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						पान खाए सैंया हमारो- डॉ रामवृक्ष सिंह
 
 
 
						तीसरी कसम सिनेमा में वहीदा 
						जी पर फिल्माए गए इस गीत को जब हम बचपन में देखते थे तो मन 
						में बड़ी हूक-सी उठती थी। उस समय हमें पान खाना बहुत 
						शानदार काम लगता था। इसी उमंग में हम बच्चे से युवा हो गए। 
						फिर बच्चन जी पर फिल्माया गया गाना आया- खइके पान बनारस 
						वाला। अब तो पक्का हो गया कि पान खाना बड़ी इज्जत अफजाई का 
						काम है। परंपरागत रूप से भी हम हिन्दुस्तानियों ने पान को 
						बड़ी हसरत की नज़र से देखा है। पहले राजा-महाराजाओं को कोई 
						काम कराना होता था तो बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी और 
						शूर-वीरों से भरी महफिल में पान का बीड़ा तश्तरी पर रखकर 
						आगे बढ़ाया जाता था। जो व्यक्ति बीड़े को उठा लेता था, वह 
						एक प्रकार से उस कठिन कार्य को करने का जिम्मा ले लेता था। 
						इसी को बीड़ा उठाना कहते थे। पान की गिलौरी देकर लोग 
						एक-दूसरे का सम्मान करते थे। बड़ी चीज थी पान।
 यदि ऐसा न होता तो राजा-महाराजाओं, नवाबों और रईसों के 
						यहाँ पान के शानदार, बेशकीमती डिब्बे, तश्तरियाँ और 
						रकाबियाँ क्यों रखी जातीं? पान लगाने के लिए बाँदियों की 
						फौजें न होतीं और खूब कीमती सुन्दर व भव्य उगलदान लिए 
						हुजूर की पीक समेटने को बेताब उनके आगे-पीछे घूमते नौकरों 
						का भी तब क्या काम रह जाता? इसीलिए हम कह रहे हैं कि बड़ी 
						चीज थी पान। रहीम ने न जाने किस झक में कह दिया- रहिमन 
						पानी राखिए। सच्चाई तो यह है कि पानी रखने का जमाना तो अब 
						आया है, जब लोग बगल में बिसलरी की बोतल दबाए फिरते हैं, 
						जबकि पान रखने की रवायत सदियों पुरानी है। बड़े-बड़े लोग 
						अपने साथ नौकर रखते थे जो पान की संदूकची लिए हुजूर के 
						पीछे-पीछे चलते थे। उनकी नकल में छोटे लोग भी अंटी में पान 
						दबाए घूमते थे। जो काम ढेरों रुपया देकर भी न हो, उसके लिए 
						बस एक बीड़ा पान काफी होता था। मैं खुद एक ऐसे पान वाले को 
						जानता हूँ जो एक विकास प्राधिकरण के बाहर ठिलिया पर बैठता 
						था। प्राधिकरण के बाबुओं को पान खिला-खिलाकर उसने ऐसा 
						पटाया कि कुछ ही दिनों में प्लाटों का दलाल बन गया। 
						देखते-देखते उसने शहर के कई इलाकों में बड़ी-बड़ी 
						संपत्तियाँ पैदा कर लीं और आज कई करोड़ का मालिक है। उसके 
						बड़े-बड़े शोरूम हैं। सब पान की महिमा है। इसीलिए तो हमारा 
						सुझाव है कि रहीम मियां को कहना था-रहिमन पान खिलाइए, बिना 
						पान सब सून। पान खिलाकर पाइए दिल्ली से रंगून।
 
 नवाब और राजा-महाराजा चले गये। पान रह गया। उसकी शान में 
						इजाफा करने के लिए लोगों ने गीत रच दिए-पान खाए सैयाँ 
						हमारे। खइके पान बनारस वाला। लौंगा इलायची का बीड़ा लगाया। 
						..तो इसी खुमारी में हम एक दिन बच्चे से जवान हो गए। चार 
						पैसे कमाने के लिए नौकरी की तो पोस्टिंग हुई दक्षिण में। 
						वहाँ रहने के लिए मकान ढूंढ़ने जाएं तो जिसे देखो वही हमपर 
						दरवाजा बंद कर ले। कारण? उनको यही संदेह होता कि यह ऊपी का 
						भइया निश्चित रूप से पान खाता होगा और इधर-उधर, हर 
						कोने-अँतरे में उसकी पिचकारी छोड़ता होगा। हमने उन्हें 
						बहुत समझाया कि यह रईसी शौक नहीं पालते, कि हमारे पास रोटी 
						खाने के तो पैसे ही नहीं हैं, पान की विलासिता हम कैसे पाल 
						सकते हैं? तब जाकर कहीं किराए का कमरा मिला।
 
 लेकिन तब से लेकर अब तक, लगभग पच्चीस साल बीतने के बाद भी 
						हमें यह समझ नहीं आता कि लोग पान क्यों चबाते हैं? तात्विक 
						दृष्टि से और भाषावैज्ञानिक दृष्टि से भी पान खाना तो 
						मुहावरा ही गलत है। पान को लोग चबाते जरूर हैं, पर खाते 
						कहाँ हैं? उससे अधिक तो थूकते हैं। तो क्यों नहीं इस पूरी 
						कार्रवाई को लोग पान थूकने का नाम देते? लेकिन ऐसी 
						तथ्यात्मक विसंगतियों से तो अपना समाज भरा पड़ा है। 
						किस-किस का मुहावरा बदलेंगे?
 
 लिहाजा पच्चीस साल से हम यही अनुसंधान कर रहे हैं कि पान 
						में ऐसी कौन-सी गिजा है, जिसके लालच में लोग ढेरों पैसा 
						खर्च करके (कहते हैं कि हैदराबाद में एक ऐसा पान है जो 
						पाँच सौ रुपये का लगता है) चबाते हैं और फिर खाते या 
						निगलते भी नहीं, बल्कि ऐसे ही, कहीं भी उगल देते हैं। यानी 
						ढेरों रुपये का कचरा कर देते हैं।
 
 पान की प्रमुख (और सबसे ठोस) सामग्री है सुपारी। अपने 
						पिताजी को भी पान खाने का शानदार शौक रहा है। उनका बहुत 
						बारीकी और गौर से निरीक्षण करके मैं अपनी पूरी जिन्दगी का 
						यह निष्कर्ष दे रहा हूँ कि वह ठोस सामग्री यानी सुपारी पान 
						चबाने वाले को अपने पौरुष-प्रदर्शन, वीरत्व को सिद्ध करने 
						का साधन मुहैया कराती है। अक्खड़ स्वभाव का होने के कारण 
						पिताजी की अक्सर लोगों से तनातनी हो जाती थी। और उसके ठीक 
						बाद वे पान चबाने लगते। सुपारी की डलियों को वे ऐसे चबाते 
						जैसे अपने प्रतिद्वंद्वी को ही चबा रहे हों। मुझे देखकर 
						बड़ा अच्छा लगता। पिताजी किस तरह एक-एक के दर्प को पीस रहे 
						हैं। सच कहें तो सुपारी ही पान का केद्रीय तत्व है, जैसे 
						शरीर में आत्मा। सुपारी नहीं तो अच्छे से अच्छा बनारसी और 
						मगही पान भी बेजान है। यही कारण है कि पहले राजा-महाराजा 
						जो काम बीड़े से लेते थे, वही काम आज के राजा-महाराजा यानी 
						भाई और अंडरवर्ल्ड के डॉन लोग सुपारी से लेने लगे हैं। 
						किसी को खल्लास करना हो तो भाई लोग सुपारी देते या लेते 
						हैं। यानी अब वे बात की क्रक्स तक पहुँच गए हैं। खोल को 
						उतारकर सीधे आत्मा की तह तक।
 
 हमने ऊपर कहा कि नवाब चले गए पर पान रह गया, नवाबों के शौक 
						भी यहीं रह गए। ये चीजें शाश्वत हैं। ये रहेंगी- 
						हमेशा-हमेशा रहेंगी, ठीक वैसे ही जैसे जहालत, गरीबी, 
						भुखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार। ये इन्सानी सभ्यता के 
						आभूषण हैं। इनके बिना सभ्य समाज सूना है।
 
 तो हम देखते हैं कि लोग पान चबाते हैं और जगह-जगह थूक देते 
						हैं। बस की खिड़की से होंठ झुलाए और एक लीटर पीक सड़क पर 
						उगल दी। कार का दरवाजा खोला और काली सड़क की माँग भर दी। 
						साइकिल और रिक्शे से मुंडी घुमाई और अपने थूथन के 
						ज्वालामुखी से पीक का लावा छोड़ दिया। बेशकीमती पीक का ऐसा 
						अपव्यय देख-देखकर हमारी आत्मा रोती है। लेकिन कुछ लोग बड़े 
						संवेदनशील हैं। न जाने हमारी आत्मा के रुदन के खयाल से या 
						फिर अपनी आय के एक बड़े हिस्से से क्रय की गई इस शानदार 
						गिजा के प्रति ममता के विचार से वे लोग पीक को यों ही 
						सड़कों पर जाया नहीं करते, बल्कि वे अपने आस-पास लिफ्ट 
						में, बरामदों में, आलमारियों के पीछे, मेज के नीचे, दरवाजे 
						की दरार में, और वेस्ट पेपर बास्केट में इस कीमती चीज को 
						संचित करते रहते हैं। प्रांतीयता के स्तर पर इस मामले में 
						बद से बदनाम बुरा वाली कहावत बिलकुल फिट बैठती है। यानी 
						केवल ऊपी नहीं, बल्कि अपने देश के कई बड़े ही वाइब्रेंट और 
						उन्नत राज्यों के लोग भी इस क्षेत्र में उतने ही कर्मठ और 
						जागरूक हैं, जितने बीमारू राज्यों के भइये। बदनाम केवल 
						ऊपी-बिहार हैं।
 
 सच कहें तो पीक नाम की यह शानदार वस्तु पान का मुख्य 
						उत्पाद है। इसके उपोत्पादों में कैंसर, दांतों के कीड़े और 
						ऐसी ही नायाब वस्तुएं हैं, जिनके सहारे ढेरों डॉक्टर और 
						दवा वाले अपना जीवन यापन करते हैं। अब हमें समझ आता है कि 
						इस कीमती उत्पाद की गुणवत्ता पर रीझकर ही उसे इकट्ठा करने 
						के लिए नवाब लोग पीतल और अन्य कीमती धातुओं के नक्काशीदार 
						उगलदान क्यों अपने पहलू में रखते थे।
 
 अब नक्काशीदार उगलदान खरीदने और उसे लिए-लिए साहब के 
						आगे-पीछे दौड़ने-भागने वाले नौकरों व गुलामों की फौज रखने 
						की औकात तो लोगों में रही नहीं। शौक बेशक रह गया। किबला 
						हमारा सुझाव है कि जो लोग पान जैसी विलासिता के रसिया हैं 
						वे या तो उसके मुख्य उत्पाद को रखने के लिए अपने कपड़ों 
						-कमीज, कुर्ते, कोट आदि में वाटर-प्रूफ जेबें सिलवा लें और 
						उसी में कीमती पीक को संचित करें या फिर उसे -जैसाकि पान 
						को खाने का मुहावरा है- खा ही लिया करें, थूक कर पान खाने 
						के मुहावरे में बेज़ा तब्दीली न करें। प्रशासन को भी ऐसे 
						लोगों की कुछ मदद करनी चाहिए जैसीकि सिंगापुर आदि देशों 
						में की गई है।
 
 यानी इतनी कीमती चीज़ यदि कोई सड़क पर या सार्वजनिक स्थान 
						पर लावारिस फेंक कर जाता दिखे तो उस कीमती चीज को ऐसे 
						लावारिस छोड़ने की फीस के तौर पर सीधे-सीधे पचास या सौ 
						रुपये वसूल लिए जाएं। इस मौके पर रहीम मियाँ हमें फिर याद 
						आते हैं- अपने थोड़े से परिवर्तित दोहे के साथ- रहिमन पान 
						राखिए..राखिए--भइये, थूकिए नहीं। वहीदा आंटी और बच्चन अंकल 
						ने भी इस्क्रीन पर पान खाने की ही बात की है, खाकर जगह-जगह 
						पिचिर-पिचिर थूकने की नहीं।
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