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                       ''है तो खेलासराय ही, लेकिन अब आप जो बना दीजिए इसको।'' मन 
						भर जाता घूरने से, तो कहता। 
 सिटपिटा-से गए उस आदमी की बिरजू जैसा कोई आदमी हिम्मत 
						बढ़ाता, ''घबराइए मत, भाईजी। एकदम सही जगह पहुँच गए हैं।''
 
 अगर वह आदमी कोई सरकारी पदाधिकारी होता तो उसे बस से उतरते 
						ही घेर लेते दो- चार खद्दरधारी और चाय पिलाने के लिए किसी 
						तीन टाँगोंवाली बेंच पर बिठा लेते। उसे बताया जाता कि आ 
						जाने के बाद खेलासराय से जाने का नाम नहीं लेते थे 
						पदाधिकारीगण। कइयों के भ्रष्ट जीवन का स्वर्णकाल खेलासराय 
						में ही बीता था या बीत रहा था। यह बात भाईजी को बाद में 
						पता चलती कि उन सभी के द्वारा पी गई चाय का पैसा उन्हें ही 
						देना था। चोखा जैसा मुँह बनाए हुए भाईजी को एक बार फिर 
						बिरजू जैसा आदमी यह जीवन-दर्शन समझाता कि कमल का फूल 
						तोड़ने का मन हो तो पानी में तो हेलना ही न पड़ेगा? और वह 
						आदमी जमीन पर धीरे-धीरे कदम रखता हुआ आगे बढ़ता, मानो 
						पानी नहीं दलदल में हेल रहा हो, तो जोर का ठहाका लगा 
						देता, ''धन्य हो खेलासराय!''
 
 माँ यहीं आने के लिए पिता जी से अनवरत लड़ती थीं!
 हवा शोर करती हुई, खिड़की के पल्लों को ठेलती हुई हमारी 
						छोटी-सी मड़ई में आ धमकी है और ऊधम मचाना शुरू कर दिया है। 
						लालटेन बुझ गई है और मैं निश्चेष्ट बैठा घुप्प अँधेरे में 
						हमारे ठिकाने से थोड़ी ही दूर पर बहने वाली पहाड़ी नदी का 
						शोर सुन रहा हूँ। बारिश के दिनों में जैसे अचानक याद आ 
						जाता है उसे कि उसे तो बहुत दूर जाना है। सागर तक। 
						गिरती-पड़ती, हाँफती-फुफकारती, कुलाँचें मारती भागने लगती 
						है। पूरी बस्ती उसके किनारों पर जमा हो जाती है उसकी 
						बेचैनी का नज़ारा देखने। हँसते हैं बस्तीवाले। उन्हें 
						मालूम है कि ज्यादा देर नहीं लगेगी इस उन्माद को गायब 
						होते। और तब मारे लाज के बालू और बजरियों में छिपती चलेगी।
 मैं सामने पड़े टेबल के ऊपर हाथ फिराता हूँ। पन्ने वहाँ 
						नहीं हैं। उड़ान भर रहे होंगे पतंग की तरह या मड़ई के किसी 
						कोने में पड़े होंगे हवा के उतावलेपन से डरे हुए।
 
 "लिख रहे थे क्या?" वीणा दीदी इस सवाल और हाथ में तीन 
						सेलों वाले टॉर्च के साथ प्रविष्ट हुई हैं। टॉर्च की 
						बैटरियों का दम निकलता लग रहा है, फिर भी इतनी रोशनी हो गई 
						है कि दियासलाई ढूँढ़ी जा सके।
 "ठीक से देख लो। एक-दो पन्ने खिड़की के रास्ते नदी की सैर 
						को न निकल गए हों।" वीणा दीदी कच्चे फर्श पर बिखरे पन्ने 
						बटोरने में जुट गई हैं - "रात को पढ़ने-लिखने बैठो तो 
						दियासलाई अपनी जेब में रखा करो।" यह सलाह मुझे पहले भी कई 
						बार दी जा चुकी है और मैं भूल जाता हूँ।
 
 "ऐसे ही हवा चलती रही तो चूल्हा कैसे जलेगा?"
 "भूख लगी है?" लालटेन की मद्धिम रोशनी में दमकता हुआ एक 
						स्निग्ध, स्नेहिल चेहरा पूछता है, ''जलाकर दिखा दूँ तो 
						क्या दोगे?'' दुनिया के सबसे नायाब होने से भी 
						ज्यादा 
						चमकदार कुछ धधक रहा है इस चेहरे में।
 अपने दोनों हाथ मैंने उनके आगे पसार दिए हैं - खाली हैं। 
						वीणा दीदी ने टेबल पर पड़ी कलम उठाई है और मेरी दाईं हथेली 
						में रख दी है - "लिखो।" और जाकर खुली हुई खिड़की के पास 
						खड़ी हो गई हैं - बाहर के अँधकार में मची हरबोंग सुनने।
 "कल का पहला काम - पल्लों में एक कायदे की सिटकिनी लगानी 
						है।" पल्लों को फिर से बंद करने की अपनी नाकामयाब कोशिशों 
						से झुँझला उठी हैं वीणा दीदी।
 
 एक मुड़ी हुई काँटी थी, जो चारों तरफ घूम जाती थी। उसी के 
						मुड़े हुए भाग को ऊपर कर पल्लों को बंद किया जाता था। लगता 
						है, काँटी का छेद कुछ ज्यादा बड़ा हो गया था काँटी के 
						घूमते-घूमते, और काँटी ठहर नहीं पा रही थी एक जगह।
 "आज तो खोलना नहीं है? हथौड़ी लाओ, बंद ही कर देते हैं।"
 पल्ले बंद हो गए हैं और वीणा दीदी के चेहरे पर संतोष का 
						भाव पसर गया है, ''चलो, हो गया काम। अब दूसरा काम देखा 
						जाए।''
 दूसरे जहाँ एक काम समाप्त होने पर थकान महसूस करते हैं और 
						काम हो जाने की खुशी ओढ़कर थोड़ा आराम कर लेना चाहते हैं, 
						वीणा दीदी इतनी खुश और आप्यायित हो उठती हैं काम के ख़त्म 
						होते ही कि दूसरे में लग जाती हैं, दुगने जोश के साथ। एक 
						के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, तीसरे के बाद 
						चौथा...स्कूल में छुट्टी की घंटी बज गई तो गाँवों की सैर 
						को निकल जाएँगी, खुद नहीं जाएँगी तो गाँव की औरतों को बुला 
						लेंगी, बैंक में उनके खाते खुलवाने शहर जाएँगी। कोई बीमार 
						पड़ जाए किसी के घर तो वीणा दीदी को पहुँचना ही पहुँचना है 
						वहाँ। लोग तो क्या मवेशियों का बीमार हो जाना भी पर्याप्त 
						कारण है वीणा दीदी के चिंतित और व्यस्त हो जाने का।
 कभी-कभी पूछने का मन करता उनसे कि यहाँ कैसे आ गई थीं। 
						बस्तर के जंगली इलाके के पेट में बसे इस गाँव में! दो-दो 
						नदियाँ पार कर। पर हिम्मत नहीं पड़ी। खुद वीणा दीदी ने ही 
						पूछ लिया था एक दिन, "तुम यहाँ कैसे पहुँच गए, विशाल?"
 और घबरा गया था मैं। कुछ भी नहीं बोल पाया था अचानक।
 
 "बताना नहीं चाहते?" एक गहरी साँस ली थी वीणा दीदी ने। और 
						सवाल वहीं गिर गया था।
 "अरे विशाल, तुम तो लिखते हो?" पुरानी किताबों-कॉपियों को 
						आलमारी में रखते हुए एक दिन मेरी पुरानी डायरी लग गई थी 
						उनके हाथ। डायरी के पन्ने फड़कते और मेरे अंदर धमक-सी 
						गूँजती मानों। मैं अशांत हो उठा था।
 "यह खेलासराय कहाँ है?" वीणा दीदी अटक गई थीं एक पन्ने पर।
 ''खेलासराय कहाँ है?'' वीणा दीदी पूछ रही थीं।
 "यही है?" मेरी प्रश्नाकुल आँखें पिता जी के राहत की साँस 
						लेते हुए चेहरे पर गड़ गई थीं। अंदर ही अंदर ईश्वर से 
						प्रार्थना भी करता जा रहा था कि पिता जी कह दें- नहीं। पर 
						पिता जी के चेहरे पर उग आया चैन का भाव गंतव्य पर सकुशल 
						पहुँच जाने की खुशी का भाव था। हम खेलासराय पहुँच चुके थे। 
						और मेरे पास इसके अलावा दूसरा कोई भी उपाय नहीं था कि 
						आँखें पिता जी के चेहरे से हटाकर उसी हक़ीक़त पर टिका दूँ 
						जो मेरे सामने थी। रुलाई भी आ रही थी गुस्से के कारण।
 
 पिछले कई दिनों से सोने के पहले पिता जी से बस खेलासराय के 
						बारे में ही पूछता आया था। कैसा है? बाज़ार कैसा है? 
						सड़कें कैसी हैं? हमारे गाँव के मधुकर सिंह का बेटा 
						सुरेसवा नौसेना में भर्ती हो गया था। छुटि्टयों में गाँव 
						आता तो बंबई की सड़कों के बारे में बताता। कहता कि रबड़ की 
						बनी हुई थीं - मुलायम, चिकनी, साफ-सुथरी। पिता जी की 
						बातों से लगता कि खेलासराय की सड़कें भी वैसी ही होंगी - 
						चिकनी, मुलायम। उनकी बातें सुन-सुनकर कल्पना ने जो तस्वीर 
						बनाई थी खेलासराय की, उसमें बड़ी-बड़ी चित्ताकर्षक 
						अट्टालिकाएँ, चौड़ी और चिकनी सड़कें, सजी-धजी चमचमाती 
						दुकानें, सजे-सँवरे लोग, फूलों के बगीचे, सिनेमाघर, 
						घृताची, मेनका और उर्वशी जैसी अप्सराओं-सी सुंदर लड़कियाँ, 
						कथा-कहानियों के मीना बाज़ार-सा बाज़ार, ये सब थे।
 
 हम अपने गाँव में ''चीजू का पाताल'' वाला खेल खेलते थे। वह 
						पाताल धरती की अनंत गहराइयों में बसा था। बीस कुओं के 
						बराबर मिट्टी निकालने के बाद ही पहुँचा जा सकता था वहाँ। 
						जिसका मन जितनी ऊँची उड़ान भर पाता, उतना ही सुंदर हो जाता 
						उसका ''चीजू का पाताल।'' वहाँ वो सारी चीज़ें होतीं, जो मन 
						चाहता था। पर केवल मन की गति थी वहाँ तक। पिता जी की बातें 
						सुनकर लगा था, मैं खेलासराय नहीं, बल्कि अपने चीजू के 
						पाताल में जा रहा था। अपने टोले के अवधेसवा को बताया भी था 
						कि मुझे मेरा चीजू का पाताल मिल गया था। अवधेसवा का चेहरा 
						उतर गया था। वह खेलासराय पहुँचने के तुरंत बाद का मेरा 
						चेहरा देख लेता तो उसके चेहरे की रंगत लौट आती। निराशा के 
						पाताल में बदल गया था मेरा ''चीजू का पाताल''।
 
 कुछ भी तो नहीं दिखा था वैसा, जैसा सोचा था। मुठ्ठी-भर का 
						चौक; कब आया, कब ख़त्म हो गया, पता ही नहीं चला, ऐसा 
						बाज़ार, छोटे-बड़े गड्ढ़ों से भरी सड़कें, मानो बड़ी माता 
						के प्रकोप से ग्रस्त हों, सड़कों के दोनों तरफ झोपड़ीनुमा 
						दुकानें और गुमटियाँ, ठेले और खोमचेवाले। इक्की-दुक्की 
						पक्की इमारतें दिखीं भी तो अधिकांश की बाहरी दीवारों पर 
						प्लास्टर नहीं था। केवल गोबर थाप देने-भर की कसर रह गई थी, 
						वरना सुखद आश्चर्य होता हमें कि कुँवरपुर से चलकर हम वापस 
						कुँवरपुर ही पहुँच गए थे। पिता जी को कोई दूसरा उदाहरण 
						नहीं ढूँढ़ना पड़ता यह समझाने के लिए कि धरती गोल थी। सड़क 
						पर टहलते लोगों को देखकर तो संसार के कुंरपुरमय होने का 
						भ्रम हो ही रहा था।
 
 "ठीक से देखोगे तब न!" पिता जी ने भाँप लिया था मेरी उदासी 
						को। लेकिन जो उदासी ठोस कारणों से पैदा हुई थी, खोखले लाड़ 
						से कैसे जाती! मैंने रिक्शेवाले से पता कर लिया था कि वहाँ 
						सिनेमा हॉल भी नहीं था। बन रहा था। पर्व-त्योहार के दिनों 
						में गोरक्षिणी में मोटर सिनेमा दिखाते थे कुछ लोग। बहुत 
						दु:ख हुआ था जानकर कि पिता जी झूठ बोलते रहे थे मुझसे। ऐसा 
						नहीं करना चाहिए था उन्हें। न झूठ बोले होते, न मन ने ऊँची 
						उड़ान भरी होती। जानता होता कि छोटे कचरघर से निकलकर बड़े 
						कचराघर में जाना था तो जो भी दिखता, उसी से खुश हो जाता। 
						जैसे माँ खुश थीं।
 
 माँ का चेहरा सुलग रहा था खुशी से। उनकी तृषार्त आँखों को 
						मानो अब जाकर आराम मिला था। रिक्शे की पुश्त को जोर से 
						पकड़ रखा था माँ ने और तृप्त आँखों से निहार रही थीं 
						खेलासराय को। सिर से बार- बार फिसल जाते आँचल को सिर पर 
						ठीक करतीं और विभा के गाल थपथपा देतीं। विभा भी कम खुश 
						नहीं थी। जैसे ही कोई दूसरा रिक्शा नजर आता, खिल उठती, 
						"देखो, एक और..." जोर से चिल्लाती- भइया, फुलौना..., 
						लेमनचूस...भइया, टमटम...!" रिक्शावाला भी समझ गया होगा - 
						खांटी देहाती माल लदा हुआ था उसके रिक्शे पर।
 
 अपनी शादी के पूरे चौदह साल बाद माँ कुँवरपुर से बाहर निकल 
						पाई थीं। चौदह साल उस नरक में!'' माँ इस बात का ज़िक्र आते 
						ही ऐसी बैचैनी से भर जातीं मानो उनका वश चलता तो अपनी 
						ज़िंदगी की किताब से उन चौदह सालों के पन्नों को फेंक 
						डालतीं फाड़कर। अकूत वेदना से भर जातीं। जरूर कोई बहुत 
						बड़ा पाप किया होगा पिछले जन्म में कि भगवान ने अच्छा पति 
						भी दिया तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी। माँ एक गहरी तृषा 
						से भर जातीं। कितने सुखद, कितने खुशगवार हो सकते थे वो 
						चौदह साल!
 बाद में मैं उन्हें उकसाने के लिए कहता कि पिता जी को गाकर 
						क्यों नहीं समझाती थीं - "मोरा नादान बालमा ना जाने दिल की 
						बात!!"
 "पूछ लो, आपने बाप से। एक रेडियो भी तो न था हमारे पास कि 
						दिन-रात काँव-कीच सुनने के बाद मन करता तो गाना भी सुन 
						लेते..." माँ का विक्षोभ।
 माँ बताने लगतीं कि पिता जी छोटी-छोटी बातें भी नहीं बताते 
						थे उन्हें। माँ नहीं जानती थीं कि उनके पति को हरेक माह 
						कितना वेतन मिलता था। यह जानने का तो सवाल ही नहीं था कि 
						उसमें से वे कितना भाइयों को दे देते और कितना अपने 
						बाल-बच्चों के लिए बचाते थे। पूछने पर नाराज हो जाते पिता 
						जी। बोलना-चालना बंद कर देते। दुआर पर ही खाना खा लेते और 
						दालानवाली कोठरी में सो जाते।
 
 "यही सब बताया जाता है बच्चों को?" पिता जी को लाज लगने 
						लगती थी माँ की बातें सुनकर।
 "वाह रे वाह! हम जिस दु:ख को चौदह साल भोगे हैं उसको सुनना 
						भी नहीं चाहते आप?" माँ का दु:ख धीरे-धीरे गुस्से का रूप 
						ले लेता - सब इन्हीं के कारण...भगवान ऐसा मर्द किसी को 
						मत।"
 पिता जी छुट्टियों में गाँव आते और घर में एक बड़े कोहराम 
						की सुगबुगाहट शुरू हो जाती। माँ जैसे ही ''बहरा'' जाने का 
						मुद्दा उठातीं, दोनों चाची लोग आसमान सिर पर उठा लेतीं। 
						गालियों और बद्दुआओं का घटाटोप छा जाता आँगन में। माँ रोने 
						लगतीं, लड़ते-लड़ते तो उनके साथ मैं भी रोने लगता। दिखाना 
						चाहता कि परिवेश और पिता जी की संवेदनहीनता के खिलाफ माँ 
						के युद्धों में मैं उनके साथ खड़ा था।
 
 दोनों चाचा लोग माँ की ''बहरा'' जाने की इच्छा को एक महान 
						नैतिक और सामाजिक संकट का रूप दे देते। दुआर पर आने वाले 
						हर आदमी को सुनाते कि अलखबो घर की एकता में आग लगाने पर 
						आमादा हो गई है। लोग उनकी बातें सुनकर चिंता व्यक्त करते 
						गाँव में ''घरफोड़नी'' औरतों की बढ़ती तादाद पर। केवल 
						टेंगर सिंह रामचरितमानस का हवाला देकर कहते कि पत्नी की 
						सही जगह पति के पास ही होती है- जहाँ राम, वहीं सीता। 
						लेकिन टेंगर सिंह को डपट देते चाचा लोग - "नहीं भागोगे 
						यहाँ से...करीया अच्छर भंईस बाराबर...रामायन बुझवाने चले 
						हैं..."
 
 टेंगर सिंह की बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। लोग 
						कहते कि हाड़े हरदी नहीं लगी थी, इसलिए टेंगर सिंह को औरत 
						से बड़ा भगवान भी नहीं लगता था। "टेंगर भइया का जोगाड़े 
						गड़बड़ा गया है, नहीं तो मेहरारू को पिठ्इयाँ घुमाता..." 
						उन्हें चिढ़ाने के लिए कहते लोग। और टेंगर सिंह तड़प उठते 
						थे ऐसी बातें सुनकर। ईंट का जवाब पत्थर से देने लगते। 
						अपशब्दों की आँधी-सी आ जाती, "हम ऊ आदमी नहीं हैं कि अलोता 
						में पकड़कर छाती से चिपकाएँगे और दुआर पर बैठकर छीनरी-मनरी 
						कहेंगे...टेंगर सिंह धरम का बात करते हैं...मुँहदेखल नहीं 
						बतियाते...औरतीया सबका हाथ-पाँव बँधा हुआ है, इसका माने ई 
						नहीं है कि जिसको जो मन करे बोल दे...टेंगर सिंह के सामने 
						जो बोलेगा ऊ सुनेगा..."
 सभी बोलते कुछ न कुछ। केवल पिता जी परमहंसों-सी निस्संगता 
						ओढ़ लेते। अजीब करते थे पिता जी भी। माँ अकेले जूझती होतीं 
						अपनी दोनों गोतनियों से, चाचा लोग हाँफते-हूँफते होते माँ 
						की जली-कटी बातें सुनकर और पिता जी बाहर दालान या पीछे 
						खंडी में चौकी या खटोले पर बैठे ठेका लगाते होते या गाँव 
						के किसी आदमी से बतकही में मगन रहते। अच्छी नहीं लगती थी 
						उनकी यह बेगानगी, पर कभी-कभी जब नाकाबिलेबरदाश्त हो जाता 
						था गालियों और बद्दुआओं से खदकता हुआ आँगन, मैं भी आकर 
						उन्हीं के पास बैठ जाता। अकेले बैठे होते तो रामचरितमानस 
						के छंद याद कराते - नामामीशमीशान निर्वाण रूपं विभुं 
						व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं...या किसी के साथ बतकही में लगे 
						होते तो कॉपी-किताब वहीं लाकर कुछ पढ़ने-लिखने को कह देते। 
						यह नहीं पूछते कि आँगन में मचे धूमगजर की वजह क्या थी।
 आजी पिता 
						जी की इस आदत की बहुत तारीफ करती थीं। गर्व से कहतीं कि 
						इनके बेटे को मेहरूइ कुकुरघाउंच से कोई मतलब नहीं रहता। 
						मधुकर सिंह, जो एक हाईस्कूल में हिंदी पढ़ाते थे, पिता जी 
						को उनकी इसी आदत के कारण एक ''गहरा और ठहरा हुआ'' आदमी 
						कहते। कहा जाता - पिता जी जैसे ही कुछ लोग थे कि अपने फन 
						पर धरती को सँभाले रखने का साहस मिल रहा था शेषनाग को, 
						वरना गाँव के नवहों का तो यह हाल हो गया था कि औरतों से 
						पहले ही छान-पगहा तुराने लगे थे अलग होने के लिए। पूरे 
						कुँवरपुर में तारीफ होती पिता जी की स्थिरता और गंभीरता 
						की। बेचारी माँ एकदम अकेली पड़ जातीं। उनके साथ कोई होता 
						तो केवल मैं- अपनी दुइन्नी औकात के साथ।  पिता जी 
						जब भी गाँव आने वाले होते, माँ मुझे उनके सामने अपने स्कूल 
						की शिकायत करने और उनके साथ शहर चलने की जिद्द करने को 
						सिखातीं। उनकी सिखाई हुई बातें मैं कहता भी था पिता जी से, 
						पर जल्दी ही बहल भी जाता था इधर-उधर की बातों से। पिता जी 
						का आना ही इतना अच्छा लगता कि मन अघाया हुआ रहता। घर के 
						सभी बच्चों के लिए बतासा, बेलगरामी या मोतीचूर तो आता ही 
						था, पर मेरे लिए वे अलग से बिस्कुट या चाकलेट का डिब्बा भी 
						लाते थे। माँ का एकमात्र सैनिक लालच और भावुकता की चपेट 
						में आ जाता। 
 पिता जी के अनेक दूसरे सरोकार थे गाँव में। पहुँचते ही 
						चाचा लोग खेती-बाड़ी और अपनी दुर्दशा की अकथ कथा आरंभ कर 
						देते। किसी के घर में बँटवारे का झगड़ा चल रहा होता तो 
						पंचायत के लिए पिता जी को ले जाता। फिर गाँव की सामूहिक 
						समस्याओं को लेकर चिंतित रहने वाले लोग थे, इंतज़ार करते 
						रहते थे पिता जी के आने का। काली माई मंदिर में पोचाड़ा 
						कराना है...फुटबॉल की फील्ड ठीक करवानी है...वालीबॉल का 
						नेट गड़वाना है...शिवाले पर गान-गवनई के लिए ढोलक-झाल का 
						इंतज़ाम करना है...
 उन्हें विश्वास था कि अलखसिंहवा ''ना'' कहने वाला आदमी 
						नहीं है।
 दिन-भर घेरे रहते थे लोग पिता जी को। आजी की खुशी का 
						ठिकाना नहीं रहता दुआर पर लगी भीड़ को देखकर। लोर भर जाती 
						थी उनकी आँखों में। कहतीं कि बाबा के समय में जो शोभा दुआर 
						की थी, पिता जी के गाँव आने पर लौट आती थी। माँ को चिढ़ थी 
						इस शोभा से। आजी के साथ कभी-कभी इस बात पर जोर की बक-झक 
						हो जाती उनकी। आजी फुफकारने लगतीं- "मेहरारू सबका बस चले 
						तो मरद-मानुस को फुफती में लुकवाकर रख ले..."
 आजी तो जिस-तिस को सुना आतीं। माँ किससे कहतीं अपने मन का 
						दु:ख! पिता जी तैयार नहीं थे सुनने को। उनके वापस लौटने का 
						दिन आ जाता और माँ अपने दु:ख के साथ अकेली रह जातीं।
 टेंगर सिंह कहते थे- "मनुज बली नहीं होत है, समय होत 
						''बलवान।"
 सचमुच एक दिन वह दिन भी आया कि पिता जी के पास केवल माँ की 
						बातें सुनने का ही समय था।
 
 उस बार दशहरा की छुटि्टयों में आए तो पता नहीं क्यों पिता 
						जी को मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में व्यक्त की गई माँ की 
						चिंताओं की जाँच-परख की जरूरत महसूस हुई। और ज्यादा समय 
						नहीं लगा था उन्हें इस प्रतीति तक पहुँचने में कि मैं 
						पूर्णरूपेण अपने गाँव के गदहिया गोल का सदस्य हो चुका था। 
						कुँवरपुर के अपने स्कूल में मैं ही सबसे तेज लड़का था और 
						मुझे नहीं मालूम था कि प्रधानमंत्री देश में होता है कि 
						प्रांत में। मात्र डेढ़ महीने बाद ही मुझे पाँचवीं की 
						सालाना परीक्षा में बैठना था और ऐकिक नियम का एक भी सवाल 
						नहीं बता पाया था मैं।
 "भैंस चराएगा हट्ट-हट्ट करते हुए तब जाकर आपका कलेजा ठंडा 
						होगा..." माँ ने रोना शुरू कर दिया था।
 दो-तीन करारे तमाचों के साथ ही जाँच-परख का काम समाप्त हो 
						गया था। माँ ने मुझे छाती से चिपका लिया था और हम दोनों 
						साथ-साथ रोने लगे थे। पिता जी मुँह चोखा जैसा बनाए, सिर 
						झुकाए हुए कमरे से बाहर चले गए थे।
 रात को गाँव घूमकर लौटे तो घोषणा की कि उनके साथ हम भी चल 
						रहे थे शहर। पूत के कुपूत हो जाने का डर काँव-काँव करने 
						लगा था उनके अंदर।
 और तब माँ की सारी अड़चनें नि:शेष हो गई थीं। उनके रास्ते 
						के सारे अवरोध बेमानी हो गए थे।
 
 "यह मत कहिएगा कि हमको बहरा ले जा रहे हैं...आप अपने 
						बेटा-बेटी को ले जा रहे हैं।" माँ का यह गुस्सा बनावटी था। 
						दिखावा-भर था। वरना खुशी के मारे यह हाल था उनका कि बोलने 
						के लिए मुँह खोलतीं तो दाँत बजने लगते। बाद में उस दिन को 
						याद करतीं माँ तो कहतीं, "आखिर बुढ़िया कइलस भतार, बाकी 
						जन्म गँवा के।" पिता जी के चेहरे पर वैसी ही नरम मुसकान 
						फैल जाती, जैसी उस रात को फैली हुई थी। हम एक अलग परिवार 
						के रूप में गाँववाले घर के अपने कमरे में दोनों चौकियाँ 
						सटाकर बैठे हुए थे और पिता जी उस शहर के बारे में बता रहे 
						थे, जहाँ कुछ ही दिनों में पहुँचने वाले थे हम।
 
 माँ के ''बहरा'' जाने की खबर ने आँगन को जगा दिया था। 
						दोनों चाची लोग भूत खेलाने लगी थीं। चीख-चीखकर अपने पतियों 
						से अपील कर रही थीं कि खेती-बाड़ी को लात मारें और किसी 
						अच्छे शहर में किराये का मकान ढूँढें। उन्हें भी नहीं रहना 
						था गाँव में। उन्हें भी अपने बच्चों को पढ़ाना था अच्छे 
						स्कूलों में। उनके पिताओं ने उन्हें इसलिए नहीं ब्याहा था 
						इस खानदान में कि लउंडी या गोबरपथनी का काम करें।
 "ऐ परसीयवाली, तोर भागे फूटल।" छोटी चाची दोनों हाथों से 
						अपना माथा पकड़े हुए अपने कमरे की चौखट पर बैठ गई थीं और 
						विलाप कर रही थीं। जब गुस्से में होतीं तो वह खुद को 
						''परसीयावाली'' कहती थीं।
 "अरे बेटीफोरवनी कहीं की, तू क्या समझती है कि हम भी हाकिम 
						हैं।" बड़े चाचा हंकड़े और पति- पत्नी के बीच वाक्युद्ध 
						शुरू हो गया। गालियाँ वे एक-दूसरे को दे रहे थे, पर निशाना 
						माँ और पिता जी थे।
 
 इसी तरह की स्थिति जब पहले उत्पन्न हो जाया करती थी, पिता 
						जी विचलित होकर बाहर चले जाते थे। पर उस बार चाचा और चाची 
						लोगों की नौटंकी बेअसर सिद्ध हुई थी। पिता जी ने न खुद एक 
						शब्द कहा, न माँ को कहने दिया, पर कमरे से बाहर नहीं गए। 
						आँगन में मचे हल्ले से हमारा ध्यान हटाने के लिए इधर-उधर 
						की बातें करते रहे।
 पासा पलट गया था। गाँव के लोग अकचकाए हुए थे और खुश थे। 
						उन्हें खुशी थी कि हमारे घर में भी बँटवारे और बिखराव की 
						प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी। कुँवरपुर में जैसे ही किसी 
						घर में किसी की नौकरी लग जाती और उसके भेजे मनीऑर्डर से उस 
						घर की आर्थिक अवस्था में सुधार दृष्टिगोचर होने लगता, लोग 
						बेसब्री से इंतज़ार करने लगते बँटवारे का। कुँवरपुर को यह 
						देखकर मानो थोड़ी राहत मिलती कि कोई भी कहीं आगे नहीं जा 
						पा रहा था। सभी बदकिस्मती की उसी फटी-पुरानी रजाई में 
						दुबके हुए थे।
 
 गाँव के लोग समझते थे कि पिता जी के साथ मधुर संबंध बनाए 
						रखना अधिक फायदेमंद था। उनको अच्छी लगने वाली बातें कह रहे 
						थे। कह रहे थे कि पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनने से बाल-बच्चों 
						का ही भला नहीं हो तो भला किस काम का हुआ ऐसा बड़ा आदमी 
						बनना। चाचा लोगों की स्वार्थांधता की खिल्ली भी उड़ाई जा 
						रही थी कि कहाँ तो प्रेम के साथ विदा करते जाने वालों को, 
						उलटे पिता जी जैसे सज्जन आदमी को बदनाम करने पर तुले हुए 
						थे।
 "हम कहे थे कि नहीं कि खाली मुँहदेखल बतियाता है ई सब। 
						टेंगर सिंह हमेसा एक खल का बात करते हैं।" टेंगर सिंह खुश 
						थे।
 बुलाको फुआ भी वहीं थीं उन दिनों। प्रस्ताव लेकर आईं कि हम 
						लोगों के बहरा जाने का फैसला अगर अंतिम था तो अच्छा होता 
						कि चाचा लोगों के बेटे-बेटियों में से भी कोई एक हमारे साथ 
						जाता। परिवार की एकता अक्षुण्ण रहती। पिता जी को कोई आपत्ति 
						नहीं थी, पर माँ बुलाको फुआ को दूरवाले कोने में ले गईं और 
						प्यार तथा आदर के साथ समझाया कि उनका प्रस्ताव अच्छा था, 
						पर अव्यवहारिक था। उन्हें यह सलाह भी दी कि घर की बेटी का 
						घर के झगड़ों में पड़ना ठीक नहीं होता।
 
 बुलाको फुआ को माँ की बातें बुरी लगी थीं। पिता जी की ओर 
						देखा था। पिता जी दूसरी तरफ देख रहे थे। अपना पुआ जैसा 
						फूला हुआ मुँह लेकर बुलाको फुआ वापिस चली गई थीं।
 "सवेरेवाली गाड़ी से चले जाएँगे।"
 मैं आजी को चिढ़ाने के लिए गा रहा था। वह घूम-घूमकर कहती 
						चल रही थीं कि उनके हीरे जैसे बेटे को ''चितवदला'' खिला 
						दिया था माँ ने। मुझे बुरा लग रहा था उनका अनाप-शनाप बकना।
 "कुछ लेके जाएँगे, कुछ देके जाएँगे, सबेरेवाली।"
 "भाग बदमास कहीं का...पनी मतरीये पर चला गया है का रे!" 
						आजी गुस्साई थीं।
 "आजी, आपको चिट्ठी लिखेंगे वहाँ से।"
 "हमको तुम्हारे चिट्ठा-चिट्ठी का काम नहीं है।"
 "अच्छा, दूसरा गाना सुनिए...जा, जारे सुगना जारे, कहि दे 
						सजनवा से।"
 
 "लईका ई मतलब नहीं है कि जबान पर लगामे नहीं हो! " बुलाको 
						फुआ जोर-जोर से बोलने लगीं तो मैं भागा वहाँ से।
 पिता जी तीन दिनों बाद ही अपनी सरकारी जीप लेकर वापस आ गए 
						थे हमें ले जाने के लिए। जीप दुआर पा खड़ी हो गई थी। अपना 
						ही दुआर किसी बड़े आदमी के दुआर जैसा लगने लगा था। 
						ट्रैक्टर हमारे यहाँ था, पर जीप की बात ही अलग थी। पूरे 
						टोले के लड़के-लड़कियों का हुजूम जीप को घेरकर खड़ा हो गया 
						था। जीप में बैठने के लिए घिघिया रहे थे ड्राइवर के सामने। 
						ड्राइवर उन्हें जीप के पास से ऐसे खदेड़ता जैसे हलवाई 
						मिठाइयों पर से मक्खियाँ उड़ाते हैं। मेरे मन में भी बैठा 
						हुआ था यह डर कि ड्राइवर कहीं मुझे भी भगा न दे उसी तरह। 
						लेकिन मेरा डर निराधार था। गाँव के गदहिया गोल के साथ 
						रहते-खेलते हुए मैं भूल ही गया था कि मैं उनमें से ही एक 
						नहीं था! ड्राइवर ने मुझे ड्राइवरवाली सीट पर बिठा दिया और 
						समझाने लगा कि ब्रेक, क्लच, गियर, एक्सीलेटर वगैरह कहाँ 
						थे। मैंने दो-तीन बार हॉर्न भी बजाया। अपने खूँटों पर सानी 
						खाते बैल भी चौंककर जीप की और देखने लगे थे। पल्टू सिंह, 
						जो ट्रैक्टर चलाते थे, ने हिदायत दी कि ज्यादा हॉर्न 
						बजाने से बैटरी डाउन हो जाएगी। पर ड्राइवर ने उनकी हिदायत 
						को भी नाक पर भिनभिनाती मक्खी की तरह उड़ा दिया। कहा-जितना 
						चाहूँ, बजाऊँ।
 
 यह बात और है कि जीप खेलासराय पहुँचने के पहले ही खराब हो 
						गई थी। बीच सड़क पर ही पिता जी और ड्राइवर के बीच जोरों 
						की बकझक हो गई थी। पिता जी का कहना था कि जीप उसने 
						जान-बूझकर खराब की थी, उन्हें परेशान करने के लिए, क्यों 
						कि पिता जी दूसरों के ड्राइवरों की तरह ही उसे भी मरम्मती 
						के नाम पर फर्ज़ी बिल नहीं बनाने देते थे। और ड्राइवर कह 
						रहा था कि लोग सरकारी गाड़ियों को दौड़ाएँगे अपने गाँव और 
						ससुराल के खेतों-खुरहेंटियों में तो गाड़ी होगी ही खराब। 
						पर बाद में यह जान गया था मैं कि परियोजना के ड्राइवरों का 
						यह सबसे अचूक हथियार था अपने अधिकारियों को उनकी औकात 
						बताने का - ऐन वक्त पर खराब कर दो गाड़ी। कॉलोनी के गेट पर 
						चर्चा करते अपनी विजय-गाथाओं की। जो विकास राय जैसे खुलकर 
						कमाने वाले और व्यवहारिक तबियत के अधिकारी थे, इस समस्या 
						से निबटने के लिए अपने ड्राइवरों को भी लूट की राशि से 
						उनका वांछित हिस्सा दे दिया करते- गाड़ी को दुहना बंद करो! 
						लटक जाओ तुम भी परियोजना की एक छाती पकड़कर! पर पिता जी 
						चूँकि इतने ही व्यवहारिक आदमी नहीं हुआ करते थे उन दिनों, 
						उनकी गाड़ी प्राय: खड़ी हो जाती बीच रास्ते। बिना ठेले हुए 
						उसका स्टार्ट हो जाना तो एक सुखद आश्चर्य होता- उस दिन 
						निश्चित रूप से ड्राइवर को कहीं से कोई नजराना मिल गया 
						होता या गाड़ी मरम्मती का कोई बिल पास हुआ होता।
 
 "दस मन धान तौलिएगा तो दस किलो जियान होइबे करेगा!" 
						ड्राइवर, जिसका नाम राधाकृष्ण था, कहता, "अब इसी डर से कोई 
						धान का बिजनेस बंद कर दें तो क्या कहिएगा?"
 "दस की जगह नौ किलो ही बरबाद हो, इसका खयाल रखने में खराबी 
						है कोई?" यासीन पूछता।
 "नहीं रे भाई, ई बतिए नहीं है। बात है कि हाथी रखने का हूब 
						सबमें नहीं होता।" राधाकृष्ण अवज्ञापूर्वक कहता।
 काफ़ी कोशिशों के बाद उसकी बदली करा पाए थे पिता जी और तब 
						थोड़ा सुधार हुआ था स्थिति में।
 टोले के बालबृंद हसरत-भरी निगाहों से देख रहे थे मुझे 
						स्टीयरिंग को हिलाते-डुलाते हुए। उन्हीं के साथ छोटे चाचा 
						के बेटे सुरेश भइया भी खड़े थे। मैंने ड्राइवर से कहा कि 
						उन्हें भी बैठने दे। मैं चाहता था कि सुरेश भइया मेरे साथ 
						आगेवाली सीट पर बैठें। लेकिन ड्राइवर ने उन्हें पीछेवाली 
						बेंचनुमा सीट पर बिठा दिया। कहा कि आगेवाली सीट केवल साहब 
						और उनके परिवारवालों के लिए थी। मैंने समझाना चाहा था उसे 
						कि सुरेश भइया भी हमारे ही घर के थे, पर उसने अपनी राय में 
						संशोधन की जरूरत नहीं समझी। संभवत: मेरी आँखें जब केवल 
						वर्तमान पर टिकी हुई थीं, वह भविष्य को देख पा रहा था।
 
 "एकदम सोरहो आना ठीक काम हुआ है, अलख भाई...इस गाँव में 
						औरत सब पर बहुत जुल्म हो रहा है। टेंगर सिंह सब देखते हैं, 
						कोई बात हुआ कि खैनी का पत्ता चला जाए और चुनौटी रह जाए!"
 टेंगर सिंह जीप में बैठकर गाँव के सीबान तक आए थे हमारे 
						साथ।
 "भाई इंजीनियर है तो गाड़ी पर घुमाया कि नहीं!" खनकती हुई 
						खुशी टेंगर सिंह की। उन्हें सीबान पर उतारकर जीप खेलासराय 
						के लिए चल दी थी।
 माँ खुश थीं। आई॰बी॰ के स्प्रिंगवाले सोफे पर बैठीं, याद 
						करतीं कि कितना जहरीला लगता था, जब आजी या चाचियों में से 
						कोई कह देता था- ''मुँह नहीं देखी हैं अपना। बहरा 
						जाएँगी!''
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