रामलुभाया को एक गोष्ठी में एक
महिला मिल गई। नाम था नीलिमा। वह बाहर से आई थी और दो चार दिन दिल्ली में रह कर नगर
देखना चाहती थी। उस के पास रुकने का कोई ठिकाना नहीं था और किसी होटल में वह रुकना
नहीं चाहती थी। रामलुभाया को उस पर दया आ गई। वह उसे अपने घर ले आया। अब किसी
परदेसी असहाय अबला को आश्रय देने में तो कोई बुराई नहीं थी। यह तो हमारा धर्म था।
धर्म पर महान् लोग ही चल पाते हैं और रामलुभाया को अपनी महानता में कहीं कोई संदेह
नहीं था।
किंतु उस की पत्नी उतनी उदार नहीं
थी। वह रामलुभाया की प्रशंसा करने के स्थान पर उस से रुष्ट हो गई। बोली, '' ले तो
आए हो अपनी इस माँ को , किंतु इसे ठहराओ गे कहाँ? हमारे घर में कोई अतिरिक्त कमरा
भी है?''
''हम अपना कमरा दे देते हैं।'' रामलुभाया करुणा और उदारता के पारावार में तैर रहा
था, '' हम लोग बैठक में सो जाएँगे।''
'' तुम बैठक में सोओ या रसोई में।'' पत्नी बोली, '' मैं तो अपना कमरा नहीं
छोड़ूँगी।''
'' ठीक है। मैं उसे माँ के कमरे में ठहरा देता हूँ।'' रामलुभाया ने कहा, '' माँ को
दो चार दिनों के लिए भैया के घर भेज देते हैं।''
''तुम्हारी माँ है, जहाँ मन आए, भेजो।'' पत्नी ने
कहा, '' किंतु यदि तुम्हारे मन में यह है कि मुझे दो चार दिनों के लिए मेरी माँ के
घर भेज दोगे, तो मैं झाड़ू ले कर उस चुड़ैल को बुहार कर अभी घर से बाहर फेंक देती हूँ।''
रामलुभाया काँप गया। इस संकीर्णता को देख कर उसे बहुत पीड़ा हुई। ये पत्नियाँ बहुत
दुष्टाएँ होती हैं। किसी और अबला को अपने निकट सहन ही नहीं कर सकतीं।
''नहीं! ऐसा कुछ मत करना।'' उस ने कहा, '' मैं अभी
माँ को भैया के घर पहुँचा कर आता हूँ। तुम नीलिमा जी को चाय पिलाओ।''
माँ नहीं चाहती थीं किंतु रामलुभाया उन्हें भैया के
घर पटक ही आया। भाभी ने तत्काल चेतावनी दे दी, '' दो दिनों में अम्मा को ले जाना।
मेरे मायके से भी अतिथि आने वाले हैं।''
रामलुभाया लौटा तो उस ने देखा कि नीलिमा जी उस के पूजाघर में बैठी प्रतिमाओं को
निहार रही हैं। उसे बड़ा अच्छा लगा। कितनी उदार हैं नीलिमा जी।
नीलिमा ने उसे मीठी दृष्टि से देखा, '' आप ने यहाँ
राम , कृष्ण , शिव और पार्वती को रखा हुआ है। कितने उदार हैं आप। यहीं आप इन संत
महाराज को भी रख लें।'' ''उस ने रामलुभाया की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं की और अपने पर्स में से निकाल कर एक
चित्र वहाँ रख दिया। चित्र बड़ा था और उस के लिए उस छोटे से मंदिर में स्थान बनाना
कठिन था। थोड़ी देर वह उसे टिकाने का प्रयत्न करती रही। फिर उस ने राम की प्रतिमा
उठा ली, '' इसे कहीं और रख दीजिए। यहाँ तो स्थान नहीं है।''
रामलुभाया उसे रुष्ट तो नहीं कर सकता था। अभद्रता होती। उस ने राम जी से मन ही मन
क्षमा माँग ली और उन की प्रतिमा को जा कर अपनी अलमारी में रख आया।
अगले दिन नीलिमा उस के कंप्यूटर
पर बैठी हुई कुछ लिख रही थी। वह उस के निकट पहुँचा तो वह हँस कर बोली, '' आप के
कंप्यूटर की क्षमता बहुत कम है। मैं ने इस में अपना एक प्रोग्राम डालना चाहा तो उस के लिए
स्थान ही नहीं था। इसीलिए बाध्य हो कर आप के भाषा और साहित्य वाले प्रोग्राम
निकाल दिए हैं।'' रामलुभाया
स्तब्ध सा खड़ा रह गया। न जाने उस ने क्या क्या निकाल दिया है। पर वह इतना उदार था
कि उससे कुछ कह ही नहीं सकता था।
तभी उस की पत्नी और दोनों
बच्चे आ गए। पत्नी ने संत का चित्र , जो नीलिमा ने मंदिर में रख दिया था, उस के
हाथ में पकड़ाया, '' यह पकड़ो अपने आराध्य देव। इन्हें रखो अपने थेले में। और उठो।
मेरा बेटा अभी तुम्हारे प्रोग्राम को कंप्यूटर में से मिटा देगा। तुम अपना
सामान बाँधो और चलती बनो। हम अपनी माँ को आज ही अपने घर में लाएँगे।''
पत्नी ने नीलिमा को बाँह से पकड़ कर उठा दिया। नीलिमा
ने बड़ी करुण दृष्टि से रामलुभाया की ओर देखा। पत्नी के प्रचंड रूप को देख कर
रामलुभाया बोला, '' क्या कर रही हो। इतनी संकीर्ण मत बनो।''
''हमें ऐसी उदारता नहीं चाहिए, जो हमारी भाषा, हमारे
धर्म और हमारी माँ को हमारे घर से बाहर निकाल दे।'' पत्नी बोली, '' हम संकीर्ण,
संकुचित और अनुदार ही भले। तुम्हारी उदारता तो इसय घर को नष्ट कर के ही रहेगी।
८ फरवरी २०१०
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