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                     जब 
                    दो-चार फाके हो जाते, घीसू पेड़ पर चढ़कार लकडियाँ तोड़ लाता 
                    और माधव बाजार में बेच आता और जब तक वे पैसे रहते, दोनों 
                    इधर-उधर मारे-मारे फिरते। जब फाके की नौबत आ जाती, तो फिर 
                    लकडियाँ तोड़ते या मजदूरी तलाश करते। गाँव में काम की कमी न 
                    थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर 
                    इन दोनों को लोग उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम 
                    पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। विचित्र 
                    जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई 
                    सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढँके हुए जिए 
                    जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त। कर्ज से लदे हुए। 
                    गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं। दीन इतने 
                    कि वसूली की आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे 
                    देते थे। मटर-आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू 
                    उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते, या दस-पाँच ऊस उखाड़ लाते और 
                    रात को चूसते। घीसू ने 
                    आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे 
                    की तरह बाप ही के पदचिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और 
                    भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू 
                    भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोद लाए थे। घीसू की स्त्री 
                    का तो बहुत दिन हुए देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले 
                    साल हुआ था। जब से यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था 
                    की नींव डाली थी। पिसाई करके या घास छीलकर वह सेर-भर आटे का 
                    इन्तजाम कर लेती थी और इन दोनों बेगैरतों का दोज़ख भरती रहती 
                    थी। जब से वह आई, ये दोनों और भी आलसी और आरामतलब हो गए थे, 
                    बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो 
                    निर्व्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज 
                    प्रसव-वेदना से मर रही थी और ये दोनों शायद इसी इन्तजार में थे 
                    कि वह मर जाय, तो आराम से सोएँ।  घीसू ने आलू 
                    निकालकर छीलते हुए कहा, "जाकर देख तो क्या दशा है उसकी? चुड़ैल 
                    का फ़िसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!" माधव को भय 
                    था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर 
                    देगा। बोला, "मुझे वहाँ जाते डर लगता है।""डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही!"
 "तो तुम्हीं जाकर देखो न?"
 "मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक 
                    नहीं था। और मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, 
                    आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी। 
                    मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी।"
 "मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हो गया तो क्या होगा? सोंठ, 
                    गुड़, तोल, कुछ भी तो नहीं घर में!"
 
 "सब-कुछ आ जाएगा। भगवान दें तो। जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे 
                    रहे है, वे ही कल बुलाकर देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी 
                    कुछ न था, मगर भगवान ने किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।"
 जिस समाज में 
                    रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत कुछ अच्छी 
                    नहीं न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की 
                    दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, 
                    वहाँ इस तरह मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। 
                    हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था, जो 
                    किसानों के विचार शून्य समूह में शामिल होने के बदले 
                    बैठकबाज़ों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह 
                    शक्ति न थी कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए 
                    जहाँ उसकी मंडली के और गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस 
                    पर सारा गाँव अँगुली उठाता था। फिर भी उसे यह तकसीन तो थी कि 
                    अगर वह फ़टेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ 
                    मेहनत तो नहीं करनी पड़ती। उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग 
                    बेजा फायदा तो नहीं उठाते। दोनों आलू 
                    निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया। इतना 
                    सब्र न था कि उन्हें ठंडा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें 
                    जल गईं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा तो बहुत ज्यादा गरम न 
                    मालूम होता, लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा 
                    जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में 
                    रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ 
                    उसे ठंडा करने के लिए काफी सामान थे इसलिए दोनों जल्द-जल्द 
                    निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते। घीसू को उस 
                    वक्त ठाकुर की बरात याद आई, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस 
                    दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने 
                    लायक बात थी और आज भी उसकी याद ताजा थी। बोला, "वह भोज नहीं 
                    भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़की 
                    वालों ने सबको भरपेट पूरियाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने 
                    पूरियाँ खाईं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे 
                    साग, एक रसेदार तरकारी, दही, मिठाई। अब क्या बताऊँ कि इस भोज 
                    में क्या स्वाद मिला! कोई रोक-टोक नहीं थी। जो चीज माँगो और 
                    जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, किसी से पानी न 
                    पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम, गोल-गोल 
                    सुवासित कचौरियाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, 
                    पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वे हैं कि दिए जाते हैं और जब 
                    मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली, मगर मुझे पान लेने की 
                    कहाँ सुध थी! खड़ा न हुआ जाता था। चटपट जाकर अपने कंबल पर लेट 
                    गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!" माधव ने इन 
                    पदार्थों का मन-ही-मन मज़ा लेते हुए कहा, "अब हमें कोई ऐसा भोज 
                    नहीं खिलाता।""अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत 
                    सूझती है।
 शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो! 
                    पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे! बटोरने में कमी 
                    नहीं हैं। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है।"
 "तुम़ने बीस-एक पूरियाँ खाई होंगी?"
 "बीस से ज्यादा खाई थीं।"
 "मैं पचास खा जाता।"
 "पचास से कम मैंने भी न खाई होंगी। अच्छा पठ्ठा था। तू तो मेरा 
                    आधा भी नहीं है।"
 आलू खाकर 
                    दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़ 
                    कर, पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर, 
                    गेंडुलियाँ मारे पड़े हों।और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
 : २ : सबेरे माधव 
                    ने कोठरी में जाकर देखा तो, उसकी स्त्री ठण्डी हो गई थी उसके 
                    मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई 
                    थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर 
                    गया था। माधव भागा 
                    हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने लगे 
                    और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना तो दौड़े 
                    हुए आए और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे। मगर ज्यादा 
                    रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न और लकड़ी की फिक्र करनी थी। पर 
                    घर में तो पैसा इस तरह गायब था कि जैसे चील के घोंसले में 
                    माँस। बाप-बेटे 
                    रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गए। वह इन दोनों की सुरत से 
                    नफरत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों पीट चुके थे चोरी करने 
                    के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा, " क्या 
                    है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखाई भी नहीं 
                    देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।"घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा, "सरकार! 
                    बड़ी विपत्त्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गई। 
                    रात-भर तड़पती रही, सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। 
                    दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब-कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गई। 
                    अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा, मालिक! तबाह हो गए। घर 
                    उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ। अब आपके सिवा कौन, उसकी मिट्टी 
                    उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ?"
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