हास्य व्यंग्य | |
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रामलुभाया का लटका हुआ चेहरा
देख कर मैंने पूछा, ''क्या हुआ रामलुभाया?'' मैं जानता था
कि मेरे लिए ज्ञान का एक नया अध्याय खुलने वाला है। मैं उन
सेवाओं के विषय में जानने वाला हूँ, जिनके विषय में मुझे
अब तक कुछ भी ज्ञात नहीं था। मुझे यह समझ नहीं आया कि
वह बहुसंख्यकों की सेवा क्यों नहीं करना चाहता। थोड़े से
लोगों की ही सेवा क्यों करना चाहता है। दुर्बलों को बल
देना और अन्याय के स्थान पर न्याय करवाना मेरी समझ में आता
था, किंतु जाति या धर्म के आधार पर सेवा का क्या अर्थ था।
पर मैंने उससे यह सब नहीं पूछा। अब मैं कुछ-कुछ समझ रहा
था। वह शायद सेवा का अर्थ नौकरी समझता था। उसे भी तो
सरकारी सेवा ही कहते हैं। गवर्नमेंट सर्विस। कहते तो उसे
सेवा ही है किंतु उसमें वेतन मिलता है। मैं जो कुछ सुझा
रहा था, उसमें वेतन नहीं मिलता था। पर किसी भी वेतन में वह
सारे भूखे पेटों को रोटी, बेघरों को मकान और नंगों को
कपड़ा कैसे दे सकता था? और वह तो अगड़े, पिछड़े और बिगड़े
- सबकी उन्नति करने वाला था। यह गुत्थी तो मेरे बस की नहीं
थी। लोग वेतन से अपना घर चला लें, वही बहुत होता है, सारे
देश का उत्थान। तो यह बात थी। वह चुनाव
में हार गया था। सत्ता छिन गई थी और वह उसे सेवा छिन गई कह
रहा था। सत्ता पाए बिना वह सेवा नहीं कर सकता और सत्ता पा
कर वह शासन करने लगता है - अन्यायी, क्रूर और स्वार्थी
शासन। वह उसी को सेवा कहता है। बेचारे से वह अवसर छिन गया
है। ९ जनवरी २००७ |