परमिट लेते हुए उसने शुरता से कुछ कहा जिसे सुनकर वह तुरंत उठ पड़ा।
'आइए... 'शमशाद ने मुझसे कहा।
'बात क्या है...'
'मैंने कहा है कि मुझे लांड्री ससम्मान छोड़कर आएँ वरना जिन लोगों ने मुझे सुबह बंद गाड़ी में पुलिस द्वारा लाए जाते देखा है, वे तो यही समझेंगे कि मैंने जरूर कुछ गलत काम किया होगा...'
उसकी बात मुझे सही लगी। शुरता ने निकलते–निकलते उस ब्रिटिश औरत से कुछ अरबी में कहा जिसका अर्थ शमशाद ने मुझे बताया कि कह रहा है ज्यादा पी लेने के बाद घर से मत निकला करो। मैंने मना ही मन सोचा कि गोरी चमड़ी के साथ दुनिया नरमी से पेश आती है। कहीं मैंने पी रखी होती तो तमाशा खड़ा कर देते। शुरता ने हमें अपनी गाड़ी से लांड्री तक पहुँचाया। रास्ते भर वह ब्रिटिश औरत को न जाने क्या–क्या कहता रहा। मैं उस अच्छे आदमी के प्रति कृतज्ञ था जिसने पिछली शाम पर्स को पाने के बाद आस्मां थाने में जमा कराया था। यदि वह भी दुनिया के उन सुझावों पर अमल करने वाला हुआ होता जो दिन में लोगों ने मुझे दिए थे तो मेरी मुश्किल इतनी आसानी से हल होनेवाली नहीं थी।

लांड्री से जब घर के लिए चला तो ऐसा लगा कि जैसे लंबी सजा से छूटने के बाद बाहर की दुनिया को पहली बार देख रहा हूँ।

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२४ अगस्त २००२

 
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