पिछले अंक में आप का परिचय आप की
सुरक्षा प्रणाली के न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स, एवं नेचुरल
किलर सेल्स जैसे उन योद्धाओं से कराया गया था जो नैसर्गिक
तंत्र का हिस्सा हैं। ये हमारे जन्म से ही रक्षा-कार्य में
संलग्न रहते हैं। न इन्हें किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है
और न ही इन्हें किसी हरबा-हथियार से सुसज्जित करने की। ये
योद्धा सभी शत्रुओं के साथ समभाव रखते हैं यानि उनमें अंतर
नहीं कर पाते। सभी पर समान भाव से आक्रमण करते हैं। मोटे तौर
पर कह सकते हैं कि ये ज़रा कम बुद्धि के होते हैं। गनीमत है,
बल्कि आप इनका एहसान मानिए कि इनमें कम से कम अपने-पराए का भेद
करने की तमीज़ होती है वर्ना दुश्मन तो दुश्मन, आप के शरीर की
अपनी कोशिकाओं को भी ये खा-पी कर बराबर कर देते।
इन शूरमाओं के रहते हुए भी आप
पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दुश्मन बड़े ही चालाक होते हैं।
बड़ी आसानी से इन शूरमाओं को धता बता देते हैं। ऐसे चालाक
दुश्मनों से निपटने के लिए ही प्रकृति ने हमें अर्जित सुरक्षा
प्रणाली से लैस कर रखा है। लिंफोसाइट्स इस सुरक्षा प्रणाली के
प्रमुख योद्धा हैं। न्युट्रोफिल्स एवं मोनोसाइट्स के समान ये
भी एक प्रकार के ल्युकोसाइट्स ही हैं। बस इनके काम करने का
तरीका अलग और बुद्धिमत्तापूर्ण होता है। इनमें अपने - पराए की
विभेदक क्षमता उच्चकोटि की होती है। न केवल ये आक्रमक जीवाणुओं
एवं उनसे श्रावित रसायनों की पहचान आसानी से कर लेते हैं बल्कि
उन जीवाणुओं या फिर अन्य बाहरी रसायनिक पदार्थों के अणुओं में
भेद कर पाने की क्षमता भी इनमें होती है। साथ ही ये यह भी
सुनिश्चित करते हैं कि शरीर की अपनी कोशिकाओं एवं उनसे श्रावित
रसायनों पर किसी भी प्रकार की प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई न हो और
उन्हें किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। यही नहीं, एक बार किसी
जीवाणु या उनके द्वारा श्रावित रसायन का सामना कर लेने के
पश्चात इनमें उन्हें याद रखने एवं भविष्य में दुबारा सामना
होने पर तुरंत पहचान लेने की भी क्षमता होती है, साथ ही उनसे
किस प्रकार निपटा जाना चाहिए, यह भी इन्हें याद रहता है। यही
कारण है कि शरीर में किसी जीवाणु-विशेष का आक्रमण होने पर इस
प्रणाली द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई त्वरित एवं प्रभावी होती
है। कैसे होता यह सब? आइए, अब इसे समझने का प्रयास किया जाए।
सामान्यतया एक स्वस्थ मनुष्य
में लगभग बीस खरब लिम्फोसाइट्स होती हैं एवं इनका उत्पादन
मुख्य रूप से हमारी अस्थिमज्जा में होता है। जिस प्रकार सेना
के विभिन्न अंगों एवं दस्तों का प्रशिक्षण अलग-अलग जगहों पर
अलग-अलग तरीके से होता है, इसी प्रकार उत्पादन के बाद कुछ
लिम्फोसाइट्स का प्रारंभिक प्रशिक्षण, परिमार्जन एवं परिपक्वन
तो अस्थिमज्जा में ही होता है एवं बाकी को थाइमस नामक ग्रंथि
में भेज दिया जाता है। अस्थिमज्जा में प्रशिक्षित, परिमार्जित
एवं परिपक्वित होने वाले लिम्फोसइट्स को बी लिम्फोसाइट्स एवं
थाइमस वाले को टी लिम्फोसाइट्स नाम दिया गया है। इन प्राथमिक
लिंफ़्वॉयड अंगों में परिपक्वन के बाद इन्हें लिम्फ़ऩोड्स,
स्प्लीन एवं टांसिल जैसे परवर्ती लिंफ्वॉयड अंगों में भेज दिया
जाता है, जहाँ जीवाणुओं एवं उनसे उत्पादित विशिष्ट रसायनों
एंटीजेंस का सामना करते हुए इनकी संख्या में वृद्धि होती है
एवं एंटीजेन-विशिष्ट से निपटने के लिए इनमें सक्रियता आती है।
यह प्रणाली तभी सक्रिय होती है जब इसका सामना जीवाणु-विशेष या
फिर उनके एंटीजेन-विशेष से होता है। वास्तव में ये एंटीजेंस
केवल प्रोटीन या फिर प्रोटीनयुक्त अन्य रसायनों के बड़े अणु
होते हैं एवं इनका निर्माण शरीर की अपनी कोशिकाएँ भी करती हैं
तथा जीवाणुओं की कोशिकाएँ भी। इन बी एवं टी लिंफोसाइट्स में यह
अद्भुत क्षमता होती है कि ये इन बाहरी एंटीजेंस को अपने शरीर
की कोशिकाओं द्वारा उत्पादित स्व-एंटीजेंस से अलग कर तुरंत
पहचान लेती हैं एवं उन्हीं के विरुद्ध प्रतिरोधक कार्रवाई करती
हैं। ऐसा इस लिए संभव हो पाता है क्यों कि हरेक एंटीजेन के
भाग-विशेष में अणुओं-परमाणुओं का ऐसा संयोजन होता है जो इन्हें
विशिष्ट पहचान देता है। एंटीजेंस के इन विशिष्ट अंशों को
एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स की संज्ञा दी गई है। इन्हीं एंटीजेनिक
डिटर्मिनेंट्स को ये लिंफोसाइट्स अपने द्वारा उत्पादित
एंटीबॉडी-विशेष या फिर अपने बाहरी सतह पर अवस्थित रिसेप्टर-विशेष
की मदद से तुरंत पहचान लेते हैं एंव उनके विरुद्ध
प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं। निश्चय ही नाना
प्रकार के विदेशी एंटीजेंस की पहचान के लिए नाना-प्रकार के
एंटीबॉडीज़ उत्पादित करने वाले एवं नाना प्रकार के
एंटीजेन-रिसेप्टर से युक्त लिंफोसाइट्स की आवश्यकता पड़ती है।
हालाँकि बी एवं टी
लिंफोसाइट्स अर्जित प्रतिरक्षा तंत्र के ही हिस्से हैं और एक
दूसरे से संबद्ध भी हैं फिर भी इनके काम करने का तरीका अलग-अलग
होता है। बी लिंफोसाइट्स एंटीजेन-विशेष को उसी प्राकृतिक रूप
में पहचाने की क्षमता रखते हैं। यह क्षमता इनके बाहरी सतह पर
अवस्थित बी सेल रिसेप्टर्स या फिर विशेष प्रकार के
इम्युनोग्लोबिन्स की उपस्थिति के कारण होती है। टी लिंफोसाइट्स
एंटीजेंस को उनके प्राकृतिक रूप में नहीं पहचान सकते। ये केवल
परिमार्जित एंटीजेंस की ही पहचान कर सकते हैं। यह परिमार्जन
मुख्य रूप से डेंड्राइटिक, बी या फिर मैक्रोफेजेज़ कोशिकाओं
द्वारा किया जाता है। इसी लिए इन कोशिकाओं को एंटीजेन
प्रजेटिंग कोशकाओं के नाम से भी जाना जाता है।
बी लिंफोसाइट्स भी दो प्रकार
के होते हैं। एक तो वे जो अपने संपर्क में आए एंटीजेन-विशेष के
विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई के लिए सीधे तौर पर सक्रिय हो
जाते हैं एवं विशिष्ट प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स (इन
ग्लाइकोप्राटीन्स को इम्युनोग्लोबिन्स या फिर एंटीबॉडीज़ के
नाम से भी जाना जाता है) का उत्पादन करने लगते हैं और दूसरे वे
जिन्हें सक्रिय करने के लिए विशेष प्रकार के टी हेल्पर
लिंफोसाइट्स सेल्स की सहायता की आवश्यकता होती है। पहले प्रकार
के बी लिंफोसाइट्स की संख्या बहुत कम होती है। अधिकांश बी
लिंफोसाइट्स सक्रियता के लिए टी सेल्स पर आश्रित ही होते हैं।
अस्थिमज्जा में बनने वाले बी लिंफोसाइट्स एक प्रकार से
निष्क्रिय एवं अनुभवहीन कोशिकाएँ होती हैं। जब ये कोशिकाएँ
परवर्ती लिंफ्यॉड अंगों में आती हैं तो घुलनशील प्रकार के
एंटीजेन-विशिष्ट को स्वयं में आत्मसात कर लेती हैं। यदि ये बी
सेल्स पहले प्रकार के हैं तो इतना काफ़ी है। ये एंटीजेंस ही इन
कोशिकाओं को सक्रिय कर देते हैं और ये एंटीबॉडी का उत्पादन
करने लगती हैं। और यदि ये दूसरे प्रकार के होते हैं, तो ये
आत्मसात किए गए एंटीजेन को मेजर हिस्टोकांपैटैबिलिटी
कॉमप्लेक्स क्लास २ प्रकार के विशेष प्रोटीन से युक्त कर
परिमार्जित करते हैं एवं इस पुन: अपने आवरण पर स्थापित कर देते
हैं। यह कॉम्लेक्स समान संरचना वाले विशेष टी हेल्पर कोशिकाओं
द्वारा पहचान लिए जाते हैं। टी हेल्पर सेल्स इनसे जुड़ कर
साइटोकाइन्स प्रकार के रसायन का उत्पादन करते हैं जिसके
फलस्वरूप बी लिंफोसाइट्स सक्रिय हो जाते हैं एवं विभाजित होने
के साथ इस एंटीजेन विशेष के विरुद्ध एंटीबॉडी संश्लेषित करने
वाले प्लाज़्मा सेल्स (इफेक्टर सेल्स) में परिवर्तित हो जाते
हैं। इनमें से कुछ मेमोरी सेल्स में भी परिवर्तित हो जाते हैं।
दूसरी बार उसी प्रकार के एंटीजेन का सामना होने पर ये त्वरित
गति से एवं पहले की तुलना में काफ़ी तीखी प्रतिकिया व्यक्त
करते हैं फलस्वरूप उन्हें उत्पादित करने वाले जीवाणुओं का
तुरंत सफ़ाया हो जाता है।
चाहे ये बी लिंफोसाइट्स
प्रहले प्रकार के हों या दूसरे प्रकार के, इनके द्वारा
प्रतिरक्षा का तरीका एंटीबॉडी उत्पादन के माध्यम से ही होता
है। उत्पादन के पश्चात या तो ये एंटीबॉडीज़ स्वतंत्र रूप से
प्लाज़्मा में विचरण करते रहते हैं या फिर कोशिकाओं के आवरण से
युक्त हो जाते हैं। इन एंटीबॉडीज़ या इम्युनोग्लाबिन्स की
संरचना में एमीनो एसिड्स से निर्मित चार पॉलीपेप्टाइड शृंखलाओं
का उपयोग होता है, जिनमें दो लंबी एवं भारी शृंखलाएँ होती हैं
और दो छोटी तथा हल्की शृंखलाएँ होती हैं। अंग्रेज़ी के वाई
अक्षर' के आकार में व्यस्थित इन अणुओं के शिखर अंश की संरचना
इस प्रकार की होती है कि यहाँ एंटीजेन-विशेष के अणु चाभी-ताले
के समान एक-दूसरे से युक्त हो कर निष्प्रभावी हो जाते हैं।
एंटीजेंस के निष्प्रभावी होते ही जीवाणुओं के सफ़ाये का रास्ता
खुल जाता है। या तो ये जीवाणु एक दूसरे से चिपक कर थक्के के
रूप में नष्ट होने लगते हैं या फिर इनके ऊपर ऐसी तह बनने लगती
है जिसके बाद भक्षक कोशिकाओं द्वारा इनका भक्षण आसान हो जाता।
इसके अलावा ये एंटीबॉडीज़ जीवाणुओं द्वारा श्रावित विषाक्त
रसायनों को निष्क्रिय करने में भी सहायक होते हैं।
जैसा कि पहले ही बताया गया
है, टी लिंफोसाइट्स की प्रतिरक्षात्मक क्रियाविधि अलग होती है।
प्राथमिक परिमार्जन के पश्चात ये कई रूप धारण करते हैं। इनमें
एक रूप होता है, टी हेल्पर कोशिकाओं का। ये कोशिकाएँ तब तक
निष्क्रिय रहती हैं जब तक एंटीजेन प्रजेंटिंगकोशिकाएं एंटीजेन-विशेष
को पमिार्जित कर इनके सम्मुख पस्तुत नहीं करतीं।एक बार सक्रिय
हो जाने के बाद या तो ये बी लिंफोसाइट्स को सक्रिय कर उन्हें
विभाजन एवं एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करते हैं
ह्यइसकी चर्चा विस्तार से पहले भी की जा चुकी है हृ या फिर टी
लिंफोसाइट्स के एक अन्य प्रकार टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं को
सक्रिय कर उनके विभाजन को प्रोत्साहित कर उसी प्रकार के अनगिनत
कोशिकाओं के समूह (क्लोन्स) को उत्पादन में सहायक होते हैं। इन
सक्रिय टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं के क्लोन जिन्हें टी किलर
सेल्स के नाम से भी जाना जाता है, अब लिंफनोड्स से निकल कर
पूरे शरीर में घूमते हैं एवं ऐसी रोगग्रस्त कोशिकाओं की खोज कर
तरह-तरह से नष्ट करने में लग जाते हैं जिनके अंदर उस प्रकार के
बैक्टीरिया या वाइरस पनप रहे हों जिनसे उत्पादित एंटीजेन को
परिमार्जित कर प्रजेंटिंग कोशिकाओं ने इन्हें सक्रिय किया था।
रोगग्रस्त कोशिकाओं के संपर्क में आने के बाद ये किलर सेल
परफोरिन एवं ग्रैन्युलाइसिन जैसे कोशिका-विष का उत्पादन करते
हैं। ये विषैले रसायन इन रोगग्रस्त कोशिकाओं के आवरण में छिद्र
बनाते हैं। इन छिद्रों से इन कोशिकाओं में पानी एवं तरह-तरह के
ऑयन्स भरने लगते हैं जिसके कारण ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट होने
लगती हैं। जब रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को पालने वाली
कोशिकाएँ ही नष्ट हो जाती हैं तो भला जीवाणु रहेंगे कहाँ? वे
भी समाप्त हो जाते हैं।
पिछले अंक में चलते-चलाते
पूरक तंत्र की चर्चा की गई थी। जैसा कि उस समय ही इंगित किया
गया था- यह तंत्र नाना प्रकार के छोटे-छोटे प्रोटीन्स से मिल
कर बनता है। मुख्य रूप तो नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली की सहायता
करता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर यह अर्जित सुरक्षा प्रणाली की
सहायता हेतु भी सदैव तत्पर रहता है। इस पूरक सेना में शामिल
प्रोटीन्स का उत्पादन मुख्य रूप से हमारी लीवर कोशिकाओं में
होता है तत्पश्चात ये रक्त एवं अन्य ऊतक-द्रव में ये निष्क्रिय
ज़ाइमेजेन एंज़ाइम्स के रूप में भ्रमण करते रहते हैं या फिर
अन्य कोशिकाओं से मेंब्रेन रिसेप्टर्स के रूप जुड़ जाते हैं।
उत्पादन के पश्चात मनुष्य शरीर में आजीवन इसी प्रकार बने रहते
हैं इनमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। इनमें से कुछ तो ऐसे
होते हैं जो एंटीबॉडी-विशेष के संपर्क में आने पर ही सक्रिय
होते है एवं कुछ ऐसे होते हैं जो जीवाणुओं द्वारा उत्पादित
एंटीजेंस के संपर्क में आने पर ही सक्रिय हो जाते हैं। इन
प्रोटीन्स के कुछ अणुओं का इस प्रकार सक्रिय होना ही पर्याप्त
है। इसके बाद तो ये सक्रिय अणु रसायनिक प्रतिक्रियाओं की ऐसी
शृंखला प्रारंभ करते हैं कि आनन-फानन में इसी प्रकार के हज़ारो-लाखों
प्रोटीन-अणु सक्रिय रूप धारण कर लेते हैं एवं तुरंत एक
ज़बरदस्त प्रतिरोधक कार्रवाई का बिगुल बज जाता है। ये सक्रिय
प्रोटीन्स या तो जीवाणुओं के आवरण झिल्ली में छेद बनाने लगते
हैं जिससे उनके अंदर पानी एवं अन्य तरल घुसने लगते हैं,
फलस्वरूप ये जीवाणु फट कर नष्ट होने लगते हैं या फिर ये सक्रिय
प्रोटींस जीवणुओं के आवरण से चिपक कर उनके चारों तरफ़ ऐसी तह
बनाते हैं जिससे रक्त की भक्षक कोशिकाओं के लिए उनका भक्षण
आसान हो जाता है।
किस्से और भी हैं एवं उनसे
जुड़ी बारीकियाँ भी और हैं! कहाँ तक सुनाएँ? आइए यहीं इस कथा
का अंत किया जाए। भला किस महाभारत या स्टार-वार से कम रोमांचक
है यह जीवाणुओं और हमारी सुरक्षासेना का युद्ध? महाभारत तो
अट्ठारह दिन में समाप्त हो गया स्टारवार के एपीसोड्स भी कुछ ही
समय में समाप्त हो जाते हैं, लेकिन यह युद्ध तो आजीवन चलता
रहता है। इस युद्ध में अक्सर हम ही जीतते हैं परंतु यदा-कदा
जीवाणु भी जीत जाते हैं। प्रकृति प्रदत्त इस प्रतिरक्षा तंत्र
रूपी इस महावरदान को बनाए रखना एवं इसे और भी मज़बूती देना
मारा धर्म है। ताज़े फल-फूल एवं हरी-भरी सब्ज़ियों से भरपूर
संतुलित भोजन के साथ नियमित जीवन ही इस तंत्र को मज़बूत रखने
का सर्वोत्तम उपाय है। एक शक्तिशाली सेना के लिए यह आवश्यक है
कि इसे अच्छे खान-पान के साथ लगातार युद्ध का प्रशिक्षण मिलता
रहे। स्वच्छता के साथ जीवन बिता कर हम रोग उत्पन्न करने वाले
जीवाणुओं एवं उनके द्वारा उत्पन्न रोगों से बच तो अवश्य सकते
हैं लेकिन यह तरीका हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर करता
है। इसमें मज़बूती जीवाणुओं का सामना करने से ही आती है। यही
इनका युद्धाभ्यास है। स्वच्छता अच्छी बात है, परंतु इसकी अति
भी बीमारियों को निमंत्रण देती है। जब तक आप स्वच्छ वातावरण
में रह रहे हैं तब तक तो ठीक है लेकिन जाने-अनजाने कभी यदि आप
का सामना गंदगी से हो गया तो आप की ख़ैर नहीं।
आप के प्रतिरक्षा तंत्र में
इनका सामना करने की क्षमता कम हो चुकी होती है और आप को
बीमारियाँ घेर सकती हैं। आज कल एलर्जी आदि जैसी बीमारियाँ बढ़
रही हैं, विशेषकर बच्चों में। यह सब कमज़ोर पड़ते प्रतिरक्षा
तंत्र के कारण ही है।
ऐसा मेरा नहीं, अमेरिकी
वैज्ञानिकों का मानना है। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के हेल्थ
सिस्टम के वैज्ञानिक मार्क मैक्मोरिस, एम.डी. एवं उनके
सहयोगिया का तमाम अनुसंधान के बाद ऐसा कह रहे हैं। अपने देश
में तो ख़ैर, धूल-मिट्टी में खेलकर बड़े होने को सर्वोत्तम
माना जाता है। शरीर हर दृष्टि से मज़बूत रहता है। इसका मतलब यह
नहीं कि सब कुछ प्रकृति पर छोड़ दें एवं बच्चों को धुल-मिट्टी
ओर गंदगी में हमेशा लोट लगाने दें या फिर चौबीसों घंटे बीमारों
की संगति में छोड़ दें। उन्हें स्वच्छता से रहना अवश्य सिखाएँ
एवं उनका टीकाकरण भी अवश्य कराएँ। लेकिन थोड़ा-बहुत धूल-मिट्टी
में अन्य बच्चों के साथ खेलने देने में कोई हर्ज़ नहीं है।
तरह-तरह के बच्चों एवं धूल-मिट्टी का अर्थ है, तरह-तरह के
जीवाणुओं के संपर्क में आना तथा उनसे मुकाबला करने की शक्ति
अर्जित करना। इस प्रकिया में हो सकता है वे थोड़ा-बहुत बीमार
भी पड़ें लेकिन इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है अंतत: उनका
प्रतिरक्षा तंत्र मज़बूत ही होगा। इति। |