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कहानियाँ

आप्रवासी भारतीय लेखकों की कहानियों के संग्रह वतन से दूर में
पूर्णिमा वर्मन की कहानी यों ही चलते हुए


अकेले टहलते हुए नीमा को लगा कि अँधेरा बड़ी तेज़ी से घिर रहा है। हवा में हल्की-सी ठंड थी। ऐसी कि खयालों से जरा बाहर ध्यान जाए तो शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाए। फुटपाथ सुनसान-सा था। सड़क पर ट्रेफिक ज्यादा तो नहीं पर तेज था। हर दो तीन मिनट पर एक गाड़ी उसे तेज़ी से पार करती थी। अपनी ठीक-ठाक रफ्तार के बावजूद नीमा को लगा कि वह पीछे छूटती जा रही है बिलकुल पीछे।

अकेले टहलने का यह क्रम नया नहीं है। पर अकेलेपन से जो तारतम्य हो जाना चाहिए था वह अभी हुआ नहीं है। वह एक अजीब से दौर से गुजर रही है। अजीब-सा इसलिए क्योंकि जगह, परिस्थितियाँ और लोग - कुछ भी उसकी पकड़ में नहीं है। सब कुछ हवा में तैरता हुआ-सा और पाँव अपनी जमीन पर नहीं। परदेस में बिलकुल अकेली-सी है। इसीलिए इस रास्ते पर सब कुछ उसकी पहचान का होते हुए भी अजनबी-सा है। सच पूछो तो शायद यही इस देश की पहचान है। लोग- भाषा-जगहें-परिस्थितियाँ सब कुछ पहचाना हुआ-सा फिर भी सब कुछ अनजाना-सा!

यहाँ घर बनाने कोई नहीं आया है। सबको लौट जाना है एक दिन। इस फुटपाथ के चौकोर टाइलों की तरह, जो हर चलने वाले के साथ हैं पर किसी के साथ नहीं। जो दूर तक चले गए हैं पर अपनी-अपनी सीमाओं में कैद हैं।

नीमा ने झुका हुआ सिर उठाया हथेलियों को आपस में रगड़ कर गरम किया और कोट की जेब में डाल कर लापरवाही से एक लंबी नजर दौड़ाई। क्रीक के किनारे इस फुटपाथ पर सब कुछ महीनों से उसके साथ है, फिर यह अचानक पीछे छूट जाने का अहसास क्यों? और पीछे छूटना किस चीज से? क्या वह अकेलेपन से डर गई है या उसे समीर की याद सता रही है या उसके जीवन के कुछ मानदण्ड थे जो अकेला पाकर उसे डराने चले आए हैं, या फिर यह समय का वह मोड़ है जहाँ उसे कुछ नया कर गुजरना है और वह नया क्या है इसका पता न होना एक खालीपन का अहसास भरे जा रहा है उसमें।

हवा रुक गई थी। हाथों में नमी-सी लगी तो नीमा ने हाथ कोट से बाहर निकाल लिए। गले में एक रेशमी स्कार्फ डाल लिया था चलते समय उसने। सर्दी उतनी नहीं थी। यह तो बस नीले कोट को थोड़ा-सा रंगीन करने करने के लिए यों ही पहन लिया था। देहरादून की सर्दियों में स्कार्फ का जो मतलब होता है वह शारजाह की सर्दियों में नहीं होता। पर नीमा ना तो देहरादून से अलग हो पाई है ना ही शारजाह में मिल पाई है इसलिए सबकुछ मिला-जुला सा अनाप-शनाप सा होता ही रहता है। नीमा ने गले का स्कार्फ ढीला किया और कोट की जेब में रख लिया। कोट के बटन खोल दिए तो मौसम फिर से खुशनुमा सा लगने लगा। समंदर की हवा बालों में से होते हुए कंधे पर उड़ने लगी।

सड़क के उस पार दो बेडरूम वाले लग्जरी फ्लैटों की भीमकाय बिल्डिंग है। इसमें नीचे स्वीमिंग पूल है, जिम है और स्पोर्ट्स क्लब भी, अच्छी खासी होटलनुमा आंतरिक सज्जा है, और वैसा ही दरबान भी। इस बिल्डिंग में तीन भारतीय परिवारों को जानती है नीमा। शारजाह आते समय सबसे पहले उसका परिचय इन्हीं परिवारों से हुआ था।

इनमें से चित्रा उत्तर भारतीय है। देहरादून में उसके पति शरत की पोस्टिंग समीर के साथ ही थी। वे लोग रहते भी एक ही मुहल्ले में थे। इसलिए पुरानी जान-पहचान भी है। उम्र में भी नीमा के बराबर ही होगी, पर वह पिछले पाँच साल से शारजाह में है। नीमा को लगा था चित्रा से उसकी अच्छी बननी चाहिए।

आठ बजे जब समीर आफिस के लिए निकल गया तब नीमा ने चित्रा को फोन किया था और पूछा था क्या कल जल्दी सुबह क्रीक पर चलेगी टहलने। चित्रा ने अलसाते हुए जवाब दिया था,
''यार अब मैं सुबह जल्दी नहीं उठती। यह देहरादून थोड़ी है। सुबह कुछ काम नहीं रहता यहाँ। शरत सुबह खुद चाय बना कर पी लेते हैं और आफिस चले जाते हैं। लंच वहीं लेते हैं। जल्दी उठ कर क्या करूँ? मैं नौ साढ़े नौ तक उठ जाती हूँ। फिर आराम से दस ग्यारह बजे तक टीवी के सामने बैठ कर चाय पीती हूँ। बारह बजे हम सब लेडीज किसी एक के यहाँ इकठ्ठे होते हैं ताश के लिए। दो बजे तक अच्छा गेट टुगैदर रहता है। तेरा दिल करे तो तू भी आ जा।''

''कमाल है! कितने उत्साह के साथ हम निकलते थे देहरादून में राजपुर रोड पर सुबह की सैर के लिए और सूर्योदय के सुन्दर दृश्य को संजोए वापस लौटते थे। सब कुछ भूल गई?'' नीमा ने पूछा था।

''भूली नहीं हूँ यार हर जगह की अपनी-अपनी लाइफ होती है, यहाँ सोते-सोते काफी देर हो जाती है। खास तौर से वीक एंड में। डिनर या पार्टीज चलती ही रहती हैं।''

नीमा को ताश में कोई रुचि नहीं फिर भी उसने सोचा नए लोगों से मुलाकात का यह बहाना अच्छा रहेगा और वह पहुँच गई थी चित्रा के घर, बारह बज के दस मिनट पर कोई छे महिलाएँ होंगी ताश मंडली में अपने अपने ड्रिंक्स के साथ।

चित्रा समझ गई थी, नीमा इस माहौल में नई नवाड़ी है और वह क्या पीना पसंद करेगी पूछने के लिए कमरे के दूसरी ओर बने किचेन तक ले गई थी। नीमा ने अपने पुराने बेतकल्लुफी लहजे में कहा था, ''यार यह तो अपने गले से उतरने के पहले ही बाहर आ जाएगा। कुछ ऐसा है जो शांति से अंदर चला जाए?'' चित्रा हँस पड़ी थी और कोक में दो आइसक्यूब डाल कर उसको थमा दिया था।

औपचारिक परिचय के बाद वे सब बातों में लग गई। चालीस ग्राम के गोल्ड बार के आज के दाम से लेकर कलाबत्तू की साड़ियों तक और डेबियर के हीरों से मिकुरा मोतियों तक उनकी बातों के एक सौ एक विषयों में से कुछ नीमा की समझ में आए थे कुछ नहीं भी समझ में आए थे पर इतना जरूर समझ में आ गया था कि ना तो 'टेली लाइफ' और 'एमिरेट्स वुमेन' की प्रतियों से सजे चित्रा के बुक शेल्फ़ में नीमा को वहाँ रोक सकने लायक कुछ था न वाइन से भरे क्रिस्टल के गिलासों और ताश के पत्तों से भरी चीनी फिलिग्री की मेज में।

नीमा को लगा था कि अजीब-सी गंध भरे चित्रा के इस काँच से बंद वातानुकूलित चौखाने में उसका दम घुट जाएगा। न जाने कैसे भी दो बजे तक का समय गुजरा था और सारी औपचारिकताएँ निभा कर नीमा अपने घर वापस आ गई थी। बाद में किसी न किसी काम से वहाँ जाना तो हुआ पर उस चौखाने में नीमा फिट नहीं हो पाई।

हवा शायद कुछ तेज थी। नीमा ने कोट के बटन फिर से बंद कर लिए। काफी रास्ता तय हो चुका था। एक तरफ क्रीक के किनारे-किनारे यह लम्बा फुटपाथ बना है टहलने वालों की सुविधा के लिए और सड़क के दूसरी ओर कई तरह की बहुमंज़िली इमारतें हैं। अलग-अलग तरह के छोटे और बड़े बंगलों के झुंड भी हैं। इन्हें 'विला' कहते हैं यहाँ पर। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़कें अंदर की ओर जाती हैं और अलग-अलग मुहल्लों की ओर रास्ता बनाती हैं।

सड़क के दूसरी ओर दूसरा मोड़ दिखाई देने लगा था।

यहाँ से बड़े विला शुरू होते हैं। जिसमें ज्यादातर यूरोपीय या अमेरिकी लोग बसते हैं। समीर ने इस जगह का नाम 'अंधेर नगरी' रखा है। इसकी एक खास वजह भी है। तमाम बड़ी इमारतों के बावजूद रोशनी काफी कम रहती है इन घरों में। अरबियों की तरह ये अपनी 'बाउन्ड्रीवाल' पर सारे लैंप जला कर नहीं रखते।
''उन्हें बिजली की किफायत पसंद है,'' नीमा ने कहा था एक बार।
''नहीं साले सब फ्रस्ट्रेटेड प्राणी हैं, समीर बोला था, ''इनकी बिजली का खर्च तो अरबी ही उठाते होंगे। ये तो भीतर के किसी अंधेरे कमरे में दारू पीते औंधे पड़े होंगे। बिजली जलाने की सुध ही नहीं होगी।''

बड़े-बड़े घरों में अकेले रहते हुए बहुत ही कम गोरे लोगों के परिवार साथ में हैं। मौसम अच्छा हो तो अक्सर इन्हें दुबई के पबों में वीकएंड पर सैलानी महिला मित्र मिल जाते हैं, और गुरु शुक्र को इन बड़े बंगलों के बगीचो में अलाव और बारबेक्यू का धुआँ दिख जाता है। गुरु शुक्र सप्ताहांत होते हैं अरबी दुनिया में। सप्ताह के बाकी दिनों यहाँ ज्यादातर अंधेरा ही छाया रहता है। अंधेर नगरी का यह अंधेरा भी नीमा की चहल-कदमी का एक हिस्सा है।

वैसे तो इस शहर की बहुत-सी चीज़ों में हिस्सेदारी है नीमा की। पर वे हिस्से अजीब तरह के चौखानों में बंद हैं, फुटपाथ के चौखानों की तरह। एक चौखना नीमा का कम्प्यूटर भी है। जो देश, भाषा और जाति की तमाम लकीरें के पार कर गया है बहुत बार।

नीमा अच्छी तरह पहचानती है यहाँ से भीतर जाने वाली सड़क के बाद चौथे बंगले में मार्क रहता है। मार्क मक्लीन जो बोआविस्ता के नाम से आई सी क्यू पर मिल गया था एक दिन। जैसा उसने अपने घर का परिचय दिया था, वही हरे रंग का गेट, हल्के गुलाबी बोगेनविला का फूलों से भरा हुआ घना झाड़। वही सफ़ेद फोर व्हील ड्राइव मित्सुबिशी पजेरो एस एच जे ६३६३, जिससे इस घर को अच्छी तरह पहचाना जा सकता है।

मार्क इंजीनियर है एक तेल कंपनी में। उसकी पुर्तगाली पत्नी अर्कीटेक्ट है, जो ज्यादातर पुर्तगाल में ही रहना पसंद करती है। भाषा की समस्या की वजह से उसे यहाँ काम करने में दिक्कत होती है।
''नैनी ने कभी ठीक सी अंग्रेज़ी नहीं सीखी, एक बार मार्क ने बताया था, ''शायद इसलिए कि मेरी पुर्तगीज काफी अच्छी है और ब्रिटेन में शादी के बाद कभी रहना हुआ ही नहीं।'' उसकी पत्नी का नाम नैनी है।

मार्क से नीमा की मुलाकात आई सी क्यू पर हुई थी। फिर दोस्ती-सी हो गई। कम्प्यूटर पर ही। घंटों बातें की। दक्षिण अफ्रीका के जंगलों के बारे में, प्राइवेट आर्मी के बारे में और माइथोलोजी के बारे में।
''क्या आपने भारतीय माइथोलोजी पढ़ी है,'' नीमा ने एक बार बात-खिड़की पर पूछा था।
''नहीं, मेरी रुचि रोमन माइथोलोजी में थी। ज्यादातर वही पढ़ी। मुझे देवताओं के चरित्र बड़े रोचक लगते हैं, मार्क ने जवाब लिखा था।
''भारतीय माइथोलोजी पढ़ने की कोशिश नहीं की बल्कि ग्रीक माइथोलोजी भी काफी पढ़ी हैं। कई देवी देवता एक से हैं दोनों में और कुछ अलग। जो एक से हैं उनमें भी कुछ भिन्नताएँ हैं मार्क ने बताया था।
''पर मुझे किसी भारतीय से भारतीय माइथोलोजी के बारे में जानकर खुशी होगी, मार्क ने आगे जोड़ा था। बस फिर क्या था बात चल निकली थी- अथीना, ओडिन और ज्युपिटर से लेकर आदिशक्ति, कार्तिकेय और बृहस्पति तक घंटों लंबी बातों में, भारतीय और यूरोपीय देवशास्त्र पर एक तुलनात्मक अध्ययन की किसी किताब से ज्यादा लंबे नोट्स टाइप किए होंगे शायद उन्होंने 'बात खिड़की' पर।

एक बार नीमा ने सफ़ेद पजेरो एस एच जे ६३६३ को इस घर के सामने रुकते देखा था और लगा था कि उसमें से कोई अंग्रेज बाहर आएगा पर उसमें से कोई भारतीय या पाकिस्तानी बाहर आया था। उसने मोबाइल से बात की थी, थोड़ी देर गेट के बाहर इंतजार किया था, शायद रिमोट संचालित दरवाजा किसी ने अंदर से खोला था और पजेरो अंदर चली गई थी।

ठीक, नीमा को याद आया, कल ही बात करते हुए मार्क ने बताया था कि रात को रेगिस्तान में सफर करते हुए उसकी गाड़ी रेत में फँस गई थी। न उसके पास मोबाइल था और न कोई साथी, अभी सीजन नहीं शुरू हुआ था और रेगिस्तान भी सुनसान था। उसे अकेले अपनी गाड़ी रेत से बाहर निकालते ४ घंटे लगे थे और शायद गाड़ी में कुछ भारी नुक्स भी आ गए थे।
''क्या गाड़ी गैराज में छोड़ दी,'' नीमा ने पूछा था।
''नहीं, इतना समय नहीं था सुबह मेरे पास। कार को बाहर पार्क कर के मैकेनिक को फोन कर दिया था वह आफिस आ कर चाभी ले गया था। काम जारी होगा।'' मार्क ने बताया था।

शायद मैकेनिक कार पहुँचाने आया होगा। नीमा ने सोचा था, या हो सकता है कोई भारतीय मित्र हो जो मिलने आया हो।

''क्या आपके भारतीय मित्र हैं?'' उस दिन नीमा ने पूछा था।
''मित्र, मित्र शब्द मेरे लिए बहुत खास है अ़पने रिश्तेदारों से भी ज्यादा अ़पने भाई से भी ज्यादा मैंने बहुत ही कम दोस्त बनाए अपनी ज़िन्दगी में, मार्क ने बहुत धीरे-धीरे टाइप किया था।

''ऐसे तो मेरे आफिस में बहुत से भारतीय लोग काम करते हैं। वे सब मेरे मित्र हैं पर मैं किसी के घर कभी नहीं जाता। कभी बुलाएँ तो भी नहीं। भारतीय लोग धार्मिक होते हैं। वे परिवार के साथ रहते हैं। मुझे भारतीय मैनरिज्म वगैरह का कुछ पता नहीं। साफ कहूँ तो कुछ अनकम्फ़र्टेबल सा लगता रहता है। मैंने कभी कोशिश नहीं की किसी भारतीय से दोस्ती की। वेसे मुझे भारतीय खाना पसंद है अगर उसमें मिर्च न हो। मुझे नान भी पसंद है पर मैं भारतीय लोगों की तरह हाथ से नान नहीं खा सकता मैं गँवार लगूँगा अगर कोशिश करूँ तो और हाँ, मुझे सौंफ की महक पसंद नहीं,"

दोनों ने बहुत सारे एल-ओ-एल बनाए थे इस विवरण के बाद एल-ओ-एल यानी ''लाफ आउट लाउडली'' यह भी उसने कंप्यूटर पर बात करते हुए ही सीखा था और यह भी कि चौखाने सिर्फ नीमा की ज़िन्दगी में ही नहीं हैं। ए इस देश के घट-घट में बसे हुए हैं। फर्श के चौखाने, छत के चौखाने और अलग-अलग देशों की अलग-अलग संस्कृतियों के चौखाने।

हर चौखाने के बीच सीमेंट एक दूसरे के बीच की दूरी को भरती तो है फिर भी वे दोनों अलग-अलग ही बने रहते हैं। शायद यही इस देश की पहचान है, शायद यही इस देश की संस्कृति है, शायद यही इस देश की खूबसूरती है। पर इस खूबसूरती को जानने के लिए अजनबीपन के जिस इंद्रजाल को तोड़ना पड़ता है उसे तोड़ने का समय और हिम्मत यहाँ बहुत कम लोगों के पास हैं। नीमा के पास भी नहीं। नीमा ने मार्क को कभी नहीं बताया कि वह भी शारजाह में ही रहती है। उसने अपने 'इन्फ़ो' में भारत का पता भरा हुआ था। कुछ झूठ कभी-कभी कितने सुविधाजनक रहते हैं!

पीली पटि्टयों वाली सड़क पार करने की जगह आ गई थी। नीमा ने इधर उधर ठीक से देखा और सड़क पार कर के दूसरी ओर आ गई। इस तरफ फुटपाथ के चौखाने आयताकार हैं। वर्गाकार चौखाने एक कदम में खत्म हो जाते हैं पर आयताकार चौखाने दो कदम तक साथ रहते हैं। हर दूरी ठीक-ठीक नापी हुई है नीमा के कदमों ने और यह भी कि कंप्यूटर की दोस्ती इन फुटपाथ के चौखानों की तरह एक या दो कदमों में ही खत्म हो जाती है। मार्क की दोस्ती भी कब खत्म हो गई नीमा को पता नहीं चला था।

यों तो रोज-रोज एक सा काम करते हुए ऊब सी होने लगती है पर एक दिन यहाँ टहलने न आए तो नीमा को यह जगह याद आने लगती है। यह चौखानों से जड़ा साफ सुथरा फर्श जिसपर वह टहल रही है, क्रीक पर दूर तक फैली हुई नरम घास का कालीन, लाइन से जड़े काले सुनहरे लैंप पोस्टों की दोहरी कतारें, उनसे बिखरते दूधिया प्रकाश के घेरे, जहाँ तहाँ टिकीं आइस्क्रीम की गाड़ियाँ, दूर-दूर पर बने छोटे-छोटे फास्ट फ़ूड के रेस्त्रां, रॉट आयरन की काली बेंचें और दूर पर पत्थरों की मेहराब। मेहराब के पार रेत, रेत पर बड़े-बड़े काले पत्थरों का ढेर और उसपर लहरें मारता समंदर, समंदर के किनारे बसा अजमान कैंपेंस्की होटल और इधर उधर टहलते उसके सैलानी सब कुछ उसकी शामों का हिस्सा बन चुके हैं। सभी कुछ अपना सा है। अजीब सी बात यह है कि यह हिस्सा कितना उसका है कितना नहीं, इसकी कोई पहचान नहीं। दोनों के बीच कोई संवाद नहीं, सिर्फ एक चुप-सी है एक अजीब-सा मौन यही एक मौन दोनों के संबंधों का आधार है।

सिर्फ इमारतें या प्रकृति ही नहीं तमाम सारे लोग जो यहाँ नीमा की तरह शाम बिताने आते हैं नीमा के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसा अचानक नहीं हो गया है एक साल से ज्यादा समय लगा है नीमा को इन्हें अपनाने में। ऐसा भी नहीं है कि इस एक साल में कुछ बदला नहीं, लोग बदले हैं, उसके देखते-देखते यह जगह रंगो रोगन से सजी-धजी जगमग हो गई है। चहल पहल भी काफी बढ़ गई है।

यहीं एक दिन थिलोका मिली थी उसे। नीमा क्रीक पर बिछी एक बेंच पर सुस्ता रही थी। अचानक किसी श्रीलंकन-सी दिखने वाली लड़की ने पास बैठते हुए पूछा था कि क्या उसे घर के काम के लिए किसी 'मेड' की जरूरत है?

एक पल को नीमा झिझकी थी। पता नहीं कौन है? कैसी है? कहीं यह किसी चोर उचक्कों के गैंग से तो नहीं? फिर लगा यहाँ पर ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े कानून हैं। नीमा कहीं बाहर काम नहीं करती है वह इस पर निगाह रख सकती है और सच पूछो तो नीमा भी अभी भारतीय तौर तरीकों से मुक्त नहीं हो पाई है। खाना पकाने के बाद बर्तनों का ढेर उसे काटने को दौड़ता है, फिर इस विला का झाड़ू-पोंछा उसकी हिम्मत से बाहर की बात है। कुछ थोड़ी सी बातें कर के नीमा ने उसे अपने घर का पता व फोन नम्बर दे दिया। 'मेड' ने अपना नाम लिली बताया था और वह अपनी तरह की अंग्रेज़ी बोलती थी।

अगले दिन ठीक समय से लिली आ गई थी। घर की कौन-सी चीज किस तरह साफ करनी है, किस चीज को साफ करने में किस साबुन का इस्तेमाल करना है, किस ब्रांड के पोछे अच्छे होते हैं और कौन से लिक्विड से 'करी' के दाग अच्छी तरह साफ हो जाते हैं इस सबके विषय में उसकी जानकारी का कोई जवाब नहीं था। दो घंटो में ही उसने ऐसे-ऐसे नुस्ख़े चुटकियों में थमा दिए थे जिन पर शोध करते हुए नीमा साल भर में भी पारंगत नहीं हो पाई थी। उसकी सफाई और दमखम देख कर नीमा परम प्रसन्न थी।

इतने में दरवाजे की घंटी बजी। नीमा ने देखा कोई तीस बरस की उम्र का आदमी सामने खड़ा था। उसकी कार में दो सिंहली लड़कियाँ पीछे और एक सामने पहले से थीं। मेरी प्रश्नवाचक संदेहास्पद मुद्रा देख कर उसने हिन्दी में पूछा, ''शकीला है?''
''शकीला कौन?'' नीमा ने आश्चर्य से पूछा।
लिली दौड़ कर बाहर आ गई। अपने सैंडल्स पहनते हुए सिंहली में उस आदमी से बातें करने लगी। कार में बैठी लड़कियों ने उसे हाथ हिलाया और फिर शुरू हो गई उनकी टपर-टपर अपनी भाषा में। पीछे वाली लड़कियों ने खिसक कर लिली के लिए जगह बनाई और वह झट से बैठ कर फुर्र हो गई।

नीमा को लगा कि ये सब ठीक लोग नहीं। दरवाजा बंद किया और सोच लिया कि लिली जब अगली बार आएगी उसको दरवाजे से ही लौटा देना है, किसी 'हेल्प' की उसे जरूरत नहीं। साफ सुथरा चमचमाता हुआ घर मुँह चिढ़ाने लगा था पर चौबीस घंटे बीतते न बीतते नीमा का गुस्सा शांत हो गया। सोचने लगी, एकदम से भावुकतापूर्ण निर्णय लेना ठीक नहीं। क्यों न धैर्य के साथ पूछा जाय। लिली के घर का पता ले ले और पासपोर्ट के बारे में पूछ ले कि उसके पास है या नहीं। इतनी जानकारी ही काफी होगी यह पता करने के लिए कि वह कौन है, क्या करती है।

एक दिन बाद जब लिली ने घंटी बजाई नीमा ने दरवाजा खोला और धीरे से कहा, ''लिली, तुम्हारे कितने नाम हैं?''
''ओह मैडम मुझे लगा था कि उस दिन आप हैरान हो गई होंगी। मैं बताती हूँ आपको सारी बात, आप तो समझदार लगती हैं, लगता है आप पाकिस्तानी हैं, अगर कोई क्रिश्चियन आपके घर में काम करे तो आपको ऐतराज तो नहीं?'' उसने पूछा।
''नहीं हिन्दू, मुस्लिम या क्रिश्चियन से मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता पर मैं पाकिस्तानी नहीं हिन्दुस्तानी हूँ।''
''आप हिन्दुस्तानी है? उसने आश्चर्य से पूछा, ''आप पाकिस्तानियों की तरह उर्दू बोलती हैं, बिन्दी भी नहीं लगातीं और आप मलयालम भी नहीं समझतीं?''
''मैं बिन्दी लगाती हूँ पर मैंने कोई कड़े नियम नहीं बना रखे हैं इस बारे में। कभी भूल गई तो नहीं भी लगाई और मलयालम दक्षिण भारतीय भाषा है जो मुझे नहीं आती। मैं उत्तर भारतीय हूँ। उत्तर भारत में यही भाषा बोली जाती है।'' लगता था जितना संदेह मुझे उसके बारे में था उससे कहीं ज्यादा संदेह उसे मेरे बारे में मेरे पहनावे और रहन सहन को लेकर था।

''अच्छा अच्छा'', उसने मुस्कराते हुए कहा लगता था उसे बात समझ में आ रही है और फिर वह अपने बारे में बताने लगी,
''मेरा नाम थिलोका है। मेरे पासपोर्ट में भी यही नाम है। मेरे माता पिता बौद्ध थे बाद में धर्म परिवर्तन कर के क्रिश्चियन हो गए। अब हम इसी धर्म का पालन करते हैं पर धर्म अलग-अलग होने से क्या होता है? आखिर हर धर्म एक ही बात तो सिखाता है। यहाँ एक अजीब-सा रिवाज है। किसीको अपने देश की 'मेड' चाहिए किसी को अपने धर्म की। जब मैंने आपको क्रीक पर देखा तो आप पैंट कोट पहने थीं। मुझे लगा कि आप क्रिश्चियन होंगी इसलिए मैंने अपना नाम लिली बता दिया और अंग्रेज़ी में बात की।

''जो उस दिन कार ड्राइव कर रहा था वह मेरे पति का छोटा भाई है। उसने आपको सलवार कुर्ते में देखा तो समझा कि आप पाकिस्तानी हैं इसलिए उसने मेरा नाम शकीला बताया और उर्दू में बात की। हम कई रिश्तेदार यहाँ हैं। हममें से जो भी बेकार होता है वो हम सबके लिए ड्राइविंग कर लेता है। मैं पिछले बीस सालों से शारजाह में हूँ। इतने दिनों में उर्दू, इंगलिश, अरबी, मलयालम और सिंहली भाषाएँ बोलने लगी हूँ। जब मैं पाकिस्तानी घरों में काम करती हूँ तो अपना नाम शकीला रख लेती हूँ। हिन्दुस्तानी घरों में त्रिलोका बता देती हूँ। मुझे अरबी घरों में काम करना अच्छा नहीं लगता। वहाँ काम बहुत होता है और कभी खत्म नहीं होता।''

कितने सारे चौखानों के बारे में जानती है थिलोका, नीमा ने सोचा था। इतने सारे चौखानों से गुजरते हुए इस दुनिया के समंदर के कितने ज्वार भाटे झेले होंगे इसने। किस तरह अपनी मेहराबें बनाई होंगी इसने। किस तरह सीमेंट जमाई होगी अपने चारों ओर फैले हर चौखाने के अनुसार अपने को समायोजित करते हुए।

आगे के मोड़ पर बड़े नीले वाले बोर्ड से नीमा को अपने घर की ओर मुड़ना था। बस दो मिनट का समय और नीमा ने सोचा। उसके बाद दस मिनट लगते हैं नीमा को घर तक पहुँचने में। आठ बजे तक वह घर में होगी। यह समय समीर के आने का है। आठ से दस तक या तो टीवी देखेगी या फिर रात के खाने के लिए कुछ पका लेगी। टहलने के लिए निकलने के पहले समीर का फोन आया था। सात बजे उसकी मीटिंग है और बाद में डिनर। शायद लौटने में देर होगी। मीटिंग खतम करने के बाद आठ से साढ़े आठ के बीच फोन करने को कहा था उसने।

''मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के..." पीछे आती कार का स्टीरियो काफी तेज आवाज में बज रहा था। किसी भारतीय की कार होगी नीमा ने सोचा। अचानक तेज हार्न और ब्रेक की आवाज के साथ कार बगल में आकर रुकी तो नीमा चौंक-सी गई। पलट कर देखा, समीर था।

''हेइ मान गए? क्या पकड़ा है?'' समीर क्लास छोड़ कर भागे हुए विद्यार्थी के मूड में था, ''चलो 'दिल्ली दरबार' में मलाई कोफ्ते, बटर चिकन और गार्लिक नान खाते हैं।'' खाना समीर की सबसे बड़ी कमजोरी है। खासतौर से मुगलई।
''आज इतनी जल्दी? और आज तो तुम्हारा डिनर था न?'' नीमा ने आश्चर्य से पूछा हालाँकि यह जबरदस्त ट्रीट थी उसके लिए भी। पिछले एक महीने से दोनों कहीं बाहर खाने नहीं गए।
''हाँ, आज मन नहीं हुआ डिनर तक रुकने का। शायद रोज-रोज के किब्बेह, तबूलेह और हमूस वगैरह-वगैरह एक हजार डिशेज से मेरा दिल भर गया आज पुदीने की चटनी याद आ रही है मिर्ची वाली।''

समीर का जीने का अपना तरीका है वह हजारों चौखाने पार कर के वापस लौट आता है अपने चौखाने पर। शायद हर भारतीय का यही तरीका है वे या तो अपने चौखाने पार नहीं करते, या हजारों चौखाने पार करते हुए अपने चौखानों पर वापस लौट आते हैं। शायद इसीलिए दुनिया में कहीं भी रहें, चौखानों की भीड़ में वे खोते नहीं। हर बार मेन रोड पर मिल जाते हैं...ज़िंदगी में भी।

नीमा ने मुस्कुरा कर कार का दरवाजा खोला और अंदर बैठ गई। समीर ने वाल्यूम धीमा कर दिया। अंदर मंद संगीत जारी था मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के..., बाहर फुटपाथ के चौखाने तेज़ी से पीछे छूटते जा रहे थे।

१६ सितंबर २००२

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