शाम का समय, कवि मित्र – कश्मीर में मानवाधिकार के 
मामले पर बेनज़ीर की तरह भरे बैठे थे। मैं भारतीय प्रधानमंत्री की तरह चुपचाप सुन 
रहा था। बहस को अगर आप समाप्त करना चाहते हों इसका श्रेष्ठ तरीका यह है कि – सुनते 
रहिए। बहस–बहादुर को लगेगा कि वह रेडियो हुआ जा रहा है तो अपने आप बंद हो जाएगा। 
लेकिन कविराज मानवाधिकार से परमाणु बम की ओर बढ़ गए। सुनते रहने की हमारी नीति को 
उन्होंने सुविधा समझ लिया। संभावना लंबी देख उन्होंने सोफे पर अपने को जनता दल की 
तरह फैला लिया और टी–टेबल पर अपनी दोनों टाँगे शिवसेना–भाजपा गठबंधन के समान मिला 
कर रख दीं। ये बातें मुझे पसंद नहीं आई, लेकिन कवि के पैर मेरी पसंद से भारी थे। अब 
वे नेहरू और शेख अब्दुल्ला को लेकर कुपित हो रहे है। टी–टेबल पर रखे उनके पैर 
लगातार हिल रहे हैं। न जाने क्यों मुझे लग रहा है जैसे दो नाग फन फैलाए झूम रहे 
हैं। पत्नी चाय देने आती है और अपनी टी–टेबल पर कविराज के झूमते चरण देख कर बिना 
कुछ कहे लौट जाती है। मैं समझ गया कि अब बिस्कुट की प्लेट नहीं लाएगी। उन्होंने कप 
उठा लिया लेकिन मुँह से भारत सरकार की सुस्ती पर धाराप्रवाह क्रोध व्यक्त करने के 
कारण एक घूँट भी नहीं पी पाए हैं। 
दरवाज़े पर दस्तक होती है। मैं प्रसन्न होता हूँ और 
वे इस रुकावट पर खेद ढूंढते हुए चाय पीने लगते हैं। दस्तक दोबारा, अधिक ज़ोर से 
होती है।
'जवाहर चौधरी आप ही है?' पुलिसमैन ने किसी जूता कंपनी द्वारा भेजे गए बैग में से 
एक काग़ज़ निकालते हुए पूछा।
'जी हाँ, मैं ही हूँ। कहिए?'
'थाने चलिए।'
'थाने!! थाने क्यों?'
'काम है, साब ने बुलाया है।' कह कर उसने अपना एक हाथ कमर पर रख लिया और दूसरे हाथ 
से सिर खुजाने लगा। उसकी तांडव मुद्रा देख कर हमें झुरझुरी छूट गई। शरीफ़ आदमी वैसे 
ही पुलिस से डरता है और फिर दरवाज़े पर ही उसके दर्शन हो जाएँ तो सर्दी में भी 
पसीना आ जाना स्वाभाविक है। एक डर पड़ोसियों का भी रहता है। पुलिस को आए ज़रा देर ही 
हुई है, लेकिन आसपास की चार–पाँच जोड़ा मादा निगाहें घर की ओर लग गई हैं। उनमें से 
एक ने दाँतों में अँगुली दबा रखी है, वह बात की गंभीरता को गंभीरतापूर्वक समझने की 
कोशिश कर रही है। कश्मीर आतंकवाद पर चर्चा कर रहे या सुन रहे होने के कारण हमारा 
दिल वैसे ही बिना पानी के डूबा–डूबा जा रहा था। सकते जैसी स्थिति में हम जड़ हुए जा 
रहे थे कि वह मुस्काने लगा। किसी को अपनी ओर मुस्कराते देख कर मुझे डिप्रेशन होने 
लगता है। फिर वह मूँछवाला है, वर्दीवाला है और उसके हाथ में मेरे नाम का काग़ज़ भी 
है। मेरे प्राण आटोमेटिक वाशिंग मशीन में तुरंत सूखते कपड़ों की तरह तेज़ी से सूखने 
लगे। वह बोला– 'साब ने तो कहा था कि हथकड़ी डाल के ले आ, पर मैंने ई बोला कि किसी की 
इज़्ज़त कायको बिगाड़ते हो। बिचारे सीदे–सादे आदमी होएँगे।
हथकड़ी डल गई तो किसी को मूँ दिखाने के काबिल 
नी–रेंगे। इसलिए चा–पानी, नास्ता वगैरा कुछ–नी लिया, एसे–ई चला आया। क्या?'
कानून की भाषा हर कोई नहीं समझता है। मैं भी नहीं समझा। चाय–पानी और नास्ते के बिना 
भूखा कानून अपने बैग में कुछ और ढूंढ़ने लगा। चूँकि आसपास जिज्ञासुओं की भीड़ बढ़ने 
लगी थी, कानून पहली–पहली बार मेरा घूँघट उठा रहा था और मैं लाज से दोहरा–तिहरा रहा 
था, बड़े संकोच से मैंने कानून को अंदर आ जाने का आग्रह किया जिसे उसने अनमनापन 
बताते हुए स्वीकार कर लिया।
ज्ञात हुआ कि मौजूदा कानून के अफ़सर ने किसी चोर को 
पकड़ने में भारी सफलता प्राप्त कर ली थी। चोर थाने में थानेदार साहब के साथ 
किंगसाइज़ सिगरेट पीते हुए गिरफ़्तारी की अवस्था में था। चोरी का माल ज़ब्त करने का 
कार्यक्रम विचाराधीन बना हुआ था और इसी सिलसिले में उन्होंने हमें तलब किया हुआ है।
हर नागरिक का कर्तव्य है कि जब भी कानून द्वारा थाने पर बुलाया जाए उसे फौरन हाज़िर 
होना चाहिए। कानून आम आदमी की मदद के लिए होता है। कानून न हो तो समाज में इतनी 
अच्छी व्यवस्था भी न हो। यह सब जानते हुए भी थाने जाने के पावन प्रसंग पर हमारे 
हाथ–पैर फूल रहे थे। कवि मित्र बीच राष्ट्रीय समस्याओं को छोड़कर हमारे पास आ गए। 
हमने लाचारी से उनसे पूछा – 'क्या करे, ये थाने चलने को कह रहे हैं।' लेकिन वे भी 
लाचार ही बने रहे। उनकी चड्डी की जेब में सिर्फ़ राष्ट्रीय मसलों के उपाय थे, लोकल 
समस्याएँ स्थानीय महिलाओं के जागृति–संगठन के ज़िम्मे होने के कारण उन्हें कुछ भी 
पता नहीं था। कविराज ने कानून से अपनत्व के साथ पूछा– 'मामला क्या है? चलना ही 
पड़ेगा क्या?'
'चलना क्यों नहीं पड़ेगा!! अरे, हम खुद आए हैं लेने, सुबे–से चाय–नाश्ता कुछ नहीं 
किया है। घर ढूंढ़ते–ढूंढ़ते हलाकान हो गए। जान निकल रही है हमारी, अब तो भोजन का टैम 
हो गया है।' उसने अपने फूले हुए पेट पर हाथ फेरते हुए कहा।
कविराज ने धीरे से समझाया– 'व्यावहारिक बनो, कानून का पेट खाली है, पहले इसे 
चाय–नाश्ता करवा दो।'
बात को बीच में ही पकड़कर कानून ने बताया कि वे कुछ 
खाएँगे नहीं। क्यों कि गंगा किनारे वाले पवित्र ब्राह्मण हैं। रहा सवाल चाय–नाश्ते 
का तो रुपया–पैसा ले लेंगे। इसे दान–दक्षिणा भी समझा जा सकता है। कानून के आगे पहले 
मैं अपराधी था अब जजमान हो गया।
तृप्त होकर वे हमें अपने साथ ले चले। मोहल्लेवालियाँ इस भाव से देख रहीं थी कि – 
देखो तो हम लोग क्या समझे थे और ये क्या निकला। बीबी को अलग गुस्सा था, वह समझती है 
कि मेरा खाँसना–छींकना तक उनकी मर्ज़ी से होता है तो फिर आज ये गुस्ताखी कैसे?
अपनी मूँछें खुजाते हुए थानेदार टेबल पर झुके 
व्यस्त बने रहे। हमें प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया था। जब वे बिना बात कई फ़ाइलें 
देख चुके और खुद उनसे प्रतीक्षा संभव नहीं हुई तो हमारी ओर मुखतिब हुए – 'हूँ, आपके 
पास टोपी है?
'जी हाँ, है।'
'और मिक्सी?'
'वह भी है।'
'सोने–चाँदी के कुछ जेवर भी होंगे?'
'हाँ हैं, लेकिन हमारे यहाँ कोई चोरी–वोरी नहीं हुई है। सब सामान मेरे पास है।' 
मैंने राहत की साँस लेने की कोशिश की।
'कोई बात नहीं चोरियाँ तो होती ही रहतीं हैं। – हमने कल एक चोर पकड़ा है। उसने टोपी, 
मिक्सी और कुछ सोना–चाँदी चुराया था। उसका कहना है कि उसने ये सामान आपको बेचा है'
'नहीं जी, ग़लत है। मैंने कोई सामान नहीं ख़रीदा है।' हमें भगवान वैसे ही याद आ गए 
जैसे चीरहरण के समय द्रौपदी को आ गए होंगे।
'आपके पास सामान है और आपने ख़रीदा नहीं!!' उन्होंने अरदली में खड़े एक सिपाही को 
बुलाया – 'जा रे, दहेज प्रताड़न वाली फ़ाइल ले आ।'
'आ . . . . आप ग़लत समझ रहे हैं थानेदार साहब, सामान मैंने खुद ख़रीदा है. . .।'
'ऐसा, अब आए न रस्ते पर। तो सामान आपने चोर से ख़रीदा है।' मुसकुराते हुए उन्होंने 
पंचनामे का काग़ज़ निकाला।
'चोर से नहीं, बाज़ार से ख़रीदा है श्रीमान'
'बाज़ार से!! आपने! ये कैसे हो सकता है? जब वह चीज़, वही क्वालिटी कम दाम में मिले 
तो कोई बाज़ार से क्यों ख़रीदे, चोर से क्यों नहीं ले ले?'
'आप मेरा यकीन कीजिए सर।' हमने सच्चाई और याचना का मिश्रित राग अलापा।
'बिल या रसीदें हैं आपके पास?'
'बिल वग़ैरह तो नहीं है, इधर–उधर हो गए होंगे।'
'फिर तो हम मजबूर हैं। चोर कह रहा है कि उसके सामान आपको बेचा है। ज़ब्ती करवाइए'
'लेकिन चोर झूठ भी तो बोल सकता है'
'चोर झूठ क्यों बोलेगा? उसे आपसे क्या दुश्मनी है?'
अब तक थाने का डर हमारे मन से भी कम हो चला था। सो बहस पर उतर आए – 'आपके पास क्या 
सबूत है कि यह सामान मैंने ही ख़रीदा है। उसने किसी और को बेचा हो सकता है। मेरा 
विश्वास कीजिए।'
वो भी चिढ़ गया – 'विश्वास का क्या मतलब होता है? कानून के आगे सब आदमी बराबर होते 
है। चोर पकड़ा गया है, उसने चोरी कबूल कर ली है। वह देख रहे हो न, क्या है?' थाना 
परिसर में एक मूर्ति दिखाते हुए उन्होंने पूछा।
'गांधी जी की मूर्ति है।'
'उसके नीचे खड़े होकर चोर ने शपथ लेकर कहा है।'
'तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वह सच बोल रहा है। गांधी जी की शपथ लेकर लोग झूठ नहीं 
बोल सकते हैं क्या?'
'बकवास बंद।' वह एकाएक गरम हो गया। दरअसल उसे हमारी बहस पर गुस्सा आ रहा था। बोला– 
'आदरणीय नेताओं का अपमान! वो भी हमारे थाने में!! और पुलिस के सामने! जिस शपथ के 
सहारे लोकतंत्र ज़िंदा हैं, यहा महान व्यवस्था चल रही है। उस पर शंका?' वे आगे कुछ 
और चीखते इससे पहले सिपाही ने आ कर बताया कि 'उसने' अभी तक कुछ कबूला नहीं। सुनते 
ही उन्होंने गुस्से का प्रवाह उस ओर मोड़ दिया।. . .
'औंधा करके मारो साले को। वो क्या. . .उसका बाप भी 
उगलेगा।' सिपाही के जाते ही ये हमारी ओर मेहरबाँ हुए – 'हाँ, क्या कहना है 
तुम्हारा, ज़ब्ती करवाते हो या नहीं?'
'आप मेरा विश्वास कीजिए सर. . . !' हमने नम्रता की राह में ही गति समझी।
'पुलिस को यहाँ विश्वास करने के लिए नहीं बैठाया है सरकार ने। एक सिस्टम है जो सबके 
लिए हैं। कानून सबके लिए सिर्फ़ कानून होता है।'
'आप भी कानून के दायरे में आते हैं।' अचानक हमारे मुँह से निकल गया।
'दायरा!! दायरे का क्या मतलब? हम कानून के प्रतिनिधि हैं, हम ही कानून हैं, समझे। 
और तुम दो रूपल्ली की पब्लिक हो–के यहाँ बैठे कानून से मुंहजोरी करने की हिमाकत कर 
रहे हो? नंगा करके ठुकाई उड़ाऊँगा तब पता पड़ेंगे हमारे दायरे। समान की ज़ब्ती करा।'
'लेकिन सर, आप विश्वास तो कीजिए। मैं गांधी जी के सामने शपथ ले लेता हूँ, अगर आप 
कहें तो।'
'अगर ज़ब्ती नहीं करवाई तो तुम्हें गांधी जी के पास ही भेज दूँगा। हम सब जानते हैं 
कि सच किस पेट में हैं और कैसे पेट से बाहर निकलना है।'
'मैं सच बोल रहा हूँ। वह चोर नहीं है, वही झूठ बोल रहा है। मुझे 
क्या पड़ी है किसी से सामान ख़रीदने की।'
'यह पुलिस थाना है, इनकम टैक्स का दफ़तर नहीं, जो हम आपके झूठ को अपनी मोहर लगा कर 
सच बना दें। रहा चोर का सवाल, तो हम उसे बहुत समय से जानते है। ठीक है कि उसने चोरी 
की है, लेकिन उसने अपना जुर्म भी कबूला है। जुर्म कबूलना कानून का सम्मान करना है। 
ऐसे व्यवस्था प्रेमी नागरिकों का हम आदर करते हैं ओर विश्वास भी। वैसे हमारी राय यह 
है कि आप सामान ज़ब्त करवा कर अनावश्यक फजीहत से बच सकते हैं।' उन्होंने अपने इरादे 
को निर्णय की शक्ल देते हुए कहा।
मुझे यह व्यवस्था समझ में नहीं आ रही थी। रसीद न हो 
तो आपका सामान गया, पैदाइश की रसीद न हो तो नागरिकता गई। हमें लगा कि कानून से लड़ना 
हमारे बूते का नहीं है। सामान क्या चीज़ है, कल फिर ख़रीद लेंगे। माया-मोह छोड़ कर 
ज़ब्ती का मन बना ही रहे थे कि कवि मित्र नेता जी को ले आए। नेता क्या थे, पूरा 
लोकतंत्र ही समझ लीजिए। आते ही उन्होंने कानून से हाथ मिलाया और दोनों ने परस्पर 
'भाभी जी और बच्चों' के हाल पूछे। कविराज ने हमारी ओर इशारा करके बताया – 'ये हैं।'
उन्होंने ऊपर से नीचे तक ताड़ा –'अच्छा ये हैं!'
नेता जी कानून और व्यवस्था के कर्णधार हैं। जिस थाने पर खड़े हो जाएँ वहाँ ड्यूटी पर 
तैनात कानून उन्हें सलाम ठोंकता है। लोग कहते हैं कि वे ज़मीन से जुड़े आदमी हैं। 
एकदम कीचड़ से उठे हैं और ऊपर जा कर कमल हो गए हैं। शुरुआती दौर में 'सब कुछ' करना 
पड़ा इसलिए चोरों और थानेदार की नस–नस से वाक़िफ़ हैं। व्यवस्था के (लाइलाज) कोड़े 
हैं। मुझ नाचीज़ के लिए वे इस समय कानून का हृदय परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे 
हैं।
'छोड़ो यार, क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा। 
फिर देखना किसी बड़ी मुर्गी को।' लोकतंत्र ने प्यार से कानून के कंधे पर हाथ रखते 
हुए कहा।
कानून प्रतिभाशाली था, वक्त और आदमी दोनों की कदर मौका आने पर कर लेता था लेकिन इस 
वक्त जबकि ज़ब्ती होने ही जा रही थी, उसे लोकतंत्र की दखलंदाजी पसंद नहीं आई। उसने 
अपनी विनम्र आपत्ति दर्ज़ कराई – 'आप हमारे पेट का भी ख्याल कीजिए सर। बड़ी 
मुर्गियों तो आप ही निबटा लेते हैं। अगर आप इन जैसों के लिए भी आते रहें तो हमारे 
बाल–बच्चे भूखे मर जाएँगे।'
'समझो यार, ये लेखक हैं।' हमें पहली बार लगा कि लोकतंत्र में लिखने वालों की बड़ी 
इज़्ज़त है। 'लेखक हो या पाठक, कानून के आगे सब बराबर होते हैं।' उसने हमें घूरते 
हुए कहा।
'चोर कौन है?' अचानक लोकतंत्र ने पूछा।
'वही, काला चोर।'
'अरे वो!! अपना ही आदमी है। मैं कहे देता हूँ, किसी और के नाम की ज़ब्ती निकलवा 
देगा। मैं भला तुम्हारे पेट पर लात कैसे मार सकता हूँ। दुनिया जानती है कि कानून 
लोकतंत्र का रक्षक है।'
कानून इस हस्तक्षेप से अप्रसन्न था, लेकिन उसने 
'जैसी मर्ज़ी आपकी' कह कर अपनी सहमति जता दी। कविराज ने मेरी पीठ सहलाई, उनकी पीठ 
पर लोकतंत्र ने हाथ रखा। मुझे लगा कि मैं किसी चेन का हिस्सा हो रहा हूँ।
मित्र मेरे साथ घर आते हैं, मामले को मामूली और ख़त्म हुआ घोषित करते हैं। इत्मीनान 
से चाय का प्याला हाथ में लेते हुए प्रश्न पूछते हैं – 'कश्मीर में चुनाव के बाद 
लोकतांत्रिक व्यवस्था आ पाएगी या नहीं?'