आजकल के
बेहतर अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में प्रति वर्ष गर्मियों
की छुट्टियों में बच्चों को 'फॉरेन एक्सचेंज प्रोग्राम' के
तहत विदेश भ्रमण करवाया जाता है। हमारे पड़ोसी यादवेंद्र जी
की बड़ी बेटी ने सात-आठ दिन जापान का भ्रमण किया तो जब वह
लौटी और हमने उससे मिलना चाहा तो उसने बताया -'वाऊ, इट इज
वंर्डरफुल कंट्री। वेरी ब्यूटीफुल कंट्री एंड प्यूपिल
आलसो। अंकल, जब से लौटी हूँ, मुझे तो इंडिया अच्छा ही नहीं
लग रहा। फिर से वहाँ जाने का मन हो रहा है। डैडी को समझा
रही हूँ कि डैडी, इस इंडिया में कुछ नहीं रखा है। चलो हम
सभी जापान न सही किसी दूसरे फॉरन कंट्री चले चलते हैं।
यहाँ तो मेरा दम घुटने लगा है। जिधर देखो भीड़ ही भीड़ है
यहाँ पर। यहाँ पर सभी लोग पढ़ाई पर जोर देते हैं लेकिन वहाँ
पर कितने इंडियन्स ऐसे हैं जो छोटे से छोटे काम को करके
सम्मान के साथ गुजारा कर रहे हैं। यहाँ ग्रेजुएशन करो, फिर
पोस्टग्रेजुएशन और न जाने क्या-क्या।' उसे पता ही नहीं थीं
आगे की डिग्रियाँ अतः फिर से अंग्रेजी में बस आऊ... वाऊ...
करने लगी।
यादवेंद्र जी की बेटी की बातें सुनकर मैंने उसे तसल्ली दी
और बातों-बातों में मैंने यादवेंद्र जी से पूछ लिया कि
कितने रुपए खर्च हुए थे बेटी की विदेश यात्रा में? मित्र
होने के नाते उन्होंने बताया कि 'स्कूल की प्रिंसिपल ने
अभिभावकों से उनके बच्चे की एयर फ्लाइट टिकट बुक करवाने व
वहाँ केवल सात-आठ दिन रहने-खाने की उचित व्यवस्था हेतु
एक-एक लाख रुपया लिया था और वहाँ जाने हेतु इसकी नई
ड्रेसेज, रिवॉल्विंग सूटकेस व एयर बैग आदि की खरीददारी में
तीस हजार लग गए व लगभग सत्तर हजार की यह वहाँ से हम लोगों
के लिए शॉपिंग कर लाई तो कुल मिला कर मेरे पूरे दो लाख
रुपए खर्च हो गए। लेकिन चलो बेटी विदेश तो हो आई। विदेश से
अपनी माँ के लिए जींस, टॉप व मिनी स्कर्ट लेकर आई है और
मेरे लिए कई बरमुडाज। हमने तो इंडिया का पोर्टब्लेयर तक
नहीं देखा। चलो, बेटी तो स्कूल वालों की बदौलत विदेश घूम
आई'।
'यादवेंद्र जी, आप तो खुश नसीब हैं अपने देश में बच्चों का
विदेश जाना तो आजकल योग्यता में शामिल हो गया है। आप भी
अपना सीना गर्व से फुलाकर कह सकते हैं कि मेरी बेटी भी
विदेश घूम कर आई है। अब तो अभी से उसका विचार विदेश में ही
रहने का बन रहा है। देखो कब मौका लगे। इसलिए आपको तो खुश
होना चाहिए'।- मैंने कहा।
वह साधारण होकर बोले,-'हाँ, आप कह तो ठीक ही रहे हैं'। तब
तक उनकी बेटी मेरे सामने अपना लैपटॉप लेकर बैठ गई और बोली
अंकल जी आइए मैं आपको वहाँ की कुछ फोटो दिखाती हूँ। उसने
कई बार अपना लैपटॉप ऑन-ऑफ किया और फिर भी उसका वह फोटो
वाला फोल्डर खुल ही नहीं पा रहा था। उसे परेशान होता हुआ
देखकर मैंने उसके हाथ से लैपटॉप लेकर पुनः रिस्टार्ट किया
तो उसका फोटो वाला फोल्डर खुल गया लेकिन एम्पटी था। सभी
फोटो डिलीट हो चुकी थीं। मैंने अन्य दूसरे फोल्डरों को
खोलकर देखना चाहा तो मुझे उनमें भी कहीं भी उसकी जापान
वाली फोटो नहीं मिलीं लेकिन यह सब देखते हुए मुझे उसके
पुराने वर्षों की कक्षाओं की रिपोर्ट कार्ड की स्कैनड
प्रतियाँ दिखाई दे गईं। सब में उसके एवरेज मार्कस ही थे।
यह सब देखते हुए मैंने चुपचाप लैपटॉप को तुरंत शटडाउन कर
दिया।
अपनी सिस्टर के पास बैठी हुई उनकी छोटी बेटी बोली,-'डैड,
कोई बात नहीं मैं अगली बार आठवीं कक्षा में आने वाली हूँ।
जब मैं जाऊँगी जापान तो नई फोटो को खींचकर ले आऊँगी। डैडी
मुझे भी भेजेंगे न जापान'।
यादवेंद्र जी ने तुरंत ही कहा,-'क्यों नहीं, मेरे लिए तो
तुम दोनों बराबर ही हो'। तब तक चाय-नाश्ता टेबल पर लग चुका
था। खा-पीकर मैं और यादवेंद्र जी जब बाहर निकले तो मैंने
उनसे कहा,-'यार, बुरा मत मानना। तुम तो बेकार में ही इस
स्कूल के 'फॉरेन एक्सचेंज प्रोग्राम' के चक्कर में पड़ गए।
आजकल के स्कूल, स्कूल नहीं व्यावसायिक केंद्र बनते जा रहे
हैं। इन्हें तो बच्चों की वास्तविक पढ़ाई-लिखाई से तो कोई
मतलब रहा ही नहीं है, नए-नए तरीकों से अभिभावकों की जेब को
चूना लगाते रहते हैं। बच्चों द्वारा अभिभावकों पर भी इतना
प्रेशर बना देते हैं कि बेचारे अभिभावक अपनी जमापूँजी
निकाल कर इन्हें दे देते हैं। इनमें से कितने बच्चे ऐसे
हैं जो अपने देश की आजादी की कहानी तक नहीं जानते और न ही
गणतंत्र व स्वतंत्रता दिवस में अंतर। इन्हें तो अपने देश
के कुल राज्यों की संख्या व उनके नाम तक याद नहीं होंगे।
हमारे देश में इतने राज्य हैं जिनकी अपनी पारंपरिक
संस्कृति है वह उसे जानते तक नहीं। बस, अंग्रेजों के
पिज्जा, बर्गर के पीछे पड़े रहते हैं और थोड़ी बहुत अंग्रेजी
की गिटर-पिटर के साथ अपने तन पर छोटे से छोटे कपड़े पहन कर
अपने आपको मॉडर्न समझते रहते हैं। विदेशों में जाकर इन्हें
वहाँ स्वीपर व छोटा कर्मचारी बनना पसंद है लेकिन यहाँ भारत
में रहना इन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं'।
लेकिन मेरी बात पूरी होने पहले ही यादवेंद्र जी बोले लेकिन
विदेश में रहने वाले अपने बच्चों पर भारतीय लोग भी तो गर्व
करते ही हैं ना। इसलिए आजकल बचपन से ही विदेश जाना उनकी
योग्यता में शामिल हो गया है। इसलिए भाई मैं तो अपनी छोटी
बेटी को भी जरूर भेजूँगा जापान या जहाँ भी उसके स्कूल वाले
'फॉरेन एक्सचेंज प्रोग्राम' के तहत ले जाएँ और अब मैं अपनी
बड़ी बेटी व छोटी बेटी में फर्क भी तो नहीं कर सकता। चाहे
उसे विदेश भेजने हेतु मुझे बैंक से कर्ज ही क्यों न लेना
पड़े।
आजकल के स्कूल, अभिभावकों और बच्चों की भावनाओं को किस
प्रकार भुना रहे हैं, मैं भी अच्छी तरह से समझ चुका था।
आजकल अभिभावकों व उनसे जुड़े बच्चों की भावनाओं को भुनाने
वाली योजनाएँ बनाई जा रही हैं जिससे लोगों की जेब से
ज्यादा से ज्यादा रुपया ऐंठा जाए और अभिभावक भी समझदार
दिखने के चक्कर में कर्ज लेकर भी नासमझी ही दिखा रहे हैं।
हमारे मित्र यादवेंद्र जी कितने सही हैं या कितने गलत? इस
प्रश्न के पक्ष तथा विपक्ष में मैं कोई टिप्पणी नहीं
करूँगा। हाँ, इतना जरूर है कि यदि वह अपनी बेटियों को
कक्षा आठ में विदेश घूमने के चक्कर की शान के तहत उन पर
खर्च किए गए चार लाख रुपए में सपरिवार इंडिया घूमते तो
उनकी बेटियों को इस देश से अच्छा और कोई देश न लगता। अपने
देश में भी बहुत सुंदर-सुंदर पर्यटन व धार्मिक स्थल हैं।
उन्हें अपनी पारंपरिक भारतीय संस्कृति से प्रेम हो जाता है
और इस प्रकार बचपन में उनकी मनोस्मृति पर बनी हुई भारत की
सुंदर छवि फिर कभी उनके दिलोदिमाग से धूमिल नहीं होती।
खुले शब्दों में इतना बोलने पर मुझे यादवेंद्र जी के साथ
अपने संबंध खराब होने का खतरा पैदा हो गया था इसलिए चुपचाप
होकर रह गया। |