हास्य व्यंग्य

मेंढक टर्र टर्र टर्राते हैं
—विश्वमोहन तिवारी


मैं तो बिलकुल चकरा गया। मैं पढ़ा लिखा व्यक्ति हूँ। उल्टी-सीधी बातें मैं नहीं मानता। मैं तर्क करता हूँ। मैं जानता हूँ बरसात में बदसूरत मेंढक टर्र-टर्र टर्राते हैं। मैं इन्हें देवता कैसे मान लूँ? ऋग्वेद के सातवें मंडल में एक मंडूक सूक्त है। मैं इसे पढ़ रहा था, उसमें लिखा था, ''गर्मी की ऋतु में ब्राह्मण पसीने से परेशान हो जाते हैं। इसलिए वर्षा ऋतु के आने पर ब्राह्मण सोमरस का पान करते हैं तथा 'ब्रह्मयज्ञ' करते हैं, उसी तरह मेंढक भी बाहर निकल आते हैं।' फिर आगे लिखा था, 'यज्ञों में जिस प्रकार वेदी के चारों और ब्राह्मण मंत्रों का गान करते हैं, उसी प्रकार हे मेंढकों, वर्षा के दिन, जल से भरे हुए सरोवरों के चारों ओर तुम गान करते हो।' क्या यह सोमरस की महिमा थी?

बहुत आश्चर्य हुआ कि मंत्रों के गान की तुलना मेंढकों के टर्राने से की जा रही है। इसे सुनकर (यदि मेंढक समझ सकें) उन्हें बड़ी खुशी होगी, किंतु ब्राह्मणों को तो अपमान ही लगेगा। ब्राह्मणों का अपमान तो ऋग्वेद नहीं कर सकता। तब इन सूक्तों का क्या अर्थ निकाला जाए? इस मंडूक सूक्त के ऋषि हमारे बहुत पूज्य वशिष्ठ ऋषि हैं। और इस सूक्त का देवता मेंढक है। यह भी मुझे विचित्र लगा कि कुरूप तथा क्षुद्र मेंढक को ऋषियों ने देवता का स्थान दिया। फिर मैंने सूक्त का दसवाँ मंत्र पढ़ा। मुझे लगा कि वे आर्य लोग उतने विकसित नहीं थे जितना उनके विषय में कभी-कभी गाया जाता है। देखिए, गाय के समान रंभानेवाले मेंढक हमें धन प्रदान करें। हज़ारों औषधियाँ जब उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा ऋतु के आने पर यह मंडूक देवता हमें सैंकड़ों गायें दें तथा हमारी आयु बढ़ाएँ। लगा कि जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा था कि वैदिक कालीन लोग चरवाहा युग में जी रहे थे। वे बहुत जीवंत तो थे, किंतु प्राकृतिक शक्तियों से डरकर उन्हें शक्तिशाली देवता मान रहे थे।

मुझे तुलसी की यह चौपाई भी याद आ गई 'दादुर मोर पपीहा बोले।' मुझे तुलसीदास का दादुर को पपीहे के बराबर स्थान देना अच्छा नहीं लगा था, किंतु मैंने उसे वर्षा ऋतु की ध्वनियों का यथार्थ वर्णन समझकर स्वीकार कर लिया था।

इस सबका गहरा रहस्य अमेरिका में खुला। न्यूजर्सी शहर में पोटोमैक नदी के तट पर स्टीवैंस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के हरे-भरे बाग में हम लोग बैठे थे- प्रोफेसर सुरेश्वर शर्मा, श्रीमती शर्मा, मृदुल कीर्ति और मैं। दुसरे तट पर न्यूयार्क की गगनचुंबी इमारतों की जगमग करती बत्तियाँ वहाँ दीपावली का दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। पोटोमैक नदी कोई बहुत चौड़ी नहीं है, लगता था कि हम न्यूयार्क के बिल्कुल निकट हैं। पोटोमैक नदी में जहाज़ों का गमनागमन भी लुभावना लग रहा था। उस मनोहर वातावरण में बातों के रस में डूब जाना बहुत आसान था। प्रो. शर्मा एक रोचक अनुभव सुना रहे थे। बात १९६६ के अंत की है। ग्वालियर की इंदौर रतन होटल में दो वैज्ञानिक नियमित भोजन करते थे, जिनमें एक तो डॉ. सुरेश्वर शर्मा थे तथा दूसरे एक मलयालम वैज्ञानिक थे। एक दिन होटल के मालिक ने नोटिस लगा दिया कि अगले दिन से भोजन में चावल नहीं मिलेगा। उस मलयाली वैज्ञानिक ने जब मालिक को गुस्सा दिखलाया तब मालिक ने हाथ जोड़कर कहा, ''साब, दो महीने पहले चावल एक रु. का दो किलो मिलता था और अब बढ़ते-बढ़ते दो रु. का एक किलो हो गया है। मैं कब तक घाटा सहूँगा। मुझे तो चावल के लिए अतिरिक्त दाम लेने होंगे।''

इस तरह चावल के भाव अचानक आसमान में चढ़ गए थे। इसके कारण जो हो-हल्ला हुआ तब केंद्र सरकार की नींद खुली। उसने एक वैज्ञानिक मंडल केरल भेजा। उनका उद्देश्य यह पता लगाना था कि दसियों वर्षों बाद केरल में चावल की फसल दो वर्षों से क्यों खराब हो रही

है? डॉ. सुरेश्वर शर्मा भी उस मंडल में थे।

मेंढक अमेरिकी तथा फ्रांसीसियों का अत्यंत प्रिय व्यंजन है, जिसकी उन्हें भारी मात्रा में आयात करने की आवश्यकता रहती है। उनकी लगातार कोशिश रहती है कि जिस भी देश से हो सके वे उसका आयात करें। हमारी संस्कृति में हम मानते हैं कि धरती हमारी माता है और सब जीवों के अर्जन के खूब गीत गाए। परिणामस्वरूप आंध्र तथा महाराष्ट्र सरकार ने भी मेंढकों का निर्यात शुरू किया। अगले वर्ष धान की खेती बहुत खराब हुई। अमेरिकियों ने ही केरल सरकार को बताया कि कीडों के बहुत बढ़ने से धान की खेती खराब हुई है। किंतु चिंता की कोई बात नहीं। वे केरल सरकार को कम दामों में कीट रसायन दे तो यह समस्या नहीं होती। ख़ैर हुआ यह कि कीटनाशक विष ने कीड़े तो मारे किंतु पानी और मिट्टी को भी विषैला कर दिया था। अब वे जल तथा मिट्टी के विष को सुधारने का रसायन तथा विशेष खाद देंगे। फिर लाखों डालरों के कीटनाशक तथा खाद आदि आयात किए गए।

फिर क्या होना था सारे भारत में चावल के दाम आसमान पर चढ़ गए। फिर केंद्र सरकार की आँख खुली जिसके वैज्ञानिक दल ने यह रहस्य खोला कि मेंढकों के निर्यात से कीटों पर नियंत्रण न रहा। कीटों ने फसलों का नुकसान किया। कीटनाशकों ने जल तथा मिट्टी को भी विषैला किया। रसायनों तथा खाद ने स्थिति को कामचलाऊ तो बना दिया किंतु प्रकृति में वह पुराना स्वास्थ्य संतुलन वापस न ला सके।

वैज्ञानिक दल के केरल सरकार की तीव्र आलोचना की क्योंकि उन्होंने भारतीय कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के बिना मेंढकों का निर्यात किया था। इस वैज्ञानिक दल ने तुरंत ही मेंढकों के निर्यात को बंद करने की आवश्यकता बतलाई। जिसे पूर्ण रूप से अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है। मेंढक कीड़े-मकोड़े खाकर हमारी सेवा करते ही हैं। कीड़े-मकोड़े खानेवाले अन्य जंतुओं, यथा- सांपों, पक्षियों आदि का वे स्वयं भोजन भी बनते हैं। इस तरह कीड़े-मकोड़े खानेवाले जंतुओं की विविधता बढ़ जाती है, संख्या भी बढ़ जाती है। चूहे किसानों के बड़े दुश्मन हैं। साँप और उल्लू चूहों के दुश्मन हैं। फिर पक्षी पुष्प के परागों को अन्य पुष्पों तक ले जाकर उसके फल बनने में मदद करते हैं। इस तरह पक्षी फसलों की उपज बढ़ाते हैं। कीटनाशक रसायन कीड़ों के साथ-साथ पक्षियों तथा मधुमक्खियों को भी हानि पहुँचाते हैं। मिट्टी तथा पानी के विषैले होने के कारण खेतों के साथ-साथ चरागाहों की फसल और घास भी खराब होती है।

खेतों में तो उर्वरक इत्यादि डालकर थोड़ा सुधार किया जाता है किंतु चरागाहों का सुधार कौन करेगा? इसलिए जानवरों को घास भी कम मिलेगी, फसल के महंगे होने से भूसा भी महंगा होगा। अर्थात गाय इत्यादि का पालन भी महंगा होगा। कीड़े-मकोड़े भी तो गायों को पनपने नहीं देते तथा हमें भी बीमार करते हैं। अर्थात मेंढक गायों आदि जानवरों की संख्या बढ़ाने में भी मदद करते हैं।

अब वैदिक ऋषि वशिष्ठ के साथ मेरा भी मंडूक सूक्त गाने का मन करता हैः गाय के समान रंभानेवाले मेंढक हमें धन प्रदान करें, बकरे के समान ध्वनिवाले मेंढक हमें धन प्रदान करें। चितकबरे तथा हरे मेंढक हमें धन प्रदान करें (निर्यात द्वारा नहीं)। हज़ारों औषधियाँ जब उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा ऋतु के आने पर यह मंडूक देवता हमें सैंकड़ों गाय दें तथा हमारी आयु बढ़ाएँ।

२८ जुलाई २००८