हर चौखाने
के बीच सीमेंट एक दूसरे के बीच की दूरी को भरती तो है फिर भी
वे दोनों अलग-अलग ही बने रहते हैं। शायद यही इस देश की पहचान
है, शायद यही इस देश की संस्कृति है, शायद यही इस देश की
ख़ूबसूरती है। पर इस ख़ूबसूरती को जानने के लिए अजनबीपन के
जिस इंद्रजाल को तोड़ना पड़ता है उसे तोड़ने का समय और
हिम्मत यहाँ बहुत कम लोगों के पास हैं। नीमा के पास भी नहीं।
नीमा ने मार्क को कभी नहीं बताया कि वह भी शारजाह में ही
रहती है। उसने अपने 'इन्फ़ो' में भारत का पता भरा हुआ था।
कुछ झूठ कभी-कभी कितने सुविधाजनक रहते हैं!
पीली
पटि्टयों वाली सड़क पार करने की जगह आ गई थी। नीमा ने इधर
उधर ठीक से देखा और सड़क पार कर के दूसरी ओर आ गई। इस तरफ़
फ़ुटपाथ के चौखाने आयताकार हैं। वर्गाकार चौखाने एक कदम में
ख़त्म हो जाते हैं पर आयताकार चौखाने दो कदम तक साथ रहते
हैं। हर दूरी ठीक-ठीक नापी हुई है नीमा के कदमों ने और यह भी
कि कंप्यूटर की दोस्ती इन फ़ुटपाथ के चौखानों की तरह एक या
दो कदमों में ही ख़त्म हो जाती है। मार्क की दोस्ती भी कब
ख़त्म हो गई नीमा को पता नहीं चला था।
यों तो
रोज़-रोज़ एक सा काम करते हुए ऊब सी होने लगती है पर एक दिन
यहाँ टहलने न आए तो नीमा को यह जगह याद आने लगती है। यह
चौखानों से जड़ा साफ़ सुथरा फ़र्श जिसपर वह टहल रही है,
क्रीक पर दूर तक फैली हुई नरम घास का कालीन, लाइन से जड़े
काले सुनहरे लैंप पोस्टों की दोहरी कतारें, उनसे बिखरते
दूधिया प्रकाश के घेरे, जहाँ तहाँ टिकीं आइस्क्रीम की
गाड़ियाँ, दूर-दूर पर बने छोटे-छोटे फ़ास्ट फ़ूड के
रेस्त्रां, रॉट आयरन की काली बेंचें और दूर पर पत्थरों की
मेहराब। मेहराब के पार रेत, रेत पर बड़े-बड़े काले पत्थरों
का ढेर और उसपर लहरें मारता समंदर समंदर के किनारे बसा अजमान
कैंपेंस्की होटल और इधर उधर टहलते उसके सैलानी सब कुछ उसकी
शामों का हिस्सा बन चुके हैं। सभी कुछ अपना सा है। अजीब सी
बात यह है कि यह हिस्सा कितना उसका है कितना नहीं, इसकी कोई
पहचान नहीं। दोनों के बीच कोई संवाद नहीं, सिर्फ़ एक चुप-सी
है एक अजीब-सा मौन य़ही एक मौन दोनों के संबंधों का आधार है।
सिर्फ़
इमारतें या प्रकृति ही नहीं तमाम सारे लोग जो यहाँ नीमा की
तरह शाम बिताने आते हैं नीमा के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं।
ऐसा अचानक नहीं हो गया है एक साल से ज़्यादा समय लगा है नीमा
को इन्हें अपनाने में। ऐसा भी नहीं है कि इस एक साल में कुछ
बदला नहीं, लोग बदले हैं, उसके देखते-देखते यह जगह रंगो रोगन
से सजी-धजी जगमग हो गई है। चहल पहल भी काफ़ी बढ़ गई है।
यहीं एक
दिन थिलोका मिली थी उसे। नीमा क्रीक पर बिछी एक बेंच पर
सुस्ता रही थी। अचानक किसी श्रीलंकन-सी दिखने वाली लड़की ने
पास बैठते हुए पूछा था कि क्या उसे घर के काम के लिए किसी
'मेड' की ज़रूरत है?
एक पल को
नीमा झिझकी थी। पता नहीं कौन है? कैसी है? कहीं यह किसी चोर
उचक्कों के गैंग से तो नहीं? फिर लगा यहाँ पर ऐसे लोगों के
ख़िलाफ़ कड़े कानून हैं। नीमा कहीं बाहर काम नहीं करती है वह
इस पर निगाह रख सकती है और सच पूछो तो नीमा भी अभी भारतीय
तौर तरीकों से मुक्त नहीं हो पाई है। खाना पकाने के बाद
बर्तनों का ढेर उसे काटने को दौड़ता है, फिर इस विला का
झाड़ू-पोंछा उसकी हिम्मत से बाहर की बात है। कुछ थोड़ी सी
बातें कर के नीमा ने उसे अपने घर का पता व फ़ोन नम्बर दे
दिया। 'मेड' ने अपना नाम लिली बताया था और वह अपनी तरह की
अंग्रेज़ी बोलती थी।
अगले दिन
ठीक समय से लिली आ गई थी। घर की कौन-सी चीज़ किस तरह साफ़
करनी है, किस चीज़ को साफ़ करने में किस साबुन का इस्तेमाल
करना है, किस ब्रांड के पोछे अच्छे होते हैं और कौन से
लिक्विड से 'करी' के दाग अच्छी तरह साफ़ हो जाते हैं इस सबके
विषय में उसकी जानकारी का कोई जवाब नहीं था। दो घंटो में ही
उसने ऐसे-ऐसे नुस्ख़े चुटकियों में थमा दिए थे जिन पर शोध
करते हुए नीमा साल भर में भी पारंगत नहीं हो पाई थी। उसकी
सफ़ाई और दमख़म देख कर नीमा परम प्रसन्न थी।
इतने में
दरवाज़े की घंटी बजी। नीमा ने देखा कोई तीस बरस की उम्र का
आदमी सामने खड़ा था। उसकी कार में दो सिंहली लड़कियाँ पीछे
और एक सामने पहले से थीं। मेरी प्रश्नवाचक संदेहास्पद मुद्रा
देख कर उसने हिन्दी में पूछा, ''शकीला है?''
''शकीला कौन?'' मैने आश्चर्य से पूछा।
लिली दौड़ कर बाहर आ गई। अपने सैंडल्स पहनते हुए संहिली में
उस आदमी से बातें करने लगी। कार में बैठी लड़कियों ने उसे
हाथ हिलाया और फिर शुरू हो गई उनकी टपर-टपर अपनी भाषा में।
पीछे वाली लड़कियों ने खिसक कर लिली के लिए जगह बनाई और वह
झट से बैठ कर फुर्र हो गई।
नीमा को
लगा कि ये सब ठीक लोग नहीं। दरवाज़ा बंद किया और सोच लिया कि
लिली जब अगली बार आएगी उसको दरवाज़े से ही लौटा देना है,
किसी 'हेल्प' की उसे ज़रूरत नहीं। साफ़ सुथरा चमचमाता हुआ घर
मुँह चिढ़ाने लगा था पर चौबीस घंटे बीतते न बीतते नीमा का
गुस्सा शांत हो गया। सोचने लगी, एकदम से भावुकतापूर्ण निर्णय
लेना ठीक नहीं। क्यों न धैर्य के साथ पूछा जाय। लिली के घर
का पता ले ले और पासपोर्ट के बारे में पूछ ले कि उसके पास है
या नहीं। इतनी जानकारी ही काफ़ी होगी यह पता करने के लिए कि
वह कौन है क्या करती है।
एक दिन बाद
जब लिली ने घंटी बजाई नीमा ने दरवाज़ा खोला और धीरे से कहा,
''लिली, तुम्हारे कितने नाम हैं?''
''ओह मैडम मुझे लगा था कि उस दिन आप हैरान हो गई होंगी। मैं
बताती हूँ आपको सारी बात, आप तो समझदार लगती हैं लगता है आप
पाकिस्तानी हैं, अगर कोई क्रिश्चियन आपके घर में काम करे तो
आपको ऐतराज़ तो नहीं?'' उसने पूछा।
''नहीं हिन्दू, मुस्लिम या क्रिश्चियन से मुझे कुछ फ़रक नहीं
पड़ता पर मैं पाकिस्तानी नहीं हिन्दुस्तानी हूँ।''
''आप हिन्दुस्तानी है? उसने आश्चर्य से पूछा, ''आप
पाकिस्तानियों की तरह उर्दू बोलती हैं, बिन्दी भी नहीं
लगातीं और आप मलयालम भी नहीं समझतीं?''
''मैं बिन्दी लगाती हूँ पर मैंने कोई कड़े नियम नहीं बना रखे
हैं इस बारे में। कभी भूल गई तो नहीं भी लगाई और मलयालम
दक्षिण भारतीय भाषा है जो मुझे नहीं आती। मैं उत्तर भारतीय
हूँ। उत्तर भारत में यही भाषा बोली जाती है।'' लगता था जितना
संदेह मुझे उसके बारे में था उससे कहीं ज़्यादा संदेह उसे
मेरे बारे में मेरे पहनावे और रहन सहन को लेकर था।
''अच्छा
अच्छा'', उसने मुस्कराते हुए कहा लगता था उसे बात समझ में आ
रही है और फिर वह अपने बारे में बताने लगी,
''मेरा नाम थिलोका है। मेरे पासपोर्ट में भी यही नाम है।
मेरे माता पिता बौद्ध थे बाद में धर्म परिवर्तन कर के
क्रिश्चियन हो गए। अब हम इसी धर्म का पालन करते हैं पर धर्म
अलग-अलग होने से क्या होता है? आख़िर हर धर्म एक ही बात तो
सिखाता है। यहाँ एक अजीब-सा रिवाज़ है। किसीको अपने देश की
'मेड' चाहिए किसी को अपने धर्म की। जब मैंने आपको क्रीक पर
देखा तो आप पैंट कोट पहने थीं। मुझे लगा कि आप क्रिश्चियन
होंगी इसलिए मैंने अपना नाम लिली बता दिया और अंग्रेज़ी में
बात की।
''जो उस
दिन कार ड्राइव कर रहा था वह मेरे पति का छोटा भाई है। उसने
आपको सलवार कुर्ते में देखा तो समझा कि आप पाकिस्तानी हैं
इसलिए उसने मेरा नाम शकीला बताया और उर्दू में बात की। हम कई
रिश्तेदार यहाँ हैं। हममें से जो भी बेकार होता है वो हम
सबके लिए ड्राइविंग कर लेता है। मैं पिछले बीस सालों से
शारजाह में हूँ। इतने दिनों में उर्दू, इंगलिश, अरबी, मलयालम
और सिंहली भाषाएँ बोलने लगी हूँ। जब मैं पाकिस्तानी घरों में
काम करती हूँ तो अपना नाम शकीला रख लेती हूँ। हिन्दुस्तानी
घरों में त्रिलोका बता देती हूँ। मुझे अरबी घरों में काम
करना अच्छा नहीं लगता। वहाँ काम बहुत होता है और कभी ख़त्म
नहीं होता।''
कितने सारे
चौखानों के बारे में जानती है थिलोका, नीमा ने सोचा था। इतने
सारे चौखानों से गुज़रते हुए इस दुनिया के समंदर के कितने
ज्वार भाटे झेले होंगे इसने। किस तरह अपनी मेहराबें बनाई
होंगी इसने। किस तरह सीमेंट जमाई होगी अपने चारों ओर फैले हर
चौखाने के अनुसार अपने को समायोजित करते हुए।
आगे के
मोड़ पर बड़े नीले वाले बोर्ड से नीमा को अपने घर की ओर
मुड़ना था। बस दो मिनट का समय और नीमा ने सोचा। उसके बाद दस
मिनट लगते हैं नीमा को घर तक पहुँचने में। आठ बजे तक वह घर
में होगी। यह समय समीर के आने का है। आठ से दस तक या तो टीवी
देखेगी या फिर रात के खाने के लिए कुछ पका लेगी। टहलने के
लिए निकलने के पहले समीर का फ़ोन आया था। सात बजे उसकी
मीटिंग है और बाद में डिनर। शायद लौटने में देर होगी। मीटिंग
ख़तम करने के बाद आठ से साढ़े आठ के बीच फ़ोन करने को कहा था
उसने।
''मुड़
मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के..." पीछे आती कार का स्टीरियो
काफ़ी तेज़ आवाज़ में बज रहा था। किसी भारतीय की कार होगी
नीमा ने सोचा। अचानक तेज़ हार्न और ब्रेक की आवाज़ के साथ
कार बगल में आकर रुकी तो नीमा चौंक-सी गई। पलट कर देखा, समीर
था।
''हेइ मान
गए? क्या पकड़ा है?'' समीर क्लास छोड़ कर भागे हुए
विद्यार्थी के मूड में था, ''चलो ' दिल्ली दरबार' में मलाई
कोफ्ते, बटर चिकन और गार्लिक नान खाते हैं।'' खाना समीर की
सबसे बड़ी कमज़ोरी है। ख़ासतौर से मुगलई।
''आज इतनी जल्दी? और आज तो तुम्हारा डिनर था न?'' नीमा ने
आश्चर्य से पूछा हालाँकि यह ज़बरदस्त ट्रीट थी उसके लिए भी।
पिछले एक महीने से दोनों कहीं बाहर खाने नहीं गए।
''हाँ, आज मन नहीं हुआ डिनर तक रुकने का। शायद रोज़-रोज़ के
किब्बेह, तबूलेह और हमूस वगैरह-वगैरह एक हज़ार डिशेज़ से
मेरा दिल भर गया आज पुदीने की चटनी याद आ रही है मिर्ची
वाली।''
समीर का
जीने का अपना तरीका है वह हज़ारों चौखाने पार कर के वापस लौट
आता है अपने चौखाने पर। शायद हर भारतीय का यही तरीका है वे
या तो अपने चौखाने पार नहीं करते, या हज़ारों चौखाने पार
करते हुए अपने चौखानों पर वापस लौट आते हैं। शायद इसीलिए
दुनिया में कहीं भी रहें, चौखानों की भीड़ में वे खोते नहीं।
हर बार मेन रोड पर मिल जाते हैं...ज़िंदगी में भी।
नीमा ने
मुस्कुरा कर कार का दरवाज़ा खोला और अंदर बैठ गई। समीर ने
वाल्यूम धीमा कर दिया। अंदर मंद संगीत जारी था मुड़ मुड़ के
न देख मुड़ मुड़ के..., बाहर फ़ुटपाथ के चौखाने तेज़ी से
पीछे छूटते जा रहे थे।
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