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                     बाहर फाटक पर 
                    वुल्फ़ भौंका। ''कौन है बाहर?'' बाबा दूसरे कमरे में टी.वी. पर क्रिकेट मैच 
                    देख रहे थे, ''कौन देखेगा?''
 ''मैं देखूँगी।'' माँ हमारे पास से उठ गईं- ''और कौन देखेगा?''
 मैं भी उनके पीछे जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।
 ''वह आदमी कैसा था, जो सुबह आया था?'' जीजी धीरे से फुसफुसाईं।
 अकेले में 
                    मेरे साथ वे अकसर फुसफुसाहटों में बात करतीं।अपने कदम मैंने वहीं रोक लिए और जीजी के निकट चला आया। उस 
                    अजनबी के प्रति मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई थी।
 ''वह कौन है?'' मैंने पूछा।
 ''एक ज़माने का एक बड़ा कुश्तीबाज़।'' जीजी फिर फुसफुसाईं- 
                    ''इधर, मेरे पास आकर बैठ। मैं तुझे सब बताती हूँ।''
 ''क्या नाम है?''
 ''मंगत पहलवान...''
 ''फ्री-स्टाइल वाला?'' कुश्ती के बारे में मेरी जानकारी अच्छी 
                    थी। बड़े भैय्या की वजह से जिनके बचपन के सामान में उस समय के 
                    बड़े कुश्तीबाज़ों की तस्वीरें तो रहीं ही, उनकी किशोरावस्था 
                    के ज़माने का डायरियों में उनके दंगलों के ब्यौरे भी दर्ज़ थे। 
                    बेशक बड़े भैय्या अब दूसरे शहर में रहते थे, जहाँ उनकी नौकरी 
                    थी, पत्नी थी, दो बेटे थे लेकिन जब भी वे इधर हमारे पास आते 
                    मेरे साथ अपनी उन डायरियों और तस्वीरों को ज़रूर कई-कई बार 
                    अपनी निगाह में उतारते और उन दक्ष कुश्तीबाज़ों के होल्ड 
                    (पकड़), ट्रीप (अडंगा) और थ्रो (पछाड़) की देर तक बातें करते।
 ''हाँ। फ्री-स्टाइल'' जीजी मेरी पुरानी कमीज़ के ब़टन खोलने 
                    लगीं- ''और वेट क्लास में सुपर हैवी-वेट...''
 ''सौ के.जी. से ऊपर?'' मुझे याद आ गया। अजनबी मंगत पहलवान ही 
                    था। उसकी तस्वीर मैंने देख रखी थी। जोड़ बंद कर, दस साल पहले, 
                    जितनी भी कुश्तियाँ उसने लड़ी थीं, मुकाबले में खड़े सभी 
                    पहलवानों को हमेशा हराया था उसने। बड़े भैया की वे डायरियाँ दस 
                    साल पुरानी थीं, इसीलिए इधर बीते दस सालों में लड़ी गई उसकी 
                    लड़ाइयों के बारे में मैं कुछ न जानता था।
 ''हाँ, एक सौ 
                    सात...''''एक सौ सात के.जी.?'' मैंने अचंभे से अपने हाथ फैलाए।
 ''हाँ। एक सौ सात के.जी.।'' हँस कर जीजी ने मेरी गाल चूम ली और 
                    अपनी लाई हुई नई कमीज़ मुझे पहनाने लगीं।
 ''वह हमारा दुश्मन कैसे बना?''
 ''किसने कहा वह हमारा दुश्मन है?''
 ''बाबा ने...''
 ''वह फिर आ धमका है।'' माँ कमरे के अंदर चली आईं- ''वुल्फ़ की 
                    भौंक देखी? अब तुम इसे लेकर इधर ही रहना। उस तरफ़ बिल्कुल मत 
                    आना...।''
 माँ फौरन 
                    बाहर चली गईं।वुल्फ़ की गरज ने जीजी का ध्यान बाँट दिया। नई कमीज़ के बटन 
                    बंद कर रहे उनके हाथ अपनी फुरती खोने लगे। चेहरा भी उनका फीका 
                    और पीला पड़ने लगा।
 अपने आपको जीजी के हाथों से छुड़ा कर मैंने बाहर भाग लेना 
                    चाहा।
 ''नीकर नहीं बदलोगे?'' जीजी की फसफसाहट और धीमी हो ली- ''पहले 
                    उधर चलोगे?''
 ''हाँ।'' मैंने अपना सिर हिलाया। दबे कदमों से हम टेलीफ़ोन 
                    वाले कमरे में जा पहुँचे।
 फाटक खुला था 
                    और ड्योढ़ी में मंगत पहलवान वुल्फ़ के साथ गुत्थमगुत्था हो रहा 
                    था। उसके एक हाथ में वुल्फ़ की दुम थी और दूसरे हाथ में वुल्फ़ 
                    के कान। वुल्फ़ की लपलपाती जीभ लंबी लार टपका रही थी और कुदक 
                    कर वह मंगत पहलवान को काट खाने की ताक में था।''अपने गनर के साथ फौरन मेरे घर चले आओ।' - हमारी तरफ़ पीठ किए 
                    बाबा फ़ोन पर बात कर रहे थे, ''तलाक ले चुका मेरा पहला दामाद 
                    इधर उत्पात मचाए है...''
 दामाद? बाबा 
                    ने मंगत पहलवान को अपना दामाद कहा क्या? मतलब, जीजी की एक शादी 
                    हो चुकी थी? और वह भी मंगत पहलवान के संग?मैंने जीजी की ओर देखा। वह बुरी तरह काँप रही थीं। ''माँ''- 
                    घबराकर मैंने दरवाज़े की ओट में, ड्योढ़ी की दिशा में आँखें 
                    गड़ाए खड़ी माँ को पुकारा। जीजी लड़खड़ाने लगीं। माँ ने लपककर 
                    उन्हें अपनी बाहों का सहारा दिया और उन्हें अंदर सोने वाले 
                    कमरे की ओर ले जाना चाहा। लेकिन जीजी वहीं फ़र्श पर बीच रास्ते 
                    गिर गईं और लहू गिराने लगी टाँगों के रास्ते।
 ''पहले डॉक्टर बुलाइए जल्दी...'' माँ बाबा की दिशा में 
                    चिल्लाईं, ''बच्चा गिर रहा है...''
 बाबा टेलीफ़ोन पर नए अंक घुमाने लगे। जब तक बाबा के गनर वाले 
                    दोस्त पहुँचे वुल्फ़ निष्प्राण हो चुका था और मंगत पहलवान ढीला 
                    और मंद।
 और जब तक 
                    डॉक्टर पहुँचे जीजी का आधा शरीर लहू से नहा चुका था। अगले दिन 
                    बाबा ने मुझे स्कूल न भेजा। बाद में मुझे पता चला उस दिन की 
                    अख़बार में मंगत पहलवान की गिरफ्तारी के समाचार के साथ हमारे 
                    बारे में भी एक सूचना छपी थी- माँ और बाबा मेरे नाना-नानी थे 
                    और मेरी असली माँ जीजी थीं और असली पिता मंगत पहलवान। |