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 ''लखनऊ शताब्दी में लखनऊ तक के लिए एक टिकट।'' 
मैंने खिड़की बाबू से कहा। 
''फारम भरो।'' उसने आदेश दिया। 
''फार्म भर कर आपके सामने रखा है।'' मैंने कहा, ''अपना सिर उठाइए। उसपर कृपादृष्टि 
डालिए।'' 
उसने वह फार्म उठा कर मेरी ओर फेंक दिया, ''अंग्रेज़ी में भरो। यह ऐंडा बैंडा लिखा 
हुआ कौन पढ़ेगा यहाँ? झुमरीतलैया समझ रखा है। यह दिल्ली है, कैपिटल ऑफ इंडिया।'' 
''यह ऐंडा बैंडा नहीं है।'' मैंने कहा, ''यह हिंदी है। भारत की राष्ट्रभाषा।'' 
''तो इसे राष्ट्रभाषा विभाग में ले जाओ।'' वह बोला, ''हम तो रेलवे के आदमी हैं। 
अंगेज़ी में काम करते हैं, जो सारे संसार की मातृभाषा है।'' 
''गाड़ी दिल्ली से चलेगी?'' मैंने पूछा। 
''बिल्कुल दिल्ली से चलेगी। होनो लूलू से तो चलने से रही।'' वह बोला। 
''तो दिल्ली हिंदी प्रदेश है।'' मैंने अपना स्वर ऊँचा कर लिया। 
''नक्शे में है। ज़रा बाहर निकल कर देखो, बाज़ार में एक भी बोर्ड हिंदी में है? 
पैखाना उठाने की भी लिखत पढ़त अंग्रेज़ी में होती है यहाँ।'' वह बोला, ''प्यारे 
भाई! सपनों से जागो। यथार्थ से आँखें मिलाओ। पता नहीं, दिल्ली अंग्रेज़ों के हृदय 
में बसती है या नहीं, पर दिल्ली के हृदय में अंग्रेज़ी बसती है। प्रधानमंत्री से 
लेकर द्वार-द्वार भटकने वाला, साधारण सेल्समैन तक अंग्रेज़ी ही बोलता है। कोई भला 
आदमी मुँह खोलता है तो उसमें से अंग्रेज़ी ही झराझर बरसती है।'' 
मैंने चुपचाप अंगेज़ी में फार्म भर दिया, ''यह लो।''  
उसने तब भी मुझे टिकट नहीं दिया। एक और फार्म आगे सरका दिया, ''जरा इस पर भी अपने 
ऑटोग्राफ दीजिए।'' 
''यह क्या है?'' 
''पढ़े लिखे हो, पढ़ लो।'' 
''नहीं! मैं पढ़ा लिखा नहीं हूँ।'' मैं बोला, ''तुम ही बताओ।'' 
''वह तो मैं पहले ही समझ गया था। अनपढ़ हो, तभी तो हिंदी हिंदी कर रहे हो।'' वह 
बोला, ''अब ज़रा ध्यान से सुनो। इस गाड़ी में सारी घोषणाएँ अंग्रेज़ी में होंगी। इस 
काग़ज़ पर लिखा है कि तब तुम कोई आपत्ति नहीं करोगे?''  
''हिंदी में कोई घोषणा नहीं होगी?'' 
''होगी। पर वह तुम्हें समझ में नहीं आएगी।'' 
''क्यों? मेरी मातृभाषा हिंदी है। मैं हिंदी पढ़ा लिखा हूँ। और हिंदी में काम करता 
हूँ।'' मैंने कहा। 
''इसलिए कि घोषणा करने वाली का साउंडबॉक्स विदेशी है।'' वह बोला, ''तो नहीं करेंगे 
न आपत्ति?'' 
''नहीं करूँगा।''  
''करो साइन।'' 
मैंने हस्ताक्षर कर दिए। 
''अखबार अंग्रेज़ी का मिलेगा।'' वह बोला, ''तुम हिंदी का अखबार नहीं माँगोगे?'' 
''होना तो यह चाहिए कि सबको हिंदी का समाचारपत्र दिया जाए?'' मैंने कहा, ''कोई 
विशेष आग्रह करे, तो उसे अंग्रेज़ी का दे दिया जाए। सब पर अंग्रेज़ी क्यों थोप रहे 
हो?'' 
''टिकट लेना है या नहीं। लखनऊ जाना है या नहीं?'' 
''लेना है। लेना है।'' मैंने घबरा कर कहा। 
''तो साइन करो।'' 
''किया।'' मैंने हस्ताक्षर कर दिए। 
''बैरा अंग्रेज़ी बोलेगा।'' उसने कहा, ''तुम्हें बाबू जी नहीं, 'सर' बोलेगा, 'राम 
राम' नहीं करेगा, गलत उच्चारण में 'गुड मार्निंग' कहेगा। नाश्ते को ब्रेकफास्ट कहा 
जाएगा, खाने को लंच। पानी को वाटर। बिस्तर को बेड। बोलो, आपत्ति तो नहीं करोगे?'' 
''पर ऐसा क्यों होगा?'' 
''टिकट चाहिए या नहीं?'' 
''चाहिए।'' 
''तो साइन करो। सवाल जवाब मत करो।'' 
''किया।'' 
''स्टेशनों और दूसरी चीज़ों के विषय में जो सूचनाओं की पट्टी आएगी, वह अंग्रेज़ी 
में आएगी।'' वह बोला, ''हिंदी की पट्टी की माँग नहीं करोगे।'' 
''क्यों नहीं करूँगा... यह भारत है, अमरीका नहीं।'' 
''तो बैलगाड़ी या टमटम से लखनऊ चले जाओ।'' वह बोला, ''शताब्दी एक्सप्रेस का टिकट 
नहीं मिलेगा।'' 
मैंने हस्ताक्षर कर दिए। 
''यात्रा के अंत में एक छोटा-सा फारम दिया जाएगा, उसे भरना होगा और अंग्रेज़ी में 
भरना होगा। तब यह कह कर इंकार नहीं कर सकोगे कि तुम्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। जितनी 
भी आती है, उसी में भरना पड़ेगा।'' 
''पर क्यों?'' 
''टिकट चाहिए या नहीं?'' 
''चाहिए।'' 
''तो साइन करो।'' 
मैंने हस्ताक्षर कर दिए। 
''अपनी ओर से किसी से भी कोई प्रश्न अंग्रेज़ी में नहीं करोगे।'' 
''क्यों?'' 
''क्योंकि उनमें से किसी को भी अंग्रेज़ी नहीं आती।'' 
''तो फिर यह सब...?'' 
''टिकट चाहिए या नहीं?'' 
''चाहिए।'' 
''तो साइन करो। और हिंदी में नहीं, अंग्रेज़ी में।'' 
मैंने हस्ताक्षर कर दिए। 
१४ सितंबर २००९  |