मजबूत
है। भर दूँगा इस थियेटर को मेरी आवाज़ से! मेरे गले पर
माइक्रोफोन का हार नहीं लटकेगा!' अशोक को अपनी जवानी के
रंगभूमि पर गर्जना करते हुए स्वप्न याद आ गये। थियेटर है और बड़ा स्टेज भी है।
ऊपर नीचे का मामला कैसे संभलना होगा? तीन स्टेप्स स्टेज के ऊपर
जाने के लिये और तीन नीचे उतरने के लिये, जनता के करीब आने के
लिये। बड़ा सफेद बोर्ड है, पहियेवाला, मगर वो स्टेज पर है।
अशोक सोचने लगा और बोलने भी लगा ताकि जनता उसकी सोच सुन भी
सके। 'मैं हमेशा बोर्ड पर लिखता काफी हूँ, और काफी प्रश्नोत्तर
भी विद्यार्थियों से करता हूँ। लिखने के लिये तीन स्टेपस् ऊपर,
आँखों से आँख मिलाकर बाते करने के लिये तीन स्टेप्स् नीचे!'
"सुनो भाई, ये ऊपर जाना और ये नीचे उतरना, शायद एक दिन मैं
गिरने वाला हूँ। हँसना मत उस वक्त, एम्ब्युलेन्स को जल्दी से
बुला लेना, ठीक है?" और जनता में कुछ हँसी फैल गई।
"अशोक, यहाँ नीचे के लेवल से ये ओवरहेड प्रोजेक्टर इस्तेमाल कर
सकते हो। ओवरहेड़ की प्लास्टिक पर लिखो, और सब स्क्रीन पर
दिखाई देगा।"
"स्क्रीन कहाँ हे?"
"वो स्टेज पर पहियेवाले बोर्ड के पीछे।"
"ये तो बहुत से पहिये घुमाने होगे। मेरी मदद करोगे? ठीक है,
अगली बार देख लेंगे। ये ओवरहेड की प्लास्टिक पे लिखने के लिये
खास प्रकार की कलम चाहिये, ठीक? डीन के ऑफिस में से पेन ढूँढने
होंगे।" अशोक ने अभी तक ओवरहेड प्रोजेक्टर का खास इस्तेमाल
नहीं किया। हमेशा सोचा कि ये मशीन मदद करने के बजाय उससे
स्पर्धा करेगा। आँखों से आँख मिलाकर बात करने के लिये जनता का
दिल जीतने के लिये सब रोशनी एक जगह केन्द्रित होनी चाहिये।
अशोक को ये रोशनी बाँटना अच्छा नहीं लगता।
लेक्चर का नया दिन आ गया, सोमवार है। थियेटर भरा जा रहा है।
विद्यार्थी, अशोक की प्यारी जनता, धीरे धीरे अंदर आ रही है, और
पुस्तक के अलावा हर प्रकार की खाने की सामग्री भी साथ-साथ आ
रही है। कुछ लोगों के पास घर से लाया हुआ लंच का सामान है।
बहुत से लोगों ने गरम-ठंडा कॉलेज की दुकान से खरीदा है।
कुर्सियाँ भरने लगी, ट्रे खुलने लगी। एक अद्भुत सा दृष्य बना
जा रहा है। खाद्य सामग्री बाहर आने लगी। कहीं एक फुट लम्बी भरी
हुई सबमरीन दिखती हैं, कहीं पिज़ा।
लगता है आज पिज़ा की जीत होगी! बड़ी बड़ी त्रिकोणाकार पिज़ा की
स्लाइसें दिख रही हैं। लगता है, सभी गर्म गर्म पिज़ा एक साथ
कहीं से ले के आये। गर्म पिज़ा, उबलती हुई मौजरेला चीज़, जरूर
कुछ जीभ जलने वाली है! थियेटर के सभी हाथ खाने को मुँह की ओर
ले जा रहे थे। कुछ उलटे हाथ बीच बीच में मुँह को पोछ रहे थे!
ये पिकनिक है क्या? नहीं, ये तो थियेटर है, कुछ मनोरंजन शुरू
होने वाला है!
"मेरी प्यारी जनता, मैं आप लोगों की ईष्या करता हूँ। कितने
जवान हो तुम सब, कितनी बड़ी भूख है तुम्हारी! लगता है आज कॉलेज
की दुकान ने बड़ा धंधा कर लिया आप लोगों से!" अशोक ने मनोरंजन
कार्यक्रम की शुरुआत की।
"एक पिज़ा पीस लोगे, अशोक?"
"कितनी प्यार भरी बात कर दी, जेनिफर। मगर वो तो मैं नहीं कर
सकता। मेरे लिये खाना, बोलना और सोचना : सब एक साथ करना
मुश्किल है।"
"हमारा सोम और शुक्र का छ: घंटे का सीधा शेड्यूल है, कोई खाने
का समय नहीं बीच में।"
"ये तो अच्छा शेड्यूल नहीं। ठीक है, मेरी प्यारी जनता खा लो।
बड़े भूखे होंगे। मैं कुछ थियेटर की लंबाई चौड़ाई माप लेता
हूँ। दरम्यान में लन्च पूरा कर लो।"
सर फर्श पर झुकाये हुए, एक कोने से दूसरी ओर, अशोक ने कदम
गिनने शुरू किये।
शुक्रवार आया। फिर वही दृष्य। बड़े भारी से पिज़ा के त्रिकोण
बॉक्स में से निकलने लगे। गरम गरम सीधे ओवन में से निकले हुए।
अशोक ने चंद घड़ी इंतजार किया ताकि पिज़ा की हस्ती मिट जाये।
लेक्चर का आरंभ किया, और ओवरहेड की प्लास्टिक पे लिखना शुरू
किया। कोई आधा घंटा हुआ होगा, और अशोक की आँख प्लास्टिक से
उठकर जनता पर गिरी। एक लड़की थियेटर में अभी दाखिल हुई सी लगती
थी। अपनी कुर्सी की ओर प्रयाण कर रही थी। एक हाथ में ताज़े
पिज़ा की स्लाइस थी, दूसरे हाथ में बॉक्स जहाँ से शायद और भी
स्लाइस निकलने वाली थी। अशोक कुछ नहीं बोला, और प्लास्टिक पे
लिखना शुरू किया : "मेरे मन में बसा हैं पिज़ा! क्या कोई खा
रहा है? कौन खा रहा है?" अशोक को कोई जवाब की अपेक्षा नहीं थी।
सिर्फ मजाकिया तरीके से संदेशा भेजना था कि जनता, अब तो पिज़ा
पार्टी खत्म हो जानी चाहिये!
दिन बहते चले, और जनता का प्रिय थियेटर वाला लंच टाइम जारी
रहा। अशोक कोई पांच मिनट् देरी से लेक्चर शुरू करता रहा मगर
नये ताज़े पिज़ा जन्म लेते रहे।
"अशोक, ये हमारा कुसूर नहीं है। ये एडमिनीस्ट्रेशन का कुसूर है
जिसने ऐसा शेड्यूल बनाया जहाँ लंच का कोई समय नहीं बीच में। आप
लेक्चर करते रहिये, हम सुन रहे हैं!"
"बात ये है कि मुझे आप लोगों से वार्तालाप करना होता है।
प्रश्न पूछने होते हैं, जवाब देने होते हैं, और ये पिज़ा बीच
में आ जाता है। नज़र उठा कर देखता हूँ तो आप लोग व्यस्त नज़र
आते हैं। बातचीत शुरू करने में निराशा उमड़ आती है। ऐसा महसूस
होने लगता है कि किसी का खाना खराब हो जायेगा!" अशोक ने समझाने
की कोशिश की।
अशोक के दिमाग में विचारों की घमासान हो रही थी। 'जनता को कैसे
बताएँ कि मेरे लेक्चर देने के कार्य में विक्षेप हो रहा है। हर
लेक्चर के पीछे बहुत सी मेहनत रहती है, और मुझे संतोष नहीं मिल
रहा है। पढ़ाई को आनंदमय अनुभव बनाने की कोशिश पर वार हो रहे
हैं। अगर ये प्यारी जनता खाने में मशगूल है तो मुझ से बात कैसे
कर सकेगी? नोट्स कैसे ले सकेगी? पढ़ाई में ध्यान कैसे
केन्द्रित कर सकेगी? उन लोगों का क्या जो खाना नहीं खा रहे
हैं? पूरा माहौल खराब हो रहा है। क्या मैं ये सोच लूँ कि मुझे
पगार मिलती है तो लेक्चरबाजी कर लूँ, और बाकी सब भूल जाऊँ?
उपेक्षित रहूँ और सहन कर लूँ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर
समस्या है तो समाधान करना होगा।' अशोक को एक और सोच आयी। ऐसा
भी हो सकता है कि ये खाने की क्रिया दूसरे प्रोफेसरों को इतना
परेशान ना भी करती हो।
"क्या आप सब आगेवाले साडे बारह के लेक्चर में भी खाना खाते
हैं?"
"हाँ, अशोक, वहाँ भी लंच होता है।"
"तो क्या डॉ. क्लटरहाम कुछ बोलते नहीं?"
"नहीं, अशोक, कुछ भी नहीं बोलते। सिर्फ नज़र देते हैं।"
"कैसी नज़र?"
"ऐसी नज़र जो कहती है कि लेक्चर के समय खाना-वाना ठीक नहीं!"
"ये समस्या हल तो करनी होगी। मेरे खयाल से जिंदगी में खाना तो
जरूरी है, मगर लेक्चर के समय नहीं। अगर आप लोग डीन से मिलकर ये
समस्या प्रस्तुत करे तो कोई रास्ता निकल भी सके।"
कुछ अग्रणी विद्यार्थियो को अशोक का सुझाव भा गया। कुछ पहुँच
गये असोसिएट डीन के पास, और कुछ पहुँच गये डिपार्टमेंट के
चेयरपर्सन के पास।
चेयरपर्सन धमाधम करता हुआ अशोक की ऑफिस पर पहुँच गया। ये
शेड्यूल बनाने की पहली जिम्मेदारी चेयरपर्सन की रहती है। अशोक
ने दरवाजा खोला, और कुछ भी कहे उसके पहले ही चेयरपर्सन अशोक के
ऑफिस की खाली कुर्सी पर जम गया। आँधी होने वाली हैं, आफत का
आगमन हुआ है!
"शेड्यूल बदलना नामुमकिन है। बच्चों को खाने दो, खाना जरूरी
है, अगर पसंद नहीं हैं तो सहन कर लो!"
अशोक सोचने लगा, ये आदमी है कि पजामा! बात करने का तरीका भी
नहीं आता है! समस्या को ठीक से सोचा भी नहीं होगा और हुक्म दे
रहा है! गलती तो सबकी हो सकती है मगर गलती का स्वीकारना और
सुधारने की कोशिश करना भी जरूरी रहता है। अशोक कुछ कहे उसके
पहले नया गोलीबार हुआ।
"बच्चे बता रहे थे कि खाने के बारे में तुमने कुछ अप्रिय बातें
कह दी।" अब अशोक का गुस्सा वश में नहीं रहा। सोचने का वक्त
खत्म!
"क्या? अप्रिय बातें? किसको? जितने ही आदर से आज तक मैंने
तुमसे बात की है उतने ही आदर से बच्चों के साथ बात करते आया
हूँ। रास्ते में जो भी जख्म हुए, जो भी दर्द मिला उससे ऊपर उठ
कर मैंने प्यार और दोस्ती का हाथ फैलाया है। हाँ, सब को तो जीत
नहीं सका, मगर बहुत से बच्चों ने आज तक प्यार भरी और आभार से
भरी चिट्ठियाँ लिखी है मुझे। मुझे अभी भी दर्द तो ये हो रहा है
कि तुम्हें मेरी कुछ सुननी नहीं है, और किसी बच्चे की बात मान
ली कि मैंने
क्लास में किसी का अपमान कर दिया! अगर किसी बच्चे को प्रोफेसर
के बारे में शिकायत है तो उसे डीन को मिलना चाहिये। चेयरपर्सन
को बीच में नहीं आना चाहिये। तुम मेरे सहयोगी हो, वरिष्ठ नहीं।
जो भी बच्चे मेरी क्लास में हैं, वो तुम्हारी क्लास में भी
हैं। बच्चों को शिकायत करने का मौका देना, सुनना और मान लेना
वो तुम्हारी गलती है। ये समस्या कैसे हल हो सकती है उसके बारे
में मैं डीन से बात कर लूँगा," अशोक ने अपने लेक्चर की
पूर्णाहुति की, और तूफान को दरवाजे से बाहर निकाल दिया। |