ब्रज की संस्कृति निराली है
और साहित्य अनूठा है। स्वभाव से ब्रजवासी अत्यंत विनम्र और
मधुर होते हैं और ऐसी ही होती है उनकी संस्कृति, उनकी भाषा
और उनका व्यवहार। श्रावण मस्ती का महीना है। धरती ने जब
हरी साड़ी पहन ली तो किस नवयौवना का मन नहीं मचल उठेगा।
आकाश में उमड़ते, घुमड़ते और गरजते बादलों में अनेक प्रकार
की भावनाएँ प्रकट होती हैं। सावन के महीने में नवविवाहित
महिलाओं को अपने मायके जाने की परंपरा ब्रज क्षेत्र की
संस्कृति में अधिक परिलक्षित होती है, जो आज भी अनवरत रूप
से चली आ रही है। इसलिए सावन के महीने में ब्रज क्षेत्र के
घर-घर और गली-मोहल्लों में झूले पर झूलती हुई अविवाहित
कुमारियाँ अपने माता-पिता और सगे-संबंधियों से यह आग्रह
करती हैं कि उनका विवाह कहीं पास के गाँव में ही किया जाय,
न कि कहीं ज़्यादा दूर के गाँव में, अन्यथा कहीं ऐसा न हो
कि उसके माता-पिता और रिश्तेदार सावन के महीने में उसे
अपने घर बुला भी न पाएँ। अपने इस आग्रह में साक्ष्य के रूप
में वे नीम की कच्ची निबौरी को भी ले लेती है -
कच्चे नीम की निबौरी, सावन
जल्दी अइयो रे
अम्मा दूर मत दीजौ, दादा नहीं बुलावेंगे
भाभी दूर मत दीजौ, भइया नहीं बुलावेंगे
झूले पर झूलती हुई इन
किशोरियों को देखकर उनके मन की उन्मुक्तता का अहसास होता
है। वह जामुन के पेड़ पर बैठी हुई चिड़ियों को देखकर अपने
मन के भाव प्रकट कर देती हैं और समवेत स्वर में गा उठती
हैं -
जामुन के पेड़ पै दो
चिड़ियाँ चूँ-चूँ करती जाएँ
वहाँ से निकले हमारे भइया, क्या-क्या सौदा लाए जी,
माँ को साड़ी, बाप को पगड़ी और लहरिया लाए जी
बहन की चुनरी भूल आए, सौ-सौ नाम धराए जी
बहन का भाई सभी के लिए सब
कुछ ले आए। भाभी के लिए लहरिया भी लाए हैं, परंतु बहिन के
लिए वह चुनरी नहीं ला पाए। बहिन को बुरा लगा, जो कि उक्त
लोकगीत में प्रकट होता है। बरसात के दिनों में सब कुछ
भीगता है- भाभी का लहरिया, भइया की टोपी, गोद में भतीजा,
सिर पर झूमर और गाड़ी का पहिया भी -
बारिस की बूँदों में भाभी
की लहरिया भीगेगो
गाड़ी का पहिया भीगे, भाभी का झूमर भीगे
भइया की टोपी भीगे, गोद में भतीजो भीगे
भीगे-भीगे शहर के लोग, लहरिया भीगेगो
परंतु इतना भीगना ही
पर्याप्त नहीं है। उमड़ते-घुमड़ते बादलों से यह आग्रह करती
हैं कि ये नवयुवतियाँ और झूले पर झोटे लेती, पेंग बढ़ाती
हुई ये महिलाएँ बादलों से बरस जाने का अनुरोध भी करती हैं
-
झुक जा रे बदरा, तू बरस
क्यों न जाए
बरसूँगा आधी-सी रात, तू सो क्यों न जाए
झूलों की यह बहार ब्रज के
क्षेत्र में हर गाँव, नगर में हर जगह नज़र आएगी। पास-पड़ोस
की सभी महिलाएँ अपनी-अपनी सहेलियों के साथ झुंड बनाकर घरों
में झूले डालती हैं अथवा घरों से बाहर बाग़-बग़ीचों में
पेड़ों पर झूले डालती हैं। रंग-बिरंगी वेशभूषा में उनका
दमकता सौंदर्य प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में और भी
मनमोहक लगता है। किशोरियों के इन समूहों में बरसात के
गीतों की एक प्रतिस्पर्धा-सी हो जाती है - सावन की गीतों
की एक होड़-सी लग जाती है। एक समूह एक गीत गाता है, तो
दूसरा समूह दूसरा गीत शुरू कर देता है। एक के बाद एक
निरंतर बरसाती गीतों का बहुत बड़ा मेला ब्रज के क्षेत्र
में सावन के महीने में लग जाता है। दिन भर और आधी रात तक
वहाँ सावन के गीतों की मधुर धुन गूँजती रहती है, झूलों के
झोटे चलते रहते हैं और झोटों की पींग बढ़ती रहती है।
इतना ही क्यों, भगवान
कृष्ण और राधा की रासभूमि पर सावन की बहार में स्वयं भगवान
भी झूलने का मोह संवरण नहीं कर पाते। सावन के दिनों में
ब्रज में रिमझिम-रिमझिम बरसात में भगवान राधा-कृष्ण को भी
झूलों पर झुलाया जाता है।
भगवान
के झूलों को हिंडोला कहते हैं। ब्रज के मंदिरों में विशेष
प्रकार के झूले डालकर और उनमें आराध्य देव की प्रतिमाओं को
बिठाकर झूला झुलाने की प्रथा यहाँ अनादिकाल से चली आ रही
है। सावन के महीने में मंदिरों में विभिन्न प्रकार की
झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भक्त गण भगवान के झूले की डोर
को खींचकर उन्हें झुलाने में स्वयं को कृतार्थ समझते हैं
और गा उठते हैं - ''सावन के झूले पड़े''।
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अगस्त 2007 |