डोंट वरी। नो फिक्कर। परेशान काहे की? सब निपट जाएगा,
हम हूँ न, ऐसे तमाम हमदर्दियाना बातें अब ज़िंदगी से गुम होती जा रही हैं। इनकी जगह
अब तू ही जानें फिर तेरा काम जाने, मेरे से क्या लेना-देना, या... बोल दिया न कि
तेरी किस्मत का ढक्कन ही ऐसा है या... ये तो होना ही था, अब झेल, ऊपर वाले ने तेरे
को झेलने के वास्ते ही तो बनाया है।
...अब इस भीड़नुमा समाज में वह बिल्कुल अकेला है।
कोई नहीं है जो उसकी पीठ पर हाथ रखकर ये कहे कि चिंता जिन किहौ हम तौ हन। ऐसा कहना
मात्र अगले के लिए एक ज़बर्दस्त सामाजिक सुरक्षा का बंदोबस्त कर देता है। समाज से
धीरे-धीरे मेलजोल, सांझापन और परस्पर सहयोग की भावना खलास होती जा रही है। मानवीय
संबंधों में अब दूरियाँ अधिक हैं। पड़ोस में आदमी रहते है या उनके कुत्ते, क्या
मतलब? कौन मरा और कब मरा, क्या लेना-देना? अपनी खिड़की पूरी बंद रहे या थोड़ी-सी
खुली रहे बस!
ये चिंता जिन किहौं वाला 'हम' जो है, उसे खोजना
पड़ेगा, यह कहीं गुम हो गया है। इससे हम में भरपूर ताक़त थी। मुट्ठियाँ बँध जाती
थीं तो मजाल क्या कि सत्ता का साया हो या दरोगे की बदमगजी, कोई रत्ती भर बिसात नही
रखती थीं। ये वही बेलौस ढंग से 'हम' था 1857 के विद्रोह में और ये 'हम' ही था देश
की आज़ादी के जनम दिन तक। मेरा रंग दे बसंती चोला या सर कटा सकते है पर सर झुका
सकते नहीं ...ये भी 'हम' ने गाया होगा वह भी अंदर की आवाज़ से। ऐसी आवाज़ कि जिसके
हज़ारों हम अपनी आज़ादी के वास्ते दीवाने हो गए थे। जब जब 'हम' पीछे धकेला गया है
और 'मैं' आगे आया है, दिक्कतें ही दिक्कतें शुरू हुई हैं। सत्ता की रेवड़ी बँटने के
समय 'हम' पर्दे के पीछे धकेल दिया गया और काबिज हो गया 'मैं'। नतीजा सामने है।
आज़ादी के छह दशक बाद भी उनका मैं सत्ता की मज़बूती के वास्ते कश्मीर मुद्दे कह
मुरछाई चुहिया को गोबर सुँघाता रहा है। सीमा विवाद, पानी विवाद, भाषा विवाद 'हम' के
तिरोहित होने और 'मैं' के प्रकट होने से देश की छाती पर बेवजह जकड़े हुए हैं। विवाद
'मैं' का बड़ा भाई है, जहाँ पर ये है तो मानकर चलिए कि किसी मैं की पसड़ है। अब तक
के अठ्ठावन वर्ष की उम्र वाले आज़ाद भारत के सारे झगड़ों की जड़ों में ये मैं पल्थी
लगाए बैठा है। इसे धकियाना होगा। अगर ये समय रहते नहीं गया तो पानी बाँध के ऊपर से
बहुत आगे निकल जाएगा।
जाओ भाई 'मैं' ...अब जाओ, 'हम' को अपनी ज़मीन पर
पाँव धरने दो। हम नहीं है इसीलिए आदमी अकेला है और अकेले आदमी की दिक्कते भी
हज़ारों है। सर पर हाथ रखने वाले मुँह फेरे हुए है। किसे सुनाएँ और सुनाने से पहले
उसकी सुने। सुनीसुनौव्वल में वह आदमी गुमसुम है। सोचता है कि समय कब बदलेगा। वह
पीछे जाएगा कि नहीं और गया पीछे तो वह कलेजे वाला आदमी जो पूरे दम से कह सके चिंता
जिन किह्यो हम हन न, मिलेगा कि नहीं। तब तनाव, चिंतायें, मुसीबतें मिल बाँट कर झेली
जाती थीं, सबके हिस्से में बस थोड़ी-थोड़ी आतीं थीं। फ़ुरसत की चटाई पर मिल बैठकर
समाधान निकाल ही लेते थे। एक दूसरे पर इतनी निश्चिंतता, इतना भरोसा और इतना दम,
अंदर कहीं किसी कोने में भी दूसरे पर संशय जन्म ही नहीं लेता था। तब के उस आदमी के
चेहरे पर जो प्रफुल्लता थी, वह आज के आदमी के चेहरे पर नही है। क्यों? फिर आगे की
बातों को दोहराना पड़ रहा है। 'मैं' जब खंडित होता है, तो 'हम' की शरण में जाता है।
ये 'हम' आता है सामुदायिक दायित्व बोध के कारण, समन्वय-सहभागिता से, एक दूसरे से
जुड़ने से, ये हमारी तकलीफ़ है, इससे हम सब निपटेंगे - की सोच से। जिस समाज में हम
की जड़े बहुत गहराई में है, वह समाज मज़बूत और खुशहाल रहा है और जहाँ 'मैं'
तरक्कियों चढ़ा हो, तो ऐसी तरक्की दीर्घजीवी नही होती क्यों कि 'मैं' खोखलेपन में
रहता है।
मैं एक मित्र के यहाँ गया, असलियतन उन्होंने अपनी
कुछ कला-कृतियाँ दिखाने के लिए बुलाया था। पहुँचा तो बड़ी गरमजोशी के साथ हाथ
मिलाया, ड्राइंगरूम ले गए, परिवार के सदस्यों से जान पहिचान कराई। सब के साथ चाय
चली। फिर उन्होंने अपनी आर्ट गैलरी दिखाई। बेहद उम्दा चित्र... सभी जैसे सजीव हों,
मैं देखते-देखते उनमें सौ फीसदी खो गया। प्रकृति के रम्य रूपों के चित्रांकन में
ग़ज़ब की बारीकी थी। मुझसे रहा नही गया, पूछ लिया ये कृतियाँ सब के सो जाने के बाद
बनाते होंगे? बोले, ''नही भई, सब के साथ सभी के डिसक्शन के साथ बनाई हैं। उनमें कोई
भी ऐसी कला कृति नही है जो मेरे अकेले ने बनाई हो। मेरे हाथ जब कूचियों से खेलते
थे, तब मुझे मेरी बेटी चाय का प्याला लेने को कह, सहभागिता का सुर देती थी। पत्नी
और बेटा सब के सब अपने लगन व निष्ठा के साथ, इन चित्रों के नेपथ्य में हैं। इन सबके
सामंजस्य से मैं हूँ। उनके 'मैं' के पीछे भी एक विराट 'हम' है। ये वही हम है जो कुछ
कर सकने का जज्बा देता है। मुझे लगा कि एक चित्रकार अपने चित्रों के साथ पूरे
पारिवारिक संतुलन में है। उसे ऊँचाइयों पर जाने की ललक नहीं है। अकेला ही प्रशस्ति
नहीं पाना चाहता है। उसके 'हम' में उपेक्षा व किसी परिजन के प्रति उदासीनता नहीं
है। पत्नी, पुत्री, पुत्र सब खुश है। वहाँ सब एक दूसरे से मुसीबत में यही कहते है
चिंता जिन किह्यो हम हूँ न।
एक महाशय ऐसे भी जिन्हें जीवन के पाँच दशक इस
वास्ते खर्च हो गए कि वे कुछ है, सब लोग उन्हें जाने, उन्हें माने या उन्हें
मान-सम्मान दें। घर में बेटा उनकी अनसुनी करता, बेटी शादी के एक साल के अंदर ही
पवीलियन पर लौट आई और पत्नी ...कोउ नृप होय हमै का हानी , यानी कि उदासीन संप्रदाय
की आजीवन सदस्या। अब ये महाशय अपने घर में अपने मै के कारण अकारण जिल्लत झेलते है।
उनके जितने हम थे, उनकी वजह से ही किनारे हट गए।
चिंतायें 'हम' से डरती है और 'मैं' से दिल लगाती
है। मैं को अकेला पाएँ तो दबोच लें। चिंताएँ तो चाहती हैं कि आदमी 'मैं' के फाँस
में फँसा रहे और 'हम' से दूर रहे। 'हम' चिंताओं पर चौतरफ़ा हमला करता है। वे कट-कट
कर गिरती रहतीं हैं, क्यों कि 'हम' 'मैं' नही है, अकेला नहीं है, वह सर्वजन का अंग
है। बहुजन से पोषित है। इसलिए डर किस बात का? ये दुनिया तितली की तरह रंगीली है।
इसके रंग में कोई 'मैं' का भंग न डाले तो इसकी खूबसूरती के क्या कहने! आज के
तार-तार हो रहे इंसानी मूल्यों के लिए 'हम' को बचाये रखना बेइंतेहा ज़रूरी है। यही
है जो कहेगा - ''का हो, अब चिंता जिन किह्यो हम हूँ न।''
२४ दिसंबर
२००७ |