विजयदशमी के अवसर
पर
विजय का वैदिक प्रतीक देवराज इंद्र
रामकृष्ण
भारतीय
संस्कृति तथा राष्ट्र के वर्तमान स्वरूप में उसके
पुराण-कालीन मान तथा आदशों का ही बाहुल्य देखने में
आता है। वैदिककालीन आदर्श या तो नष्ट हो चुके हैं और
या उनको पूरी तरह भुला दिया गया है। आज के सभी पर्वों
के आधार तथा उनकी प्रेरकशक्ति पौराणिक इतिहास में ही
निहित हैं। इसी से विजयादशमी के अवसर पर भगवान राम की
यशोगाथा का गान करते समय हम यह भूल जाते हैं कि वे
भारतीय विजिगीषा के बहुत पश्चवर्त्ती पौराणिक प्रतीक
हैं तथा उनसे भी पूर्व इस वीर-प्रसविनी की रत्नगर्भा
कोख से ऐसे महापुरुष जन्म ले चुके हैं जिन्होंने सुदूर
अंचलों में उसकी विजयश्री स्थापित की थी। आज हम एक ऐसे
ही पुरुष का पुण्य स्मरण कर रहे हैं जिन्होंने इतिहास
के कालप्रवाह में राम से बहुत पूर्व उत्पन्न होकर महान
हिमालय के शिखरों को प्रकाशमान किया था तथा उसकी तलहटी
में विकसित होने वाली संस्कृति की आद्य आधारशिलाएँ
रक्खी थीं।
वेदों में इन्द्र देवताओं की कोटि में आते हैं। उनकी
स्तुति में गाये गये मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है।
सम्पूर्ण संहिता में साढ़े तीन हज़ार के लगभग मंत्र
मात्र इन्द्र को समर्पित हैं। इन्द्र के बाद अग्नि,
सोम, अश्विन, वायु, वरुण, उषा, पूषा आदि के नाम आते
हैं। वेदों का दैवतवाद अभी मतभेद का विषय है। जिन
देवताओं की चर्चा उनमें है उनमें कौन मानवरूपधारी है
तथा कौन निसर्गशक्तिरूपी, यह निश्चित नहीं हो सका है।
फिर भी अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि इन्द्र,
रूद्र, मरुत, ऋभु, अश्विन, विष्णु आदि मानवरूपधारी देव
हैं तथा उनकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। अधिकांश मंत्रों
में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भाँति प्रकट होते
हैं, सोमपान में उनकी रुचि है तथा वार्तालाप करने
में भी वह पारंगत हैं। अनेक बार वह स्वयं अपनी तथा
अपने पक्ष की प्रशंसा करते हैं। अग्नि, सोम आदि देवगण
सोमपान तो करते हैं लेकिन बातचीत करते हुए उन्हें कभी
नहीं प्रस्तुत किया गया। इससे भी इन्द्र के मानव होने
की धारणा की पुष्टि होती है।
कुछ प्रसंग ऐसे भी हैं जिनमें इन्द्र मेघों के देवता
प्रतीत होते हैं। लेकिन इस कल्पना का कारण यह लगता है
कि इन्द्र पार्वत्य प्रदेश के निवासी थे और पर्वतों पर
ही मेघों का निर्माण होता है। इसलिये अपने मानवरूप के
साथ साथ वह समतलभूमि के वासियों को मेघों के बीच से
प्रकट होने वाली आधिदैविक शक्ति के रूप में भी दिखायी
देने लगे तथा वृत्र के साथ सम्पन्न उनके युद्ध को एक
रूपक की तरह मान कर उसे स्वीकार कर लिया गया।
वास्तविकता यह है कि वृत्र एक पराक्रमी राजा था तथा
संभवतः असीरिया का अधिपति था। पारसियों की अवेस्ता से
ज्ञात होता है कि वृत्र ने आर्यों पर आक्रमण किया था
तथा उन्हें पराजित करने के लिये अद्विशूर नामक देवी की
उपासना की थी। इसके परिणामस्वरूप इन्द्र से उसका भयंकर
युद्ध हुआ जिसमें अंततोगत्वा उसकी मृत्यु हुई। इन्द्र
के वीरतापूर्ण कार्यों में वृत्रासुर-वध अन्यतम है।
राम के द्वारा रावण की पराजय से इसकी तुलना की जा सकती
है। इन्द्र-वृत्रासुर युद्ध के संबंध में मैक्समूलर ने
कहा है कि होमर के इलियड में ट्राय-युद्ध की जो कल्पना
है वह भी इसी पर आधारित है। यूनान के जियॅस और ऑपोलो
नामक देवताओं की कथाएँ भी इससे बहुत मिलती जुलती हैं।
इससे पता चलता है कि तत्कालीन विश्व पर इन्द्र-वृत्र
युद्ध का कितना व्यापक प्रभाव पड़ा था।
इन्द्र का दूसरा महत्त्वपूर्ण युद्ध शम्बर से हुआ था।
कहा जाता है कि शम्बर ने निन्यानबे नगरों की रचना की थी, और
वह नगर अत्यंत समृद्ध तथा ऐश्वर्यशाली थे। इन्द्र का
जब उससे युद्ध हुआ तो उसकी समस्त पुरियाँ नष्ट हो
गयीं। इन्द्र ने सौवीं पुरी को अपने निवास के लिये रख
कर शेष सबको अपने वज्र से नष्ट कर दिया। इसी कारण
इन्द्र को पुरन्दर कहा जाने लगा। आधुनिक इतिहासकारों
की धारणा है कि हड़प्पा-मोहेंजोदाड़ो की नगर सभ्यता
इन्हीं असुरों की सभ्यता थी और उसी को इन्द्र ने नष्ट
किया होगा। उनकी यह भी मान्यता है कि वह असुर द्रविळ
जाति के थे, हालाँकि वेदों में कहीं भी उस जाति की
चर्चा नहीं मिलती।
ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के अठारहवें सूक्त में दाशराज्ञ
युद्ध की सुप्रसिद्ध कथा का विस्तृत विवरण है। इस
युद्ध में एक ओर सूर्यवंशी सुदास राजा थे तथा दूसरी ओर
अन्य दस नरेश। यह नरेश संभवतः आर्य नहीं थे, क्योंकि
उनके यज्ञ करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। सुदास के
सहायक तथा पुरोहित वसिष्ठ ऋषि थे, जिन्होंने अपने राजा
की सहायता करने के निमित्त इन्द्र का आवाहन किया था।
सुदास पहले बहुत साधारण और धनहीन व्यक्ति थे। वसिष्ठ
की ही कृपा से उनके दिन फिरे तथा इन्द्र ने उनकी
सहायता की...यह युद्ध परुष्णी - अर्थात रावी - नदी के
तट पर हुआ था। सुदास के शत्रुओं ने, जिनके नाम तुर्वश,
यक्थ, भलान, अलिन, विषाण, मत्स्य आदि बताये गये हैं,
परुष्णी के बाँध को तोड़ दिया था जिसकी वजह से उसका जल
चारों ओर बह कर समस्त भूप्रदेश को डुबाने लगा।
फलस्वरूप उनके साथ युद्ध करना पड़ा जिसमें प्रतिपक्ष के
छाछठ हज़ार से अधिक व्यक्ति मारे गय। अन्ततः उन लोगों
को इन्द्र का वर्चस्व स्वीकार करने के लिये बाध्य होना
पड़ा तथा एक विपुल अश्ववाहिनी इन्द्र को समर्पित कर
उनकी प्रतिष्ठा में उन्होंने वृद्धि की। कृष्णकालीन
महाभारत युद्ध से इस युद्ध की आसानी से तुलना की जा
सकती है।
इन तीन महायुद्धों के अतिरिक्त भी अनेक बार इन्द्र
युद्ध के मैदान में उतरे तथा उन्होंने आर्य संस्कृति
की पताका फहरायी। उन्होंने शरत नामक असुर की सात
पुरियों का विध्वंस किया, नमुचि का संहार किया और
सुश्रुवा को पराजित किया। सुश्रुवा के साथ बीस अन्य
राजा भी इन्द्र से लड़ने आये थे और उनकी सेना कुल मिला
कर ६०,०९९ व्यक्तियों की थी। इन्द्र ने सबको परास्त कर
दिया। शुष्ण और कुयव नामक राजाओं से भी इन्द्र का
युद्ध हुआ और उन्होंने उन दोनों का वध कर कुत्स की
रक्षा की। इसी प्रकार उन्होंने त्रसदस्यु और पुरु की
भी रक्षा की और दभीति के लिये दस्यु, चमुरि और धुनि का
संहार किया।
वैदिक काल में युद्ध-विद्या अत्यंत विकसित थी। सैनिकगण
घोड़े की सवारी करते थे और धनुष-वाण उन दिनों के
सर्वाधिक प्रचलित अस्त्र थे। पुराने काठों, पक्षियों
के पंखों तथा उज्ज्वल शिलाओं से वाणों का निर्माण किया
जाता था। वाणों की नोक पर लोहा लगा रहता था तथा उनको
ज़हर से बुझाया जाता था। प्रत्यंचा गो अथवा अन्य पशुओं
के चमड़े से निर्मित होती थी। तलवार तथा कटार का प्रयोग
भी प्रचलित था। दो धारों वाली तलवारें भी बनती थीं।
लोहे के कुठार होते थे तथा फरसे और मुगदरों का
इस्तेमाल भी किया जाता था। वेदों में पुराणकालीन
अलौकिक अस्त्रशस्त्रों, यथा ब्रह्मास्त्र,
आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र आदि का कहीं उल्लेख नहीं
मिलता। इन्द्र के आयुध का नाम हरिद्वर्ण था। रूद्र के
आयुध को हेति कहते थे। उस काल के रथों में सामान्यतः
सौ चक्के होते थे और छः घोड़ों द्वारा उनका परिचालन
किया जाता था। अनेक रथों पर आठ सारथियों के बैठने का
स्थान होता था। उन पर पताकाएँ फहराया करती थीं।
पाँच-पाँच सौ रथ एक साथ चला करते थे। इन्द्र के घोड़े
का नाम हरि और हाथी का नाम ऐरावत था। घोड़े एक दिन में
लगभग सौ किलोमीटर की यात्रा पूरी करते थे।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के सत्ताईसवें सूक्त में इन्द्र
ने अपने बल तथा पराक्रम का स्वयं वर्णन किया है। उस
सूक्त में उन्होंने कहा है कि वह केवल यज्ञकर्म-शून्य
व्यक्तियों का ही विनाश करते हैं। कोई भी यह नहीं कह
सकता कि उन्होंने कभी किसी सात्विक पुरुष का वध किया
है। स्वयं इन्द्र के ही शब्दों में -
मेरी वीरता की सभी प्रशंसा करते हैं और ऋषिगणों तक ने
मेरी स्तुति की है। युद्ध में कोई मुझे निरुद्ध नहीं
कर सकता, पर्वतों में भी इतनी शक्ति नहीं कि वह मेरा
रास्ता अवरुद्ध करने में सफल हो सकें। जब मैं शब्द
करता हूँ तो बहरे लोग भी काँपना शुरू कर देते हैं। जो
लोग मुझे नहीं मानते और मेरे लिये अर्पित सोमरस का पान
करने की घृष्ठता करते हैं उनको अपने वज्र से मैं
मृत्यु के घाट उतार देता हूँ।
ऋग्वेद के चौथे मण्डल के अठारहवें सूक्त से इन्द्र के
जन्म और जीवन का पता चलता है। उनकी माता का नाम अदिति
था। कहते हैं, इन्द्र अपनी मां के गर्भ में बहुत समय
तक रहे थे जिससे अदिति को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था।
लेकिन अधिक समय तक गर्भ में रहने की वजह से ही वह
अत्यधिक बलशाली और पराक्रमी हुए। जब इन्द्र ने जन्म
लिया तब कुषवा नामक राक्षसी ने उनको अपना ग्रास बनाने
की चेष्टा की थी, लेकिन इन्द्र ने सूतिकागृह में ही
उसको मार डाला। असुरराज पुलोमा की पुत्री शची इन्द्र
की पत्नी थी। उन्हें इन्द्राणी भी कहा जाता था। उनके
पुत्रों के नाम भी वेदों में अनेक स्थानों पर आये हैं।
इनमें से वसुक्त तथा वृषा ऋषि हुए तथा उन्होंने वैदिक
मंत्रों की रचना की। इनके रचे हुए सूक्त वेदों में
मिलते हैं। विष्णु, जो पौराणिक काल में स्वतंत्र देवता
हो गये, इन्द्र के सखा और संभवतः सेनापति थे। इन्द्र
के पुरोहित का नाम वृहस्पति था।
अनुमान होता है कि इन्द्र एक पद था तथा विभिन्न कालों
में विभिन्न व्यक्ति उस पर आसीन होते थे। इन्द्र के
निर्वाचन की पद्धति क्या थी इसका कुछ पता नहीं, लेकिन
जो भी व्यक्ति उस पद पर आरूढ़ हो जाता था उसके हाथ में
सर्वाच्च सत्ता आ जाती थी। इन्द्र के नाम से जो युद्ध
और कार्य वेदों में वर्णित मिलते हैं वह, संभव है, एक
ही इन्द्र नामधारी व्यक्ति द्वारा सम्पन्न न होकर
विभिन्न इन्द्रों द्वारा विभिन्न कालों में सम्पन्न
किये गये हों। जो भी हो, इतना निश्चित है कि इन्द्र
तत्कालीन आर्यराष्ट्र की विजिगीषा के प्रतीक थे और
प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कार्य उनके नेतृत्व में किया जाता
था। इसी से विजयादशमी के पावन पर्व पर भगवान राम के
साथ ही हम इन्द्र का भी स्मरण करते हुए उन्हें अपनी
श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
२२
अक्तूबर
२०१२ |