मुझे अपनी पुरानी हो चुकी खटारा गाड़ी से छुटकारा पाना ज़रूरी हो गया था। दरअसल यह
मेरा पहला वाहन था और इसी वजह से इससे मुझे लगाव-सा हो गया था। इसे छोड़ने के खयाल
से ही मुझे कतई अच्छा नहीं लगता था इसी कारण मैं इसे सालों-साल चलाता रहा था
सुधरवा-सुधरवा कर। एक दिन जब मेकेनिक ने अपने औज़ार नीचे धर दिए तो मुझे मजबूरी में
नई गाड़ी ख़रीदने जाना ही पड़ा।
शोरूम पहुँचा तो वहाँ रिसेप्शनिस्ट ने गर्मजोशी से स्वागत किया। एक ओर तमाम तरह के
नए-नए मॉडलों की गाड़ियां रखी थीं और दूसरी ओर बहुत से पुराने और सेकंड की
गाड़ियां रखी थीं। मैंने नयी चमचमाती गाड़ियों में से एक पसँद की। ग़ज़ब का मॉडल था
और कम इंधन में ज़्यादा माइलेज और ज़्यादा पॉवर देता था।
रिसेप्शनिस्ट ने मुझसे मेरी जाति पूछी। मैं चिंहुका। अरे! आपको मेरी जाति से क्या
लेना देना?
रिसेप्शनिस्ट ने मुझे अजीब नज़रों से देखा। उसने बताया - अच्छे पॉवरफुल मॉडलों की
गाड़ियाँ आरक्षित हैं और आरक्षित जातियों को ही सप्लाई की जाएँगी। सरकार ने आदेश तो
कब से निकाल रखा है। दरअसल निजी क्षेत्र में आरक्षण के कारण जो सेकंड ग्रेड के माल
बन रहे थे उनका लेवाल कोई नहीं था तो सरकार ने उन्हें अनारक्षितों में बेचा जाना
अनिवार्य कर दिया था।
मैंने उसे बताया कि मेरी जाति मानव जाति है। मैंने उससे पूछा कि मुझ मानव जाति को
कौन-सी गाड़ी मिल सकती है। उसने पुराने सेकंड की गाड़ियों के ढेर की ओर इशारा किया
- उसमें से छाँट लें, क्यों कि सारी नई पॉवरफुल गाड़ियाँ तो आरक्षितों के लिए
आरक्षित हैं और जो आरक्षित नहीं हैं, वे जनरल क्लास हैं, उन्हें तो सेकंड में से ही
छाँटना होगा। कानून जो बन गया है। बेचने वाले बेच नहीं सकते, ख़रीदने वाले ख़रीद नहीं
सकते।
जैसे तैसे मैंने एक गाड़ी उसमें से छाँटी और उसे लेकर अपने घर की ओर लौट चला। यह
गाड़ी तो मेरी मौजूदा गाड़ी से भी खटारा थी। पर, शुक्र है, चल तो रही थी। पत्नी ने
आदेश फ़रमा रखा था - लौटते में सब्ज़ी लेते आना। रास्ते में सब्ज़ी बाज़ार में
रुका। वहाँ एक इंसपेक्टर खड़ा था। उसने मुझसे मेरी जाति पूछी। मैंने कहा भाई, मैं
सब्ज़ी लेने आया हूँ। किसी जाति सम्मेलन में नहीं।
उस वर्दीधारी इंसपेक्टर की लाठी मेरे कंधे पर पड़ी। वह गुर्राकर बोला- अबे तू किस
देश में रहता है। यहाँ जाति देखकर सब्ज़ी ख़रीदी-बेची जाती है। जल्दी बता, नहीं तो
निकल ले। मैंने उसे भी वही जवाब दिया- मेरी जाति मानव जाति है। वह थोड़ा भ्रमित
हुआ। फिर कुछ समझता-नहीं-समझता हुआ फिर गुर्राया- अबे ये बता रिजर्व क्लास है या
जनरल? मैंने उसे फिर समझाना चाहा कि मैं मानव हूँ और रिज़र्व या जनरल में कोई
भिन्नता नहीं समझता। इंसपेक्टर ने अपना झंडा ठकठकाया और बोला- साले जनरल! भाषण
पेलता है। उधर जा - वहाँ से ले। उसने एक कोने की ओर इशारा किया जहाँ बासी,
सड़ती-गलती सब्जियां जनरल क्लास के लिए बिक रही थीं। ताज़ी सब्जियाँ आरक्षित लोगों
के लिए आरक्षित थीं। जो आरक्षित सब्ज़ियाँ आरक्षितों में बिक नहीं पाती थीं,
सड़ने-गलने लग जाती थीं, बासी पड़ जाती थीं तो जनरल क्लास में बिकने डाल दी जाती
थीं। सरकारी आदेशानुसार।
मैंने अपने हिसाब से, खाई जा सकने वाली कुछ सब्ज़ियाँ छाँटीं और घर की ओर चला।
चौराहे से घर की ओर टर्न किया तो ट्रैफ़िक पुलिस ने बड़ी लंबी सीटी बजाई और हाथ
देकर रोका। पूछा कौन जात बा? मैंने उससे कहा कि मेरी शादी हो चुकी है और मेरे घर
में कोई शादी योग्य वर नहीं है जो मैं जात बताऊँ। जाति-पाति तो शादी ब्याह के समय
ही लोग-बाग देखा करते थे अब तक। ट्रैफ़िक वाला सज्जन पुरुष लग रहा था।
वह हँसा, बोला- ''वो बात नहीं बा। बात ई है कि ई रास्ता तनिक रिजर्बे है ना। रिजर्ब
जात के हो तो कौनौ बात नई। जाइ सकत हौ। पर रिजर्ब जात नई हौ तो ई रास्ता में नई जा
सकत। कौनो चेकिंग में धरा जाऊ तौ जेल के चक्की पीसल पड़ब।''
मैंने उससे पूछा कि जो रिजर्व नहीं हैं उनके लिए कौन-सा रास्ता है। उसने बताया कि
सरकार ने नया कानून बनाया है कि अच्छी बढ़िया सिक्स-फोर लेन सड़कें रिज़र्वों के लिए
रिज़र्व हैं। जनरल क्लास को टूटी-फूटी गलियों से संतोष करना पड़ेगा। उसने मुझे एक
पतली, गड्ढ़ेदार गली की ओर इशारा किया- ''उधरे से जाओ बाबा।''
यू टर्न लेकर घर की ओर रवाना हुआ तो मेरी गाड़ी गली के गड्ढे में धँस गई और बड़े
ज़ोर का झटका लगा। खटारा गाड़ी का एक नुकीला पुर्जा निकल कर मेरी बाँह में घुस गया
और उसमें से तेज़ी से खून निकलने लगा। मैंने जैसे तैसे गाड़ी आगे बढ़ाई। शुक्र की बात
थी कि सामने ही अस्पताल था।
अस्पताल पहुँचा तो वहाँ के नामी एक्सपर्ट डाक्टर के सामने मरीज़ों की लाइन लगी थी।
मेरे कंधे से खून बह रहा था। मैं डाक्टर के पास जाना चाहा। परंतु लाइन के मरीज़ों
ने मुझसे मेरी जाति के बारे में पूछा, जिसकी मुझे आशंका पहले से ही हो रही थी। मैं
अपने बहते खून से डरा हुआ था लिहाज़ा सरकारी कानून के भय से झूठ बोल गया- आरक्षित
हूँ बाबा। परंतु इतने में लाइन में किसी ने मुझे पहचान लिया और चिल्लाया - ई तो
जनरल है। ई ग़लत है। इसको इहाँ से भगाओ। ज़ाहिर है, वह नामी, अनारक्षित जाति का
एक्सपर्ट डॉक्टर आरक्षितों के लिए आरक्षित था।
लोगों ने मेरी अनारक्षित जाति को पहचान लिया और एक ओर इशारा कर दिया जहाँ एक
आरक्षित जाति का डाक्टर खाली-पीली मक्खियाँ मारते बैठा था। उसने मेरे बहते खून को
देखा और मुँह बिसूरते हुए अपने कंपाउंडर को इशारा किया। मुझे लगा कि कंपाउंडर भी
मुझसे मेरी जाति पूछेगा। पर वह एक मेकेनिकल किस्म का आदमी लगा जिसको जाति-पांति
क्या, दुनियादारी से, सर्दी-गर्मी से भी कोई मतलब नहीं था। उसने मशीनी अंदाज़ में
मेरे घाव पर मरहम पट्टी कर दी। मुझे महसूस हुआ कि काश! पूरी दुनिया ऐसी हो जाए तो
कितना अच्छा हो।
अस्पताल से आगे निकला तो सामने की सड़क पर भीड़ जमा थी। कोई जलसा हो रहा था। एक
नेता भाषण दे रहा था। आगे जाने का रास्ता जाम था। मजबूरन मुझे भी रुकना पड़ा। नेता
कहता जा रहा था, ''हम आरक्षितों को काम करने की क्या ज़रूरत? सदियों से सड़ा काम
करते आ रहे थे। अब कोई काम नहीं करेंगे। क्यों करेंगे काम हम? हमें घर बैठे रोटी
कपड़ा और मकान मिलना चाहिए। बिना काम किए सारी सुख सुविधा मिलना चाहिए। वोट देने के
सिवाय हम आरक्षित कोई काम नहीं करेंगे। हम सिर्फ़ और सिर्फ़ वोट दिया करेंगे। और
कुछ नहीं करेंगे। और जो सरकार हमारी आरक्षण संख्या को बढाएगी, इस बात को मानेगी उसे
ही वोट देंगे। उसकी हर बात पर ज़ोरों से, पूरे जोशो-खरोश से तालियाँ बज रही थीं।
कोई दो घंटे के तीखे जोशीले भाषणों के बाद ले देकर जलसा समाप्त हुआ तो मैं घर की ओर
आगे बढ़ा। सड़क के बाजू में एक बुजुर्ग ज़ार-ज़ार रो रहा था। दो-चार लोग उसे घेरे
बैठे थे और उसे सांत्वना देने की असफल कोशिश कर रहे थे। मैंने जिज्ञासा वश लोगों से
पूछा कि वह किसलिए रो रहा है। लोगों ने बताया - इस आरक्षित जाति के बुजुर्ग ने अपनी
बिटिया के लिए एक अच्छा वर तलाशा था। शादी पक्की कर दी थी। परंतु सरकारी कानून के
तहत इसे अपनी बिटिया की शादी किसी अन्य आरक्षित के साथ करवानी थी, जो इस बुजुर्ग और
इसकी बिटिया के हिसाब से उसके योग्य नहीं थे। इसकी बिटिया ने इस वजह से खुदकुशी कर
ली। मैं भी ज़ार-ज़ार रोने लग गया। मुझे मेरी बेटी याद आ गई। उसके ग़म में शरीक
होता हुआ मैं आगे बढ़ गया। मैं क्या कर सकता था? मैं कुछ नहीं कर सकता था। पता नहीं
सरकार को क्या हो गया है। वह आगे क्या करेगी पता नहीं।
जैसे तैसे घर आया तो पत्नी भरी बैठी थी। आम पत्नियों की तरह देर से घर आने में उसे
भी हमेशा लगता रहता था कि मैं अपने दोस्तों के साथ कहीं बैठ कर जाम उड़ाता होऊँगा।
पर फिर मेरी बाँह पर पट्टी बँधी देखी तो उसका गुस्सा हवा हो गया। हाय राम! ये क्या
हो गया उसके मुँह से बेसाख़्ता निकला। मैं पस्त हो चुका था और कुछ बोलने बताने के
मूड़ में नहीं था। बस इतना ही कहा, ''कुछ नहीं, गाड़ी के एक पुर्ज़े से चोट लग गई थी।''
पत्नी सब्ज़ियों की राह देख ही रही थी। बच्चे भी भूखे बैठे थे। जल्दी-जल्दी उसने
सब्ज़ी बनाई और परोसी। रोटियाँ उसने पहले ही बना रखी थी। बासी सब्ज़ी से बनी तरकारी
कुछ अजीब स्वाद दे रही थी। पर मुझे तो पेट भरना था। जैसे-तैसे निवाला अंदर करता
रहा। बिटिया ने एक-दो कौर मुँह में डाले और उसे उबकाई-सी आने लगी। उसने अपनी मम्मी
से शिकायत की कि सब्ज़ी कैसा स्वाद दे रही है। उसने खाना खाने से मना कर दिया। मैं
भरा बैठा ही हुआ था - एक ज़ोरदार चाँटा उसे रसीद कर दिया। अब तो यही खाना मिलेगा
तुझे इस आरक्षित भारत में। पार्लियामेंट, सरकार भी कोई चीज़ होती है। खाना है तो खा
नहीं तो मर।
वह सदमे से चीखी पर ढंग से रो भी नहीं सकी। आज तक
उसे अपने पालकों की टेढ़ी नज़र भी नहीं मिली थी। पत्नी दौड़ते हुए आई। मुझ पर
चिल्लाई, ''क्या हो गया है तुम्हें आज?''
पत्नी की आवाज़ फिर आई, ''क्या हो गया है तुम्हें आज? अरे! अब उठिए भी। नौ बज गए
हैं। क्या दिन भर सोते रहोगे?''
मेरी नींद खुल गई।
उफ! तो मैं सपना देख रहा था। बाप रे! क्या खौफ़नाक सपना था।
पत्नी ने मेरे एक हाथ में चाय का प्याला और दूसरे में अख़बार थमाया और कहा,
''सुबह से
तीन बार जगा चुकी हूँ तुम्हें और तुम नींद में जाने क्या बड़बड़ाए जा रहे हो।'' मैं
उसे देखकर बस मुसकुरा दिया। सुबह-सुबह की खिड़की से आती रौशनी में उसका खूबसूरत
चेहरा चमक रहा था। उधर अख़बार में हेडलाइन झाँक रही थी- सरकार ने आरक्षण लागू करने
का फ़ैसला ले लिया है।
अख़बार एक ओर फेंक कर मैंने उससे कहा, ''चलो बाहर बगीचे में चलते हैं।'' बगीचे में
रंग बिरंगे पुष्प चारों ओर खिले हुए थे। एक तरफ़ मे-फ्लॉवर के लाल सुर्ख गोल पुष्प
मंद हवा में मंद-मंद नृत्य कर रहे थे। शुक्र है, प्रकृति में आरक्षण लागू नहीं था-
मुझे मेरा सपना फिर याद आ गया था।
1 जून 2006
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