वे हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका
हैं। पिछले दिनों एक शिष्टमंडल ले कर प्रधान मंत्री से
मिली थीं और हिंदी के लिए ही नहीं, उसकी बोलियों के लिए
भी, कुछ करने का आग्रह और अनुरोध कर के आई थीं।
आज गोष्ठी की अध्यक्षता वे ही कर रही थीं। हिंदी के भविष्य
को ले कर वे आज भी बहुत चिंतित थीं। उन के भाषण का मूल
विचार ही यही था। अगली पीढ़ी यदि हिंदी का बहिष्कार कर
देगी तो हिंदी कैसे बचेगी। हमारे साहित्य का भविष्य क्या
होगा? पुस्तकें बिकेंगी नहीं। पत्रिकाएँ कोई ख़रीदेगा
नहीं। अंतत: दुखी हो कर वे बड़े आवेश में बोलीं, ''मेरे तो
अपने बच्चे ही हिंदी की कोई पुस्तक पढ़ने को तैयार नहीं
हैं।''
वे मंच से
उतर कर नीचे आईं और चाय की मेज़ की ओर चलीं तो रामलुभाया
भी उनके साथ हो लिया।
''आपने अपने बच्चों को किस अवस्था में पाठशाला भेज दिया
था?'' रामलुभाया ने पूछा।
उन्होंने वक्र दृष्टि से रामलुभाया की ओर देखा, ''पाठशाला
में पढ़ें तुम्हारे बच्चे। मेरे बच्चे क्यों पाठशाला में
पढ़ेंगे। वे तो पब्लिक स्कूल में पढ़े हैं।''
''चलिए आप उन्हें पब्लिक स्कूल कह कर प्रसन्न हैं तो वही
सही।'' रामलुभाया बहुत धैर्य से बोला। पर हैं तो वे भी
पाठशालाएँ ही। तो आपने किस अवस्था में अपने बच्चे को उस
पब्लिक स्कूल में भेज दिया था?''
लेखिका का मन बहुत ख़राब हो चुका था। पाठशाला में पढ़ने के
नाम से वे स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रही थीं। मन
नहीं था कि रामलुभाया की शक्ल भी देखें। फिर भी सोचा कि
शालीनता का पल्ला नहीं छोड़ना चाहिए।
''तीन वर्ष की अवस्था में सभ्य घरों के बच्चे अपने स्कूल
जाने लगते हैं।''
''स्कूल में तो बच्चे अंग्रेज़ी में ही सब कुछ पढ़ते
होंगे?''
''और क्या संस्कृत में पढ़ेंगे।'' उनका मुँह घृणा से कड़वा
गया।
''मेरा तात्पर्य है कि आप उनको स्कूल भेजने से कुछ पहले ही
से अंग्रेज़ी पढ़ा रही होंगी।''
''तो क्या बिना पढ़ाए ही अंग्रेज़ी आ जाती उनको?'' हिंदी
की लेखिका रुष्ट थीं।
''तो आप के बच्चे ढाई वर्ष की अवस्था से अंग्रेज़ी पढ़ रहे
हैं?''
''और नहीं तो क्या।'' लेखिका ने गर्व से रामलुभाया की ओर
देखा।
रामलुभाया मुस्कराया, ''आप अपने बच्चों को उनके शैशव से
अंग्रेज़ी पढ़ाएँगी तो बड़े हो कर वे हिंदी की पुस्तकें
किसी दैवी प्रेरणा से पढ़ेंगे देवी जी?''
''क्या मतलब?'' वे चिढ़ कर बोलीं।
''आपने कभी उनके हाथ में हिंदी की पुस्तक नहीं दी। शायद
कभी उनसे हिंदी में बातचीत भी नहीं की। तो उनकी अंग्रेज़ी
भक्ति का पापी कौन है?'' रामलुभाया उनकी ओर देख रहा था।
लेखिका रामलुभाया को छोड़ कर मेरे पास आ गईं, ''यह कौन
बदतमीज़ी है?''
''रामलुभाया है।'' मैंने बताया, ''वह भी हिंदी के लिए
चिंतित रहता है।''
''खाक चिंतित रहता है। मेरे बच्चों का कैरियर तबाह करना
चाहता है।'' वे बोलीं।
''आपकी भाषा में उर्दू की शब्दावली प्रचुर मात्रा में
है।'' मैंने कहा।
'' हाँ! उर्दू बहुत मीठी ज़बान है।'' उन्होंने चटखारा
लिया, ''एक मेरी ही स्टेट है इस देश में जहाँ सरकारी ज़बान
उर्दू है।''
मेरी आँखें फटी की फटी रह
गईं। ये हिंदी की लेखिका नहीं जानती कि कश्मीर में से
कश्मीरी, डोगरी और लद्दाखी समाप्त कर वहाँ उर्दू की
प्रतिष्ठा की जा रही है। वह जो हिंदी और उसकी बोलियों के
लिए कुछ करने का आग्रह ले कर प्रधान मंत्री के पास गई थीं,
अपने प्रदेश पर इसलिए गर्व कर रही हैं कि वहाँ भारतीय मूल
की सारी भाषाओं और बोलियों पर राजनीतिक कारणों से उर्दू
थोपी जा रही है।
''आपका चिंतन तो बहुत गंभीर है।'' मैंने कहा, ''पर आप ने
विचार नहीं किया कि कश्मीर में वहाँ की सारी बोलियों की
हत्या क्यों की जा रही है।''
''अरे वह सब क्या सोचना।'' वे हँस कर बोलीं, ''आप को एक
शेर सुनाऊँ।...''
पर मैं उनका शेर नहीं सुन पाया। मेरे मन में कश्मीरी,
डोगरी और लद्दाखी का हाहाकार गूँज रहा था।
१६ सितंबर २००७ |