हिंदी कंप्यूटर की
पृष्ठभूमि:
मैं पिछले बीसेक सालों से हिंदी साहित्य लेखन से जुड़ा हुआ हूं और लेखन की यह
यात्रा अनवरत जारी है। किसी भी रचना को प्रिंट मीडिया में प्रकाशित करवाने के लिए
आपको पहले अच्छी हस्तलिपि में लिख कर या टाइप करवा कर भेजना होता है। मैं इस कार्य
को आसान बनाने के तरीकों को हमेशा ढूँढ़ता रहता था। जब मैं अस्सी दशक के उत्तरार्ध
में पीसी एटी पर डॉस आधारित हिंदी शब्द संसाधक 'अक्षर' पर कार्य करने में सक्षम हुआ
तो मैंने उस वक्त सोचा था कि यह तो किसी भी हिंदी लेखक के लिए अंतिम, निर्णायक
उपहार है। लिखना, लिखे को संपादित करना और जब चाहे उसकी प्रति छाप कर निकाल
लेना-कितना आसान हो गया था। उसके बाद सीडॅक का जिस्ट आया, जिसमें भारत की कई भाषाओं
में कंप्यूटर पर काम किया जा सकता था। परंतु उसके उपयोग हेतु अलग से एक हार्डवेयर
कार्ड लगाना होता था जो बहुत महँगा था, और मेरे जैसे आम उपयोक्ताओ की पहुँच से बाहर
था। शीघ्र ही विंडोज का पदार्पण हुआ और उसके साथ ही विंडोज आधारित तमाम तरह के
अनुप्रयोगों में हिंदी में काम करने के लिए ढेरों शार्टकट्स उपलब्ध हो गए और मेरे
साथ तमाम लोग प्रसन्नतापूर्वक कंप्यूटरों में हिंदी में काम करने लगे।
इसी अवधि में मैंने विंडोज़ पर काम करने के लिए
उपलब्ध प्राय: सभी प्रकार के औज़ारों को आज़माया। मैंने मुफ़्त उपलब्ध शुषा फ़ॉन्ट
को आजमाया, परंतु उसमें हिंदी के एक अक्षर को लिखने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा (दो
या तीन) कुंजियाँ दबानी पड़ती हैं। मैंने लीप आजमाया, परंतु हिंदी की पोर्टेबिलिटी
लीप तक ही सीमित थी और विंडोज के दूसरे अनुप्रयोगों में इसके लिखे को काट-चिपका कर
उपयोग नहीं हो सकता था। ऊपर से, लीप से लिखे गए दस्तावेज़ों को अगर आप किसी दूसरे
के पास भेजते थे, तो वह तभी उसे पढ़ पाता था, जब उसके पास भी लीप संस्थापित हो। इसी
वजह से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया। इन्हीं वजहों से मैंने कभी भी श्रीलिपि का भी
उपयोग नहीं किया। कंप्यूटर पर हिंदी लेखन के लिए मैं कृतिदेव फ़ॉन्ट पर निर्भर था,
जो मूलत: अंग्रेज़ी (ऑस्की) फ़ॉन्ट ही है, परंतु उसका रूप हिंदी के अक्षरों जैसा
बना दिया गया था। कृतिदेव अब भी डीटीपी के लिए अत्यंत लोकप्रिय फ़ॉन्ट है, परंतु
अन्य दस्तावेज़ों में इसका उपयोग सीमित है।
यह समय डॉट कॉम की दुनिया के फैलाव का था और हर
कोई इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में लगा हुआ था। हिंदी अख़बार नई दुनिया
ने अपने अख़बार को इंटरनेट पर लाकर इसकी शुरुआत कर दी थी। धीरे से प्राय: सभी मुख्य
हिंदी अख़बार इंटरनेट पर उतर आए। परंतु इन अख़बारों में उपयोग किए जा रहे फ़ॉन्ट
अलग-अलग, एक दूसरे से भिन्न हैं। एक अख़बार का लिखा उसी अख़बार के फ़ॉन्ट से ही
पढ़ा जा सकता है। डायनॉमिक फ़ॉन्ट से कुछ समस्याओं को दूर करने की कोशिशें की गईं,
मगर वे सिर्फ़ इंटरनेट एक्सप्लोरर तक सीमित रहीं। अन्य ब्राउज़रों में यह काम नहीं
आया। इससे परिस्थितियों पेचीदा होती गईं, चूँकि एक आम कंप्यूटर उपयोक्ता से यह
उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह किसी ख़ास साइट को पढ़ने के लिए ख़ास तरह के
फ़ॉन्ट को पहले डाउनलोड करे फिर संस्थापित भी करे। इन्हीं कारणों से मैंने इंटरनेट
पर अपने हिंदी साहित्य को प्रकाशित करने के लिए अपनी
व्यक्तिगत साइट पीडीएफ़ फ़ॉर्मेट में बनाकर प्रकाशित की ताकि पाठकों को फ़ॉन्ट
की समस्या से मुक्ति मिले। परंतु इसमें भी झमेला यह था कि जब तक उपयोक्ता के
कंप्यूटर पर एक्रोबेट रीडर(या पीडीएफ़ प्रदर्शक) संस्थापित नहीं हो, वह इसे भी नहीं
पढ़ पाता था। ऊपर से पीडीएफ़ फ़ाइलें बहुत बड़ी होती हैं, और पढ़ने के लिए इन्हें
पहले कंप्यूटर पर डाउनलोड करना होता है। अत: इंटरनेट पर समय अधिक लगता है।
इस तरह से हिंदी के लिए बेहतर समर्थन की मेरी खोज
जारी ही रही। ऐसे ही किसी अच्छे दिन जब मैं इंटरनेट पर हिंदी साइटों की खोज कर रहा
था, तो इंटरनेट पर सैर के दौरान अचानक
इंडलिनक्स से टकरा गया। उसमें यह दिया गया था कि कैसे, यूनिकोड हिंदी फ़ॉन्ट के
ज़रिए न सिर्फ़ हिंदी फ़ॉन्ट की समस्या का समाधान हो सकता है, बल्कि हिंदी भाषा में
लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम का सपना भी साकार हो सकता है। वे स्वयंसेवी अनुवादकों की
तलाश में थे। इंडलिनक्स डॉट ऑर्ग की संस्थापना व्यंकटेश (वेंकी) हरिहरण तथा प्रकाश
आडवाणी द्वारा की गई थी और उसमें जी करुणाकर कोऑर्डिनेटर सह तकनीकी विशेषज्ञ के रूप
में कार्य कर रहे थे। इंडलिनक्स कोई व्यवसायिक संस्था नहीं थी, बल्कि स्वयंसेवी
व्यक्तियों के सहयोग से ओपन सोर्स माहौल में कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध थी। मुझे
लगा कि यूनिकोड हिंदी द्वारा आज नहीं तो कल, हिंदी फ़ॉन्ट की समस्याओं का समाधान
संभव है। यूनिकोड हिंदी को विंडोज़ का समर्थन भी था और बाद में गूगल में भी यूनिकोड
हिंदी समर्थन उपलब्ध हो गया। मैं तुरंत ही इंडलिनक्स में एक स्वयंसेवी सदस्य-हिंदी
अनुवादक के रूप में शामिल हो गया।
प्रारंभिक समस्याएँ
जब मैं इंडलिनक्स में स्वयंसेवी अनुवादक के
रूप में शामिल हुआ, उस वक्त लिनक्स में सिर्फ़ ग्रोम डेस्कटॉप पर यूनिकोड हिंदी
सर्मथन उपलब्ध था। लगभग 4-5 हज़ार वाक्यांशों का अनुवाद मुख्यत: भोपाल के अनुराग
सीठा तथा स्वयं जी करुणाकर द्वारा किया गया था, जो उस वक्त तकनीकी समस्याओं, यथा
उचित फ़ॉन्ट रेंडरिंग इत्यादि से भी जूझ रहे थे। हमें कुल 20 हज़ार वाक्यांशों का
अनुवाद करना था, और कम से कम उसका 80 प्रतिशत अनुवाद तो आवश्यक था ही ताकि हिंदी
भाषा का समर्थन ग्रोम लिनक्स पर हासिल हो सके। उन दिनों मैं म.प्र.विद्युत मंडल में
अभियंता के रूप में कार्यरत था। कार्य और घर परिवार के बाद बचे खाली समय में मैं
अनुवाद का कार्य करता और इस प्रकार प्रत्येक माह लगभग एक हज़ार वाक्यांशों का
अनुवाद कर रहा था। उस समय तक मैं हिंदी में कृतिदेव फ़ॉन्ट का अभ्यस्त हो चुका था,
और यूनिकोड हिंदी फ़ॉन्ट का इनस्क्रिप्ट कुंजीपट, कृतिदेव के कुंजीपट से बिल्कुल
अलग था। उस वक्त हिंदी कुंजीपट-इनस्क्रिप्ट को शून्य से सीखना पड़ा, जो कृतिदेव से,
जिसे मैं इस्तेमाल करता था, पूरी तरह भिन्न था। छ: महीने तो मुझे अपने दिमाग़ से
कृतिदेव हिंदी को निकालने में लगे और लगभग इतना ही समय इनस्क्रिप्ट हिंदी में महारत
हासिल करने में लग गए।
शुरुआती चरणों में हमारे पास कोई आईटी टर्मिनलॉजी
नहीं थी। ऑन-लाइन/ पीसी आधारित शब्दकोश भी नहीं थे, जिसके कारण हमारा कार्य अधिक
उबाऊ और थका देने वाला हुआ करता था। अनुवादों में संगति की समस्याएँ थीं। उदाहरण के
लिए, अंग्रेज़ी के 'सेव' शब्द के लिए संचित करें, सुरक्षित करें, बचाएँ, सहेजें
इत्यादि के उपयोग अलग-अलग अनुवादकों ने अपने हिसाब से कर रखे थे। फ़ाइल के लिए
फ़ाइल, सूचिका, संचिका और कहीं रेती का उपयोग किया गया था। इस दौरान हिंदी भाषा के
प्रति लगाव रखने वाले लोग इंडलिनक्स में बड़े उत्साह से स्वयंसेवी अनुवादकों के रूप
में आते, दर्जन दो दर्जन वाक्यों-वाक्यांशों का अनुवाद करते, अपने किए गए कार्य का
हल्ला मचाते और जब उन्हें पता चलता कि अनुवाद -असीमित, उबाऊ, थकाऊ, ग्लैमरविहीन,
मुद्राहीन, थैंकलेस कार्य है, तो वे उसी तेज़ी और उत्साह से गायब हो जाते जिस तेज़ी
और उत्साह से आते थे। कुल मिलाकर हिंदी ऑपरेटिंग सिस्टम का सपना साकार करने के लिए
मेरे अलावा जी करुणाकर ही लगातार और निष्ठापूर्वक कार्य कर रहे थे। हमारे हाथों में
मात्र कुछ हज़ार वाक्यांशों के अनुवाद थे, जिस वजह से हम किसी को हिंदी ऑपरेटिंग
सिस्टम कार्य करता हुआ नहीं दिखा सकते थे। फिर, जो माल हमारे पास था, वह बहुत ही
कच्चा था, निहायत असुदंर था और काम के लायक नहीं था। इंडलिनक्स कछुए की रफ़्तार से
चल रहा था, सिर्फ़ एक व्यक्ति जी करुणाकर के समर्पित कार्यों से जो तकनीकी पहलुओं
को तो देख ही रहे थे, मेरे जैसे स्वयंसेवी अनुवादकों को (हिंदी के इतर अन्य भारतीय
भाषाओं के भी) अनुवाद कार्य के लिए आवश्यक तकनीक सिखाने-पढ़ाने का कार्य भी करते थे
और इस बीच समय मिलने पर अनुवाद कार्य भी करते थे।
अंतत: पहिया घूम गया-
सन 2003 में इंडलिनक्स की गतिविधियों में कुछ
तेज़ी आई। इसी वर्ष मैंने नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति प्रमुखत: अपनी अस्वस्था
की वजह से ली और बच्चों को घर पर कंप्यूटर पढ़ाने लगा। मैंने अनुवाद का मासिक दर
लगभग 2000 वाक्यांश कर दिया था। अंतत: हमारे पास ग्राम 2.2 / 4.0 के 60-70 प्रतिशत
वाक्यांश अनूदित हो चुके थे। करुणाकर ने फरवरी 03 में लिनक्स का प्रथम हिंदी
संस्थापक इंडलिनक्स संस्करण मिलन 0.37 जारी कर दिया था। इस संस्करण की लोगों में
अच्छी प्रतिक्रिया रही। लोगों ने इसे अपने मौजूदा अंग्रेज़ी लिनक्स के ऊपर
संस्थापित कर पहली मर्तबा हिंदी में ऑपरेटिंग सिस्टम के महौल को देखा। इंडलिनक्स के
प्रयासों की हर तरफ़ सराहना तो हो ही रही थी, अब लोगों ने इसकी तरफ़ ध्यान देना भी
शुरू किया। इस दौरान, सराय के रविकांत ने एक महत्वपूर्ण योगदान हिंदी लिनक्स को
दिया। उन्होंने सराय, दिल्ली में एक हिंदी लिनक्स वर्कशॉप का आयोजन किया जिसमें
साहित्य, संस्कृति और मीडिया कर्मी सभी ने मिल बैठ कर हिंदी अनुवाद में अशुद्धियों
को दूर करने का गंभीर प्रयास किया, जिसके नतीजे बहुत ही अच्छे रहे। बाद में सराय से
ही हिंदी अनुवादों के लिए साठ हज़ार रुपयों की एक परियोजना भी स्वीकृत की गई जिसके
फलस्वरूप मैं सारा समय अनुवाद कार्य में जुट गया।
रविकांत, सराय की पहल के नतीजे तेज़ी से आने लगे।
दिसंबर 03 आते-आते केडीई 3.2 में पूर्ण हिंदी समर्थन प्राप्त हो चुका था अत: मैंने
उसका अनुवाद हाथ में लिया। अप्रैल आते-आते केडीई 3.2 के जीयूआई शाखाओं का 90
प्रतिशत से अधिक अनुवाद कार्य मैंने पूरा कर लिया था। इस अनुवाद को चूंकि सराय
द्वारा प्रायोजित किया गया था, अत: रविकांत की पहल पर इसकी समीक्षा वर्कशॉप फिर से
आयोजित की गई। इस वर्कशॉप में पहले से अधिक लोग शामिल हुए और सबने वास्तविक कार्य
माहौल में हिंदी अनुवादों को देखा और सुधार के सुझाव दिए। इसके नतीजे और भी ज़्यादा
अच्छे रहे। अनुवाद के 50 हजार वाक्यांशों तथा समीक्षा उपरांत 20 हजार वाक्यांशों के
सुधार-कार्य के उपरांत केडीसी डेस्कटॉप इतना अच्छा लगने लगा कि बहुतों ने अपने
कंप्यूटर के अंग्रेज़ी माहौल को हटाकर हिंदी में कर लिया जिसमें होमी भाभा साइंस
सेंटर मुंबई के डॉ. नागार्जुन भी शामिल हैं। इसकी प्रशंसा पूर्वक घोषणा उन्होंने
भारतीय भाषा सम्मेलन में मुंबई में की थी।
एक बार फिर, सराय ने एक अतिरिक्त परियोजना स्वीकृत
की जिसके तहत केडीई 3.3/3.4 के हेड शाखाओं के कुल 1.1 लाख वाक्यांशों का 90 प्रतिशत
हिंदी-अनुवाद-कार्य मेरे द्वारा पूरा किया गया। इस बीच एक्सएफ़सीई 4.2, गेम, डेबियन
संस्थापक, पीसीक्वेस्ट 2005 संस्थापक इत्यादि के अनुवाद कार्यों का कार्य भी किया
गया। नतीजतन, अब हमारे पास रेडहेट फेदोरा तथा एंटरप्राइज़ संस्करण, मेनड्रेक,
डेबियन, पीसीक्वेस्ट लिनक्स 2005 इत्यादि प्राय: सभी लिनक्स वितरणों में हिंदी
पूर्ण समर्थित है। इंडलिनक्स का बहुभाषी, रंगोली जीवंत सीडी भी जारी किया जा चुका
है जिसमें हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के वातावरण में लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम
है। लिनक्स के आकाश पर हिंदी अब दमक रही है।
अंतत: अब मैं बिना किसी फ़ॉंन्ट समस्या के,
विभिन्न अनुप्रयोगों में हिंदी में तो काम कर ही सकता हूँ, मेरे हिंदी के कार्य
विश्व के किसी भी कोने में इंटरनेट पर यूनिकोड सक्षम ब्राउज़र द्वारा देखे जा सकते
हैं, तथा यूनिकोड सक्षम अनुप्रयोग द्वारा उपयोग में लिए जा सकते हैं। अब मेरा
यूनिकोड हिंदी आधारित व्यक्तिगत ब्लॉग
http://www.hindini.com/ravi तो चल ही रहा
है, यूनिकोड हिंदी आधारित सैकड़ों अन्य हिंदी साइटें भी अस्तित्व में आई हैं।
धन्यवाद इंडलिनक्स!
24 जून 2005
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