हास्य व्यंग्य | |
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खाली करनेवाले |
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मैं समय से स्टेशन पहुँच गया था। गाड़ी प्लेटफार्म पर लग तो गई थी, किंतु अभी उसकी सफ़ाई हो रही थी। सफ़ाई कर्मचारी ने दरवाज़ा बंद कर रखा था, इसलिए अंदर घुसना संभव नहीं था। इच्छा तो हुई कि उससे कहूँ कि भैया तुम अपना काम करते रहो, किंतु मुझे अपने स्थान पर बैठ जाने दो। न मैं तुम्हारे लिए कोई बाधा उत्पन्न करूँगा, न तुम मेरे लिए कोई परेशानी पैदा करो। पर मेरी सारी अनुनय विनय को उसने शांत मन से सुना और मुसकरा कर बोला, ''साब! सफ़ाई कर लेने दो। झाडू के आक्रमण को आप झेल नहीं पाएँगे। उड़ती धूल में बैठना संभव नहीं है। वैसे भी, आप बैठ गए तो और लोग भी आ जाएँगे। और तब मैं सफ़ाई कर नहीं पाऊँगा। मैं डब्बे की पूरी सफ़ाई किए बिना उतर गया तो फिर आप ही शिकायत पुस्तिका मँगाएँगे और साहब बन कर उसमें लिखेंगे कि रेल्वे में आजकल सफ़ाई नहीं होती।'' तर्क़ तो मेरे मन में भी बहुत सारे थे। मैं कहना चाहता था कि गाड़ी की सफ़ाई यार्ड में क्यों नहीं होती। गाड़ी प्लेटफार्म पर लग जाती है, तब तुम लोग सफ़ाई करने आते हो। पहले सो रहे थे क्या। और फिर डब्बा खोलोगे तो उधर से गाड़ी चलने के लिए सीटियाँ बजाने लगेगी। गार्ड हरी झंडी लहराने लगेगा। यात्रियों में ऐसी भगदड़ मचेगी कि अच्छे भले सभ्य लोग भी जानवर हो जाएँगे। आखिर तुम लोग क्यों नहीं चाहते कि लोग आराम से भले लोगों के समान, गाड़ी में प्रवेश करें। शांति से मुस्कराते चेहरों से अपने स्थान पर पहुँचें और सुखी मन से अपनी शायिका पर बैठ जाएँ। पर यह सब मैंने कहा नहीं। प्लेटफार्म पर खड़ा
प्रतीक्षा करता रहा। जब गाड़ी चलने में केवल दस मिनट रह गए तो उसने बड़ी कृपापूर्वक
कपाट खोल कर हाँक लगाई, ''आ जाइए साब! डब्बा तैयार है।'' मैंने चकित भाव से उन्हें देखा। ऐसा नहीं है कि
आजतक मैंने कभी अपनी शायिका न बदली हो, पर वह तो परस्पर समझौते से होता है। कोई
प्रार्थना करता है, कोई याचना करता है, पर ये तो... १० अगस्त २००९ |