पितरों की पूजा को भारत के
लौकिक और सामाजिक कृत्यों में विशिष्ठतम स्थान प्राप्त है।
उसके इसी महत्व के कारण वर्ष का एक
पूरा पखवाड़ा उनके अर्घ्यार्थ समर्पित किया गया है।
लेकिन पितर-पूजा की प्रथा मात्र भारत में सीमित हो, ऐसा भी
नहीं है। दूसरे देशों में भी उसका प्रचुर प्रचलन है।
अमावस्या भारतीय पितरों
की सर्वाधिक प्रिय तिथि है, और उस तिथि-विशेष को इतना
महत्व क्यों दिया गया है इसकी भी एक मनोरंजक गाथा है।
कहते हैं, एक समय सोमपथ नामक स्थान में मरीचि के
पुत्र अग्निष्वात्त नामक देवता के पितरगण निवास करते थे।
कालांतर में वहीं पर अग्निष्वात्त की मानसी पुत्री अच्छोदा
ने एक बार हज़ारों बरस तक घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से
प्रसन्न होकर देवताओं के समान सुंदर और कांतिवान पितृगण
वरदान देने के लिए अच्छोदा के पास आए। सभी पितर युवा और
कामदेव के समान मन को मोहित करने वाले थे। उनके सौंदर्य और
रूप-बल से प्रभावित होकर अच्छोदा अमावसु नामक एक पितर पर
आसक्त हो उठी और वरदान में उसके साथ समागम करने की कामना
प्रकट की। लेकिन पितृगण के साथ इस प्रकार की कामेच्छा को
ध्यान में लाना ही एक महान अपराध था, और अमावसु ने तत्काल
ही अच्छोदा की याचना को ठुकराते हुए उसे शापित कर दिया।
परिणामत: अच्छोदा स्वर्ग से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरी।
जिस पुण्यतिथि को अमावसु ने अच्छोदा की काम-वासना को
अस्वीकृत करते हुए समागम की उसकी माँग को ठुकराया था वह
उसकी मर्यादा प्रियता के कारण उसी के नाम पर अमावस्या के
नाम से प्रसिद्ध हुई, और तब से हमारे पितरों की वह
सर्वाधिक प्रिय तिथि है।
अन्यान्य देशवासियों के
वंशज भी आज उनको उतनी ही श्रद्धा-भक्ति के साथ याद करते
हैं जैसे हम भारतवासी अपने पितरों को। अंतर केवल इतना है
कि हिंदू पुराणों के अनुसार जहाँ हमारे पूर्वजों के
निमित्त ऐसे विशेष लोक निर्मित हैं जहाँ के सुंदर सरोवरों
और मनोहर नदियों में वह देव-पुत्रों की तरह अपनी
केलि-क्रीड़ा में निमग्न रहते हैं, वहीं अन्य देशों के
पुरखे या तो पूरे साल निद्रादेवी की गोद में शयन करते हुए
स्वप्न-लोक का विचरण करते हैं, और या उन आमंत्रणों की
प्रतीक्षा में रत रहते हैं जिन्हें उनके वंशजों द्वारा साल
के किसी ख़ास मौके पर औपचारिक रूप से उनको प्रेषित किया
जाता है।
आपको यह जानकर आश्चर्य
होगा कि यूरोप के अधिकांश देशों में इस अवसर पर लोग अपने
घरों की सफ़ाई नहीं करते। उनकी धारणाओं के अनुसार ऐसा करने
से आगत आत्माओं को कष्ट होगा। साथ ही पितरों के आने की
खुशी में वहाँ सालकेक नामक एक मिष्ठान्न बनाने की प्रथा भी
है। वहाँ के लोगों का विश्वास है कि उसके खाने से परलोक
में रहने वाली मृतात्माओं को सुख और शांति की प्राप्ति
होती है। हर साल दो नवंबर को मनाया जाने वाला यह त्योहार
योरोप में उतनी ही श्रद्धा से संपन्न किया जाता है जिस तरह
भारत में पितृ-विसर्जन का पर्व। बेलजियम में उस दिन
मृतात्माओं की कब्रों पर दीपक जलाए जाते हैं। जर्मनी में
क़ब्रों की पुताई की जाती है, ज़मीन पर कोयला बिछा कर उस
पर लाल रंग के बेरों से चित्र बनाए जाते हैं और गेंदे के
फूलों और नारंगी की कलियों की मालिकाओं से उन कब्रें को
आच्छादित कर दिया जाता है। पूजा-पाठ करने की परंपरा को
यूरोप के प्राय: प्रत्येक अंचल में प्रचलित है। प्रात: आठ
बजे से ही यह क्रिया आरंभ हो जाती है और दोपहर होते-होते
सभी कब्रें रंगबिरंगे फूलों से भरी मिलती हैं। उस दिन
प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह अपेक्षित होता है कि खाद्यान्न
का एक बड़ा थाल वह अपने निकटवर्त्ती गिरजाघर में अनिवार्य
रूप से अर्पित करे। लोगों की मान्यता है कि ऐसा करने से वह
भोजपदार्थ मृतात्माओं तक पहुँच जाएँगे। इन थालों में
खाद्यपदार्थों के अतिरिक्त मदिरा और वस्त्रादि भी पर्याप्त
मात्रा में रहते हैं और मूलरूप से मात्र पितृगण को ही उसके
उपभोग का अधिकारी माना गया है। रात के समय अपने पितरों का
स्मरण करते हुए लोग रोते, गाते और नाचते हैं।
फ्रांस में गिरजाघर की
रात्रिकालीन प्रार्थना के समापन पर लोगों के लिए अपने
पितरों के संबंध में चर्चा-परिचर्चा करना आवश्यक माना जाता
है। बाद में वह अपने घरों के डाइनिंगरूम में एक नया सफ़ेद
वस्त्र बिछाकर शर्बत, दही और पक्वान्न आदि को उस पर सज्जित
करते हैं। पास ही किसी अंगीठी में लकड़ी का एक बड़ा कुंदा
भी जलने के लिए डाल दिया जाता है। तदुपरांत लोग शयन करने
चले जाते हैं, लेकिन थोड़े ही समय बाद पेशेवर लोगों के दल
ढोल और मृदंग आदि बजाते हुए उनको सोते से जगाते हैं,
मृतात्माओं की ओर से उनको आशीर्वाद देते हैं और पूर्व
वर्णित समस्त खाद्य सामग्री दल के मुखिया को अर्पित कर दी
जाती है।
एशिया के देशों में भी
पितृ-पूजा की यह प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित है और
प्राय: सभी स्थानों पर पितरों के आवाहन में विशेष कृत्य
संपन्न किए जाते हैं। जापान इस दिशा में सबसे आगे है। वहाँ
प्रति वर्ष अगस्त मास के प्रथम तीन दिन उल्लास और उत्साह
से भरपूर होते हैं। इस महोत्सव को जापान में दीपों के
त्योहार के नाम से अभिहित किया जाता है और उसके प्रतीक
स्वरूप उन दिनों वहाँ के नगर-नगर ग्राम-ग्राम में
प्रज्वलित असंख्य दीपों को देख कर सहज ही अपने देश की
दीपावली याद हो आती है। जापानियों की मान्यता है कि जब तक
पुरखों को वह रोशनी नहीं दिखाएँगे तब तक अपने वंशजों के
घरों की राह ढूँढ़ने में उन्हें कठिनाई होगी। इसीलिए उन
दिनों क़ब्रों के चारों ओर भी ऊंचे-ऊंचे बाँसों को गाड़ कर
उन पर रंगबिरंगी लालटेनें लटकाई जाती हैं, और उनके नीचे
मोमबत्तियों की मद्धिम रोशनी में बैठ कर लोग अपने पूर्वजों
का आवाहन करते हैं।
अपने आवासीय स्थलों पर भी
लोग इस प्रकार का प्रकाश करते हैं। नगर के चौराहों पर भी
लकड़ी के कुंदों को एकत्र कर उनको जलाया जाता है।
संध्यासमय वहाँ के निवासियों के दल के दल किसी पूर्व
निर्धारित स्थान पर एकत्र होकर अपने पूर्वजों की आत्माओं
का आवाहन करते हैं और सामूहिक रूप से उनसे प्रार्थना की
जाती है कि उस पुण्य अवसर पर अपने पुराने निवास को अपनी
पग-धूलि से पवित्र कर अपने वंशजों का आतिथ्य स्वीकार करते
हुए उन्हें अपने आशीर्वाद से अलंकृत करें। इसके उपरांत लोग
अपने घरों में वापस लौट आते हैं। वहां आमंत्रित आत्माओं के
स्वागत में तरह तरह के पकवान मेज़ पर सजाए जाते हैं, उनके
बैठने के लिए विशेष आसनों का प्रबंध किया जाता है, और फिर
उस कमरे को बंद कर अपने मित्रों और संबंधियों के पूर्वजों
की आत्माओं को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के उद्देश्य से वह
बाहर निकल आते हैं। इस तरह प्राय: सारी रात आपस की इस
मिला-भेंटी में व्यतीत हो जाती है। यह महोत्सव पूरे दो
दिनों तक उत्साह बहुलता के साथ चलता रहता है। तीसरी शाम
पुरखों की विदाई के उपलक्ष्य में पुन: सब जगह प्रकाश किया
जाता है, लकड़ियों की होली जलाई जाती है और पहले दिन की
तरह जुलूस बना कर लोग उन पुरखों की मृतात्माओं को जनपद की
सीमा के बाहर छोड़ आते हैं। लौटने पर बहुत से लोग अपने
घरों की छतों पर चढ़कर ईट और पत्थर आदि नीचे फेंकते हैं
जिससे मोह-मायावश अगर कोई आत्मा कहीं छिप कर बैठ गई हो तो
वह उनकी आवाज़ को सुन कर भाग जाए। रात होने पर छोटी-छोटी
नौकाओं में भर कर अनेक प्रकार के खाद्यपदार्थ समुद्र में
प्रवाहित करने की प्रथा भी वहाँ प्रचलित है, जिससे
मृतात्माओं को अपने लोक में वापस पहुँचकर कम से कम कुछ
दिनों तक तो भूखा न रहना पड़े।
अगर जापान में यह पर्व
हार्दिक उल्लास और उत्साह के साथ संपन्न किया जाता है तो
बर्मा - म्यानमार - में उसके सर्वथा उलटे तरीके से। उस दिन
सवेरे से रात तक लोगों के घरों में रोना-चिल्लाना अनवरतरूप
से जारी रहता है। वैसे परंपरानुसार इस शोक-समारोह में
मात्र उन्हीं लोगों को भाग लेने का अधिकार है जिनके
घर-परिवार में पिछले तीन बरसों की अवधि में कम से कम एक
व्यक्ति निश्चित रूप से मृत्यु को प्राप्त हुआ हो। बरमा
में यह त्योहार अगस्त मास के अंत या सितंबर के प्रारंभ में
मनाया जाता है और वहाँ भी इस अवसर पर विभिन्न प्रकार के
व्यंजन और वस्त्रों का दान किया जाता है। जब यह सब वस्तुएँ
करीने से किसी कमरे में सजा दी जाती हैं तो परिवार का
प्रमुख एक घंटी बजा कर इस बात का संकेत करता है कि आसपास
जितने लोग उपस्थित हों वह सब अपने सिरों को पीटते हुए रोना
प्रारंभ कर दें। अपने पितरों को संबोधित करते हुए सामूहिक
रूप से वह जो प्रार्थना करते हैं उसका आशय होता है - आपने
हमारे पास आने का जो अनुग्रह किया है उसे व्यक्त करने के
लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं। निश्चित ही रास्ते भर
वर्षा आपको परेशान करती रही होगी और आपके वस्त्र भीग गए
होंगे। तो स्वीकार कीजिए यह नए आभरण। अपने परिजनों के साथ
इनका उपयोग कीजिए और फिर अपने समस्त मित्रों, सहचरों और
संबंधियों के साथ हमारे आतिथ्य को स्वीकार करते हुए हमारे
द्वारा तैयार किए गए खानपान से अपने को तृप्त और तुष्ट
कीजिए। इस निवेदन के उपरांत उस खाद्यान्न और वस्त्राभूषणों
को एक टोकरी में भर कर रख दिया जाता है, और दूसरे दिन वह
सामग्री ग़रीबों के बीच वितरित कर दी जाती है।
वैसे अमरीका के
रेड-इंडियन अपने पितरों के त्योहार को जिस अनोखी और सर्वथा
सार्थक विधि से संपन्न करते हैं वह अपूर्व है। उनके यहाँ
यह उत्सव फरवरी मास में मनाया जाता है और लगातार कई दिनों
तक चलता रहता है। आमिष भोजन उन दिनों वहाँ पूरी तरह
निषिद्ध है। परंपरानुसार उस अवधि में बारी-बारी से
प्रत्येक जनपद के निवासी अन्यान्य जनपदवासियों के अतिथि
होते हैं। वह लोग अपने शरीर को तरह तरह के रंगों से आवृत्त
कर पक्षियों के विभिन्न पंखों से अपनी रूपसजा करते हैं, और
नए तरह के वस्त्राभूषणों से सज्जित होकर नाचते, गाते और
विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाते हुए अपने पड़ोसी गाँवों में
पहुँचते हैं। यह प्रयाण आमतौर पर रात के समय ही किया जाता
है। उस प्रयाण में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक व्यक्ति के
हाथ में चीड़ की जलती हुई लकड़ियों की मशालें रहती हैं,
जिससे आतिथेयों को उनके आने की सूचना अग्रिम रूप से सुलभ
हो सके। इस प्रकार प्रत्येक जनपद के वासी दूसरे
जनपदवासियों को परस्पर अपने पुरखों का प्रतिनिधि समझते हैं
और भेंट होने पर आपस में लिपट-लिपट कर खूब रोते-धोते हैं।
फिर उनके स्वागत में सहभोज आयोजित किया जाता है जिसमें
विभिन्न प्रकार के शाकाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं। बाद
में नृत्य और संगीत के विविध कार्यक्रम संयोजित किए जाते
हैं ओर इस प्रकार तन-मन से पूरी तरह तृप्त होने के उपरांत
अतिथिगण अपने गाँवों को वापस लौट जाते हैं।
संसार के अन्यान्य भागों
में भी किसी न किसी रूप में पुरखों के श्राद्ध का प्रचलन
है, और तत्संबंधित कृत्य वहाँ बहुत महत्वपूर्ण समझे जाते
हैं। अफ्रीका, अनाम, सुंबा और दक्षिण-एशिया के अनेक अंचलों
में यह उत्सव बहुत समारोहपूर्वक
संपन्न
किया जाता है। यहाँ तक कि उत्तरी ध्रुव के निवासी भी एक
विशिष्ट अवसर पर अपने पुरखों का आवाहन करते हैं, और तब वह
मन भर कर नाचते, गाते और मौज मनाते हैं।
९ अक्तूबर
२००७ |