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वे बड़े श्रद्धा भाव से मेरे सामने खड़े थे - हाथ जोड़े हुए।
"कहिए।" मैंने कहा।
"कहना क्या है।" वे बोले, "दो सहस्र किलोमीटर से चला आ रहा हूँ, आपके दर्शन के लिए।" उन्होंने झुक कर तीन बार मेरे पैर छुए।

मुझे धर्मयुग में छपा एक बहुत पुराना चुटकुला स्मरण हो आया - कुछ साहित्य प्रेमी सैलानी लखनऊ गए थे। उन्होंने बड़ा इमामबाड़ा देखा। छोटा इमामबाड़ा देखा। गोमती तट देखा। फिर बोले, "अब नागर जी को भी देख लिया जाए।"
ये जो मेरे भक्त मेरे सामने खड़े थे, मैं उनकी भक्ति से त्रस्त था और उनके प्रति कटु होने का साहस ही नहीं कर पा रहा था।
"मैं भोजन कर रहा था। "मैंने कहा, "आप मेरे दर्शन भोजन करते हुए करेंगे या मेरे भोजन के पश्चात?"
उनका मुख आश्चर्य से खुल गया। मैं समझ रहा था कि वे क्या सोच रहे थे। वे तो मुझे कुतुब मीनार समझ कर आए थे, जिसे जब चाहें देखा जा सकता है। जिसे अपना कोई काम नहीं होता, उसे न कभी भोजन करना होता है, न विश्राम। न उस का शरीर थकता है, न उसके परिवार के लोगों को इस प्रकार असमय अपरिचितों का आना खलता है।
"मेरे मन में आपके प्रति बहुत श्रद्धा है।" वे बोले।
"वह तो ठीक है किंतु आप मुझे फ़ोन किए बिना आ गए, यदि मै आपको घर पर न मिलता या मैं दिल्ली से बाहर होता तो आपकी यह दो सहस्र किलोमीटर की यात्रा व्यर्थ हो जाती न।"
उन्होंने फिर आश्चर्य से मेरी ओर देखा, "आप घर पर न मिलते। यह तो मैंने सोचा ही नहीं।"
मैं समझ रहा था। वे यह कैसे सोच सकते थे कि कोई समय ऐसा भी हो सकता है, जब कुतुब मीनार अपने स्थान पर न हो। उसे तो वहीं रहना था - सदा।
"मेरे पास आपका फ़ोन नंबर नहीं था।" उन्होंने कहा।
"तो वह प्राप्त किया जा सकता था।" मैंने कहा।
"मैंने वह सोचा नहीं।" वे बोले।

मैं समझ गया। वे ठीक ही कह रहे थे। कोई कुतुब मीनार को फ़ोन तो करता नहीं। कुतुब मीनार ने कभी कहा भी नहीं। उसे कोई असुविधा नहीं है। कोई किसी समय भी आए।
"आप को कष्ट दिया, उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, पर मैं आप का इतना सम्मान करता हूँ।"
"जिसका सम्मान करते हैं, उसकी सुविधा-असुविधा का कोई ध्यान नहीं रखा जाता क्या?"
"मैं क्या जानता था कि मैं आपके दर्शन करूँगा तो आपको असुविधा होगी।" वे बोले, "आप भोजन कर लीजिए। मैं बैठा हूँ।"

वे यह नहीं समझ रहे थे कि उसको इस प्रकार भूखा बैठा कर मैं भोजन नहीं कर सकता था। और उसके भोजन के लिए मेरे पास कोई व्यवस्था नहीं थी। मैं भोजन कर लूँगा तो मुझे कुछ समय आराम करने के लिए भी चाहिए था। कुतुब मीनार के घर जा कर कोई घंटों बैठा रहे, कुतुब मीनार उसको खाना नहीं खिलाती। उस पर भी कोई उसकी असामाजिकता और अनैतिकता को नहीं कोसता।
"मैं जानता हूँ कि आप बहुत व्यस्त हैं, आप का समय बहुत मूल्यवान है. . .। " वे बोले।
"तो भी आप बिना कोई सूचना दिए चले आए?" मैंने उनकी बात काट दी।
"मैं दो सहस्र किलोमीटर से आया हूँ।"
"यही तो मेरी कठिनाई है।" मैंने कहा, "आप इतनी दूर से आए हैं कि मैं आपको लौटा भी नहीं पा रहा। पर मुझे अभी बहुत सारा काम करना है।"
"तो कोई बात नहीं, आप काम करते रहिए। मैं बैठा हूँ।" वे बोले, "मैं उसके बाद आप के दर्शन कर लूँगा।"
"काम करने के पश्चात मैं थक जाता हूँ।" मैंने कहा, "फिर मैं आराम करना चाहता हूँ।"
"ओह! तो आप आराम भी करते हैं।" वे बोले, "मैंने तो यही समझा था कि आप केवल काम करते हैं। इसी कारण से मेरे मन में आप के लिए बहुत सम्मान था। सम्मान क्या, मैं तो आप की पूजा करता था और आप हैं कि मेरे आने पर प्रसन्न ही नहीं हैं। अच्छा! मैं चलता हूँ।"
"बैठो भले आदमी! आकर तो तुमने कष्ट दिया ही है। अब रूठ कर चले जाओगे तो उससे भी अधिक कष्ट होगा मुझे।" मैंने कहा और सोचा, "मैं कुतुब मीनार तो हूँ नहीं कि घर आए अतिथि की भावनाओं की मुझे चिंता ही न हो।"

1 अगस्त 2005

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