पिछले
कुछ दिनों से मेरे मन में एक नई योजना सज–संवर रही
थी। स्वदेश से इतनी दूर¸ यहां अमरीका में भी मैंने
भारतीय संगीत और नृत्य के कई कार्यक्रम देखे हैं¸
लेकिन कोई भी भारतीय नाटक नहीं देखा। अमरीका में
रहते हैं¸ तो क्या हुआ – सोचा हिन्दी में एक नाटक का
मंचन होना चाहिए।
लेकिन नाटक के मंचन के लिए तो मंच सजाना पड़ता है –
सिर्फ़ योजना के सजने–संवरने से क्या होगा? सबसे पहले
एक नाटक ढूंढ़ना होगा। फिर कुछ अभिनेता और
अभिनेत्रियों को जुटाना पड़ेगा। और फिर रंग सज्जा और
वेश–भूषा इत्यादि . . .इन सब में तो खर्च भी काफ़ी हो
सकता है।
मैं अपने कुछ मित्रों से यूं ही बात छेड़ बैठा – मन
में शंका थी कि यहां विदेश में देसी नाटक किया भी जा
सकता है या नहीं। जिन चीज़ों की हमें आवश्यकता पड़ेगी¸
वे यहां उपलब्ध भी होंगी क्या?
"क्यों¸ ऐसी क्या चीज़ है जो अमरीका में नहीं¸ केवल
दिल्ली में ही मिलती है?" रमेश जी को मेरी बात रास न
आई।
"छुट–पुट चीजें. हैं¸" मैंने कहा¸ "जैसे मान लीजिए
कि हम राम–कथा पर नाटक करने की कोशिश करें। अब राजा
दशरथ का सिंहासन कहां से आएगा? चलिए कुर्सी पर चद्दर
ओढ़ा लेंगे। पर सिर पर देसी मुकुट कहां से लाएंगे? और
विश्वामित्र का कमंडल? जटाएं और दाढ़ी?"
"दाढ़ी तो भई रुई की बन जाती है . . ." वे बोले।
"हमें विश्वामित्र की दाढ़ी चाहिए रमेश जी – सैण्टा
क्लौज़ की नहीं। रुई से बात नहीं बनेगी।"
पर जब तक यह निश्चित नहीं होता कि नाटक कौन सा करना
है¸ तब तक इन सब बातों पर बहस करना व्यर्थ है।
तो मैं पहुंचा शहर के मुख्य पुस्तकालय में। रमेश जी
ही तो कह रहे थे इतने घमंड से – जैसे उनका अपना ही
पुस्तकालय हो – "अमरीका में सब कुछ मिल जाता है।
देखो¸ चले जाओ तुम यहां के पुस्तकालय में . .
.हिन्दी की किताबें तो छोड़ो¸ तुम्हें हिन्दी की
फ़िल्में भी मिल जाएंगी। कल ही तो लाया हूं मैं
'शोले' देखने के लिए।"
झूठ तो नहीं कह रहे थे रमेश जी। हिन्दी की पुस्तकें
भी थीं¸ और फ़िल्में भी¸ वरन् पुस्तकें कम¸ फ़िल्में
ही अधिक थीं। हिन्दी का नाटक तो मुझे एक भी नहीं
मिला। हमारी नाट्य अभिलाषाओं को बहुत बड़ा झटका लगा।
नाटक ही नहीं मिलेगा¸ तो मंचन किसका होगा? फिर
अकस्मात्¸ जैसे स्वयं नटराज की कृपा हुई और मुझे एक
युक्ति सूझी। शहर का मुख्य पुस्तकालय भी आखिरकार है
तो सरकारी ही – सरकार चाहे कहीं की हो। तो यहां बात
बने न बने¸ विश्वविद्यालय चलते हैं – पढ़े–लिखे लोगों
के पास पुस्तकें ज़्यादा होती हैं।
पर न तो मैं विश्वविद्यालय का छात्र हूं¸ न वहां
पढ़ाता हूं। जब उस संस्था से अपना कोई नाता ही नहीं¸
तो उस संस्था का पुस्तकालय मुझे क्यों झेलेगा? तो
मैंने एक फ़ोन घुमाया अपने यार ऋतुराज को।
स्नातकोत्तर डिग्री की पढ़ाई कर रहा है – उसे तो खुली
छूट है। पुस्तकालय से मनचाही संख्या में पुस्तकें
निकलवा लें।
"भैया कुछ किताबें चाहिएं तुम्हारे पुस्तकालय से।
मदद कर सकोगे मेरी?"
"हां हां क्यों नहीं!" ऋतुराज बोला¸ "किताब का नाम
तो बताओ।"
मुझे कौन से कोई नाटकों के नाम कंठस्थ थे। थोड़ी देर
सोच कर मैं बोला¸ "बचपन में एक बार 'कबिरा खड़ा बाज़ार
में' नाम का एक नाटक देखा था। कुछ खास याद नहीं¸ बस
यही याद है कि अच्छा लगा था। देखना¸ मिल सके तो . .
."
कुछ दिनों बाद जब ऋतुराज से भेंट हुई तो किताब हाथ
में लिए खड़ा था। बोला¸ "तीन हफ्.तों के लिए निकलवाई
है – बीस तारीख तक लौटा देना।"
लगने लगा कि बात बन गई। अब ठाठ से नाटक पढ़ेंगे¸ और
मंचन की तैयारी करेंगे। पर जैसे जैसे नाटक आगे चला¸
मुझे खुद ही रमेश जी से कही बातें याद आने लगीं।
कबीर का झोंपड़ा कैसे सजाएंगे? जुलाहों की बस्ती? और
महंत की चांदी की पालकी? सोने का लोटा? काशी के घाट¸
सिकंदर लोधी का लश्कर? वेश–भूषा और मंच सज्जा की
दृष्टि से तो यह नाटक बहुत भारी पड़ेगा। कुछ और नाटक
पढ़ने होंगे। और कुछ समकालीन मामला मिले तो ज़्यादा
अच्छा है। पैंट कमीज़ पहनाई और खड़ा कर दिया मंच पर।
बहुत सारी समस्याएं स्वयं ही सुलझ जाएंगी।
तो हिन्दी साहित्य जानने–समझने वाले कुछ लोगों से
चर्चा करके¸ नाटकों की एक सूची तैयार की। जब ऋतुराज
से बात हुई¸ तो बोला वह तो दो महीनों के लिए शहर से
बाहर जा रहा है¸ इसलिए मेरी किताबें नहीं निकलवा
पाएगा। अब क्या करें भोले नाथ¸ हम तो फिर लटक गए।
इतने में ऋतुराज बोला¸ "मेरी एक सहेली हैं¸ यशोधरा।
वह भी यहीं विश्वविद्यालय में पढ़ती है। मैं उससे बात
कर लूंगा – उसे किताबों की सूची दे देना¸ तुम्हारा
काम वह कर देगी।" जय शिव–शंकर।
यशोधरा से जब मेरी बात हुई तो वह बोली कि इन दिनों
वह विश्वविद्यालय के अस्पताल में काम कर रही है¸
इसलिए आज–कल उसका मुख्य परिसर आना जाना नहीं होता।
लेकिन पुस्तकालय वालों से कह कर¸ वह मेरे नाटक अपने
अस्पताल के पुस्तकालय में मंगवा लेगी। वहां से बहुत
सुविधा से मेरे लिए वह किताबें निकलवा सकती है।
किताबें आ जाने पर मुझसे सम्पर्क करेगी।
विश्वविद्यालय की इस व्यवस्था ने मुझे बहुत प्रभावित
किया – क्या कमाल का तंत्र है – यहां की पुस्तक वहां
उपलब्ध हो जाती है। सच–मुच विश्वविद्यालय वाले उस
सरकारी पुस्तकालय से तो कहीं आगे निकल आए हैं।
कुछ दिनों बाद यशोधरा का फ़ोन आया कि उसे पुस्तकालय
से सूचना प्राप्त हुई हैं कि किताबें अस्पताल पहुंच
गई हैं। बोली कल जा कर ले आएगी। पर दो–तीन दिन तक जब
मुझे कोई समाचार नहीं मिला¸ तो मेरी बेचैनी बढ़ने
लगी।
" . . .तो क्या आपको किताबें निकलवाने का समय मिल
पाया?" मैंने यशोधरा को फ़ोन किया।
"अरे आप विश्वास नहीं करेंगे। परसों गई थी मैं
अस्पताल के पुस्तकालय। जब मैंने उन्हें बताया कि
मेरे लिए कुछ किताबें मुख्य परिसर से यहां आई होनी
चाहिएं¸ तो उन्होंने बहुत ढूंढ़ा¸ पर उन्हें नहीं
मिलीं। कल मैं पुस्तकालय से आई चिठ्ठी साथ ले कर
दोबारा गई¸ तो वे बोले कि आप कह तो ठीक रही है –
पुस्तकें होनी तो यहीं चाहिएं¸ पर हैं नहीं। आप कहें
तो हम एक बार फिर मुख्य परिसर से सम्पर्क कर के
पुस्तकें मंगवा लें? तो वहीं के वहीं¸ लगे हाथ मैंने
एक बार फिर किताबें मंगवाने की अर्ज़ी भर दी।
पुस्तकालय वाले कह रहे थे कि हफ्ते भर में किताबें आ
जानी चाहिएं।"
आभार व्यक्त कर मैंने फ़ोन रख दिया। सोचा¸ इतना
इंतज़ार किया है¸ तो एक हफ्ता और सही। चाहे
विश्वविद्यालय का तंत्र कितना ही अच्छा क्यों न हो¸
कभी–कभी गड़बड़ तो कहीं भी हो सकती है। कुछ ही दिनों
की बात है¸ नाटक मिल जाएंगे।
पर जब लगभग पन्द्रह दिन बीत गए और यशोधरा की ओर से
कोई समाचार नहीं आया¸ तो मैंने उसे फिर फ़ोन किया।
इधर उधर की कुछ बातें कर के¸ असल मुद्दे पर आया।
"तो मेरी किताबों की क्या खबर है?"
"मुझे क्या मालूम था कि मुख्य परिसर से किताबों को
अस्पताल मंगवाने में इतनी समस्या होगी। कुछ दिनों
पहले मैंने पता किया था कि किताबें पहुंची कि नहीं¸
लेकिन पुस्तकालय वालों को कुछ खबर नहीं थी। तो मैं
यह सोच रही हूं कि अगले एक दो दिनों में मुख्य परिसर
जा कर आप के नाटक ले आउंगी। क्षमा कीजिएगा कि इतने
छोटे से काम में इतना समय लग रहा है।"
"अरे नहीं¸ कैसी बातें करती हैं आप!" मैं बोला . .
."अपने काम के लिए आपको इतनी सिर–दर्दी दे रहा हूं¸
क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए!"
बुरा तो मुझे लग रहा था कि सिर्फ़ मेरे काम के लिए
यशोधरा को अब मुख्य परिसर जाना पड़ेगा। लेकिन मेरा
स्वार्थ प्रसन्न था। पुस्तकें तो मिलें।
अगले शनिवार यशोधरा से फिर मेरी बात हुई। बोली¸
"आपकी तीनों किताबें मेरे पास है – कल मुख्य परिसर
गई थी¸ किताबें ले आई हूं।"
मैं बहुत प्रसन्न हुआ¸ और बोला¸ "यह तो बहुत अच्छी
खबर सुनाई है आपने – यदि आपके पास अगले कुछ दिनों
में खाली समय हो¸ तो क्यों न शाम को हम मिलें। मैं
किताबें भी ले लूंगा¸ और रात का खाना भी हम साथ–साथ
खा लेंगे – मेरी ओर से आपको दावत!"
यशोधरा ने मुझे झट से टोका¸ "एक मिनट¸ बात तो पूरी
करने दीजिए। खबर अच्छी तो है¸ पर पूर्णत: खुश–खबरी
नहीं है!"
मुझे फिर शंका ने घेर लिया। अब क्या माया जाल बुन
रहे हो शम्भू नाथ?
"समस्या यह है . . ." यशोधरा बोली¸ "कि किताबें तो
मैं ले आई हूं लेकिन मुझे पुस्तकालय से सूचना आई है
कि किसी ने इन्हीं तीनों पुस्तकों पर रोक लगा रखी
है।"
"रोक लगा रखी है? कैसी रोक?" मैंने पूछा।
"रोक याने¸ पुस्तकालय के किसी और सदस्य को भी ये ही
किताबें चाहिए¸ इसलिए पुस्तकालय ने इन्हें मुझसे
वापिस मांगा है।" यशोधरा ने एक क्षण रुक कर फिर बात
आगे बढ़ाई¸ "मेरा अनुमान है कि यह रोक मेरी ही लगाई
हुई होगी। जब दूसरी बार मैंने अस्पताल से किताबें
मंगवाईं थीं¸ मुझे लगता है कि मेरी वही अर्ज़ी अब
जाकर मुख्य परिसर पहुंची है¸ इसलिए पुस्तकालय मुझसे
किताबें वापिस मांग रहा है।"
"यदि सचमुच ऐसा है¸ तो यह तो बहुत मज़ेदार बात होगी!"
मुझे हल्की सी हंसी आने लगी थी।
"होगी तो!" यशोधरा भी हंसी¸ "और काम भी आराम से निपट
जाना चाहिए। किताबें साथ ले कर जाऊंगी¸ उनसे पूछ कर
कि रोक किस की लगवाई हुई हैं¸ हो सका तो लगे हाथ
वापिस ले आउंगी। लेकिन अगर सचमुच किसी और ने भी यही
किताबें निकलवाने की कोशिश की है¸ तो फिर तो कुछ समय
और लगेगा।" महादेव तेरी लीला।
बहुत ज़्यादा इन्तज़ार नहीं करना पड़ा – अगले ही दिन
यशोधरा का फ़ोन आया। शायद थोड़ी खीजी हुई थी – आवाज़
में गुस्सा झलक रहा था। कहने लगी¸ "आज फिर मुख्य
परिसर गई थी पुस्तकें ले कर . . .लेकिन इन लोगों से
मैं तंग आ गई हूं।"
"क्यों क्या हुआ?"
"मूर्खता की भी हद होती है। मैंने उन्हें पुस्तकें
लौटाई और कहा कि मेरा अंदाज़ है कि मेरी ही अर्ज़ी के
कारण इन किताबों पर रोक लगी है¸ तो पुस्तकालय के
कर्मचारी बोले कि ऐसा हो तो सकता है। मैंने उनसे
पूछा कि क्या वे देख कर बता सकते है कि रोक किस की
ओर से लगाई गई है¸ तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया।"
"मना क्यों कर दिया?" मुझे तो जैसे किसी सरकारी
दफ्.तर की गन्ध आने लगी।
"बोले सुरक्षा और व्यक्तिगत गोपनीयता संबंधी नियमों
के कारण।"
"तो फिर क्या हुआ? मैंने पूछा।
"होना क्या था – किताबें लौटा कर चली आई।" यशोधरा के
स्वर की खीज में अब कोई दुराव नहीं था।
"तो अगर वे आपको भी नहीं बताएंगे कि जिन किताबों पर
सम्भवत: आप ही ने रोक लगाई है¸ वे अब उपलब्ध है¸ तो
फिर आप उन किताबों को कैसे ले पाएंगी?"
"मैंने भी उन से बिलकुल यही पूछा¸" वह बोली . . ."अब
जो कि ये किताबें पुस्तकालय में उपलब्ध है¸ वे उस
व्यक्ति को संदेश भेजेंगे जिसने इन पर रोक लगवाई है।
यदि यह रोक मेरी है लगवाई हुई हैं¸ तो मुझे
पुस्तकालय का यह संदेश ज़रूर मिलेगा। और उस संदेश के
मिलने के बाद मैं दोबारा पुस्तकालय जा कर आप के नाटक
प्राप्त कर सकूंगी।"
बेचारी यशोधरा – कहां फंसा गया ऋतुराज इसे! पर कम से
कम वह मुझ से नाराज़ नहीं थी – उसकी अपनी नज़र में¸ इस
सारी परेशानी का कारण इस पुस्तकालय का महान तंत्र था
– मैं या ऋतुराज नहीं। भगवान ही जाने यह नाटक कभी हो
भी पाएगा या नहीं। क्या पता ये पुस्तकें कभी हाथ
लगेंगी भी या नहीं। भारत हो या रमेश जी का चहेता
अमरीका – सरकारी दफ्.तर हो¸ या अत्याधुनिक
विश्वविद्यालय का चमकता पुस्तकालय . . .कब¸ कौन¸
कहां किस चक्कर में फंस जाएगा¸ कौन बता सकता है।
पर भगवान शिव की महिमा अब धीरे–धीरे मेरी समझ में
आने लगी थी। भारतीय परम्परा में नाटक के सदा ही दो
अंग रहे हैं – नाट्य और नृत्य . . .और यह नटराज की
ही लीला है जो एक नाटक करने के चक्कर में हमें ऐसा
नचा रही है।
सोचता हूं कि क्या नाटक करने का शौक पाला था मैंने –
सृष्टि के इस महामंच पर अपनी नौटंकी तो सदा ही चलती
रहती है . . .तो क्यों न इस नौटंकी के निर्देशक
महादेव से ही पूछा जाए कि कौन सा नाटक होना है और
उसमें मेरी क्या भूमिका है हे महासूत्रधार? |