डी.एन.ए. की
खोज (२ )
न्युक्लिक एसिड्स की संरचना से संबद्ध एडेनिन, गुआनिन,
साइटोसिन, थाइमिन तथा युरेसिल नामक नाइट्रोजन बेसेज़ की
पहचान भी बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही कर ली गई थी। ये
सभी कार्बनयुक्त साइक्लिक रसायन हैं। इनमें से दो–एडेनिन
तथा गुआनिन प्युरीन समूह से संबद्ध हैं तथा इनकी रचना में
काफी समानता होती है। शेष तीन– साइटोसिन, थाइमिन तथा
युरेसिल पाइरीमिडीन समूह से संबद्ध हैं। इन तीनों की
संरचना एडेनिन तथा गुआनिन की तुलना में थोड़ी–बहुत सरल होती
है एवं इनमें आपस में समानता भी होती है। बाद के
अनुसंधानों ने यह भी सुनिश्चित किया कि एडेनिन, गुआनिन एवं
साइटोसिन तो डी.एन.ए. तथा आर.एन.ए. दोनों में ही पाए जाते
हैं परंतु थाइमिन केवल डी.एन.ए. में तथा युरेसिल केवल
आर.एन.ए. में ही पाए जाते हैं। ये नाइट्रोजन बेसेज़ फॉस्फेट
द्वारा एक श्रृंखला में जोड़े गए राइबोज़ अथवा डीऑक्सीराइबोज़
शुगर्स के प्रत्येक अणु के कार्बन १ से जुड़े होते हैं।
क्रोमोज़ोम्स में डी.एन.ए. की उपस्थिति का ज्ञान
अनुसंधानकत्र्ताओं को १९२० तथा १९३० के दशक में ही हो गया
था। साथ ही उन्हें यह भी पता चल गया था कि डी.एन.ए. के
साथ–साथ क्रोमोज़ोम्स की संरचना में प्रोटीन्स का भी योगदान
होता है। किसी भी जीव में हजारों अनुवांशिकीय लक्षण होते
हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होते रहते
हैं। साथ ही वातावरण के प्रभाव के कारण इनमें अचानक
परिवर्तन म्यूटेशन्स भी होते रहते हैं जो जैविक विकास की
प्रक्रिया के लिए आवश्यक है। यदि रासायनिक अणु इन लक्षणों
के वाहक हैं और इन्हीं अणुओं के रूप में ही लक्षण एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होते हैं तो ऐसे रसायन में
तीन गुण अवश्य होने चाहिए।
यदि एक लक्षण एक ही प्रकार के रासायनिक अणु द्वारा वहन किए
जाएँ तब भी एक ही जीव के हजारों लक्षणों को वहन करने के
लिए ऐसे रसायन के अणुओं के हजारों रूप उपलब्ध होने चाहिए,
जो न केवल अनुवांशिक लक्षणों से संबंधित सूचनाओं का संग्रह
कर सकें बल्कि अगली पीढ़ी में उन्हें अभिव्यक्त भी कर सकें।
चूँकि कोशिका विभाजन के फलस्वरूप एक कोशिका से दो नई
कोशिकाओं का उत्पादन होता है अतः विभाजित होने वाली कोशिका
में अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले सभी रासायनिक
अणुओं में स्वयं की प्रतिकृति बनाने की क्षमता अवश्य होनी
चाहिए। तभी दोनों नई कोशिकाओं में विभाजित होने वाली
कोशिका के सभी लक्षण पूरी तरह स्थानांतरित हो सकने की
संभावना बनती है।
म्यूटेशन की प्रक्रिया को चलाते रहने के लिए यह आवश्यक है
कि अनुवांशिक रसायन वातावरण के प्रति संवेदनशील हों जिससे
समय–समय पर आवश्यकतानुसार इनकी संरचना में परिवर्तन संभव
हो। संरचना में परिवर्तन के फलस्वरूप ही नए लक्षणों की
उत्पत्ति संभव है।
डी.एन.ए. की संरचना तथा प्रकृति संबंधी संपूर्ण ज्ञान के
अभाव एवं पूर्व—अवधारणा के कारण, उस समय प्रोटीन्स के
अणुओं को ही अनुवांशिक लक्षणों का वाहक मान लिया गया। २०
विभिन्न प्रकार के एमीनो एसिड्स के हजारों प्रकार के
संयोजन के फलस्वरूप प्रोटीन्स के असीमित रूप संभव हैं। यह
गुण अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले रसायन के अपेक्षित
गुणों में कम से कम पहली शर्त को अवश्य पूरा करते हैं। इस
अवधारणा को तोड़ने तथा डी.एन.ए. ही वास्तविक अर्थों में
अनुवांशिक गुणों का वाहक है – इस अवधारण को पूरी तरह से
स्थापित करने में १९५० का दशक आ गया।
डी.एन.ए. को अनुवांशिक लक्षणों के वाहक के रूप में स्थापित
करने में एक ब्रिटिश चिकित्सक फ्रेडरिक ग्रिफिथ द्वारा
१९२८ में चूहों पर किए गए प्रयोग का विशेष योगदान है।
न्युमोनिया जैसे रोग के जनक, न्युमोनीकोकस बैक्टीरिया के
दो स्ट्रेन होते हैं – एक स्मूथ स्ट्रेन, जो रोग उत्पन्न
करता है तो दूसरा रफ स्ट्रेन, जिसका शरीर पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ता। कुछ चूहों के शरीर में पहले इस बैक्टीरिया के
रफ स्ट्रेन को इंजेक्ट किया गया। चूँकि रफ स्ट्रेन रोग
कारक नहीं होता, अतः चूहे स्वस्थ रहे। कुछ दिनों बाद
इन्हीं चूहों में ताप द्वारा मारे गए स्मूथ स्ट्रेन वाले
बैक्टीरिया की कोशिकाओं को इंजेक्ट किया गया। कुछ ही दिनों
बाद इन स्वस्थ दिखने वाले चूहों को न्युमोनिया रोग हुआ और
वे मर गए। जब इन मरे हुए चूहों के रक्त का परीक्षण किया
गया तो उसमें जीवित स्मूथ स्टे्रन वाले बैक्टीरिया की
पर्याप्त संख्या दिखी। ऐसा प्रतीत होता है कि ताप द्वारा
मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया की कोशिकाओं में कुछ ऐसा था जिसे
रफ स्ट्रेन वाले बैक्टीरिया की कोशिकाओं ने आत्मसात् कर
लिया और वे न केवल स्मूथ स्टे्रन में परिवर्तित हो गए
बल्कि यह गुण किस प्रकार आने वाली पीढ़ियों में स्थानांतरित
करना है, इस विधा में भी पारंगत हो गए। ऐसा रूप परिवर्तन
मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया के अनुवांशिक लक्षणों का वहन
करने वाले कुछ रसायनों का जीवित रफ बैक्टीरिया द्वारा
आत्मसात् करने से संभव है। ये रसायन प्रोटीन्स तो नहीं ही
हो सकते क्योंकि प्रोटीन्स तो ताप के कारण पहले ही अपना
प्राकृतिक गुण खो चुके थे।
१९३५ से १९४४ तक एवरी ने अपने दो सहयोगियों मैक्लॉड तथा
मैक्कार्टी के साथ इसी प्रयोग को परिष्कृत तकनीकि द्वारा
अति विस्तार में दुहरा कर सुनिश्चित रूप से यह सुझाया कि
रफ स्ट्रेन वाली बैक्टीरियल कोशिकाओं के स्मूथ स्ट्रैन
वाली कोशिकाओं में परिवर्तन के पीछे निश्चित रूप से
डी.एन.ए. का हाथ है, अतः डी.एन.ए. ही अनुवांशिक लक्षणों का
वाहक हो सकता है, प्रोटीन्स नहीं। १९५२ में हार्शे एवं चेज़
ने टी–२ नामक वाइरस पर प्रयोग कर इस तथ्य पर मुहर लगा दी।
एवरी के कार्य का सर्वाधिक प्रभाव इर्विन चारग़ाफ़ पर पड़ा।
१९४० तथा कुछ समय तक १९५० के दशक में भी डी.एन.ए. को
कोशिका से अलग कर परिशोधित रूप में प्राप्त करने की तकनीकि
पूरी तरह विकासित नहीं थी अतः उस समय के रसायनज्ञों को
थोड़ी मात्रा में उपलब्ध डी.एन.ए. से ही काम चलाना पड़ता था।
इन परिस्थितियों में भी चारग़ाफ़ डी.एन.ए. के विस्तृत
रासायनिक विश्लेषण में जुट गए। इस कार्य में प्रोटीन्स के
अणुओं में एमीनो एसिड्स के क्रम की पहचान करने के लिए
मार्टिन एवं सिंज द्वारा ‘पेपर क्रोमैटोग्राफी’ की तकनीकि
सहायक सिद्ध हुई।
१९५१ आते–आते इनके प्रयोगों ने लगभग निश्चित रूप से सुझा
दिया कि डी.एन.ए. के अणुओं में न केवल गुआनिन तथा एडेनिन
सरीखे प्युरीन प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज की कुल मात्रा
साइटोसिन एवं थाइमिन सरीखे पाइरीमिडीन के बराबर होती है,
बल्कि जितनी मात्रा एडिनिन की होती है उतनी ही थाइमिन की
होती है। साथ ही जितनी मात्रा गुआनिन की होती है उतनी ही
साइटोसिन की भी होती है।
१९५२ के आते–आते हार्शे एवं चेज़ द्वारा वाइरस पर किए गए
प्रयोग तथा चारग़ाफ़ द्वारा डी.एन.ए. की संरचना संबंधी
विश्लेषण के कारण अधिकांश वैज्ञानिक डी.एन.ए. को निर्विवाद
रूप से अनुवांशिक गुणों का वाहक मान चुके थे। अनुवांशिक
गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने में
डी.एन.ए. के अणु ही सक्षम हो सकते हैं, प्रोटीन नहीं – यह
बात भी हार्शे एवं चेज़ के प्रयोग द्वारा सुझाया जा चुका
था।
अब वैज्ञानिकों के सामने दो महत्वपूर्ण प्रश्न चुनौती के
रूप में खड़े थे। पहला तो यह कि डी.एन.ए. की वास्तविक आणविक
संरचना क्या है और दूसरा यह कि इनमें अनुवांशिक गुण किस
कूट भाषा में समाहित होते हैं। इन प्रश्नों के. उत्तर
खोजने में रसायनज्ञों के साथ–साथ भौतिक–वैज्ञानिकों का भी
काफी बड़ा हाथ है। क्वांटम फिजिक्स के एक महत्त्वपूर्ण
प्रणेता इर्विंग श्रॉडिंगर ने १९४४ में 'व्हाट इज़ लाइफ'
नामक एक छोटी सी पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में इन्होंने
क्वांटम फिजिक्स के परिपेक्ष्य में जीवन को सैद्धांतिक रूप
से व्याख्यायित करने का प्रयास किया। टेलीग्रफिक संचार में
उपयोग किए जाने वाली कूट भाषा 'मॉर्स कोड' का उदाहरण दे कर
बड़ी सुंदरता से यह समझाने का प्रयास किया कि किसी पदार्थ
के बडे. अणु में उपस्थित कुछ ही तत्वों के सीमित परमाणु
अथवा विभिन्न परमाणुओं के योग से बने छोटे–छोटे कुछ ही अणु
समूहों को अलग–अलग ढंग से व्यवस्थित कर उस बडे. अणु के
असीमित रूपों का निर्माण संभव है। इस प्रकार से निर्मित
अणु संरचना में ही नहीं बल्कि गुणों में भी भिन्न हो सकते
हैं। यह कुछ–कुछ वैसा ही है जैसा कि हम कुछ अक्षरों का चयन
कर उन्हें विभिन्न प्रकार से व्यवस्थित कर नए–नए शब्दों या
फिर कुछ शब्दों का चयन कर उन्हें अलग–अलग ढंग से व्यस्थित
कर नए –नए वाक्यों की रचना संभव है।
'एक्स रे डिफ्रैक्शन तकनीकि' के ज्ञान तथा बाद में उपरोक्त
पुस्तक ने द्वितीय महायुद्ध के कुछ वर्ष पहले भी और उसके
बाद के वर्षों में भी, बहुतेरे भौतिक शास्त्रियों को
प्रोटीन, हीमोग्लोबिन तथा डी.एन.ए. जैसे जैव–रासायनिक
अणुओं की संरचना संबंधी गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रेरित
किया। १९४६ में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर जॉन रैन्डाल की
अध्यक्षता में लंदन के किंग्स कॉलेज में 'बायोफिजिक्स
युनिट' का गठन किया गया। इस युनिट के एक महत्त्वपूर्ण
सदस्य थे– भौतिक शास्त्री 'मॉरिस विल्किंस'।१९५१ में 'एक्स
रे डिफ्रैक्शन तकनीकि की विशेषज्ञा 'रोज़ालिंड फ्रेंक्लिन'
भी इस युनिट की सदस्य बनीं। इस पूरी युनिट, विशेषकर
विल्किंस तथा फ्रैंक्लिन ने डी.एन.ए. के 'डबल हेलिकल'
संरचना की खोज में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालाँकि डी.एन.ए. के सर्व प्रथम एक्स रे डिफ्रैक्शन चित्र
विलियम आस्टबरी ने १९३८ में लिए थे, लेकिन इनके पास उपलब्ध
डी.एन.ए. सूखा हुआ था। फलतः ये चित्र इतने अच्छे नहीं थे
कि कुछ निश्चित निष्कर्ष निकाला जा सके। १९५० में विल्किंस
को रूडॉल्फ सिग्नर के बर्न स्थित प्रयोगशाला से विशुद्ध
डी.एन.ए. के नमूने प्राप्त हुए। ये नमूने गीले चिपचिपे जेल
के रूप में थे। विल्किंस ने ग्लास की छड़ी से इसे कुरेद कर
जब छड़ी को बाहर निकाला तो मकड़ी के जाले के तंतु के समान
डी.एन.ए. के बहुत ही पतले तंतु छड़ी से चिपके हुए बाहर आ
गए। विल्किंस तथा एक शोध छात्र रेमन्ड गॉस्लिंग ने इन
तंतुओं के एक्स रे डिफ्रैक्शन चित्र प्राप्त किए जो
आस्टबरी के चित्रों की तुलना में बहुत ही उच्च कोटि के थे।
ये चित्र डी.एन.ए. के कुंडलिनी–रूप की ओर इशारा कर तो रहे
थे लेकिन इस कुंडलिनी–रूप को विस्तार से समझने और उसकी
व्याख्या के लिए इन्हें एक एक्स रे डिफ्रैक्शन विशेषज्ञ की
आवश्यकता थी। १९५१ में फ्रैंक्लिन के रूप में यह कमी पूरी
हो गई। फ्रैंक्लिन इस युनिट से संभावतः इस समझ के साथ
जुड़ीं कि डी.एन.ए. उनका अपना प्राजेक्ट होगा और उन्हें
गॉस्लिंग के साथ काम करना होगा। बाद में उन्हें समझ में
आया कि विल्किंस उनसे एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में कार्य
करने की अपेक्षा रखते थे। रैंडाल के दबाव के कारण विल्किंस
ने सिंग्नर के डी.एन.ए. का नमूना फ्रैंक्लिन के लिए छोड़ कर
चारगाफ द्वारा प्राप्त नमूने पर कार्य करना शुरू तो कर
दिया परंतु दोनों में गलतफ़हमी एवं तनाव बना रहा, विशेषकर
जब उन्हें इस बात का भान हुआ कि चारगाफ का नमूना उतना
अच्छा परिणाम नहीं दे रहा है। इस तनाव एवं गलतफ़हमी ने
डी.एन.ए. संबंधी शोध कार्य में बाधाएँ भी उत्पन्न कीं।
यही वह काल था, जब डी.एन.ए. की संरचना की खोज से जुड़ी इस
कथा में इसके महानायक वैट्सन तथा क्रिक ने प्रवेश किया।
१९४९ में कैंब्रिज़ के कंकन्वेडिश अवस्थित 'मेडिकल रिसर्च
काउंसिल युनिट' से फ्रैंसिस क्रिक ३३ वर्ष की आयु में एक
शोध–छात्र के रूप में जुड़े। फ्रैंसिस क्रिक के पास भौतिक
शास्त्र की डिग्री थी तथा इसके पूर्व ये लगभग सात साल रडार
एवं मेग्नेटिक माइन्स के विकास पर कार्य कर चुके थे। १९४६
में प्रोटीन की संरचना की खोज से जुड़े एक महानायक अमेरिकन
रसायनज्ञ 'लिनस पॉलिंग' का अभिभाषण सुनने तथा श्रॉडिंगर की
किताब पढ़ने के बाद जीव विज्ञान संबंधी शोध की तरफ क्रिक का
ध्यान आकर्षित हुआ। भौतिक विज्ञानी से जीव विज्ञानी बनने
के इस संक्रमण काल का अगला दो वर्ष इन्होंने कैंब्रिज़ में
'कोशिका में चुंबकीय कणिकाओं के संचलन' पर कार्य करते हुए
बिताया। १९४९ में क्रिक कैंब्रिज़ के कैवेंडिश अवस्थित
'मेडिकल रिसर्च काउंसिल युनिट' से ३३ वर्ष की आयु में
जुड़े। उद्देश्य था– 'प्रोटीन्स का एक्स रे द्वारा अध्ययन'
कर पीएच.डी की डिग्री प्राप्त करना। १९५६ में इन्होंने
अपना उद्देश्य अवश्य पूरा किया, लेकिन इसके कुछ समय पहले
ही ये वैट्सन के साथ मिल कर डी.एन.ए. की संरचना की खोज में
सफल हो चुके थे।
फ्रैंसिस के साथी, अमेरिका में पले–बढ़े जेम्स वैट्सन, सही
अर्थों में जीव विज्ञानी थे। असाधारण प्रतिभा के धनी बालक
वैट्सन को १५ वर्ष की आयु में ही युनिवर्सिटी में जन्तु
विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रवेश मिल गया था। बाद में २२
वर्ष की आयु में ही वैट्सन ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक
साल्वेडॉर लूरिया के तत्वाधान में 'बॉयलॉजिकल प्रापर्टीज़
ऑफ एक्स रे इन एक्टिवेटेड बैक्टिरियोफेज' जैसे विषय पर शोध
कर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। लूरिया तथा श्रॉडिंगर की
किताब का इन पर काफी प्रभाव था। इस समय डी.एन.ए. के बारे
में इन्हें केवल इतनी ही जानकारी थी कि ये जैविक अणु हैं।
१९५१ में नेपिल्स में इन्होंने एक मीटिंग में भाग लिया,
जहाँ डी.एन.ए. के एक्स रे द्वारा अध्ययन के बारे में
विल्किंस की वार्ता सुनी। इन्हें स्वयं एक्स रे डिफ्रैक्शन
की तकनीकि का कोई ज्ञान नहीं था, फिर भी इन्हें विश्वास हो
गया कि डी.एन.ए. जैविक क्रिया–कलापों में मुख्य भूमिका
निभाने वाले अणु हैं एवं आने वाले समय में महान खोजें इसी
की संरचना से संबंधित होंगी। इन्हें यह भी विश्वास हो गया
कि एक्स रे डिफ्रैक्शन की तकनीकि के द्वारा ही इस पहेली को
हल किया जा सकता है।
लूरिया के प्रभाव का उपयोग कर फिर से पीएच.डी. करने के नाम
पर कैवेंडिश के 'क्लेयर कॉलेज' में एक शोध छात्र के रूप
में पंजीकरण कराने में वैट्सन सफल रहे। सौभाग्यवश आवास के
लिए इन्हें उसी कमरे में स्थान मिला, जिसमें क्रिक रहते
थे। यहीं से दोनों के बीच पनपे सहयोग का फल अंततः डी.एन.ए.
की संरचना की खोज तथा इनके लिए नोबल पुरस्कार के रूप में
सामने आया। यह कार्य अकेले दम ये संभवतः इतनी आसानी से न
कर पाते, यदि इन्हें विल्किंस, चारगाफ़ तथा फ्रैंक्लिन जैसे
लोगों का प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष सहयोग न मिला होता। इनमें
फ्रैंक्लिन द्वारा लिए गए एक्स रे डिफ्रैक्शन के चित्रों
तथा उससे संबधित आंकड़ों का विशेष महत्व है।
अपनी ही देख–रेख में व्यस्थित किए गए एक्स रे डिफ्रैक्शन
लैब में किए गए प्रयोगों के अच्छे परिणाम से उत्साहित हो
कर नवंबर १९५१ में फ्रैंक्लिन ने एक वार्ता का आयोजन किया।
इस मीटिंग में फ्रैंक्लिन ने इस बात की ओर विशेष रूप से
ध्यान दिलाया कि इनके द्वारा प्राप्त डी.एन.ए. संबधी एक्स
रे डिफ्रैक्शन के आँकड़े डी.एन.ए. के कुंडलीकार रूप की ओर
इशारा करते हैं। साथ ही उन्होंने इस बात की संभावना भी
व्यक्त कि इस कुंडलिनी की रस्सी का निर्माण संभवतः
शुगर–फॉस्फेट के मिल कर हुआ है तथा नाइट्रोजन बेसेज़ इस
रस्सी से अंदर की ओर जुड़े हुए हैं। वैट्सन इस मीटिंग में
उपस्थित थे। कैंब्रिज़ लौटते–लौटते आधा–तीहा, जो इन्हें याद
रहा, उसकी चर्चा इन्होंने क्रिक से की तथा इसी आधार पर
फॉस्फेट समूह को केंद्र में रख कए तीन रस्सियों वाले
डी.एन.ए. के एक कुंडली–रूप मॉडल की रचना की। इस बात की
चर्चा इन्होंने विल्किंस से की। विल्किंस फ्रैंक्लिन,
गॉसलिन तथा दो–एक और सहयोगियों के साथ इसे देखने लंदन से
कैंब्रिज़ आए। यह मॉडल फ्रैंक्लिन के आँकड़ों से बिल्कुल
नहीं मिलता था, फलतः इसे नकार दिया गया।
लेकिन इससे वैट्सन तथा क्रिक निराश नहीं हुए। डी.एन.ए. की
संरचना तथा प्रकृति के बारे में ये कयास लगाते ही रहते थे।
इन्हीं वर्षों में फ्रेडरिक ग्रिफिथ के भतीजे जॉन ग्रिफिथ
भी बायोकेमिस्ट्री के विद्यार्थी के रूप में कैंब्रिज़ में
मौज़ूद थे। इसके पूर्व ये गणित में ग्रैजुएशन कर चुके थे।
जून १९५२ में क्रिक तथा ग्रिफिथ के बीच हुई बात–चीत में यह
बात उभर कर आई कि जीवन के आधारभूत सिद्धांतों तथा निरंतरता
को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि जीन्स के पास ऐसी
प्रक्रिया होनी चाहिए जिसके बल वे अपनी प्रतिकृति स्वयं
बना लें। क्रिक ने तुरंत सुझाया कि प्रतिकृति बनाने की इस
प्रक्रिया में संभवतः डी.एन.ए. के सपाट नाइट्रोजन बेसेज़ का
हाथ है। एक स्थाई आकार के लिए डी.एन.ए. की रस्सियों का आपस
में जुड़ा रहना भी आवश्यक है। यह कार्य भी इन रस्सियों से
संलग्न नाइट्रोजन बसेज़ के आपस में जुड़ाव द्वारा ही संभव
है। ग्रिफिथ से इन्होंने यह पता लगाने के लिए कहा कि
वास्तव में किस नाइट्रोजन बेस का जुड़ाव किस दूसरे
नाइट्रोजन बेस के साथ संभव है। कुछ दिनों बाद ग्रिफिथ ने
उन्हें बताया कि एडेनिन, थाइामिन को आकर्षित करता है तथा
गुआनिन, साइटोसिन को। लेकिन इनकी बात पर कुछ ज्यादा ध्यान
नहीं दिया गया।
इस बीच फ्रैंक्लिन ने डी.एन.ए. के और भी अच्छे एक्स रे
डिफ्रैक्शन चित्र प्राप्त किए जिससे पता चला कि डी.एन.ए.
'ए' तथा 'बी'– दो प्रकार का होता है और यहीं अस्थाई तौर पर
फ्रैंक्लिन डी.एन.ए. के 'ए' रूप की संरचना को सुनिश्चत
करने के प्रयास में उलझ गईं, जो साफ तौर पर कुंडलिनी–रूप
नहीं दिखा रहा था।
वैट्सन तथा क्रिक भी आराम से इस दिशा में काम कर रहे थे।
लेकिन दिसंबर १९५२ में लिनस पॉलिंग के पुत्र पीटर पॉलिंग
ह्यजो उस समय कैवेंडिश में अध्ययन कर रहे थे तथा वैट्सन के
मित्र थे ने अपने पिता द्वारा प्रेषित एक पत्र पाया जिसमें
इस बात की चर्चा थी कि उन्होंने कोरी के साथ मिल कर
डी.एन.ए. की संरचना खोज निकाली है तथा इस संदर्भ में उनका
पेपर 'प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी' के फरवरी अंक में
प्रकाशित होगा। जनवरी १९५३ में पीटर ने इस पेपर की एक
अग्रिम प्रति प्राप्त की जिसे देखने का सौभाग्य वैट्सन तथा
क्रिक को मिला। पॉलिंग के प्रायोजित मॉडल में भी तीन
कुंडलाकार रस्सियों की परिकल्पना थी तथा फॉस्फेट को अंदर
की ओर दिखाया गया था।
इस मॉडल की त्रुटियों को वैटसन तथा क्रिक तुरंत समझ गए।
कुछ ही दिनों बाद इस पेपर के साथ वैट्सन लंदन आए ताकि
विल्किंस और फ्रैंक्लिन को दिखा कर इस पर चर्चा की जाय।
विल्किंस ने चर्चा के दौरान न केवल फ्रैंक्लिन द्वारा
प्राप्त 'बी प्रकार के डी.एन.ए.' के चित्रों के बारे में
वैट्सन को बताया बल्कि उसकी उसकी एक प्रति भी इन्हें दे
दी। 'बी प्रकार के डी.एन.ए.' के चित्र देखते ही वैट्सन की
समझ में आ गया कि ऐसे चित्र इसके कुंडलिनी–रूप के कारण ही
संभव हैं। इसके अतिरिक्त इससे संबंधित एक्स रे तथा डेंसिटी
मीजरमेंट के आँकड़े देख कर ही इन्हें यह भी भान हो गया कि
डी.एन.ए. के अणु तीन रस्सियों की बजाय दो रस्सियों से बने
हो सकते हैं। इन्हें यह समझते भी देर न लगी कि किस प्रकार
ये दोनों रस्सियाँ अलग हो कर अपना प्रतिरूप स्वतः बना सकती
हैं।
इस नए ज्ञान से लैस वैट्सन कैंब्रिज़ लौटकर अगले सप्ताह ही
मॉडल बनाने में जुट गए। वैट्सन मॉडल बनाते थे और क्रिक
उसमें कमियाँ बताते थे। पहले तो नाइट्रोजन बेसेज़ के बारे
में चारग़ाफ की अनुपातिक खोज तथा गिफिथ की संगणना को पूरी
तरह बिसार कर इन लोगों ने डी.एन.ए. के दुहरे कुंडली–रूप
वाले गलत मॉडल का फिर से निर्माण कर डाला। इस मॉडल में
रस्सी बनाने वाले अणु अंदर की ओर थे तथा नाइट्रोजन बेसेज़
बाहर की ओर। लेकिन यह मॉडल नए एक्स रे आँकड़ों से मेल नहीं
खा रहा था। बड़े बेमन से इस मॉडल में परिवर्तन कर नाइट्रोजन
बेसेज़ को अंदर की ओर किया गया। जब दोनों रस्सियों के जोड़ने
की बारी आई तो यहाँ भी इनसे गलती हो रही थी। ये दोनों
रस्सियों के समान नाइट्रोजन बेसेज़.. यानि एडेनिन को
एडेनिन, साइटोसिन को साइटोसिन से जोड़ रहे थे। अब तक मॉडल
बनाते–बनाते तीन सप्ताह का समय बीत चला था।
लिनस पॉलिंग के एक पूर्व सहयोगी अमेरिकन वैज्ञानिक जेरी
डॉन के कैंब्रिज़ आगमन ने न केवल इन्हें अपनी त्रुटि समझने
में मदद की बल्कि इसे सुधारने में भी। एक सप्ताह बाद
वैट्सन के समझ में यह बात आई कि नाइट्रोजन बेसेज़ का सही
जोड़ा एडेनिन–थाइमिन या फिर साइटोसिन–गुआनिन ही हो सकता है।
एडेनिन, थाइमिन से दुहरे हाइड्रोजन बाँड से जुड़ता है तो
गुआनिन, साइटोसिन से दो या दो से अधिक बाँड द्वारा जुड़ता
है ह्यबाद में पॉलिंग तथा कोरी ने इस बात की पुष्टि की
गुआनिन–साइटोसिन के बीच हाइड्रोजन का तिहरा बाँड होता है।
डॉन ने इस मॉडल की पुष्टि की, साथ ही यह मॉडल चारग़ाफ के
नाइट्रोजन बेसेज़ संबधी आनुपातिक खोज तथा पूर्व में ग्रिफिथ
द्वारा नाइट्रोजन बेसेज़ के जोड़े संबधी सुझावों से भी मेल
खाता था। मार्च १९५३ के पहले सप्ताह में मेटल प्लेट्स की
सहायता से डी.एन.ए. का सटीक मॉडल बनाया गया। इन माडलों के
निर्माण में कैवेंडिश की कार्यशाला में तैयार किए गए
अवयवों का उपयोग किया गया था। सुप्रसिद्ध पत्रिका 'नेचर'
के २५ अपैल १९५३ वाले अंक में तीन संक्षिप्त पेपर प्रकाशित
हुए–पहला वैट्सन और क्रिक के नाम पर, दूसरा विल्किंस
स्टोक्स तथा विल्सन के नाम पर तो तीसरा फ्रैंक्लिन तथा
गॉसलिंग के नाम पर। लेकिन डी.एन.ए. की संरचना संबंधी खोज
का मुख्य श्रेय वैट्सन एवं क्रिक को ही मिला।
इस संदर्भ में कुछ विवाद अवश्य उठे थे, परंतु उनका उतना
महत्व नही है। महत्त्व है तो इस खोज के परिणाम का– जो इस
खोज के बाद के ५० सालों के इस छोटे से समय अंतराल में ही
आज जेनेटिक इंजीनियरिंग, ट्रांसजीन्स, क्लोनिंग, डिज़ाइनर
बेबी आदि से संबंधित खोजों के रूप में सामने आ रहे हैं।
क्रिक ने बाद में जेनेटिक कोड तथा प्रोटीन संश्लेषण में
डी.एन.ए. की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझने में भी महान
योगदान किया है। अनुवांशिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी
परिवर्तन लाने वाले इस महान वैज्ञानिक को संपूर्ण मानवता
की ओर से भाव–भीनी श्रद्धांजलि।
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