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                     जमींदार साहब 
                    दयालू थे। मगर घीसू पर दया करना काले कंबल पर रंग चढ़ाना था। 
                    जी में तो आया, कह दें चल, दूर हो यहाँ से! यों तो बुलाने से 
                    भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी, तो आकर खुशामद कर रहा है। 
                    हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दंड का अवसर न था। 
                    जी में कुढ़ते हुए दो रुपए निकालर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का 
                    एक शब्द भी मुँह से न निकाला। उसकी तरफ ताका भी नहीं। जैसे सिर 
                    का बोझ उतारा हो। जब जमींदार 
                    साहब ने दो रुपए दिए, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इन्कार का 
                    साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना खूब 
                    जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने। एक घंटे में 
                    घीसू के पास पाँच रुपए की अच्छी रकम जमा हो गई। कहीं से अनाज 
                    मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाजार से 
                    कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस काटने लगे। गाँव की 
                    नरम-दिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश को देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो 
                    बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।"कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न 
                    मिले, उसे मरने पर कफन चाहिए।"
 "कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है!"
 "और क्या रखा रहता है? यहीं पाँच रुपए पहले मिलते, तो कुछ 
                    दवा-दारू कर लेते।"
 दोनों 
                    एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते 
                    रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर। तरह-तरह 
                    के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि 
                    शाम हो गई। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के 
                    सामने जा पहुँचे और जैसे किसी पूर्व-निश्चित योजन से अन्दर चले 
                    गए। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने 
                    गद्दी के सामने जा कर कहा, "साहू जी, एक बोतल हमें भी देना।" इसके बाद कुछ 
                    चिखौना आया, तली हुई मछलियाँ आई और दोनों बरामदे में बैठकर 
                    शान्तिपूर्वक पीने लगे। कई कुज्जियाँ 
                    ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गए।घीसू बोला, "कफ़न लगाने से क्या मिलता है? आखिर जल ही तो जाता, 
                    कुछ बहू के साथ तो न जाता।"
 माधव आसमान 
                    की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी 
                    बना रहा हो, "दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बामनों को हजारों 
                    रुपए क्यों दे देते हैं! कौन देखता है, परलोक में मिलता है या 
                    नहीं!" "बड़े 
                    आदमियों के पास धन है, चाहे फूँके। हमारे पास फूँकने को क्या 
                    है?" "लेकिन लोगों 
                    को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफन कहाँ है?" घीसू हँसा, 
                    "अबे कह देंगे कि रुपए क़मर से खिसक गए। बहुत ढूँढ़ा मिले 
                    नहीं। लोगों को विश्वास तो न आएगा, लेकिन फिर वही रुपए देंगे।" माधव भी 
                    हँसा, इस अनपेक्षित सौभाग्य पर बोला, "बड़ी अच्छी थी बेचारी! 
                    मरी तो भी खूब खिला-पिलाकर!" अभी बोतल से 
                    ज्यादा उड़ गई। घीसू ने दो सेर पूरियाँ मँगाई। चटनी, अचार, 
                    कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दुकान थी। माधव लपककर दो 
                    पत्तलों में सारा सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया और खर्च हो 
                    गया। सिर्फ थोड़े-से पैसे बच रहे। दोनों इस 
                    वक्त शान से बैठे हुए पूरियाँ खा रहे थे, जैसे जंगल में कोई 
                    शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ़ था, न बदनामी 
                    की फिक्र। इन भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था। घीसू 
                    दार्शनिक भाव से बोला, "हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है, तो 
                    क्या उसे पुन्न न होगा?"माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक की, "जरूर से जरूर होगा। 
                    भगवान तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुंठ ले जाना। हम दोनों हृदय 
                    से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला, वह कभी उम्र भर न 
                    मिला था।"
 एक क्षण के 
                    बाद माधव के मन में एक शंका जागी। भोला, "क्यों दादा, हम लोग 
                    भी तो एक-न-दिन वहाँ जाएँगे ही।"घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की 
                    बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
 "जो वहाँ वह 
                    हम लोगों से पूछे कि तुमने कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या 
                    कहेंगे?""कहेंगे तुम्हारा सिर!"
 "पूछेगी तो जरूर!"
 "तू जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? 
                    साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ! उसको कफ़न मिलेगा 
                    और इससे बहुत अच्छा मिलेगा।"
 माधव को 
                    विश्वास न आया। बोला, "कौन देगा? रुपए तो तुमने चट कर दिए। वह 
                    तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में सिंदुर तो मैंने ही डाला था।" घीसू गरम 
                    होकर बोला, "मैं कहता हूँ, उसे कफ़न मिलेगा! तू मानता क्यों 
                    नहीं?""कौन देगा, बताते क्यों नहीं?"
 "वही लोग देंगे, जिन्होंने इस बार दिया। हाँ, अबकी रुपए हमारे 
                    हाथ न आएँगे।"
 ज्यों-ज्यों 
                    अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की 
                    रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई 
                    अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह से 
                    कुल्हड़ लगाए देता था। वहाँ के 
                    वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक 
                    चुल्लू में मस्त हो जाते। शराब से ज्यादा वहाँ की हवा उन पर 
                    नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ खींच लती थीं, और कुछ देर के लिए 
                    वे भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं! या, न जीते हैं न 
                    मरते हैं। और ये दोनों 
                    बाप-बेटा अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगहें 
                    इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं। पूरी बोतल 
                    बीच में हैं। भरपेट खाकर 
                    माधव ने बची हुई पूरियों का पत्तल उठाकर एक भिखरी को दे दिया, 
                    जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और 'देने' के गौरव, 
                    आनन्द और उल्लास का उसने अपने जीवन में पहले बार अनुभव किया।
 घीसू ने कहा, "ले, जा खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, 
                    वह तो मर गई। पर तेरा आशिर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें 
                    से आशीर्वाद दे, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!"
 
 माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा, "वह वैकुण्ठ में जायेगी 
                    दादा, वह वैकुण्ठ की रानी बनेगी।"
 
 घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला, 
                    "हाँ, बेटा वैकुण्ठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को 
                    दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी को सबसे बड़ी लालसा पूरी 
                    कर गई। वह न वैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग 
                    जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को 
                    धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते 
                    हैं!"
 श्रद्धालुता 
                    का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख 
                    और निराशा का दौरा हुआ। माधव बोला, 
                    "मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख 
                    झेलकर मरी!"वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा, चींखें मार-मारकर।
 घीसू ने समझाया, "क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल 
                    से मुक्त हो गई। जंजाल से छूट गई। बड़ी भाग्यवान थी जो इतनी 
                    जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिए।"
 और दोनों 
                    खड़े होकर गाने लगे,"ठगिनी क्यों नैना झमकावै? ठगिनी!"
 पियक्कड़ों 
                    की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और ये दोनों अपने दिल में मस्त 
                    गाते जाते थे।  फिर दोनों 
                    नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाये, 
                    अभिनय भी किए और आखिर नशे से बदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।
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