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पर्व पंचांग २८. ७. २००८

इस सप्ताह वर्षा विशेषांक में-
समकालीन कहानियों में-
भारत से  मृणाल पांडे की कहानी चिमगादड़ें
टीन की छत पर पहले एक छितराई-छितराई-सी आवाज़ हुई, जैसे किसी शैतान बच्चे ने कंकरियाँ उछाल दी हों एक क्षण एक बोझिल सन्नाटा - और फिर तरड़-तरड़, एक झटके के साथ बौछार खुल कर बरस पड़ी। मारिया चौंक कर उठ बैठी। अभ्यस्त हाथों ने तकिये के नीचे से चश्मा निकाल कर चढ़ा लिया और अपनी चौंधियाई आँखें मिचमिचाती, कुछ देर वह खिड़की के परे पड़ती बूँदों को ताकती रही। मौसम की पहली बरसात थी। एक गुनगुनी गर्मी लिए हुए ज़मीन का सोंधापन उठा और कमरे में भर गया। धारों की चमकीली निरंतरता में बीहड़ हवा आड़े-तिरछे 'पैटर्न' बनाए जा रही थी! एक हल्की बौछार खिड़की की मुँडेर को भिगो गई।

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विश्वमोहन तिवारी का व्यंग्य
मेढक टर्र टर्र टर्राते हैं

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ओमीना राजपुरोहित सुषमा की लघुकथा
संतोष

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रमेश कुमार सिंह का साहित्यिक निबंध
नवगीत में वर्षा-चित्रण

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डॉ. विजय कुमार सुखवानी की कलम से
फ़िल्मी गीतों में बरसात

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लोक-संस्कृति में अश्विनी केशरवानी का आलेख
छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में वर्षा

 

पिछले सप्ताह

अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य
नाच मोबाइल नाच

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मनोहर पुरी का आलेख
पत्रकारिता, शिक्षा और राजनीति की त्रिवेणी- तिलक

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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
थोड़ा धैर्य थोड़ा श्रम- व्यक्तित्व एक लेखक का

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साहित्य समाचार में
भारत और यू.के. से नए समाचार

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उपन्यास अंश में- भारत से नासिरा शर्मा के उपन्यास कुइयाँजान से एक अंश- बारिश
एकाएक आसमान पर काले-काले बादल छाने लगे। जुलाई का आधा महीना गुज़रने को है। एक-दो बार नाम की बूँदाबाँदी हुई ज़रूर, मगर हवा घिर आए बादलों को जाने किधर उड़ा ले जाती थी। समीना बेसन भूनने में लगी थी, तभी आया चीखी। ''ए छोटी बेगम! आओ देखो, कैसी टपाटप बूँद पड़त हैं... अल्लाह मियाँ तनिक ठहरो तो, कपड़ा तो उठाय लें!'' सूखते कपड़ों को जब तक आया उठाती तब तक बारिश तेज़ हो चुकी था। समीना का दिल चाहा कि वह दौड़कर बाहर जाए और जी भरकर भीगे, मगर बेसन के कढ़ाई में लग जाने के डर से वह काम में लगी रही। बेसन और मिट्टी की सोंधी महक घर में भर गई थी। सभी मौसम की पहली मूसलधार बारिश देखने बाहर बरामदे में जमा हो गए थे! ''सम्मो आओ, बड़ी मज़ेदार बारिश हो रही है।'' कमाल ने समीना को आवाज़ दी। ''इस बारिश ने मिज़ाज़ ही बदल दिया है।

 

अनुभूति में-
वर्षा ऋतु के आगमन पर बरसात की बूँदों में रची- बसी ढेर सी नई पुरानी रचनाएँ

कलम गही नहिं हाथ
कुछ लोगों को यह सुन कर आश्चर्य होगा कि इस दुनिया में ऐसे देश भी हैं जहाँ वर्षा ऋतु नाम का कोई मौसम नहीं होता, न सावन का महीना न कल कल बहती नदियाँ और न हौले हौले चलती रेलगाड़ियाँ। अब बताइए इस देश की नायिका सावन के महीने में रेलगाड़ी से नदी पार कर आने वाले रिमझिम में भीगते नायक की प्रतीक्षा कैसे करेगी? जी हाँ मैं इमारात की बात कर रही हूँ। यह देश वर्षा से बिलकुल अछूता है। इसके विपरीत मध्य या पश्चिम यूरोप में रहने वालों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि भारत के लोग बारिश होने पर इतना खुश क्यों होते है, या बारिश का एक अलग मौसम कैसे हो सकता है? या फिर क्या साल के बाकी दिनों बारिश ही नहीं होती? अलग अलग देशों के निवासियों के अलग अलग सवाल और सबको सब कुछ समझा पाना आसान भी नहीं। क्या आप विश्वास करेंगे कि गर्मियों की रातों को इमारात में इतनी ओस गिरती है कि सुबह उठने पर आँगन या लॉन पूरी तरह भीगे हुए मिलते हैं? लंबी लंबी उँगलियों वाली ताड़ की हथेलियाँ खूब सारी ओस समेट कर अपने जटा-जूट से लपेटे गए तने को तर कर लेती हैं और इस तरावट में सारी दोपहर हरी भरी और तरोताज़ा बनी रहती हैं।
--पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)

इस सप्ताह विकिपीडिया पर विशेष लेख- उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर

क्या आप जानते हैं? कि बाबर अपने समय की आम भाषा फ़ारसी में प्रवीण था, पर उसकी मातृभाषा चागताई थी और उसने अपनी आत्मकथा बाबरनामा चागताई भाषा में ही लिखी।

सप्ताह का विचार- जिस तरह पहली बारिश मौसम का मिजाज बदल देती है उसी प्रकार उदारता नाराज़गी का मौसम बदल देती है- मुक्ता

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
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