फ्रेंसिस
क्रिक को श्रद्धांजलि
डी.एन.ए. की
खोज
—डा गुरू
दयाल प्रदीप
डी.एन.ए.
यानि डीऑक्सीराइबोज़ न्युक्लिक एसिड – जीवन के सारे रहस्यों
तथा जटिलताओं को अपने में समेटे हुए इस रसायन का नाम आज
शायद ही कोई पढ़ा–लिखा इंसान हो जिसने न सुना हो।
डीऑक्सीराइबोज़ शुगर, फॉस्फेट तथा एडेनिन, गुआनिन, साइटोसिन
एवं थाइमिन जैसे प्युरिन एवं पायरीमिडीन प्रकार के
नाइट्रोजन बेसेज़ से निर्मित डी.एन.ए. के अणुओं की संरचना
दोहरे कुंडलिनी अर्थात् रस्सी से बने घुमावदार सीढ़ी जैसी
होती है। यहाँ एकांतरित रूप से व्यस्थित डीऑक्सीराइबोज़ तथा
फॉस्फेट के अणु इस सीढ़ी की रस्सी का काम करते हैं। समांतर
ढंग से व्यस्थित ऐसी दोनों रस्सियों के प्रत्येक
डीऑक्सीराइबोज़ के कार्बन नंबर १ से एडेनिन, गुआनिन,
साइटोसिन अथवा थाइमिन का एक अणु जुड़ा होता है। ये अणु
रस्सी से अन्दर की ओर उन्मुख होते हैं। यहाँ व्यवस्था इस
प्रकार की होती है कि एक रस्सी से जुड़े एडेनिन सदैव दूसरी
रस्सी से जुड़े थाइमिन के सामने होते हैं तथा गुआनिन, दूसरी
रस्सी से जुड़े साइटोसिन के सामने होते हैं। एडेनिन, थाइमिन
से दुहरे हाइड्रोजन बाँड तथा गुआनिन, साइटोसिन से तिहरे
हाइड्रोजन बाँड द्वारा जुड़ कर इन दोनों रस्सियों को जोड़ने
वाले डंडों का काम करते हैं।
इन डंडों के बीच की दूरी ०.३४ नैनो मीटर एवं डीआक्सीराइबोज़
तथा फॉस्फेट से बनी दोनों रस्सियों के बीच की दूरी २ नैनो
मीटर होती है। इन रस्सियों का घुमाव प्रत्येक ३४ नैनो मीटर
के बाद आता है अर्थात् किन्हीं भी दो घुमाओं के बीच
एडेनिन–थाइमिन अथवा साइटोसिन–गुआनिन के योग से बने दस डंडे
होते हैं। डी.एन.ए. के अणु कितने सूक्ष्म होते हैं, इसका
अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मीटर का अरबवाँ
हिस्सा एक नैनो मीटर कहलाता है। हाँ, बस डी.एन.ए. के अणु
की लंबाई निश्चित नहीं होती अर्थात् नाइट्रोजन बेस के योग
से बनी सीढ़ियों की कुल संख्या डी.एन.ए. के अलग–अलग अणुओं
में अलग–अलग हो सकती है। साथ ही इनकी व्यवस्था भी डी.एन.ए.
के अलग–अलग अणुओं में ही नहीं बल्कि एक अणु के विभिन्न
हिस्सों में भी अलग–अलग ढंग से हो सकती है।
कितने एडेनिन–थाइमिन से बने डंडों के बाद साइटोसिन–गुआनिन
के योग से बने कितने डंडे व्यवस्थित होंगे – यह डी.एन.ए.
के अलग–अलग अणुओं की ही नहीं, अपितु इसके किसी एक अणु के
विभिन्न हिस्सों की भी अपनी विशिष्टता होती है। यह
विशिष्टता डी.एन.ए. के अणु के एक हिस्से को दूसरे हिस्से
से संरचनात्मक रूप से ही नहीं, बल्कि कार्य–रूप में भी अलग
करती है। डी.एन.ए. के अणु का एक हिस्सा इन नाइट्रोजन बेसेज़
की विशिष्ट व्यवस्था के रूप में कूट भाषा में वह रहस्य
छिपाए रहता है, जिसके बल किसी एक प्रोटीन–विशेष के अणुओं
का निर्माण किया जा सकता है तो किसी दूसरे हिस्से से किसी
अन्य प्रोटीन–विशेष के अणुओं का। डी.एन.ए. के जिस हिस्से
से एक प्रकार के प्रोटीन का निर्माण संभव है, उसे
जीन–विशेष की संज्ञा दी जा सकती है तो दूसरे भाग को, जिससे
किसी अन्य प्रकार के प्रोटीन के अणुओं का निर्माण संभव है
– दूसरे जीन–विशेष की संज्ञा दी जा सकती है।
किसी कोशिका में इतने जीन्स अवश्य होते हैं जिनके द्वारा
कोशिका की संरचना के साथ–साथ जीवन पर्यंत चलने वाली
विभिन्न जैव–रासायनिक प्रतिक्रियाओं के संचालन में
प्रयुक्त होने वाले नाना प्रकार के प्रोटीन्स के अणुओं का
निर्माण किया जा सके। चूँकि इनमें से बहुतेरे प्रोटीन्स
एन्ज़ाइम्स का कार्य करते हैं अतः इनकी सहायता से कोशिका की
विभिन्न जैव–रासायनिक प्रतिक्रियाओं का संचालन होता है,
जिनके फलस्वरूप ऊर्जा ऊत्पादन से लेकर सभी प्रकार के
जैव–रसायनों का निर्माण संभव है जिनकी आवश्यकता उस कोशिका
को होती है। यह और बात है कि ये सारे जीन्स डी.एन.ए. के एक
ही अणु में समाहित हों–जैसा कि वाइरस तथा बैक्टीरिया जैसे
साधारण जीवों में होता है या फिर कोशिका के केन्द्रक में
पाए जाने वाले विभिन्न क्रोमोज़ोम्स में अवस्थित डी.एन.ए.
के अलग–अलग अणुओं में समाहित हों–जैसा कि उच्च श्रेणी के
जीवों की कोशिकाओं में होता है। किसी एक क्रोमोज़ोम की
संरचना में प्रोटीन्स तथा डी.एन.ए.– दोनों के अणुओं का हाथ
होता है। किसी कोशिका के एक क्रोमोज़ोम के डी.एन.ए. में
समाहित जीन्स उसी कोशिका के अन्य क्रोमोज़ोम के डी.एन.ए.
में समाहित जीन्स से न केवल संख्या में अपितु गुणवत्ता में
भी अलग होते हैं।
डी.एन.ए. के इन अणुओं की एक विशेषता यह भी है कि इनमें
एडेनिन–थाइमिन तथा साइटोसिन–गुआनिन को जोड़ने वाले दुहरे और
तिहरे हाइड्रोजन बांड्स कमजोर होते हैं, फलतः विशेष
परिस्थितियों में ये टूट जाते हैं। इनके टूटने से डी.एन.ए.
की दोनों रस्सियाँ अपने तरफ के नाइट्रोजन बेसेज़ के साथ
ज़िपर की तरह खुलने लगती हैं।
कोशिका के सामान्य जैविक क्रिया–काल में समय–समय पर
डी.एन.ए. के अंश–विशेष जिन्हें जीन–विशिष्ट की संज्ञा दी
जा सकती है ही खुलते हैं। इस प्रकार अलग हुई दोनों
रस्सियों में एक तो अर्थहीन होती है परंतु दूसरी साँचे
रूपी प्लेटफॉर्म का काम करती है, जिसके ऊपर एक अन्य रसायन,
राइबोज़ न्युक्लिक एसिड आर.एन.ए. के छोटे–छोटे अणुओं
निर्माण होता है। डी.एन.ए. के एक अंश–विशेष जीन से निर्मित
आर.एन.ए. के अणुओं की संरचना डी.एन.ए. के दूसरे अंश दूसरे
जीन से निर्मित आर.एन.ए. के अणुओं से भिन्न होती है। इन
आर.एन.ए. के अणुओं का उपयोग अलग–अलग प्रकार के प्रोटीन्स
के संश्लेषण में होता है।
कोशिका विभाजन के समय डी.एन.ए. की दोनों रस्सियाँ उपरोक्त
ढंग से ही खुलती हैं, बस अंतर केवल इतना होता है कि
डी.एन.ए. का संपूर्ण अणु एक सिरे से दूसरे सिरे तक खुलता
चला जाता है तथा दोनों ही रस्सियाँ साँचे रूपी प्लेटफॉर्म
का कार्य करती हैं, जिन पर नए डी.एन.ए. की एक–एक रस्सी का
संश्लेषण होता है। ये नई रस्सियाँ पुराने डी.एन.ए. की उस
रस्सी का प्रतिरूप होती हैं, जिनसे साँचे रूपी प्लेटफॉर्म
का कार्य करने वाली रस्सी अलग हुई है। इस प्रक्रिया के
फलस्वरूप डी.एन.ए. के एक अणु से डी.एन.ए. के दो अणुओं का
निमार्ण होता है। कोशिका विभाजन के समय इनमें से एक अणु एक
नई कोशिका को मिलता है तो दूसरा अणु दूसरी नई कोशिका को।
इस प्रकार विभाजित होने वाली कोशिका के डी.एन.ए. के अणुओं
में जितने जीन्स समाहित होते है उसकी एक–एक प्रति दोनों ही
संतति कोशिकाओं को मिल जाती है। अर्थात इन नई कोशिकाओं में
विभाजित होने वाली कोशिका के सभी गुण डी.एन.ए. के अणुओं के
रूप में ही स्थानांतरित होते हैं।
जीवन के हर रंग, ढंग और रूप को अपने में समेटे हुए
डी.एन.ए. के इन सूक्ष्म अणुओं की संरचना एवं कार्य–विधि को
उपरोक्त कुछ ही अनुच्छेदों में समझाना और समझना कितना आसान
है। लेकिन इसे ठीक ढंग से पहली बार समझने–बूझने में
वैज्ञानिकों द्वारा की गई मेहनत–मशक्कत अपने–आप में किसी
रहस्य–रोमांच से भरी कथा से कम नहीं है। इस कथा के महानायक
निर्विवाद रूप से जेम्स वैट्सन तथा फ्रैंसिस क्रिक रहे
हैं, परंतु इस पूरी कथा में ऐसे बहुतेरे नायक-नायिका भी,
सहनायक एवं अन्य पात्र रहे हैं जिनकी भूमिका की उपेक्षा
नहीं की जा सकती। जेम्स वैट्सन तथा फ्रैंसिस क्रिक द्वारा
२५ अप्रैल १९५३ में नेचर जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में
डी.एन.ए. की संरचना एवं इसकी कार्य विधि को समझाते हुए
प्रकाशित आलेख ने इन्हें रातों –रात विश्व–प्रसिद्ध कर
नोबेल प्राइज़ के दरवाजे पर खड़ा कर दिया। ह्यफिज़ियोलॉजी तथा
मेड़िसिन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण खोज के लिए वैट्सन,
क्रिक तथा इस कथा के एक और नायक विल्किंस को १९६२ के नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित किया गया
२८ जुलाई २००४ को इस कथा के एक महानायक तथा आधुनिक डार्विन
के नाम से सम्मानित फ्रैंसिस क्रिक का ८८ वर्ष की आयु में
देहावसान हो गया। श्रद्धांजलि के रूप में डी.एन.ए. की खोज
से जुड़ी कथा के कुछ रोचक पहलुओं पर विज्ञान वार्ता के इस
अंक में एक बार फिर से दृष्टिपात करना प्रासंगिक एवं
सम–सामायिक है।
तो, कथा शुरू करते हैं वैट्सन और क्रिक के इस कथा में
पदार्पण से लगभग एक सदी पहले से ..। वास्तव में
महत्त्वपूर्ण जैव–रासायनिक पदार्थों के रूप में फैट्स,
कार्बोहाइड्रेट्स–विशेषकर शुगर्स एवं स्टार्च्स, प्रोटीन्स
तथा न्युक्लिक एसिड्स की पहचान १८६० के दशक तक ही कर ली गई
थी। इन सब में न्युक्लिक एसिड्स की पहचान सबसे बाद में
हुई। एक चिकित्सक की योग्यता रखने वाले स्वीडिश
बायोकेमिस्ट फ्रेड्रिक मिस्शर ने १८६० के दशक में अस्पताल
में सर्जरी के रोगियों के घाव से हटाए गई पट्टियों पर लगे
पस से कोशिकाओं को अलग कर एक नए रसायन का पता लगाया। चूँकि
यह रसायन कोशिकाओं के न्युक्लियस से प्राप्त हुआ था तथा
इसकी संरचना जैविक क्रिया–कलापों में अब तक सबसे
महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले रसायन प्रोटीन्स से अलग थी,
अतः इन्होंने इसे न्युक्लीन नाम दिया। यही नहीं, इन्होंने
ऐसी तकनीकि का विकास किया, जिससे नाना प्रकार की कोशिकाओं
से न्युक्लियस को अलग कर न्युक्लीन को आसानी से प्राप्त
किया जा सके। बाद में मिस्शर ने न्युक्लीन के रासायनिक
घटकों का भी पता लगाने का प्रयास किया। प्रोटीन्स में पाए
जाने वाले कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के
अतिरिक्त इनमें विशेष रूप से फॉस्फोरस भी पाया गया यह वह
समय था जब अनुवांशिकी के पिता कहे जाने वाले मेंडल ने
अनुवांशिक नियमों की व्याख्या करते हुए अपना शोध–पत्र
प्रकाशित किया था। आगे आने वाले वर्षों में मिस्शर ने यह
भी पता लगा लिया कि न्युक्लीन के अणु काफी बडे. होते हैं
तथा इनमें कई एसिडिक ग्रुप्स समाहित होते हैं। न्युक्लीन,
न्युक्लियस में एक अन्य रसायन प्रोटामीन एक प्रकार का
प्रोटीन से संबद्ध रहता है।
१८७० के दशक में ही न्युक्लियस में पाए जाने वाले
क्रोमोज़ोम्स की पहचान हो चुकी थी एवं १८८० के दशक में
माइटोसिस द्वारा कोशिका विभाजन की प्रक्रिया का ज्ञान भी
हो चुका था। साथ ही १८८१ में एडवर्ड ज़चारियाज़ ने यह पता
लगा लिया था कि अनुवांशिक गुणों को वहन करने वाले
क्रोमोज़ोम्स की संरचना में आंशिक रूप से ही सही, न्युक्लीन
का हाथ अवश्य होता है। १८८४ में एक अन्य जीवविज्ञानी
हर्टविग ने यह भी सुझाया था कि फर्टीलाइज़ेशन के साथ–साथ
अनुवांशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित
करने में न्युक्लीन की भूमिका हो सकती है। लेकिन इनके
अनुसंधानों एवं सुझावों पर जीव वैज्ञानिकों ने अधिक ध्यान
नहीं दिया और अगले कई दशकों तक यही माना जाता रहा कि
प्रोटीन के अणु ही जीवन के प्रत्येक क्रिया–कलाप में सबसे
महत्त्चपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इस भ्रांति को पूरी तरह टूटने तथा कोशिका के क्रिया–कलापों
एवं अनुवांशिकता में न्युक्लीन जिसे बाद में न्युक्लिक
एसिड का नाम दिया गया की महत्वपूर्ण भूमिका को पूरी तरह
समझने और स्वीकार करने में १९५० का दशक आ गया। ६०-७० साल
की इस लंबी काल अवधि में वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं
बैठे रहे। धीरे–धीरे ही सही, रसायनज्ञ एवं जीव–वैज्ञानिक
न्युक्लिक एसिड्स की संरचना तथा अनुवांशिकता में इसकी
भूमिका से जुड़े रहस्यों से पर्दा हटाने में लगे रहे। इसकी
संरचना में शुगर घनिष्ट रूप से संबद्ध है– इस तथ्य का
ज्ञान वैज्ञानिकों को १८९० का वर्ष आते–आते हो चुका था।
लेकिन यह शुगर पाँच कार्बन अणुओं से बना राइबोज़ शुगर है,
इसका सुनिश्चित ज्ञान होने में अगले तीस साल का समय गुजर
गया। वास्तव में न्युक्लिक एसिड्स की संरचना के आधुनिक
ज्ञान के पीछे एक रशियन वैज्ञानिक, फीबस लेविन एवं इनके
सहयोगियों द्वारा किए गए प्रारंभिक कार्य का बड़ा ही
महत्त्वपूर्ण हाथ है।
१८९१ में लेविन अमेरिका चले आए तथा रॉकफेलर इंस्टीट्यूट
फॉर मेडिकल रिसर्च में किए गए इनके कार्य के फलस्वरूप ही
१९०९ में यीस्ट की कोशिकाओं से प्राप्त न्युक्लिक एसिड्स
में राइबोज जैसे शुगर की पुष्टि हो पाई। इसके कई वर्षों
बाद १९२० के दशक में ही इस तथ्य की पुष्टि हो पाई कि एक
अन्य प्रकार का न्युक्लिक एसिड होता है जिसमें राबोज़ शुगर
के स्थान पर इसी से मिलता जुलता, परंतु एक ऑक्सीजन के
परमाणु की कमी वाला डीऑक्सीराइबोज़ शुगर पाया जाता है।
राइबोज़ एवं डीआक्सीराइबोज़ शुगरयुक्त, दोनों ही प्रकार के
न्युक्लिक एसिड्स जन्तु तथा पौधों की कोशिकाओं में पाए
जाते हैं– इस तथ्य को समझने एवं स्वीकारने में वैज्ञानिकों
को कुछ वर्ष और लग गए।
बाद के अनुसंधानों से इनके साइक्लिक संरचना का ज्ञान भी हो
गया। इनके पंचकोणीय आकार में चार कोणों पर एक–एक कार्बन
होते हैं तथा पाँचवें कोण पर ऑक्सीजन होता है। ऑक्सीजन
वाले कोण से घड़ी की सुई वाली दिशा में स्थित पहले कोण पर
अवस्थित कार्बन को १, दूसरे को २, तीसरे को ३ तथा चौथे को
४ कार्बन कह सकते हैं। चौथे कार्बन से एक साइड चेन के रूप
में पाँचवाँ कार्बन जुड़ा रहता है। डी.एन.ए. एवं आर.एन.ए.
की रस्सी का निर्माण करते समय एक फॉस्फेट तथा चार ऑक्सीजन
के योग से बने फॉस्फेट के अणु, डीऑक्सरिाइबोज़ अथवा राइबोज़
शुगर के दो अणुओं को जोड़ने का काम करते हैं। फॉस्फेट का एक
अणु, इन पेंटोज शुगर्स के एक अणु के कार्बन ३ से जुड़ता है
तो दूसरे अणु के कार्बन ५ से जुड़ता है। फॉस्फेट एवं पेंटोज़
शुगर्स के अणुओं के इस प्रकार के जोड़ से एक लंबी श्रृंखला
का निर्माण होता है, जो डी.एन.ए. या आर.एन.ए. की रस्सी का
काम करता है।
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